सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'हास्य और व्यंग्य : एक पुनर्विचार'

 

सेवाराम त्रिपाठी 



आमतौर पर व्यंग्य रचनाओं को हास्य से जोड़ कर देखने की परम्परा है। लेकिन यह सच नहीं है। व्यंग्य अलग है, हास्य रचना अलग। व्यंग्य रचनाएं गम्भीर होती हैं इसीलिए गहरे तक बेधती हैं। दूसरी तरफ हास्य रचनाएं हल्की होती हैं और तात्कालिक तौर पर मन में विनोद भाव पैदा करती हैं। इनका मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव नहीं पड़ता। तात्कालिकता हास्य की नियति होती है। सेवाराम त्रिपाठी ने व्यंग्य और हास्य के इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए इस पर विचार किया है। आइए आज पहली बार ब्लॉग पर पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'हास्य और व्यंग्य :  एक पुनर्विचार'।



'हास्य और व्यंग्य :  एक पुनर्विचार'



सेवाराम त्रिपाठी

          

   

हास्य और व्यंग्य को ले कर बहुत बड़ा घपला पाठकों के बीच भी है और तथाकथित व्यंग्यकारों की दुनिया के पास भी। वैसे कहा जाता है व्यंग्य, लेकिन उसमें हास्य ही हास्य धूम मचाता रहता है। जादू-टोना दिखाने वालों की भांति कुछ व्यंग्य-याफ्ता भी वहां अपना मजमा लगाए हुए हैं। हास्य, उपहास, परिहास, मज़ाक, मसखरी और हरक्की इसके कई रूप अनवरत प्रकट होते रहते हैं? तुलसीदास ने नारद के प्रसंग में एक अजीब किस्म के हास्य का रूप पैदा किया है। जैसे -


"पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं।

देखि दसा हर गण मुसकाहीं।।" 


मुझे लगता है हास्य और व्यंग्य दोनों ऑनलाइन हो गए हैं। वैसे लिखा व्यंग्य ही जाता है। हास्य अपने आप आ जाए यह अलग बात है। अब तो लोग उसमें अनुपातों की मिलावट में लगे हैं। आदमी तो क्या हमारी अस्मिता, आज़ादी और जनतंत्र तक ऑनलाइन हो चुका है? हास्य के इलाके होने के बावजूद हमारी  मुस्कान भी ऑनलाइन में फंस गई है। व्यंग्य लेखन मात्र मौन साधना नहीं है। आप कितने पानी में हैं। इसे साबित भी करना होता है। कुछ तो हास्य को ही व्यंग्य में धांध देते हैं। व्यंग्य में हास्य, हरक्की, विनोद, चुहलबाज़ी का प्रतिशत मिलाते हुए बड़ी शान-शौकत के साथ, मनभावन अदा के साथ घूमते-घामते रहते हैं और हवा में उड़ते रहते हैं। कहा भी जाता है उसका एक एरिया भी होता है। उसमें हंसी आती है और मनोरंजन होता है? जैसा परसाई जी ने लिखा है - "हास्य का उद्देश्य मनोरंजन होता है। पर इस हास्य में खोट, मैल, द्वेष नहीं होना चाहिए। लिखते समय किसी व्यक्ति, समूह या जाति के प्रति घृणा या द्वेष नहीं होना चाहिए।" (ऐसा भी सोचा जाता है, पृष्ठ -135)


         

कुछ महाशयों ने एक जबर्दस्त भ्रम पाल रखा है कि व्यंग्य में कुछ हास्य का पुट होना ही चाहिए। अन्यथा उसका उद्धार नहीं होता और उसे मुक्ति भी नहीं मिलती या उसकी कुछ छौंक लगा देने से वह मकरध्वज वटी की तरह सिद्ध हो जाता है। व्यंग्य लेखन की देखा-दिखाई चल रही है। तुरपम तुरपाई चल रही है। उसे चाहे जैसे हो हर हालत में सिद्ध किया जा रहा है। तथाकथित व्यंग्य की महान दुनिया के वाशिंदा भी इस तरह की जुगत भिड़ाने की तंत्र साधना की तमाम प्रक्रियाओं में हिलगे रहते हैं। और न जाने कहां-कहां सरकते हुए टिप-टाप ढंग से पताकाएं फहराते रहते हैं। मुश्किल से कुछ लोग ही इसे और इसकी हैसियत और असलियत को सही-सही समझ पाते हैं। वैसे हास्य-हास्य है, व्यंग्य-व्यंग्य है। इन दोनों में तात्विक रूप से चाहे जितना सहोदरत्व, भोजक-भोजकत्व व्यापार हो, रुतवा अलग है। इनमें चाहे जितना निजत्व और अपनत्व दिखाई पड़े लेकिन है इनमें पर्याप्त अंतर? इनकी भंगिमा और तासीर में ज़मीन आसमान का फ़र्क है। व्यंग्य बड़ा है और हास्य छोटा है- यह मान्यता भी बार-बार उभरती रही है। तमाम तरह के गाल बजते हैं  या बजाए जाते रहते हैं। सही ढंग से बोल दो तो लोग-बाग तरोई की तरह या मानिंद मुंह उरमा लेते हैं। जैसे कोई परम हितैषी इस दुनिया से कूच कर गया हो।

   

          

व्यावसायिक पत्रिकाओं ने दीवाली और होली के अवसर पर हास्य और व्यंग्य विशेषांक नामक ठुमका लगाते हुए प्रकाशित किए। जिसमें हँसी, चुहलबाज़ी, विनोद और मज़ाक को केंद्र में किया जाता रहा है। व्यंग्य लेखन को एकदम टहलुआ या भुरकुस बनाकर। जब बी. ए. में पढ़ रहा था तब से ही यह आलम देखता चला आ रहा हूं। कार्यालयों के किस्से, पति-पत्नी के बीच के चाहे-अनचाहे वार्तालाप और चुटकुले-जोक्स सामने आए हैं। प्रेमी और प्रेमिका की लंतरानियां उल्टी-सीधी-तिरछी हो कर वहां आवाजाही करती रहीं हैं। साली का कलेवर इलेक्ट्रिक ढंग से चढ़ाया जाता रहा है लेकिन सामाजिक सरोकारों, विसंगतियों- विरूपताओं-अंतर्विरोधों को ठीक ढंग से थाहने के प्रयास प्रायः कम हुए हैं और न जाने क्या-क्या गुल-गपाड़े सामने आए हैं। सब चलता है कि मुद्रा में। जैसे आज के दौर में जनतंत्र चलाया जा रहा है। उसी भांति व्यंग्य लेखन को लुगदी बना कर पेश किया जाता रहा है। था, है और अभी भी खुल्लम-खुल्ला है। 

  

  

हास्य-व्यंग्य को रूप की समानता में दोनों के गुण-धर्म में समानता नहीं चलानी चाहिए? न ऐसे प्रयास किए जाने चाहिए। व्यंग्य पर हास्य किसी भी तरह  सवारी  नहीं गांठ  सकता? व्यंग्य लेखन में सहज रूप से हास्य आ सकता है। उसका कोटा फिक्स करने की मुहिम ने उसे अधैर्यशील ही नहीं बल्कि गैर ज़िम्मेदार तक बना दिया है। दोनों यानी हास्य और व्यंग्य की तासीर में और दोनों के हेतुओं में बेहद अंतर है। जैसे थैले की चोट बानिन जानती है, उसी तरह व्यंग्य की असली चोट वही जानता है जिस पर व्यंग्य का भारी भरकम हथौड़ा पड़ा है। बिचारा हास्य ठहाके लगाता हुआ निकल भागता है। वैसे हास्य की भूमिका को किसी भी कीमत में अस्वीकार नहीं किया जा सकता? लेकिन व्यंग्य लेखन की ज़मीन और चितवन ही औरै कछू है? कितनी चकल्लस की परिक्रमाएं व्यंग्य को छान-घोंट रही हैं और कितने हंसगुल्लों की झड़ी लगी है। इस दौर में व्यंग्य लेखन में पुरस्कारों की ध्वजा पताकाएं फहरा रही हैं। व्यवस्था और प्रतिष्ठानों ने उसे अपनी गोद में ले लिया है? 

     


         

हम ज़माने की विडंबनाओं और विभीषिकाओं के आमने सामने हैं। समस्याएं निरंतर बैचेन कर रहीं हैं। विकृतियां बड़े-बड़े रूपाकारों में हैं। उनके बड़े-बड़े कट ऑउट हैं। उनसे हमारी  भिड़ंत गाहे बगाहे प्रतिदिन है। बिना बेचैन हुए जो व्यंग्य लेखन कर रहे हैं। वे इसकी हैसियत और असलियत क्या कभी जान- समझ पाएंगे? वे तो प्रशंसा के तिलिस्म और पोथन्ने में ही दुनिया झुका लेने के रहस्य लोक में भिड़े हुए हैं। किसकी आरती उतारने से उन्हें क्या मिल जाएगा। वहीं वे तरह-तरह की निसेनियां बनाने में जुटे रहते हैं? ताकि आकाशीय यात्राएं की जा सकें? जैसे भक्ति-कीर्तन, भजन-आरती का मार्केट है और हमारा समूचा जनतंत्र एक विशेष किस्म के लहालोट के ब्रांड एम्बेसडर के रूप में विकसित किया गया है। कुछ उसी तरह व्यंग्य लेखन में लीलाधारी और क्रीड़ाधारी कभी अंतर्धान होते हैं और कभी प्रकट। एक महामायावी संसार सजा है और कनखियों से गोली मारी जा रही है।


            

मैं अनुभव करता हूं कि हास्य हमारे जीवन में आ कर भारीपन को हल्का-फुल्का करता है? वह हमारा भरपूर मनोरंजन करता है। काका हाथरसी की कविताओं में यह गुण विद्यमान था। उसी धोखे और गफलत में कुछ महारथी पसर गए। इधर आयोजित हो रहे अधिकांश कवि सम्मेलन लगभग हास्य की ही विशेष रूप से क्षतिपूर्ति कर रहे हैं। कभी-कभी ही कुछ कविता तत्व संभव हो पाता है। अपने अपने विश्वास का मामला है। कवि सम्मेलनों में विश्वास सज रहा है? चुहलबाजी, छींटाकशी, वाह-वाह की फिजाएं सनसनाती रहती हैं। सुनते हुए लगने लगता है कि अपने को ही कूट लें। ऐसा नहीं है कि एकदम ही कुंडा गोल हो गया हो। राहत इंदौरी, फ़िराक गोरखपुरी को छोड़ दें। उसमें तरह-तरह के रस, कई तरह के रसों के रसिया कवि इन्हीं फिजाओँ में पैसा पीट रहे हैं। तरह-तरह के बाज़ार सजा संवार रहे हैं। नोंक झोंक के अलावा वहां कुछ मिलने का नहीं है बल्कि कोई कितना रुपया पैसा और शोहरत हासिल कर सकता है। कॉमेडी, हँसी, मज़ाक। इधर यू ट्यूब भी खुल गया है कि कर लो सब अपनी मुठ्ठी में। जो मन में आए उसे इसमें समेट लो। कुछ प्रकाशकों को सांट लो। कुछ को पटा कर किताबें छपवा लो और तने-तने घूमों और अकड़ दिखावो। कुछ संचालक ठेके पर कवि सम्मेलन और मुशायरे कराते भी अक्सर देखे जाते हैं। कुछ रचनाएं पाठ्यक्रमों में लगवा लो। कुछ पुरस्कार कबाड़ लो। अपने लेखन पर ही पी-एच. डी. करवा लो। कुछ गाँज लो कुछ गंजवा लो। व्यंग्य का भट्टा बिठवा दो। ये धत करम धड़ल्ले से इस्तेमाल किए जा रहे हैं?


         

जबकि व्यंग्य आड़ी तिरछी हर तरह की मार करता है। व्यंग्य सार्थक चीज़ है - वह विसंगति, विडंबना, विद्रूप और अन्यान्य अन्य चीज़ों को फोकस करता है। हास्य यदि आपको तटस्थ बनाता है, हल्का करता है तो व्यंग्य उसके बरक्स  हमेशा आपको चौकस और सचेष्ट करता है। हास्य भले ही फूहड़ या हंसोड़ बनाए, व्यंग्य सचेष्ट और हमें सर्तकता के अलावा मारक भी बनाता है और जांबाज भी। इसलिए हास्य-व्यंग्य लेखन की ज़मीन को, असलियत को और भूमिका को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।


              

हास्य या व्यंग्य से परहेज भले न किया जाए, दोनों के काम-धाम में, तासीर में और क्षमता में बुनियादी फ़र्क है। अगंभीर किस्म के सूरमाओं ने बहुत बारीकी से हास्य और व्यंग्य की मूल भूमिका और उद्देश्य को जबरन ओझल करते हुए दोनों में द्वैत का भी मुद्दा उठाया है। असहमति जताना हमारे जनतंत्र का लक्षण है, जिसका कचूमर निकाला जा रहा है। मेरा मानना है कि व्यंग्य को व्यंग्य ही रहने दिया जाए। उसे हास्य की चाशनी में डुबोने की कोशिश न की जाए। व्यंग्य मनोरंजन की चीज़ कतई नहीं है। वह आंखें भी खोलता है और दिशा भी देता है। आपकी समझ है तो दृष्टिकोण भी उभरते हैं। हां, तय करना पड़ता है कि हमारी असली ज़मीन कहां है? लेखक का स्टैंड क्या है? वह अपने दिमाग़ में कितना तहलका मचा सकता है।

         

       

आजकल  कुछ व्यंग्यकार भी धड़ल्ले से कहने लगे हैं कि फलान व्यंग्य पढ़ने में मजा आया। विनम्रता से कहना ज़रूरी है कि व्यंग्य किसी भी कीमत में मज़े की चीज़ है ही नहीं? कोई भी लेखक मज़े या आनंद के लिए नहीं लिखता। वह हमारे जीवन में, समय- समाज में व्याप्त विसंगतियों-अंतर्विरोधों, विकृतियों-विरूपताओं आदि को उजागर करने के लिए उनका पर्दाफाश करने और उसे चुस्त दुरुस्त करने के लिए  ही लिखता है। वह आपको भीतर तक खूंथ देता है। छलनी कर डालता है? भीतर तक ठोँक देता है। व्यंग्य न पंच मारने की चीज़ है और न जलवा छलकाने की दुनिया। वह क्रिकेट की तरह छक्का-छक्की नहीं जड़ता। वह खाल उधेड़ कर उसमें भूसा भर देता है। वह तो आपके अंतर्मन को पूरी तरह  हिला देता है और सारी चीज़ों को उजागर भी करता है। व्यंग्य बखिया भी उधेड़ता है। व्यंग्य उठता है और अनेकों को उठाता भी है। वह भ्रमों को तोड़ता भी है। और काहिली की खटिया खड़ी कर देता है। वह सत्ता और प्रतिष्ठानों की आरती-भजन-पूजन का कभी जरिया न था न हो सकता? और न आगे हो सकता? व्यंग्य की भूमिका बहुत जबरदस्त होती है?

      



     


व्यंग्य को सरस की श्रेणी में कभी नहीं लेना चाहिए। व्यंग्य  एक तरह की आग है। व्यंग्य लेखन आपको छलनी कर दिया करता है। उसे  हथेली में रखेंगे तो  हथेली को मजेदार और सरस न बना सकेगा। हथेली को ही जला देगा।व्यंग्य उस तरह का रस उत्पन्न नहीं करता है। जिसके लोग आदी बना दिए जाते हैं या बना दिए गए हैं। व्यंग्य अंतस तक को चीर देता है। किसी तरह का उदाहरण देने से व्यंग्य की उपयोगिता सिद्ध नहीं होगी, व्यंग्य जितना तेज़ और मारक है और उसमें समाज में घर कर रही विसंगतियों,  विद्रूपों-विकृतियों और अंतर्विरोधों को उजागर करने की जितनी शक्ति है उतनी और किसी में नहीं है? हमें इस बात को अनुभव करना चाहिए। व्यंग्य कोई पुछल्ला-पुछल्ली नहीं है। व्यंग्य लेखन शब्दों और भाषा का पंचांग और खेला नहीं है। वह आपके भीतर जलता है। उसमें जितनी आग है उतना धुंआ भी है। व्यंग्य लेखन आपको धुंधुआता रहता है। व्यंग्य गंभीर चीज़ है। व्यंग्य कोई लिखता है तो वह उसका निर्णय है। किसी ने उसके साथ कोई जोर जबरदश्ती नहीं की। वह लोकप्रियता की अंधेरी सुरंग तो कतई नहीं है?

             

   

हास्य का उद्देश्य शुद्ध मनोरंजन हो सकता है। हास-परिहास हो सकता है। हास्य हंसना भी सिखाता है और हमें उन्मुक्त भी करता है लेकिन व्यंग्य में तो ऐसा कतई नहीं हो सकता? उसकी मार चौतरफ़ा होती है। व्यंग्य में ध्वनित बहुत कुछ होता है। जितना कहा जाता है उससे सैकड़ों गुना से ज्यादा। व्यंग्य मुलायम नहीं कठोर होता है। रंजन उसका गुण नहीं है। उसमें कटाक्ष होता है, ह्यूमर होता है, विट होता है और आयरनी भी होती है। व्यंग्य  ने आपको हंसने की ताकत नहीं दी। वह तो तमाम मारकरता है और चोट करता है। भीतर तक आपको उद्वेलित करता है। अंदर तक छलनी कर देता है। व्यंग्य, क्रोध, कुरीतियों आदि को भीतर तक छेद देता है। व्यंग्य दोमुहेपन ही नहीं समूचे तंत्रों को तोड़ देता है। व्यंग्य लेखन को मैं एक तरह से बेरहम लेखन कहता हूं। वह हर प्रकार के मठ-मंदिर और संस्थानों को चकनाचूर करने की बखूबी क्षमता रखता है। बिना साहस के बिना अंदर की आग से जले, जो लिखना है लिखिए। इस मुकाम में आ कर खपच्चियां मत ठोंकिए। व्यंग्य में रचनात्मक  स्पूर्ति एवं ऊर्जा होती है लेकिन यह व्यंग्य की संरचना में से ही संभव  हो पाती है। व्यंग्य में आवेग एवं क्रियेटिव रचनात्मक उत्तेजना भी लगातार सक्रिय होती है। व्यंग्य किसी भी तरह निंदा नहीं है जैसा नासमझी में कुछ लोग मान बैठते हैं। व्यंग्य की लोकप्रियता में एक वेधकता और गंभीरता भी होती है। व्यंग्य  केवल ऊपरी थरथराहट भर नहीं है बल्कि बाहर भीतर दोनों ओर संवेदना से उठी हुई ताकत है। हरिशंकर  परसाई  ने एक उदाहरण दिया है- "कितनी कांवडें हैं -  राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में अंधे बैठे हैं और आँख वाले उन्हें ढो रहे हैं। अंधों में अजब काइयापन आ जाता है। वह खरे खोटे सिक्कों को पहचान लेता है।"          


      

हरिशंकर परसाई का एक प्रसिद्ध व्यंग्य है - 'अकाल उत्सव'। एकदम सदाबहार। उसकी कुछ पंक्तियां पेशे नज़र हैं- "देखता हूं कि अकाल-उत्सव के मूड में ढोलक बजा कर नाचते-गाते भूखे, अधमरे राजधानी में आ गए हैं और बड़ा भयकारी दृश्य मुझे दिखता है।.. किसी विधायक की टांग खा ली गई है। किसी मंत्री की नाक चबा ली गई है। किसी का कान! भीड़ बढ़ती जाती है। विधायक और मंत्रीगण भाग रहे हैं। एकाएक सैकड़ों जमाखोरों और मुनाफाखोरों को लोग पकड़ लाते हैं और उन्हें भून रहे हैं।कहते हैं -तुम्हारी भूख इतनी विकट है अपना ही भुना गोश्त खाए बिना तुम्हारा पेट नहीं भरेगा।" अभी कुछ समय  पहले श्रीलंका में क्या घटा? इसे किसी भी हालत में भूलना नहीं चाहिए। व्यंग्य लेखन बहुत गंभीर चीज़ है। उसे किसी भी सूरत में हंसी - मज़ाक न समझा जाए? व्यंग्य में जितनी करुणा होती है। उसमें उतनी ताक़त भी होती है। इसे हमें नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए। हास्य लिखते समय कोई खोट नहीं होती लेकिन व्यंग्य लेखन जितनी सुधार की मांग करता है। उतनी ही ताक़त से मठ और हर प्रकार के गढ़ तोड़ता है ढहाता है। निर्भीक निष्पक्ष हुए बिना व्यंग्य की असली दुनिया में  किसी भी तरह प्रवेश संभव नहीं है। व्यंग्य सामाजिक सांस्कृतिक चेतना का वाहक है। व्यंग्य अपना आत्मालोचन करता है उतना ही ज्यादा हमारी दृष्टि का विस्तार भी करता है। टुटपुंजिहे उसकी असलियत और औकात को किसी भी कीमत में पहचान ही नहीं सकते? हास्य और व्यंग्य लेखन पर भांति की भांति भ्रांतियां हैं। बार- बार हास्य और व्यंग्य लेखन ओछी मानसिकता से देखा जा रहा है। भीतर भीतर कई प्रकार के प्रश्न उमड़ते घुमड़ते रहे हैं। उनकी वजह से हास्य-व्यंग्य पर  विचार और पुनर्विचार करने का मेरा मनोविज्ञान बना। और कुछ बिंदुओं की ओर ध्यान आकर्षित हुआ। अन्यथा हास्य व्यंग्य का राम रगड़ा चलता रहता?


    

सम्पर्क 


रजनीगंधा 06, 

शिल्पी उपवन, 

अनंतपुर, रीवा (म. प्र.)

486002




मोबाइल 7987921206

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'