श्रीविलास सिंह की कहानी 'रुका हुआ प्रस्थान'

 

श्रीविलास सिंह

 

रिश्ते सामाजिक संबंधों को मजबूत ही नहीं बनाते, बल्कि उसे ताजगी प्रदान करते रहते हैं। हालांकि समय के साथ रिश्ते भी परिवर्तनशील होते हैं और टूटते जुड़ते रहते हैं, लेकिन ये जैसे भी होते हैं, जिंदगी को हमेशा उसका अर्थ प्रदान करते रहते हैं। श्रीवीलास सिंह की ख्याति एक ऐसे उम्दा अनुवादक की है जो विश्व के अचर्चित लेकिन महत्त्वपूर्ण रचनाकारों की रचनाओं से हमें निरन्तर परिचित कराते रहे हैं। उनका प्रवाहपूर्ण अनुवाद खुद इस बात की तरफ इंगित करता रहता है कि उनके अन्दर एक रचनाकार छिपा हुआ है। वस्तुतः वे स्वयं एक बेहतरीन रचनाकार हैं। आइए आज 'पहली बार' ब्लॉग पर पढ़ते हैं श्रीविलास सिंह की कहानी 'रुका हुआ प्रस्थान'।



'रुका हुआ प्रस्थान'


 

श्रीविलास सिंह


 

घड़ी की सूइयाँ अपनी गति से चल रही थी पर आज उसे बार बार भ्रम हो रहा था कि घड़ी शायद धीमे चल रही है। वह कितनी देर से पांच बजने का इंतजार कर रहा है लेकिन आज पांच बजने में कुछ ज्यादा ही समय लग रहा है। वह दो तीन बार अपने फ्लैट से नीचे उतर कर टहल भी आया है और एक दो लोगों से समय भी पूछ चुका है। घड़ी के अलावा मोबाइल में भी समय देख चुका है फिर भी यह एहसास बना हुआ है कि आज समय धीरे धीरे बीत रहा है। उसकी यह आदत आज की नहीं बचपन की ही है। उससे किसी चीज का इंतजार नहीं होता। पहले तो किसी की प्रतीक्षा करते उसे बेचैनी सी होने लगती थी और वह जिसकी प्रतीक्षा कर रहा होता था उसके बारे में उसके मन में तमाम तरह की अनहोनी के विचार आने लगते थे। पर अब उसने अपनी इस आदत पर काफी हद तक काबू पा लिया है। लेकिन आज बात कुछ अलग थी। आज पहली बार अलका उसके फ्लैट पर आ रही थी। ठीक पांच बजे। यही समय बताया था उसने। और पिछले पांच घंटो से उसे पांच बजने की प्रतीक्षा थी। उसने एक बार फिर दीवार पर लटकी घड़ी पर नजर डाली। समय का पेंडुलम अपनी गति से दाएँ बाएँ दोलित था और घड़ी चार बजे का समय दिखा रही थी। उसने एक लंबी सांस ली।


अलका उसके ही ऑफ़िस में काम करती थी। उस मल्टीनेशनल कंपनी में वह भी उसी की तरह साफ्टवेयर इंजीनियर थी। वे दोनों लगभग दो वर्षों से एक साथ काम कर रहे थे। यद्यपि वह उससे सीनियर था लेकिन उनमें अच्छी मित्रता थी। वह उसे शुरू से ही अच्छी लगती थी। यद्यपि उसे उससे ठीक से परिचय पाने और बातचीत करने में ही छः महीने लग गए थे। अलका कुछ कुछ अपने में ही खोई सी रहने वाली लड़की थी। वे कभी कभार ऑफिस के बाद साथ साथ कहीं कुछ हल्का फुल्का खाने या क़ॉफ़ी पीने चले जाते थे। लेकिन यह पहला अवसर था जब उसने आज छुट्टी के दिन अलका को अपने फ्लैट पर आमंत्रित किया था और उसने आना स्वीकार भी कर लिया था। पहले तो उसे डर लगता था कि कहीं वह बुरा न मान जाए। पर अलका ने बुरा नहीं माना था। उसने घड़ी फिर देखी अभी घड़ी सिर्फ दस मिनट आगे बढ़ी थी। उसने एक सिगरेट सुलगाई। एक लंबा कश लेने के बाद उसे कुछ राहत सी मिली। वह बालकनी में टहलने लगा। 


उसे इस कंपनी में काम करते हुए तीन साल हो गए थे। इसके पहले वह एक दूसरी कंपनी में दो वर्ष काम कर चुका था। अलका ने यहां उसके एक साल बाद काम करना शुरू किया था । यह उसकी पहली जॉब थी। वह सुंदर होने के साथ ही समझदार और सुलझी हुई लड़की थी। बस अपने काम से काम रखने वाली। लड़कियों की गॉशिप पार्टी की भी वह मेम्बर नहीं थी। पता नहीं क्या बात थी कि उसे अलका में दुनिया भर की ख़ूबियाँ नजर आती थी जबकि वह अपने पहनावे और सज-धज के हिसाब से बहुत साधारण और सादा तरीके से रहती थी। ऑफिस की पार्टियों में भी कम ही भाग लेती थी। शायद इन्ही बातों से वह और लड़कियों से अलग लगती हो, उसने सोचा। उसने खत्म हो चुकी सिगरेट को एक गमले में मसल दिया और घड़ी देखी। साढ़े चार, उफ़।


उसे बालकनी में चहलकदमी करते काफी समय हो गया था। एकदम ठीक ठीक कहें तो पचास मिनट। पांच बज रहे थे। अभी तक उसके फ्लैट की काल-बेल नहीं बजी थी। उसका मन हुआ कि बाहर जा कर देखना चाहिए। फिर उसे अपने आप पर ही हँसी आ गयी। दो चार मिनट तो देर हो ही सकती है। लेकिन यह दो चार मिनट बड़े जानलेवा होते हैं। हाँ ना के बाद आखिर उसने बाहर जा कर देखने का निश्चय किया। उसी समय उसके फ्लैट की घंटी बजी। उसने अपने को मुश्किल से दौड़ने से रोका। उसे अपने बचकानेपन पर फिर हँसी आयी। उसने एक बार अपने को आईने में देखा और जा कर दरवाज़ा खोला। सामने अलका ही थी।

"हाय रजत" अलका ने कहा।

"वेलकम, आपका मेरे गरीबखाने में स्वागत है।" रजत ने थोड़ा नाटकीय होते हुए कहा। फिर दोनों हँसने लगे।


इसके पहले कि वे बैठते रजत अलका को अपना फ्लैट दिखाने लगा। दो बेडरूम का यह छोटा सा फ्लैट रजत ने खूबसूरती से सजा रखा था। अलका की आँखों मे रजत की सुरुचि के प्रति प्रशंसा के भाव थे। वे आ कर ड्राइंगरूम में बैठ गए थे। रजत ने अलका से कुछ पीने के बारे में पूछा। फिर वे दोनों जूस पीते हुए दुनिया जहान की बातें करने लगे। एकाएक रजत ने अलका से उसकी शादी के बारे में पूछ लिया। लेकिन अलका ने उसकी बात को टाल सा दिया और कुछ और बात करने लगी।

 

"तुमने शादी के बारे में कुछ नहीं बताया।" रजत ने फिर अपना प्रश्न दोहराया।

 

"क्या जानना चाहते हो?" अलका ने प्रतिप्रश्न किया।

 

"यही कि शादी के बारे में तुम्हारा क्या विचार है। कब तक शादी करने की योजना है?" रजत ने कहा।

"बड़ी लंबी कहानी पूछ ली तुमने। मुझे पता था किसी दिन इस प्रश्न का सामना करना ही पड़ेगा।" अलका ने एक लंबी सांस ली।

"लेकिन मैंने ऐसी कौन सी अजीब बात पूछ ली है?" रजत ने तनिक आश्चर्य से कहा।

"प्रश्न अजीब नहीं होते। लेकिन उनके उत्तर कभी कभी अजीब होते हैं।" अलका ने किसी दार्शनिक की भांति कहा।

"मैडम के उत्तर में क्या अजीब है, मैं भी तो सुनूं।" रजत ने थोड़ा मजाकिया लहज़े में कहा।

"मेरी शादी हो चुकी है रजत।" अलका ने बम सा फोड़ा।

 

"लेकिन…. तुम ने कभी बताया नहीं।" रजत की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे। एकदम से न जाने क्यों उसका भीतर से रोने का मन करने लगा था पर वह नार्मल लगने की कोशिश कर रहा था।

 

"लेकिन इसमें बताने जैसी क्या बात थी? और फिर कभी बात भी तो नहीं चली। आज तुमने पूछा तो मैंने बता दिया।" अलका ने कहा। एकाएक उसकी नज़रें रजत की आँखों पर पड़ी। उसके दिल का हाल उसकी आँखों में लिखा हुआ था। पीड़ा की एक लहर आँखों में झिलमिला रही थी। अलका को समझते देर न लगी। कुछ तो उसे पहले से ही अंदेशा था और बाकी की कहानी वे आँखें कह रहीं थी जहाँ पर्दे के पीछे से रजत का हृदय पिघल कर बह निकलने को आकुल था।

 

"लेकिन तुम्हारे हसबैंड…?" रजत ने किसी तरह अपने को संभालते हुए पूछा।


"यह एक लंबी कहानी है। जब मैं आठवीं में थी तभी मेरी शादी हो गयी थी। विदाई पांच साल बाद होनी थी। लेकिन इसी बीच मेरे पिता जी की मौत हो जाने से विदाई टल गयी। बाद में उन लोगों ने दहेज़ के लालच में दूसरी जगह शादी कर ली। पिता जी की बीमारी और मौत के बाद हमारे पास तो उन्हें देने को था भी क्या?" अलका ने बताया। रजत को लगा उसका दिल जिसे कुछ देर पहले किसी ने फौलादी मुट्ठी में जकड़ लिया था, एकाएक उस जकड़न से मुक्त हो गया हो। 

 


 


"फिर…. फिर तो तुम्हारी उससे शादी वैसे ही समाप्त हो गयी।" रजत की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे। अलका की शादी की बात से उसे ऐसा झटका लगा था कि वह अभी तक उससे ठीक से उबर नहीं पाया था।


"बात इतनी ही आसान होती तो फिर क्या बात थी। तीन साल पहले मेरे पति की दूसरी पत्नी की मौत हो गयी थी। मेरे पति को मेरी याद फिर भी नहीं आयी। लेकिन डेढ़ साल पहले जब यह पता चला कि उन्हें एड्स है, उनके घर वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया। जब कहीं शरण नहीं मिली तो वे हमारे यहाँ चले आये। माँ और भाई तो उन्हें एक मिनट भी घर में नहीं रखना चाहते थे लेकिन मैंने ही उन्हें घर के बाहर वाले कमरे में रहने की इजाज़त दे दी। भले कोई संबंध न रहा हो पर उस आदमी से कभी मेरी शादी हुई थी।" अलका ने कहा और एक लंबी सांस ली। वे दोनों देर तक शून्य में देखते बैठे रहे। हमारे बीच मौन पसरा हुआ था।


"अब वे कैसे हैं?" एकाएक रजत ने मौन भंग किया।


"उन्हें एड्स के साथ ही लिवर की गंभीर बीमारी है। डॉक्टर कहते हैं ज्यादा दिन नहीं बचेंगे।" अलका ने कहा। उसकी आवाज़ कहीं वीराने से आती हुई लग रही थी। "अजीब सी बात है जिसके साथ कभी पत्नी की तरह नहीं रही उसके मरने पर मैं विधवा हो जाऊंगी।" अलका की आवाज़ में उसकी परिस्थितियों की विद्रूपता झाँक रही थी।


"लेकिन जब अब कोई संबंध नहीं हैं तो तुम उनके इलाज की व्यवस्था भले करो पर उनसे तलाक तो ले ही सकती हो।" रजत ने थोड़ी दुनियादारी से कहा।


"यूँ तो हमें उन्हें अपने पास रखने की भी कोई मजबूरी नहीं थी लेकिन दिल हमेशा सीधी रेखा में कहाँ सोचता है रजत। अब एक मरते हुए आदमी से किस मुँह से तलाक मांगूँ।" अलका की आवाज़ थोड़ी भारी हो गयी थी।


"मैं जानती हूँ रजत कि तुम मुझसे शादी करना चाहते हो। लेकिन सब की परिस्थितियाँ अलग होती हैं। तुम क्यों मेरी परिस्थितियों में उलझ कर परेशान रहो। तुम किसी और अच्छी लड़की से शादी कर सकते हो। हम अच्छे दोस्त हैं, हमेशा अच्छे दोस्त रहेंगे।" एकाएक अलका ने कहा।


"तुम्हें शायद महान बनने की बीमारी है।" रजत की आवाज़ में कुछ रोष था।


"तो क्या हम शादी करने के लिए किसी के मरने की प्रतीक्षा करते रहेंगे?" अलका ने कहा।


"मैं तुम्हारे लिए दुनिया के खत्म होने तक प्रतीक्षा कर सकता हूँ।" रजत ने कहा। उसकी आवाज़ में अलग तरह की दृढ़ता थी।


"एक बार फिर सोच लो रजत।" अलका ने कहा।


"मैंने सोच लिया है। अब सोचना तो तुम्हें है।" रजत ने उसी दृढ़ता से कहा।


"मेरे लिए तो दुनिया की सारी ख़ुशियाँ चल कर मेरे द्वार तक आयी हैं पर मेरी समझ मे नहीं आ रहा मैं उन्हें कैसे समेटूं? "अलका की आवाज़ भर्रा सी गयी। वह अपनी पलकों के कोरों तक आये आंसुओं को रोकने की कोशिश कर रही थी।


"उन्हें बाद में समेटना। पहले आओ भूख का कुछ इंतज़ाम करते हैं।" रजत ने उसका हाथ पकड़ कर उठाते हुए कहा। अलका के लिए अपने आंसुओं को रोकना एकदम से मुश्किल हो रहा था। एकाएक उसने रजत के सीने से लिपट उसके कंधे पर सिर रख दिया। आँसू की गर्म बूंदें रजत की कमीज़ भिगो रहीं थी। वह धीरे धीरे उसकी पीठ सहला रहा था।


इस बात को लगभग बीस दिन हो गए थे। इस दौरान रजत और अलका रोज ही मिलते थे लेकिन रजत जानबूझ कर उस दिन की बातों का जिक्र अलका से नहीं करना चाहता था। आज छुट्टी थी। रजत देर से बालकनी में बैठा उन्ही बातों के बारे में सोच रहा था। एकाएक फ्लैट की काल-बेल की आवाज़ ने उसे उसकी सोच से बाहर निकाला। उसने जा कर दरवाज़ा खोला। सामने एक पैंतीस अड़तीस साल का आदमी खड़ा था। हालांकि वह अपनी उम्र से दूनी उम्र का लग रहा था और अरसे से बीमार भी। रजत ने उसकी ओर प्रश्नवाचक नज़रों से देखना।


"मैं रमेश….। अलका का पति" उस आदमी ने कमजोर सी आवाज़ में कहा।


"यहाँ क्यों आये हो?" रजत ने थोड़े रूखेपन से कहा।


"क्या हम बैठ कर बात कर सकते हैं? मुझे खड़े होने में कमज़ोरी सी लग रही है।" रमेश ने कहा।


इस आदमी को एड्स है। एकाएक रजत के मन में आया कि वह उसे जाने को कह दे। लेकिन एड्स छूने, संग बैठने से थोड़े ही फैलता है। उसने अपने को समझाया और उसे रास्ता देता हुआ दरवाज़े से एक ओर हट गया।


"मैं अलका को तलाक देना चाहता हूँ।" उसने बैठते ही बिना किसी भूमिका के कहा।


"लेकिन इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?" रजत ने थोड़े आश्चर्य से कहा।


"रजत बाबू आप को ही सब कुछ करना होगा। मेरे तो कुछ बस का है नहीं और अलका कुछ करेगी नहीं।" रमेश ने एक सांस में कहा और तेज तेज सांसे लेने लगा।


"लेकिन आप तलाक…" रजत ने कुछ पूछना चाहा।

 


 


"देखिए हर आदमी में राम रावण दोनों होते हैं। मैं भी वैसा ही आम आदमी हूँ। अलका से मेरी शादी बचपन में ही हुई थी लेकिन उसके पिता की मौत के बाद जब मेरे घर वालों को लगा कि अब वहाँ से कुछ दान दहेज़ मिलने की उम्मीद नहीं है तो उन्होंने मेरी शादी दूसरी जगह कर दी। मैं भी लालच में आ गया। पर ऊपर वाले को कुछ और ही मंज़ूर था। मेरी दूसरी पत्नी की मौत पहले ही हो गयी थी। जब घर वालों को मेरी बीमारी की ख़बर लगी तो सब ने मुझसे पल्ला झाड़ लिया। जब कहीं ठिकाना नहीं था तो मैं निर्लज्ज बन कर अलका के दरवाज़े आ लगा। उसने भी सात फेरों की इज़्ज़त रखते हुए मुझे शरण दे दी। मेरी दवा इलाज का इंतज़ाम भी वही करती है। वह किसी और ही दुनिया की लड़की है।" कहते कहते वह बुरी तरह हाँफ गया। रजत उसके लिए पानी लाया। पानी पीने के बाद वह थोड़ा संयत हुआ।


"लेकिन.. तलाक ?" रजत ने पूछा।


"मुझे आपके और अलका के बारे में यूँ ही मालूम हो गया। दरअसल कुछ दिन पहले जब वह आपके यहाँ से वापस गयी तो उसने सारी बातें अपनी माँ को बताई थी। मैंने संयोगवश ही वे बातें सुन ली थी। अलका ने अपना जीवन बनाने में बहुत मेहनत की है। मैं भी आज अपने आखिरी दिन इज़्ज़त से काट पा रहा हूँ तो उसी की बदौलत वरना कहीं फुटपाथ पर पड़ा कब का मर गया होता।" वह फिर थक गया था। थोड़ी देर हमारे बीच खामोशी छाई रही।


"पर आप मुझसे क्या चाहते हैं?" वह अब भी नहीं समझ पा रहा था कि आगंतुक उससे क्या चाहता है और उसके पास क्यों आया है।


"मैं चाहता हूँ आप मेरी ओर से तलाक के कागज़ात तैयार करवा दीजिए। मरने से पूर्व मैं उसके लिए इतना तो कर ही सकता हूँ। अब मुझसे किसी वकील से मिल कर यह सब करवाना मुश्किल होगा।" वह थोड़ी देर रुका "इतना काम आपको मेरे लिए, एक अजनबी के लिए करना होगा। हाँ, इस बारे में अभी अलका को कुछ पता न चले।" उसने अपनी बात पूरी की।


"ठीक है, मैं कुछ करता हूँ।" रजत ने कुछ सोचते हुए उसे हल्का सा आश्वासन दिया।


"एक बात और …." उसने कुछ सोचते हुए कहा जैसे कोई बहुत जरूरी बात कहना भूल गया हो "मैं इस काम में जो खर्च आएगा वह आपको नहीं दे पाऊंगा।"


"उसकी कोई बात नहीं।" रजत ने कहा।


"फिर दो दिन बाद मैं आपसे फिर संपर्क करूँगा।" वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।


"मैं आपके लिए टैक्सी मँगवा दूँ?" रजत ने पूछा।


"नहीं मैं चला जाऊँगा" उसने कहा। रजत उसे छोड़ने दरवाज़े तक चला गया।


"देखिए इस बारे में अलका को कुछ पता न चले।" उसने एक बार फिर रजत से आश्वासन चाहा।


दो दिन बाद आ कर वह रजत से तलाक के कागज़ात ले गया था। इस बात को कई दिन हो गए थे। उस की अलका से कुछ पूछने की कई बार इच्छा हुई लेकिन पूछना उसे अच्छा न लगा। और फिर वह इस बारे में अलका को कुछ न बताने के लिए भी वचनबद्ध था। आज अलका ऑफिस नहीं आयी थी। वह उसे फोन करने ही वाला था कि अलका आती हुई दिखाई पड़ी। वह कुछ उदास सी दिख रही थी। रजत उठ कर उसकी सीट तक गया।


"क्या बात है आज देर हो गयी। कुछ परेशान भी लग रही हो।" रजत ने पूछा। 


"कुछ खास नहीं। बस ऐसे ही। चलो लंच ब्रेक में बात करेंगे।" अलका ने कहा। वे दोनों अपने काम में व्यस्त हो गए।


लंच ब्रेक में अलका ने बताया कि कल रमेश तलाक के पेपर ले आये थे। उसने भी उन पर दस्तख़त कर दिए थे। अलका ने जब इस औपचारिकता की आवश्यकता के बारे में पूछा तो रमेश ने अजीब सा उत्तर दिया था कि वह इस एहसास से मुक्त होना चाहता है कि उसने अपनी पत्नी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। एक बार को अलका को रमेश के मुँह से अपने लिए पत्नी शब्द सुन कर अजीब लगा था। कुछ भी तो नहीं रहा था कभी उन दोनों के बीच पति पत्नी जैसा। सिर्फ कई वर्ष पूर्व हुए विवाह की धुँधली यादों के अतिरिक्त। जब उसे अपना अच्छा बुरा सोचने की तमीज़ तक ठीक से न थी। हाँ जब पिता के मरने के कुछ दिनों बाद उसने किसी को माँ को रमेश की दूसरी शादी के बारे में बताते हुए सुना तब ज़रूर उसे बुरा लगा था। और उस दिन उसे इस आदमी पर, जिसे वह ठीक से जानती भी नहीं थी और जो उसका ब्याहता पति था, मन ही मन बहुत क्रोध आया था। फिर धीरे धीरे उसने अपने मन को मजबूत कर लिया और विवाह, पति और ससुराल इत्यादि के बारे में सोचना ही बंद कर दिया। अब वह केवल पढ़ लिख कर अच्छा करने के बारे में सोचती थी। इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन के बाद किसी तरह बैंक से ऋण ले कर पढ़ाई की। माँ को ऋण लेने के लिए बैंक में मकान तक गिरवी रखना पड़ा था। घर का खर्च और छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च तो किसी तरह उसके पिता की मृत्यु के बाद मिलने वाली फैमिली पेंशन और मकान के ऊपर वाले हिस्से के किराए से चल जाता था। पढ़ाई के बाद जब उसकी नौकरी लगी तब जा कर परिस्थितियाँ आसान हुई। फिर एक दिन अचानक रमेश आ गया। उसका तथाकथित पति। माँ ने तो उसे भगा ही दिया था। उसे ही पता नहीं क्यों उस फटेहाल और बीमार आदमी पर दया सी आ गयी। हालांकि माँ ने आगाह किया था कि यदि ठीक होने पर उसने उस पर पति का हक जमाना शुरू कर दिया तब। ऐसे मौकापरस्त आदमियों का क्या भरोसा। लेकिन अलका को नहीं लगा था कि अब वह उस पर पति होने का हक़ जमा पायेगा। उसने बाहर वाले कमरे में उसके रहने की व्यवस्था करवा दी थी। उसकी दवा इलाज का बंदोबस्त भी वही करती थी। माँ ज़रूर कभी कभी दबे स्वर में उसकी इस दरियादिली का विरोध करती थी। लेकिन अलका को लगता पत्नी होने के कारण नहीं तो मनुष्य होने के कारण ही इतना तो किया ही जा सकता है। रजत से बात करते करते अलका न जाने यादों के किस सन्नाटे में खो गयी थी। वह अपने आसपास की दुनिया में तब लौटी जब रजत ने उसे दो बार आवाज़ दी।


"कहाँ खो गयी? तुम कुछ रमेश के बारे में बता रही थी। तलाक के कागज़ात के बारे में।" रजत उसे वर्तमान में ले आया।


"हाँ, आज सुबह ही रमेश कहीं चला गया। जाते समय एक चिट्ठी छोड़ गया था मेरे नाम।" अलका ने लंबी सांस ली।


"क्या लिखा था?" रजत ने पूछा।


जवाब में अलका ने एक तह किया हुआ कागज़ रजत के हाथ में रख दिया। रजत ने उसे खोल कर देखा। वह अलका के नाम एक छोटा सा पत्र था। वह उसे पढ़ने लगा।


" प्रिय अलका,

               मैं जा रहा हूँ। प्लीज मुझे ढूंढने की कोशिश मत करता। मैं तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ कि अपने साथ हुई सारी नाइंसाफियों के बाद भी तुम ने मुझे तब सहारा दिया जब मेरे अपनों ने भी मुझे दुत्कार दिया था। मैंने तलाक के कागज़ इसलिए तैयार करवाये थे ताकि तुम मेरे फैलाये अतीत के अंधेरों से मुक्त हो सको और अपना जीवन अपने योग्य जीवन-साथी के साथ गुजार सको। खुश रहना।

तुम्हारा कोई नहीं

रमेश"


पत्र पढ़ कर रजत ने एक लंबी सांस ली। उसका मन हुआ कि वह तलाक़ के कागज़ों के बारे में अलका को बताए फिर उसे रमेश की बात याद आ गयी। 


"लेकिन वह कहां गया होगा?" रजत ने पूछा।


"पता नहीं। सब संभव जगहों पर मैंने फोन कर के पता कर लिया। उसके घर वालों को भी फोन किया था लेकिन उन लोगों का कहना था कि उनका अब रमेश से कोई संबंध नहीं है।" अलका ने कहा। 


वे दोनों देर तक चुप बैठे रहे। रजत ने धीरे से अलका का कंधा थपथपाया। कैंटीन का वेटर क़ॉफ़ी के खाली मग उठा रहा था। चारो ओर अबूझ बातों का शोर और बर्तनों के खड़कने की आवाज़ें गूंज रही थी। लेकिन वे दोनों अपने अपने विचारों के मौन में खोए हुए थे। रजत को रमेश की बात याद आ रही थी कि हर आदमी में राम और रावण दोनों होते हैं। 

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व विजेंद्र जी की हैं।)   



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