वर्चस्वशाली भाषा-संस्कृति के
खिलाफ समाज की वंचित आबादी का स्वर अब महज प्रतिरोध व प्रतिकार की भंगिमा
में ही नहीं बल्कि स्थापित विमर्शों के पुनर्मूल्यांकन की माँग करता सामने आ
रहा है। वह चाहे दलित अस्मिता में मौजूद वर्ग-जाति के विश्लेषण की नयी
इबारत का सवाल हो या आदिवासी जमात में उठ खड़ी हुई नयी आवाजों की भाषा हो। वे
एक तरफ अपनी संघर्षमयी ऐतिहासिक विरासत की याददिहानी कराते मिलते
हैं तो वहीं आन्तरिक औपनिवेशन के तमाम रूपों, पहचानों की निर्मम
शिनाख्त भी। इन्हीं नयी आदिवासी जन-जीवन की आवाजों को, अलिखित वाक्यांशों को
व्यापक समाज की अनकही गाथा के रूप में प्रस्तुत करते अनुज लुगुन, जसिंता केरकेट्टा जैसे
युवा कवियों के काव्यस्वर में पढ़ा जा सकता है। अनुज लुगुन एक युवा कवि हैं। 'अघोषित उलगुलान' नामक कविता से चर्चा में आये इस
कवि ने अपनी काव्ययात्रा स्थानीय जीवन की जद्दोजहद से ले कर दलित, वंचित, अल्पसंख्यक व सीमान्त
पर अपनी भौगोलिक पहचान तलाशते आम लोगों की पीड़ा तक विस्तारित करते हुए जारी रखा है।
यहाँ अनुज लुगुन की कविता के साथ-साथ हम
आज के बदलते लेकिन प्रतिरोधी परम्परा से नाता जोड़े युवा स्वर को
पढ़ने-समझने की ओर बढ़ने की कोशिश करेंगे। अभी उनका नया नया कविता संकलन 'पत्थलगड़ी' छप कर आया है। इसमें अनुज लुगुन अपने
पिछले संकलन की कविताओं मे
मौजूद 'स्थानीयता', 'समुदाय' के अन्तर्वाह्य संघर्ष, जनस्मृति आख्यानों में
उपस्थित सत्ता के बघनखे को पहचानने, दर्ज करते रहने की निरंतरता से आगे
बढ़ते हुए अपने काव्य परिक्षेत्र का अतिक्रमण करते मिलते हैं। इस निगाह
से उनकी कुछ ताजी कविताओं से गुजरना दग्धह्रदय, नाउम्मीद निगाहों, मुसलसल पैदल चले आ रहे लोगों के
तमाम चेहरों को देखते हुए उन दुखों को
छूने की कोशिश भी है।
(1)
'भाषाएँ यूँ ही नहीं
मरती '
कुछ
तोतों ने ठान लिया था
सब
फल हो जायें अमरूद
कुछ
बगुलों ने जिद लड़ाई
सब
मेढ़क हो जायें मछली
कुछ
बाजों ने दम ठोंका
सब
मुर्गी हो जायें चूजे
सबको
अपने स्वाद का मान था
सबको
अपने धर्म का अभिमान था
कुछ
ने ढोया बाइबिल
कुछ
ने ढोया कुरान
कुछ
ने गीता तो कुछ ने ढोया पपीता
बहेलिया
आया और उसने सबको बहुत लूटा
खाने
को जो लड़ रहे थे सपना हुआ चूर
बहेलिए
का खेल था यह
वह
तोता ले कर भागा
बगुला
लेकर दौड़ा
बाज
लेकर फुर्र
फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र।
(बहेलिए का खेल)
युवा कवि अनुज लुगुन का
दूसरा काव्यसंग्रह 'पत्थलगड़ी' से उद्धृत है यह
कविता। 'बाघ और सुगना मुण्डा
की बेटी', के बाद आये इस संकलन
में जहाँ आदिवासी जन-जीवन की वे तमाम तस्वीरें हैं जिनमें हम देश के किसी
भी हिस्से में संघर्षरत अवाम के
चेहरे देख सकते हैं। बाघ और ‘सुगना मुण्डा की बेटी' जैसी लम्बी कथा-कविता के
सहारे उन्होंने आदिवासी समाज के इतिहास विकास ,संस्कृति और प्रतिरोध की लम्बी विरासत को सामने
लाते हैं तो 'पत्थलगड़ी' में औपनिवेशिक
ताने-बाने में अपने जगह-जमीन की हिफाजत के लिए अपने आदिम साथी पत्थर का साथ
बार-बार लिया। यह पत्थर जहाँ उनके प्रतिरोध की निरंतरता की गवाही देती है वहीं
आदिवासी जीवन में 'सहजीवी' बन कर उनकी संस्कृति
का हिस्सा भी है। कवि ने
अपनी दूसरी कविता पुस्तक का शीर्षक 'पत्थलगड़ी' यूं ही नहीं रखा है। वे लिखते हैं कि "औपनिवेशिक
समय में जब शासन ने आदिवासियों से उनकी
जमीन का मालिकाना सबूत माँगा तो कचहरी में आदिवासियों के साथ पत्थर भी खड़े
हुए। अंग्रेजों की अदालत ने आदिवासियों के पक्ष में पत्थरों की गवाही को
स्वीकार नहीं किया। उनकी जमीन पर सेंध लगाने के लिए अंग्रेजों ने उनके 'पत्थरों' के प्रयोग पर निषेध
लगाया। उसके बाद जब-जब आदिवासियों ने अपनी
जमीन का दावा किया, तब-तब शासन ने उनकी 'पत्थलगड़ी' पर निषेध लगाया। “सहजीविता और
स्वायत्तता को कुचलने की साजिश बहुत पुरानी है" और यह साजिश आज भी
जारी है और उसके विरुद्ध सोई चिनगारी को जगाने में अनुज लुगुन जैसे कवि अपनी
लिखित-अलिखित कविताओं के जरिए सहजीवी प्रकृति के साथ खड़े मिलते हैं।
प्रतिरोध के जिस मुहावरे में हिन्दी में असहमति का प्रतीक माना जाता है वही
मुहावरा आदिवासियों के लिए 'अपराध' के रूप में दर्ज कर लिया जाता है। सरकार
मुख्य धारा की भाषा तो जानती है लेकिन तमाम वंचित, अस्तित्व के लिए संघर्षरत आदिवासी समाज की
भाषा नहीं' समझ' पाती । क्या नागरिकता कानून की
भाषा बेजमीन, दरबदर लोगों के लिए
अलग अर्थ ले कर आती है?
मुझे
मेरी नागरिकता दे दो
मुझे
मेरी अस्मिता दे दो
मानचित्र
की उलझी रेखाओं में नहीं
आदमी
होने की भाषा में मुझे नागरिकता दे दो '
(मुझे मेरी नागरिकता दे
दो)
प्रेम के बारे में बात करते-करते
अचानक सोचने लगता है कि कहीं राह चलते मुझसे मेरे प्रेम के बारे
में पूछने की बजाय नागरिकता न पूछने लग जाए। यह अनकहा भय देश के प्रति प्रेम
के अर्थ को बदल देता है, एक अव्यक्त भय में जीते समाज, उसके वाशिंदे क्या महज
कुछ रेखाओं, कुछ मानचित्रों के
बीच उपस्थित समुदाय भर होंगे, उनके बीच से हो कर
चलने वाली 'धारा' कितना अपनापन लिए होगी। कवि इसीलिए शासन
की डोर थामे हुकूमत के किलों के इर्द-गिर्द डेरा जमाने के बजाए आम
रास्तों से गुजरते हुए अपनी यात्रा पूरी करनी चाहता है –
मैं
इस रेल से जम्मू तक तो नहीं जा रहा
कभी
जाना हुआ तो
दिल्ली
के बनाये रास्ते पर तो नहीं जाऊँगा
जिन
रास्तों पर नागरिकता की जाँच हो
उस
रास्ते तो मैं कभी नहीं जा सकता'
(प्रेम की नागरिकता)
आज 'नागरिकता के सीमांत पर
खड़े लोग' संदिग्ध करार दिए जा
रहे हैं। उनके बच्चे बिलखते देखे जा
सकते हैं, लेकिन भविष्य नहीं दिखाई देता है। उनकी आँखें दिखाई देती हैं
लेकिन उनमें छुपा रुदन नहीं दिख रहा। देश-देशान्तर, नदी-नालों, कँटीले रास्तों को पार
करते हुए किसी अनिश्चित जगह की तलाश में चल रहे हैं, चले जा रहे हैं। क्या उनकी भटकन मनुष्यता को बचाए
रखने की कोशिश के लिए है? नागरिकता के
सीमांत पर खड़े ये लोग किस देश के हैं? किस देश में नहीं हैं?
नागरिकता
के सीमान्त पर खड़े लोग
कभी
जम्मू के हो जाते हैं
कभी
पूर्वोत्तर के हो जाते हैं
तो
कभी बस्तर के
वे
सीरिया, फिलिस्तीन, म्यांमार
मैक्सिको, ग्वाटेमाला, कहीं के भी हो सकते
हैं
यहाँ
तक कि वे हमारे घरों में
चूल्हों, चौकियों और चौखटों के
हो जाते हैं''
(नागरिकता के सीमान्त
पर खड़े लोग)
जिस तरह अनुज लुगुन की
कविता में 'बाघ' जंगलों से बाहर निकल कर राजधानियों में है। विधान सभा, विधायक, धनी, सत्तातंत्र के बीच 'बाघ' अपनी उपस्थिति लिए मिलता है। उसके
बड़े-बड़े नाखून हैं। प्यासी व लाल आँखों से घूरता छलाँग लगाने को उतावला
है। उससे आम अवाम बचने के लिए, भिड़ने के लिए मजबूरन लामबंद होता है। उसी 'बाघ' की तरह अनुज लुगुन की
कविता में 'गोह' भी आता है। इस प्रतीक के
सहारे वे फिर लोक जीवन में मौजूद कथा का, प्रतीक का प्रतिरोधी भाषा के लिए इस्तेमाल करते मिलते हैं। आदिवासी
जीवन में पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के साथ
पत्थरों तक की ऐसी उपस्थिति अपने साथ एक कहानी ले कर आती है, अनुज लुगुन जिस परिवेश, जिस जीवन के साथ अपनी
कविता में उपस्थित होते हैं, वह महज सरोकारी भावना
ही नहीं बल्कि भागीदारी करते हुए मिलते हैं ..। 'गोह की कविता' में भाषा विलुप्त होने के पीछे जीवन में भागीदार जीव-जंतुओं की
विलुप्ति छुपी है ..
इसका
नाम तोरोद भी है
शायद
तुम इस नाम को नहीं जानते
मुण्डा
ऐसे ही कहते हैं
गोह
को अपनी भाषा में
ऐसी
ही कई भाषाएँ हैं
जिसमें
गोह को कहा जाता है
इस
तरह तुम कह सकते हो
गोह
एक नहीं है
कई
गोह हैं तुम्हारे ही आसपास
लेकिन
तुम कहते हो
गोह
विलुप्त हो रहे हैं
मुझे
तुमसे इतना ही कहना है कि
भाषाएँ
यूँ ही नहीं मरतीं
एक
गोह मरता है
और
एक भाषा मर जाती है।
कवि इसी गोह को श्रमरत
लोगों, उनके संघर्षशील जीवन
और बड़े -बड़े किला फतह करने में सहयोगी के रूप में देखता है। जीवन की तमाम
अत्याधुनिक सुविधाएं वहाँ नहीं है। उन्हें 'सभ्य' पढ़ी-लिखी जमात कितना
पहचान पा रही है और पहचानती भी है तो उसी थोपी गयी भाषा में। उनकी भाषा, उनके रंग, उनके जीवन को पढ़ने के लिए तमाम
भू-वैज्ञानिक, जीव-विज्ञानी कितनी
दूर तक गये हैं और गये भी हैं तो कितना पहचान पाये हैं।
अनुज लुगुन किसी दृष्टान्त, आम जीवंत चरित्र का
काव्यात्मक रूपान्तरण करते हुए कला को इस तरह गूंथते हैं कि हमारा ध्यान कला पर
नहीं उस जीवन की सान्द्र उपस्थिति पर ही जाता है, भाषा और कहन की चमक
से ज्यादा जीवन की चमक बरकरार मिलती है –
“चाँद चौरा का मोची
चाँद
की टहनी पर अटका है
वह
कभी भी गिर सकता है अनन्त अमावस्या की रात में
कितनी
अजीब बात है कि चाँदनी रात के लिए भी
उसके
पास वही औजार होते हैं
जिससे
वह दिन में लोगों के जूते चमकाता है
सचमुच
वह सनकी कलाकार है वह कला की बातें नहीं जानता
वह
चमड़े से घिरा रहता है और भूख के पैबन्द सीता है''
(चाँद चौरा का मोची)
 | अनुज लुगुन |
अनुज लुगुन की कविताओं
में भीमा कोरेगांव है तो चाय बगान की अंग्रेजी मशीन भी है। वरवर राव हैं तो
सन् 42 के छात्रों की याद में
भी कविता है। 'मेरे गाँव में सीआरपीएफ
कैम्प लग गया है तो मजदूरों की मौत का सदमा लाल किले को नहीं होता कविता भी।
अनुज लुगुन आज के समय में न्याय का नया मुहावरा तलाशते प्रतिबद्ध स्वर
लिए युवा कवि हैं। उनकी वफादारी स्पष्ट है। अपनी एक कविता 'मेरी वफादारी तुम्हारे
लिए नहीं ' में कहते भी हैं कि-
तुम
चूल्हे से सबका स्वाद देख आने के लिए कहते हो
और
मैं सबके घरों से आग ले आता हूँ
तुम
चाहते हो
मैं
तुम्हारी भाषा के व्याकरण को
हर
किसी की जुबान पर टाँक दूँ
लेकिन
मैं तुम्हारी भाषा की टूटी वर्तनी पर उंगली रख देता हूँ
तुम
कहते हो सब दाहिने मुड़ कर चलें
लेकिन
मैं उल्टा घूम जाता हूँ
मैंने
अपनी वफादारी नहीं चुनी है
अनाज
के गोदामों के लिए
चर्बी
से लिथड़े ऐय्याश देहों के लिए तो बिल्कुल नहीं
कविता
की उस भाषा के लिए भी नहीं
जो
किसी भूखे की कब्र पर राष्ट्रगान के लिए खड़ी हो।
(2)
‘गांव में सीआरपीएफ कैंप लग गया है' यह सामान्य कथन नहीं
है
यह हमारे गणतंत्र का
विशिष्ट कथन है
मेरे सामने अनुज लुगुन की एक लम्बी कविता "एक
गुरिल्ले का आत्मकथन” है। यह आत्मकथन अपने अस्तित्व
के लिए जूझ रहे समुदाय का आत्मकथन है, बेवजह युद्ध में ढकेले जा रहे अवाम
का कथन है, इसमें नदी की पीड़ा है, पेड़ों, बैलों व चिड़ियों का
भी दुख-दर्द दर्ज है। जिस दुख के
बारे में अभ्रक, कम्बाइन, जैसी प्राकृतिक सम्पदा
पर निगाह टिकाये राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय निगमों, उनके खैरख्वाह राष्ट्राध्यक्षों को नहीं पता है। इस
दुख को अखबार का कालम रंगती पत्रकार
जमात कितना जानती है? पुलिस-फौज की गोलियों
से छलनी आदिवासी
युवकों-युवतियों की कई एंगिल से फोटो ले रहे फोटोबाजों को इस दुख की आवाज़ कितनी सुनाई
पड़ती है? शायद नहीं ही सुनाई
पड़ती है, तभी तो अनुज लुगुन
जैसे युवा कवि उन आवाज़ों को शब्द देने की कोशिश
कर रहे हैं। आप इसे कविता के
तौर पर नहीं, कला के उत्कृष्ट
मापदण्डों पर परखने के तौर पर नहीं बल्कि
देश की करोड़ों-करोड़ पददलित-वंचित और अपनी जगह-जमीन से उजाड़ी जा रही आदिवासी जमात की अनकही पीड़ा
और आक्रोश के रूप में अहसास कर पायेंगे तभी इन कविताओं में छिपे
भावों को ठीक-ठाक अर्थ दे पायेंगे। महज पढ़ने के लिये नहीं बल्कि ऐसे हालात को
बदलने के लिए भी। यहाँ कविता युद्ध में ठेल
दिये गये बच्चे की संगाती बन कर आती है -
मैं एक कविता की
खोज में हूं
जो ढूंढ निकाले
युद्ध के मैदान में
लैंड-माइन्स, बारुदी सुरंग
और छुपे हुए हमलावरों
को
एक बच्चे की तरह
जो अपने मृत माँ-पिता
और स्वजनों के साथ ही
उस कविता के लिये रो
रहा है
जो उसे वहाँ से बाहर
निकाले।
कोई भी रचना अपने समय की गवाह तभी बनती है, जब वो अपने लोगों की आवाज बन, उनके
सपनों-आकांक्षाओं को शब्द दे रही होती है। इसे कला के महीन गुंजलक में लपेट कर नहीं कहा
जा सकता है न ही महीन बुनकारी से उसके ताजे तेवर को बचाये रखे जा सकता है।
कला-कविता की सोद्देश्यता का सवाल बार-बार हमारे सामने आ खड़ा होता है।
जीवन की ध्वनि जीवन के निकट जा कर पढ़नी पड़ती है उसका हर पाठ, हर भाषान्तरण अपने
साथ अपनी भाषाई आधिपत्य ले कर आता है और हम उतनी ही बार उस जीवन की
अनलिखी पीड़ा की केंचुली संभालते मिलते हैं! बौद्धिक कर्म में लगे लेखकों
के लिए गर प्रतिबद्धता महज भाषाई व्यवहार का तकाजा नहीं है तो 'चिड़ी' के दुख में उपस्थित
आक्रोश को पढ़ने आना चाहिए –
"पत्रकारों और पर्यटक
लेखकों को यह बात ठीक से समझ लेनी चाहिए
कि हमारी भाषाओं की
अपनी अर्थ ध्वनियां हैं
जिसको वे आज तक अनुवाद
के जरिये भी समझ नही सके हैं
कि किसी चिड़ी को किस
बकरी के दुख ने छापामार बना दिया है
कि समान दुख के लिए
समान समाधान जरूरी है
कि तर्ज पर संयुक्त
कार्यवाई हो सकती है
यह बात उन पत्रकारों
से पूछा जाना चाहिए
जो बार-बार एक लाश पर
अपने कैमरे को टिकाये हुए
व्यवस्था की पोल खोलने
का दावा कर रहे हैं
और कह रहे हैं कि
कविता में पक्षधरता और
प्रतिरोध बेमानी और अनावश्यक चीज़ है"
जो कवि/रचनाकार कविता में सत्ता के दमनात्मक चरित्र के
विरुद्ध अपनी प्रतिरोधी आवाज दर्ज
कर रहे होते हैं, उनकी आवाज अपनों के
बीच ताकत बन कर आती है, वहीं मुख्य धारा की
मीडिया ऐसी आवाजों की या तो अनसुनी कर देता है या उन्हें देश विरोधी
बता कर विकृत रूप में आम जनमानस के बीच परोसता है। झारखण्ड, उड़ीसा से ले कर
अबूझमाड़ के जंगलों में अपनी परम्परागत जीवन स्थितियों को बचाने के
लिए जूझ रही आबादी, जल, जंगल-जमीन का सौदा
करने पर उतारू बहुराष्ट्रीय
निगमों की काली करतूतें और इन करतूतों के खिलाफ़ लड़ने वाली आदिवासी
जमात की आवाज़ अक्सर अपने मूल अर्थ से बदल कर हम तक पहुंच पाती है। ऐसा
क्यों? क्या मुख्य धारा की
मीडिया के लिए दूर सीमान्त पर खड़ी आबादी का जीवन संवेदित नहीं करता है? क्या इन हाशिये की
आवाजें सुन सकने तक की
लोकतांत्रिक संवेदनशीलता विकसित होने में समय लगेगा? तमाम कमतरी के बावजूद
ही सही इन आवाजों को, ध्वनियों को महसूसने
वाले कई एक जनपक्षधर पत्रकारों, कथाकारों के साथ ही कुछ एक युवा स्वर उन आवाज़ों को शब्द
देने की कोशिश में लगे हैं, उन युवाओं में आज एक युवा कवि अनुज लुगुन
का भी है। अनुज लुगुन की
कवितायें प्रतिरोध की कवितायें
हैं जंगल के लोगों के दुख की कवितायें हैं। इनकी कविता आज के अंधेरे समय में
थोड़ी मोड़ी राहत की "चाँदनी" बांटते जनों के बरक्स इस अंधेरी रात
को हराने वाले सूरज की महज प्रतीक्षा ही विकल्प नहीं है। बल्कि ऐसे
अंधेरे के खिलाफ लड़ना है। "गुरिल्ले का आत्मकथन" नामक कविता में वे
कहते हैं कि -
'आज हम जानते हैं
चाँदनी कुछ देर के लिए ही
अंधेरे को स्थगित कर
सकती है
लेकिन रात को पहर भर करने
के लिए सूरज ही अंतिम विकल्प है
और इस बात को जानते
हुए उसके उगने की प्रतीक्षा करना
अपने ही पैरों पर खुद
बेड़ियाँ डालने जैसा है
बेड़ियों को तोड़ते
हुए सोचता हूं
क्या पागुर करती हुई
बकरियों और बैलों को पता होता है हमारा दुख
क्या वे जानते हैं कि
हम इस वक्त समान दुख और संकट के दौर से गुजर रहे हैं
कि इस गांव से बेदखल
हो जाने के बाद
न उनके लिए और न हमारे
लिए रह जाएगा कोई चारागाह
और उन जंगली भैंसों का
क्या होगा जो हमारे टोटम हैं...
केरकेट्टा... ढेचुआ... और होरल...?"
तमाम प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिये हमारी सरकारें
जिस प्रकार बहुराष्ट्रीय निगमों के हितार्थ गांव-गांव को उजाड़ने में लगे हैं।
उजाड़े जा रहे लोगों के साथ किस
प्रकार एक जीवन उजड़ रहा है, उस दुख को, तकलीफ को, महज "विकास" के अधूरे चश्मे से
देखने वाले बुद्धिजीवी शायद ही अहसास कर पायें। क्योंकि यहाँ आदिवासी जनसमुदाय प्रकृति के
साथ,
'नाभिनालबद्ध' सहजीवी हैं। अन्तहीन
दमन-उत्पीड़न ने जाने किस 'चिड़ी' को जाने किस 'बकरी' के दुख ने छापामार बना
दिया है। आये दिन अपनों की मौत देख कर दुखी जनों के आर्तनाद
को न शासक समझ सकते हैं न ही उनकी निगाह से सोचने समझने वाले बुद्धिजीवी
ही। इनकी 'भाषाओं की अपनी अर्थ
ध्वनियां हैं'। कविता-कहानी में
प्रतिरोध और पक्षधरता पर सवालिया निशान लगाने वालों को न तो ऐसी कविता सहज
लगेगी न ही वह जीवन जहाँ लोग अपने अस्तित्व के लिये जान जोखिम में डाल कर लड़
रहे हैं।
यह तकलीफ़ उन लेखकों -पत्रकारों को
समझ में शायद ही आये, जिनकी हर सांस और हर अल्फाज में 'देश' तो दिखता है लेकिन देश में मरने -खपने
वाली अवाम नहीं दिखती। इस देश के अंतिम आदमी तक न्याय पहुंचाने का वायदा कर
सत्ता में आयी "राष्ट्राध्यक्षों' तक "अंतिम आदमी” की हूक नहीं पहुंच
पाती, उनके लिये एक पेड़, एक नदी, एक जानवर से प्रेम करने वाले तब तक काम
के नहीं हैं जब तक वे उनकी राजनीतिक बटखरे पर सेट नहीं होते -
'मैं सुअरों, बैलों, भैंसों और गिलहरियों
के
अचानक खो जाने से सदमे
में हूं
वह इन सबको अलग-अलग डर
देखेगा
वह गाय के जीवन को अलग
बांट देगा
और वह हिंसा का कारण
बन जायेगी
वह 'गंगा' कहेगा और दूसरी नदियां
सड़ जायेंगी
वह गिलहरी, जंगली भैंसे, हाथियों और हमें
बाँट कर बताएगा जीवन
की परिभाषा
जबकि हम इनके साथ ही
बेहतर दुनिया बसाना
चाहते हैं"
आज देश मे जगह-जगह 'विशेष आर्थिक क्षेत्र' बनाने के नाम पर
सदियों के वासिंदे किसानों को उनके खेतों से
वंचित किया जा रहा है। आदिवासियों को जंगलों से उजाड़ा जा रहा है। महज मुट्ठी भर धनपशुओं
के हित में किये जा रहे ऐसे "विकास" तमाम लोगों को रोजगार, जीवन की गारंटी और
बेहतर जिंदगी के सपने दिखा कर किये
जाते हैं, जबकि वास्तविकता यह है
कि आज पहाड़ से ले कर जंगल तक इस
"इकतरफा विकास" से लहूलुहान हैं। ऐसे में एक आबादी चाहे-अनचाहे एक ऐसे युद्ध
में धकेली जा रही है जिसका कोई समाधान साफ-साफ नजर नहीं आता, क्योंकि यहाँ लड़ाई इस तंत्र के
आमूलचूल बदलाव को ले कर नहीं बल्कि इस तंत्र से
उपजी अव्यवस्थाओं के खिलाफ़ ज्यादा है, वह भी बिखरी हुई लड़ाई। लेकिन यह लड़ाई लड़ रहे लोगों के जीवन
की शर्त है कि वे लड़े, चाहे-अनचाहे –
"वह कहता है कि
हम युद्ध कर रहे हैं
हम जानते हैं कि
हम युद्ध में जाने से
खुद को रोक रहे हैं"
इस देश में मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे 'गुरिल्ले' अपने आत्मकथन में कहता
है कि जिंदगी की लड़ाई वही
लड़ सकते हैं जो जिंदगी को बेइन्तिहा प्यार कर सकते हैं। जिंदगी के गीत
गाते लोगों को देख कर आततायी हमेशा भौंचक नजर आता है, उसे जिंदगी के गीत गा
रहे लोग डराते भी हैं –
"मैं हर वक्त
घिरा होता हूं मृत्यु
से
तब भी गीत गाता हूं
मुझे गीत गाता देख
उलझन में पड़ जाती है मृत्यु
वह सोचने लगती है कि
मुझे निशाना बनाये या
गीत को"
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए हमें अनायास कात्यायनी और
गोरख पाण्डेय की कविताओं की मुखर आवाज़ आस-पास गूंजती नजर आने लगती है। अनुज लुगुन अपनी कविता का विकास कलावादी
कसीदाकारी की परम्परा से जोड़ कर नहीं बल्कि जनपक्षधर परम्परा से जोड़ कर
आगे बढ़ाने की कोशिश करते मिलते हैं। इसी के साथ वे अपने जगह-जमीन और
परिवेश से जीवन की जद्दोजहद दर्ज करते हैं। उनकी कविता का स्वर वाह्यजगत से
अन्तर्जगत की ओर प्रस्थान करने का नहीं बल्कि उनका अन्तर्जगत अपने
वाह्यजगत से सतत एका बनाता मिलता है। अपनी गौरवशाली संघर्षमयी इतिहास का स्मरण
भी वे इसी रूप में करते हैं।
वे कहते हैं कि –
"हम जानते हैं कि हमारी
कविता शब्दों की मरुभूमि से नहीं उगती
और न ही हम रेत के
टीले पर घर बनाने के हिमायती हैं
यहाँ हमारे पुरखों के
साथ खड़े 'ससन दिरी' जानते हैं
"जीवित होने” का एहसास
साल के वृक्षों को पता
है जन्म का उत्सव
हरवैये बैल समझते हैं
खेती के दिनों की बोली"
अनुज लुगुन की कविता "धरती" को धरती
बनाये रखने, मनुष्य को मनुष्यता वापस सौंपने और 'आगामी पीढ़ियों को हवा, पानी और जंगल' और 'मादल को गीत लौटाना चाहती है।
लेकिन उस आने कल के लिये आज जूझ रहे, शहीद हो रहे युवाओं की याद हमारी लड़ाई को ताकत दे जाती है।
हर बार हम अपने कठिन समय पर सोचते हैं, और सोचते हैं अपने
कठिन संघर्ष के बारे में भी। शहीद विलियम लुगुन को याद करते हुए 'उनके कब्र पर जाते हुए"
कविता में सदियों का संचित गुस्सा लिए पहुंचते हैं लोग। पैरों में छाले लिये
आंखों में अपने लोगों के लिये आंसू छुपाये
जब अपने साथी की कब्र पर पहुंचते हैं तब वहाँ कोई आवाज़ नहीं, न ही कोई पुकार है –
“कब्र पर सिसकियों का
सन्नाटा है
वहाँ खड़ी आकृतियाँ ही
भाषा हैं
वे बात करती हैं कब्र
के लोगों से"
कब्र के लोगों से बात करने को अभिशप्त लोगों की तकलीफ
हार मान लेने के लिये नही बल्कि जिस बदलाव की लड़ाई वे लड़ रहे हैं उस लड़ाई को और
धारदार तरीके से लड़ने की बाबत सोच रहे
हैं। शहीदी अंदाज़ की यह कविता अपनी भावनात्मक ताब लिये हमसे मुखातिब
है। अनुज लुगुन की कविता
का तेवर हमें बार-बार बतौर कविता एक छापामार की
भावनाओं को, लड़ रही आबादी के अगुआ
दस्ते के मकसद को व्यक्त करती
मिलती है। यह इनकी कविता की ताकत भी है और पहुंच भी। वे अपने आस-पास और देश-दुनिया में
किसी भी किसिम की मानव विरोधी
हरकत को दर्ज करने से चूकते
नहीं है। लेकिन हर घटना वह चाहे जितनी संगीन या दिल दहला देने वाली ही
क्यों न हो रचना की शक्ल में ढलने में समय लेती है या यूँ कहें कि जरूरी
नहीं जिन खामियों से एक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है उन
खामियों को त्वरित रचनात्मक विषय बना पाना आसान ही हो। अनुज लुगुन की
"आक्सीजन” नामक कविता गोरखपुर के बी आर डी
अस्पताल से लेकर देश के कई एक अस्पतालों में आक्सीजन की कमी से होने वाले
बच्चों की मौतों के सवाल को उठाती है। यह कविता कम रिपोर्टिंग ज्यादा
लगती है। शासन-सत्ता की घनघोर लापरवाही और आपसी लूट के चलते मारे गये सैकड़ों
बच्चों की मौत क्या शासन द्वारा नृशंस हत्याकांड के रूप दर्ज किया जाएगा –
'खबरें छपती हैं बच्चों
के मरने की
सड़कों पर
गड्डों में
स्कूलों में
नृशंस हत्या नहीं
कहलाती
न ही उस देश के प्रधान सेवक को
इस बात का अफसोस होता
है कि
बच्चे मर रहे हैं
इसका मतलब है कि
कहीं न कहीं
उसके समय में जीवन की
सम्भावनायें घट रही हैं"
जिन युवाओं ने सन् सत्तर के जमाने में अपने सामने आ
खड़े हुए चुनौतियों का सामना करने के लिये किसान संघर्ष के
सिपाही बने थे। जिसे बाद के इतिहास में 'नक्सलवाड़ी किसान विद्रोह' के रूप में याद किया
जाता है। कवि अनुज लुगुन अपने को उस
पीढ़ी से जोड़ते हुए आज के समय में उन विचारों की जरुरत शिद्दत से महसूस करते
हैं। आज हुकूमत नक्सल आंदोलन के दमन की तरह आम नौजवानों, किसानों के साथ दमनकारी और हिंसक स्वरूप अख्तियार करने पर उतारू है। आज किसान
के बेटे जिनके सीने पर खाकी वर्दी चढ़ी है
क्या अपने हक-हकूक की खातिर लड़ रहे किसानों के बेटों पर अपनी गोलियां चलाने
से थोड़ा भी झिझकते हैं? आज हमारी सरकार हर असंतुष्टी को खतरनाक
मंशा से जोड़ देने में मुब्तिला है, ऐसे में क्या गणतंत्र सचमुच बच पा रहा
है। ऐसे ही सवालों को उठाते हुये वे अपनी कविता "मेरे गांव में सीआरपीएफ
कैंप लग गया है" में कहते हैं कि –
"गांव में सीआरपीएफ
कैंप लग गया है” यह सामान्य कथन नहीं
है
यह हमारे गणतंत्र का
विशिष्ट कथन है
अक्सर यह समाधान वाचक
की तरह इस्तेमाल होता है
जब भी शासकों को डर लगता है
वे गणतंत्र के ऊपर मंडरा रहे
खतरों की बात करते हैं
और किसी भी गांव में सीआरपीएफ
कैंप लगवा देते हैं"
एक रचनाकार अपनी जगह-जमीन से कितने गहरे जुड़ा है, यह उसके सरोकारों से
पता चलता है, उसके घोषित
उद्देश्यों के बरक्स उसके और उसके अपनों के जीवन में आ रहे बदलावों को वह
कितनी शिद्दत से दर्ज करता है। अक्सर शहर की चकाचौंध में गुम हो चुके हमारे हितुओं को हमारे जीवन की
छटपटहट, हमारी आवाजें बहुत देर में और रूक-रूक कर
सुन पड़ती हैं। जब जंगलों में, गांवों में जहाँ अभ्रक-बाक्साइट के
लिये, अकूत प्राकृतिक सम्पदा
के लिये जो बाज़ार सजाये जाते हैं ऊसके तार दूर देशों तक फैले होते हैं। लेकिन इन
बाजारों में जीवन की बेहद जरूरी
चीज़ें नही मिलती बल्कि हमारी जरुरतों को पूरा
करने वाले संसाधनों को
बेचने-रखाने के लिये सैनिक अड्डे जरुर मिलते हैं। नदियों पर बांध, अभ्रक-कम्बाइन-बाक्साइट
और पहाड़ों को काटते उखाड़ते लोहे के दैत्य, इन्हें कवि 'फूल की तरह खिलते देखता है' जिन फूलों को बचाने और बेचने के
लिये 'सैनिकों के स्कूल खुले
हैं'। ध्यान रहे ये स्कूल बच्चों को
बारहखड़ी नहीं सिखाते बल्कि उन्हें 'गुरिल्ला' युद्ध सीखने-सिखाने की ओर ठेल रहे होते हैं। अपने लोगों
की ये बेबसी और साम्राज्यवादी ताक़तों
की इन करतूतों को भला कोई कैसे भूल सकता है और कब तक? 'शहर के दोस्त के नाम
पत्र' नामक कविता में अनुज
लुगुन विश्व बाजार की दुनिया से जुड़ रहे
अपने गांव को उजाड़े जाते देख रहा
है। इतना बड़ा बाज़ार लेकिन कोई सगा
नहीं है, हमारी एक-एक चीज़े जा रही हैं बाज़ार में –
'कल एक पहाड़ को ट्रक
पर जाते हुए देखा
उससे पहले नदी गई
अब खबर फैल रही है कि
मेरा गांव भी यहाँ से जाने वाला है"
अपने दोस्त को लिखे जा रहे खत में अपने गांव-जवार की
गाथा, त्रासदी लिख कर कवि चुप नहीं रह जाता। आदिवासी समाज
आदिम उत्पादन सम्बन्धों से उठा कर सबसे आधुनिकतम उत्पादन सम्बन्धों की दुनिया में फेंक
दिया जाता है। इन असमान सम्बन्धों के बीच
कितने जीवन अकाल मौत मरते हैं, कितने जीवन बेदर्दी से कुचल दिये जाते हैं
इसका आकलन किसके पास है। और इन मौतों को किसी युद्ध में मारे जा रहे लोगों
की मौत क्यों न माना जाये? इस लूटखोर तंत्र के चलते उजाड़े गये जन
जिन्हें उत्पादन के उन्नत साधनों पर काम करना नहीं आता, जो पेट की आग बुझाने
के लिये शहरों में मरने-खपने को अभिशप्त हैं उनका ख्याल रखने की चिंता
करते हुए कवि अपने दोस्त से कहता है कि –
"शहर में मेरे लोग तुमसे मिले
तो उनका ख्याल जरुर
रखना
यहाँ से जाते हुए उनकी
आँखों में
मैंने नमी देखी थी
और हाँ !
उन्हें शहर का
रीति-रिवाज़ भी तो नहीं आता
मेरे दोस्त
उनसे यहीं मिलने की
शपथ लेते हुए
अब मैं तुमसे विदा
लेता हूं।"
रात में नींद और नींद में फौजी आहटों की दस्तकों के
बारे में, तमाम किचकिच और हाड़तोड़ काम के बाद
आरही नींद के बारे में, सोते-सोते अचानक कल के
बारे में सोच कर उचटती नींद
के बारे में हम बात नहीं करना चाहते। क्योंकि ये बातें हमारी रातों में
खलल डालती हैं। प्रेम में डूबी कविता में आ रही नींद जो अपने सबसे
खूबसूरत क्षणों में अचानक हमसे छिटक जाती है। इन यंत्रणाओं को हम कविता
में व्यक्त करने के बावजूद, ये हमसे अलग हट कर
सवाल करती हैं कि आखिर ये
देश किसका है और यह देश कितना मुझमें है और मैं इस देश में कितना हूं? जिन्हें जाँच-पड़ताल
के नाम पर सरे रात उनके घरों से उठा लिया जाता हो, जिन्हें विरोध करने की कीमत अपने जननांगों में
पत्थर और चेहरों पर तेजाब उडेले
जाने से चुकानी पड़ती हो, उन उजड़ी आँखों की
नींद की कीमत कौन अदा करेगा? "प्रेम कविता की रात
में" कवि कहता है –
"हम घुल जाना चाहते हैं
ब्रह्माण्ड में
हमारे होंठ एक दूसरे
के होंठों को ढूंढते हैं
दाँत कहीं गड़ा देना
चाहते हैं खुद को मासूमियत से
उंगलियाँ उलझ जाना
चाहती हैं रम्य घाटियों और जंगलों में
लेकिन तभी अचानक दस्तक होता है
दरवाजे पर उस आदेश का
फौजी बूटों और राइफलों
से हमारे दरवाजों को पीटा जाता है
और हमारे काम का आठ
घंटा आठ सदी की यंत्रणा में बदल जाता है"
अनुज लुगुन की कविताओं में आदिवासी जीवन की संघर्षशील
छवि है तो देश-दुनिया के तमाम दुखी और सताये लोगों से एका बनाने की, साझे दुखों और साझे
दुशमनों को समझने पहचान भी कराती हैं। यहाँ प्रेम
करती स्त्री किसी चाँद की
मांग पर अपने वजूद और रंग
को नहीं भूलती और न ही अपने गांव से बाहर आ कर काम करती स्त्री अपने लोगों और
अपनी मूल पहचान को भूलती है। यहाँ चूल्हों में खौलते सपने हैं, तो अपनी आभा से अपनी
श्रम सौंदर्य से जीवन को सुंदर बनाने में मुब्तिला है। "औरत की प्रतीक्षा में चाँद", 'गरीब मंच की औरतें', चुल्हों की दुनिया' की स्त्रियों का तेवर अपने परिवेश की चुनौतियों से जूझते
आदिवासी स्त्रियाँ हैं जो –
'वह एक औरत है' जानती है वह
'वह एक आदिवासी है' जानती है वह
वह जानती है उन जगहों
के बारे में
जहाँ कैंप लगते हैं
जहाँ मुठभेड़ होती है
वह जानती है बारिश के
बारे में
रुगडा-खुखडी झूमते हैं
पीतल की हो या
पैलेट की हो बारिश तो
(पुतलियों की बारिश हो
तो)
जिन्दा आँखें गरजती
हैं
एक कविता अपने समय-समाज में किस तरह हस्तक्षेप करती है, इसी से उसमें निहित जीवन दृष्टि व दिशा का
भान होता है। युवा कवियों में अनुज लुगुन का नाम वर्चस्वशाली संस्कृति
के विरुद्ध प्रतिरोध करती कविताओं के कवि के रूप में लिया जाता है। आदिवासी
समाज में आ रहे आन्तरिक बदलाव, मुख्य धारा की संस्कृति-राजनीति के
प्रभाव में बदलती जीवन स्थितियों के साथ ही दमनकारी शासन सत्ता के चरित्र
के अलग-अलग रूपों को उनकी कविता अपना विषय बनाती है। वह इन सवालों को महज विषय
बना कर प्रस्तुत करने तक सीमित न रह कर जंगल के साथ सहजीवन जीते जनों
की संघर्षपूर्ण ऐतिहासिक विरासत की याददिहानी भी कराती है। उनका पहला
कविता संग्रह 'बाघ और सुगना मुण्डा
की बेटी' एक लम्बी कथा-कविता है। यहाँ 'बाघ' अपने लम्बे नाखूनों के
साथ जंगल से बाहर का प्राणी है।
प्रतीकात्मक तौर पर स्वाभाविक जीवन को तहस-नहस करती 'सभ्य' विकासवादी राजनीति की
हिंसकता के खिलाफ लड़ती 'जंगली' समाज की जद्दोजहद सामने लाती है -
सुगना
मुण्डा की बेटी हैरान है कि वह
उस
बाघ की पहचान कैसे करे ...?
कुछ
कहते हैं
वह
सभ्यता का उद्घोषक है
सत्ता
का अहं है
कुछ
कहते हैं
वह
आदमी ही है"
वह कौन सा आदमी है जो आज 'बाघपन' लिए हमारे बीच मौजूद है, उसकी पहचान होनी चाहिए। 'लिखित 'शब्दों के जंगल ने
तमाम अलिखित स्वर को, संगीत को घेर कर इतना सताया गया है कि
इन शब्दों पर उसे शक होने लगा है। वे अपने अलिखित गान को प्रतिरोधी संगीत के
तौर पर बार-बार याद कर रहे हैं। एक वर्चस्वशाली संस्कृति अपने दर्शन, साहित्य औ राजनीति के
साथ अपने विविध निर्गंधी फूलों के लिए सामने आती है, रिझाती है लेकिन इन
फूलों की गन्ध कभी भी 'सुगना' जैसे आदिवासियों के
लिए अपनी नहीं लगी। वे उन फूलों की बात करना चाहते हैं जिन्होंने अपनी कोमलता
से नहीं अपने रंग से ही 'बाघों' को चुनौती दी थी। लेकिन आज 'सभ्यता' 'सम्भ्रान्त'' व सवर्ण' सौंदर्य बोध के निकषों
पर आदिवासियों के संघर्ष
के गीतों, जीवन संघर्ष को इस तरह
कसने की कोशिश की गई कि वे अपनी भाषा को
अनुदित भाषा के सहारे समझ पा रहे हैं। अपनी भाषा, अपनी जमीन से कटाव का ही नतीजा है कि 'समसत्ता का
पितृसत्तात्मक' भाष्य ही उनके सामने
प्रस्तुत है।
अनुज
लुगुन का काव्य स्वर अपने समय
की सत्ता के 'बघनखे' की पहचान तो कराता है
साथ ही एक खास समुदाय, खास तबके के जीवन में
आ रहे आदिम बदलाव के लिए चिन्तित है। यह चिन्ता किस जमीन पर खड़ी हो कर की जा रही है यह
सवाल आज का गौरतलब सवाल है। आदिवासियत को बचा रखने या पूंजीवादी, वर्चस्वशाली सत्ता के
विरुद्ध प्राकृतिक जीवनशैली, सहजीविता की तस्वीर
कितनी दूर तक, कितने देर तक राहत दे सकती है? कोई कविता कितनी
स्थानीय है उसी में उसकी प्राणधारा देखने को मिलती है साथ ही कितनी
बहिर्मुखी उसमें उसकी दृष्टि को देखने का मौका मिलता है। संतोष की बात है कि 'बाघ और सुगना मुण्डा
की बेटी' की संघर्ष गाथा कहते हुए वह समाज के
विकास के असंगत स्वरूपों को कटघरे में खड़ा करती है। वे अपने अगले कविता
संग्रह 'पत्थलगड़ी' में कोरोना महामारी, कश्मीर की स्वायत्तता हरण करती
हुकूमत, नागरिकता कानून के नाम
पर भयभीत की जा रही आम जनता आदि तमाम उन
सवालों को कविता का विषय बनाते हैं जिनसे आज आम जिंदगी लगातार जूझ रही है, भिड़ रही है। ऐसे समय में एक कवि
अपनी वफादारी गिरवी नहीं रख रहा है बल्कि 'चर्बी लिथड़ी ऐय्याश
देहों' के बरक्स वह वंचित, दमित आबादी के पक्ष में
अपनी आवाज उठाता मिलता है –
"मैंने अपनी वफादारी
नहीं चुनी है
अनाज
के गोदामों के लिए
चर्बी
से लिथड़े ऐय्याश देहों के लिए तो बिल्कुल नहीं
कविता
की उस भाषा के लिए भी नहीं
जो
किसी भूखे की कब्र पर राष्ट्रगान के लिए खड़ी हो ।"
(मेरी वफादारी तुम्हारे
लिए नहीं)
'जल-जंगल-जमीन' पर अपने स्वाभाविक
अधिकार की माँग करते लोग चिड़ियों की आवाज और नदियों को उन्मुक्त प्रवाह को किसी सैलानी
की निगाह से देख कर आत्मविभोर नहीं हो
जाते हैं, बल्कि उसे प्यार करते हैं, उसमें जीते हैं और इसीलिए उसकी खातिर जी-जान से लड़ते रहते हैं..। नदियों का दोहन करते, जंगलों का सफाया करते 'सभ्य' लोग वास्तव में मानव
सभ्यता के सफाये के बीज बो रहे हैं। इस सवाल का समाधान महज पर्यावरण के
प्रति अनुरागभरे भावप्रदर्शन से नहीं
हल होने वाला बल्कि जीवन के लिए प्रकृति व प्रकृति के लिए जीवन के रिश्ते को
समझना जरूरी है -
जिन्होंने
नदी को नहीं समझा
वे
एक दिन प्यासे रह जायेंगे
जिन्होंने
चिड़ियों को नहीं जाना
वे
एक दिन बेसुरे हो जायेंगे
जो
पेड़ों की बात नहीं सुनते
वे
एक दिन नंगे हो जायेंगे
और
जो तुमसे प्यार करते हैं
वे
लड़ेंगे
इन
सारी चीजों के लिए।
'जिन्होंने नदी को नहीं
समझा
वे
एक दिन प्यासे रह जायेंगे
(हमारा प्यार)
इस प्रकार हम पाते हैं कि युवा कवि अनुज लुगुन की
कविता आत्मकेंद्रित मनोवेगों की कविता नही
है, न ही मुख्य धारा के
नाम पर तमाम कला-कोविदों की अनुगामी बनाने को उतारू कवि की कविता है बल्कि इस
कवि की कविता व्यापक सरोकारों से लैस
मुक्ति का आह्वान करते कवि की कविता है। जिनमें उसका समय और उसकी समय की जरूरी
आवाजें दर्ज मिलती हैं। अनुज लुगुन की कुछ एक कविताओं पर दर्ज हो
रही टिप्पणी का समापन करते हुए हम जरुर दर्ज करना चाहेंगे कि गुरिल्लों
के आत्मकथन में महज मनुष्यों को बचा लेने की चाहत नहीं बल्कि हमारी
सहजीवि जीवन को उनकी पूरी खुशबु के साथ बचा लेने और जी लेनी की चाहत से भरी
हुई है। उसका उद्बोधन यूँ ही नहीं है कि –
"ओ! फूलों पर लोटती हुई
तितली
ओ! जुगनूओं की दादी
देखो, छोटी चिड़ी ने
अभी-अभी एक बच्ची को जन्म दिया
है
क्या हमें उसके लिए
गीत नहीं गाना चाहिए...?
जुगनू, तितली, फूल, पेड़, नदी, जंगल
सभी जानते हैं हमारी उम्र
इसी तरह बढ़ती है।"
(गुरिल्ले का आत्मकथन)
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Anuj ji ki kavitao ka satik ,sarthak vivechan vishleshan, Bahut badhai Aashish ji
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