बृजराज सिंह





जन्म 1983 की किसी तारीख को चंदौली (उत्तर प्रदेश) जिले के एक छोटे से गाँव ख्यालगढ़ में। इण्टरमिडिएट तक की पढ़ाई बाल्मीकि इंटर कॉलेज, बलुआ चंदौली से। कुछ दिन उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी में छात्र रहे। फिर बी.ए.,एम.ए.(हिन्दी) और पी.एच-डी (2009) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायेँ एवं लेख प्रकाशित।


शोध पत्रिका वीक्षा का संपादन। ‘मन्नन द्विवेदी गजपुरी और उनका साहित्य’ शीर्षक शोध-प्रबंध शीघ्र प्रकाश्य।

कविता पुस्तिका ‘यही हैं मेरे लोग’ साखी पत्रिका से प्रकाशित (2010)


आदमी को पहचानने की कवि की दृष्टि अलग होती है. यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है. आज के उपभोक्तावादी जमाने में जब लोग भौतिक उपादानों से किसी व्यक्ति की समृद्धि का आंकलन करते हैं, कवि अपना परम्परागत तरीका अपना कर, पसीने की गंध से, उसे चीन्हने की कोशिश करता है. बृजराज सिंह इस दौर के ऐसे युवा कवि हैं जो शहर को भी उसकी देह गंध से पहचानने की बात करते हैं. आईये पढ़ते हैं इस युवा कवि की कुछ तरोताजा कविताएँ. 
        
एक शाम उसके साथ

जब मैं उसके घर के लिए चला 
भूख और भय से सिर चकरा रहा था
आशंकाओं के बोझ से मन दबा जा रहा था
चित्र-श्रृंखला मन में उमड़-घुमड़ रही थी

एक निर्वसना-विक्षिप्त-औरत सड़क पर लेटी
जांघों के बीच की जगह को हाथों से छिपाती है

गर्भवती-किशोरी टांगे फैलाये चलती और अपने
गर्भस्थ के नाम पर रूपये मांगती

दुधमुहें छौने के साथ भीख मांगती लड़की

एल्यूमीनियम के कटोरे में संसार समेटे बच्चा

कूड़े के ढेर से बासी खाने की गंध टोहता
एक अधेड़ चेहरा सबको धकियाते निकल आता है

इन चित्रों से जूझता मैं अकेला
सिर झटककर दूर कर देना चाहता हूँ
और याद करता हूँ

विश्वविद्यालय की झाड़ियों में चुंबनरत जोड़े

सिगरेट के धुएं का छल्ला बनाने की कोशिश करते स्कूल के बच्चे

खिलखिलाती लड़कियां, रंगविरंगी तितलियाँ
कि तभी
याद आने लगता है
स्कूल से छूटी लड़कियों की पिंडलियाँ निहारता नुक्कड़ का कल्लू कसाई

मैं उसके घर की दहलीज पर खड़ा हूँ
अब कुछ याद करना नहीं चाहता
बार-बार सिर झटक रहा हूँ
खटखटा रहा हूँ दरवाजा लगातार
धूल जमी है कुंडों पर
लगता है वर्षों से नहीं खुला है यह दरवाजा
मानों महीनों से खड़ा हूँ यहीं पर
खड़ा खटखटा रहा हूँ लगातार, लगातार
कि तभी एक मुर्दनी चरचराहट के साथ खुलता है दरवाजा
मैं अन्दर घुसता हूँ
इस कदर डर चुका हूँ
लगता है पीछे ही पड़ा है कल्लू कसाई

सामने ही पड़ा है आज का अखबार
पूरे पेज पर हाथ जोड़े खड़ा है कल्लू
नजर बचाकर आगे बढ़ गया
खोजने लगा कविता की कोई किताब
डर जब हावी हो जाए
तब उससे बचने के क्या उपाय बताएँ हैं कवियों ने  
मुक्तिबोध याद आये बेहिसाब
‘अँधेरे में’ जी घबराने लगा मेरा

याद आया मैं तो मिलने आया हूँ उससे
घर की चार दीवारों के बीच महफ़ूज हूँ
दीवारें ही तो महफ़ूज रखती हैं हमें
फ़ौरन तसल्ली के लिए यह विचार ठीक था

उस शाम गर्मजोशी से स्वागत किया था उसने
हम दोनों गले मिले और एक दूसरे का चुंबन लिया
मेरा हाथ पकड़ अपने बगल में सोफे पर बिठाया
और पूछा ठंडा लेंगे या गरम
मैंने कहा दोनों
वह खिलखिलाकर हंसी
और चूड़ियों के खनकने की आवाज के साथ खड़ी हो गयी
सबसे पहले उसने टी.वी. बंद किया
जहाँ दढ़ियल समाचार वाचक
एक लड़की की नस कटी कलाई और
खून से रंगी चादर बार-बार दर्शकों को दिखा रहा था

रोस्टेड काजू और वोदका के दो ग्लास लिए वह वापस आयी
मुझसे क्षमा मांगी कि वह चाय नहीं बना सकती
फिर मेरे बिलकुल सामने बैठ गयी
दुनियादारी की बहुत सी बातों के बीच
हमने बातें की
कि समय बहुत डरावना है
इसमें कविता नहीं हो सकती
और उसने पढ़ी हैं मेरी कविताएँ
मेरी प्रेम कविताएँ उसे बहुत पसंद हैं, परन्तु 
उनमें जीने की कोई राह नहीं दिखती उसे
यथार्थ के अवगुंठनों से कविता लुंठित हो गयी है
उसने अपनी कामवाली को सुबह जल्दी आने को कहकर विदा किया

इस बीच
उसने कई बार अपने बाल ठीक किये
और दर्जनों बार पल्लू सवाँरे
अपने झबरे-सफेद कुत्ते से डपटकर कहा
कि वह चुप क्यों नहीं बैठता

मैंने उससे कहा अब मैं चलूँगा इस उमीद के साथ कि
वह कहेगी थोड़ी देर और बैठिए
पर उसने कहा, ठीक है
वह मुझे छोड़ने बाहर तक आयी
और हाथ पकड़कर कहा कि कभी फुरसत से आइएगा
फिर गले लगाया और कहा शुभरात्रि

बाहर अँधेरा हो गया था
झींगुर सक्रिय हो गए थे

सुबह के अखबार में उसकी नस कटी कलाई से
सफेद चादर रंगीन हो गयी थी


कबीर को याद करते हुए

1. 

यूँ तो मैं बेखता हूँ, पर
मन भर खता का बोझ
मन पर लदा रहता है
क्योंकि मैंने मैली कर 
बापैबंद धर दीनी चदरिया
दास कबीर ने बीनी 
ज्यों की त्यों दे दीनी
सात पुस्त से ओढ़ा-बिछाया
न जाने किस कुमति में फंसकर
तार-तार कर दीनी चदरिया 

2.  

हे महागुरु!
कहाँ से पाया नकार का इतना साहस
दुनिया को ठेंगा दिखाने का अदम्य उत्साह
तुम तो बार-बार कहते रहे
सुनो भाई साधो, सुनो भाई साधो
पर हमने तुम्हारी एक न सुनी
बुड़भस हो, सठिया गए हो
बस बक-बक करते रहते हो
जान तुम्हारा उपहास करते रहे
अब जबकि ठगवा आता है
और लूट ले जाता है हमारी नगरिया
बहुत याद आते हो महागुरु! 


शहर की देह गंध

उसके पास कोर्इ पहचान-पत्र नही है
तो कोर्इ स्थार्इ पता
जैसा कि मेरा है                                                  
-सुंदरपुर रोड, नरिया, बी.एच.यू. के बगल में-
फिर भी वह लोगो को बाज़ार से
उनके स्थार्इ पते पर पहुँचाता रहता है
वह कभी गोदौलिया तो कभी लक्सा
कभी कैण्ट तो कभी कचहरी
कभी मंडुआडीह की तरफ से भी आते हुए
आप उसे देख सकते हैं
(जिससे आपकी ज़ीभ का स्वाद बिगड़ जाने का ख़तरा है)
मुझे तो अक्सर ही मिल जाता है लंका पर
गंगा आरती अैर संकटमोचन में भी उसे देख सकते हैं

परन्तु इतने से आप उसे जान नही सकते
क्यों कि आप में आदमी को उसके पसीने की गंध से
पहचानने की आदत नही हैं
आप मेरे शहर को भी नहीं जान सकते
क्योंकि मेरे शहर की देह-गंध
उस जैसे हज़ार-हज़ार लोगों की गंध से मिलकर बनी है
 

मुअनजोदड़ो*

मुअनजोदड़ो के सबसे ऊँचे टीले पर चढ़कर
डूबते सूरज को अपलक देखना
एक अनकही कसक और अज़ीब उदासी भर देता होगा
कि कैसे एक पूरी सभ्यता
बदल गयी मुअनजोदड़ो (मुर्दों का टीला) में
नाम भी हमने क्या दिया उसे, मुअनजोदड़ो

शायद ऐसी ही कोर्इ शाम रही होगी
डूबा होगा सूरज इन गलियों में रोज की तरह
बौद्ध स्तूप की ऊँचार्इ खिंच गयी होगी सबसे लम्बी
अपनी परछार्इं में उस दिन
और दुनिया की आदिम नागर सभ्यता डूब गयी होगी
अंधेरे में, हमेशा-हमेशा के लिए
सिंधु घाटी की उन गलियों में
सूरज फिर कभी नही उगा होगा

उस दिन की भी सुबह, रही होगी पहले की ही तरह
नरेश ने सजाया होगा अपना मुकुट
नर्तकी ने पहना होगा भर बांह का चूड़ा
बच्चे खेलने निकले होंगे रोज की तरह
किसी शिल्पी ने अपना चेहरा बनाकर तोड़ी होगी देह
कुत्ते रोए होंगे पूरी रात
और सबसे बूढी़ महिला की आंखें चमक गयी होंगी
टूटकर गिरते तारे को देखकर, सूदूर
बदलने लगे होंगे पशु-पक्षी, जानवर, मनुष्य
कंकाल में, र्इंटें रेत में

निकलता जा रहा है समय हमारी मुठ्ठीयों से रेत-सा
रेत होते जा रहे अपने समय में जो कुछ हरा है
उसे बचाकर रखना है ताकि
आने वाली पीढ़ियाँ हमे कहें मुअनजोदड़ो के वासी

*ओम थानवी की पुस्तक मुअनजोदड़ो पढ़कर

पूनम के लिए

यह और बात है कि तुमने
कभी कुछ नहीं कहा मुझसे
पर तुम्हे कितना अटूट विश्वास था 
कि एक दिन तुम्हारे सारे कष्ट
दूर करूँगा मैं ही,
तुम्हारे इस नरक जीवन से छुटकारा दिलाऊंगा

तुम इंतज़ार करती रही, सहती रही
चुप रहकर रोज मरती रही
अंतिम साँस तक तुम्हारा यह विश्वास बना रहा
कि सब ठीक कर दूँगा मैं
सब कहते हैं तुम्हारी पीठ पर आया था मैं
जिस पीठ पर तुमने परिवार के सड़े-गले चाबुक से
ना जाने कितनी मार सही सबके हिस्से की

मैं तुम्हारा भाई
जो तुम्हारे जीते-जी कुछ कर न सका
तुम्हारे मरने पर कविता लिख रहा हूँ
तुम नहीं जानती कविता क्या है
तुम कविता नहीं समझती
तुमने कभी कोई कविता नहीं पढ़ी
फिर भी मैं लिख रहा हूँ
क्योंकि इसके अलावा और कुछ नहीं कर सकता
नहीं काट सकता कैद और शोषण की आदिम बेड़ियों को
लेकिन मेरा विश्वास करना
मैं कविता लिखना नहीं छोडूंगा


अर्नाकुलम में
1.

यह शाम भी
अर्नाकुलम की
उदास, नीरस,
झिंगुरों की चिचिआहट से भरी
झुरमुटों से उतरता अंधेरा
धीरे-धीरे भर जाता
बस्ती, गांव, बाजार, शहर
अंधेरे की चादर तन जाती                                      
दुनिया भर की शामों की तरह

2.

यह सुबह भी
अर्नाकुलम की
उल्लास, उत्साह से भरी
अंधेरे को धकियाता
बादलों के पेड़ों से उतरता
लाल प्रकाश धीरे-धीरे
जैसे मछुआरे ने फेंकी हो
जाल किरणों की
उगते जाते धीरे-धीरे
बस्ती, गांव, बाजार, शहर
हुर्इ नये दिन की शुरुआत
दुनिया भर की सुबह की तरह
 

प्यार की निशानी

तुम्हारे दातों में फंसे पालक की तरह
दुनिया की नजरों में गड़ रही है
तुम्हारे प्यार की अंतिम निशानी

बहुत-बहुत मुश्किल है
उसे बचा कर रख पाना
                              और
उससे भी मुश्किल है
उसे एकटक देखते रहना
                              क्योंकि
दुनिया के सारे नैतिक मूल्य उसके खिलाफ़ हैं




दिन लद गए पद्मिनी नायिकाओं के

यूँ तो वह हमेशा खड़ी ही रहती है
कहीं आती जाती नही
मानों कभी-कभार कही चली भी गयी तो
फिर आकार वहीं खड़ी हो जाती है
उसके खड़े होने का स्थान नियत है
लोगों को ऐसी आदत हो गयी है
कि वहाँ कोई और खड़ा नही होता

मेरे ड्राईंगरूम कि खिड़की से दिखती रहती है
सुबह-सुबह खिड़की का पर्दा हटाते हुए
जब हम सबसे पहले यह कहते हैं
कि सड़क किनारे के घरों में धूल बहुत आती है
तब वह मुहल्ले भर की गर्द ओढ़े हमपर मुस्कुराती है
मृगदाह की चिलचिलाती धुप में
पूस की कड़कड़ाती रात में
भादों की काली डरावनी तूफानी बारिश में
वह वहीं खड़ी रहती रहती है
शहर दक्षिणी से उठने वाली आँधियों में भी
वह ज़रा भी विचलित नही होती
और वैसे ही खड़ी रहती है बे मौसम बरसात में

वह लोगों के बहुत काम भी आती है
सड़क से गुजरता हुआ कभी कोई
अपनी कुहनी टिका सुस्ता लेता है थोड़ी देर
तो कोई पीठ टिका बतिया लेता है फोन पर
कई बच्चों के लिए श्यामपट का भी कम करती है
अपना नाम लिखने के लिए
बस ऊँगली फिराने भर से नाम उभर आता है
आई लव यू तो उसकी पूरी पीठ पर लिखा रहता है
मिसेज पाण्डेय और मिसेज पाठक तो
अलसुबह नाईटड्रेस में उसके सामने
खड़ी होकर घंटों बतियाती हैं
पर उसने किसी की बात किसी से नही कही
अपने मालिक से भी नही

मैं तो उसे बहुत पसंद करता हूँ
आज से नही उस ज़माने से जब पढ़ा था
गुनाहों का देवता
वह है उसमें, और भी कई जगह है
उसका अतीत बेहद गौरवशाली है
अपने समय की पहली पसंद हुआ करती थी वह
राजनेताओं से लेकर कवि-कथाकारों तक की

सड़क पर हर आने जाने वालों को
अपनी मटमैली कातर निगाहों से निहारती रहती है
मैं भी घर से निकलते वक्त उसे
एक नजर देख जरूर लेता हूँ
कभी-कभी लगता है
वह चल देगी मेरे साथ
और ले जायेगी उन सारी जगहों पर
जहाँ मैं चाह कार भी नही जा पाता

मेरा पता गर पूछे कोई
तो बताता हूँ कि
वहीं जहाँ खड़ी रहती है पद्मिनी! फिएट पद्मिनी
हाँ पद्मिनी नाम है उसका
दिन लद गए अब पद्मिनी नायिकाओं के 



संपर्क- 

वीक्षा, एच 2/3 वी.डी.ए, फ़्लैट, 
नरिया, बी.एच.यू. वाराणसी-221005


मो.9838709090      


ब्लॉग - www.samaykavita.blogspot.com
 


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।) 

टिप्पणियाँ

  1. मेरे शहर की देह गंध /उस जैसे हजार-हजार लोगों की देह गंध से मिलकर बनी है.
    बनारस को नास्टेल्जिक तरीके से याद करती एक और खूबसूरत कविता. बृजराज जी की कविताओं में एक नयापन है. टटकापन. प्यार की निशानी में दांतों में फंसे पालक का बिम्ब नया ही नहीं सटीक भी है.
    वाकई तरोताजा कवितायेँ हैं. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  2. कविताएं बेहतरीन हैं. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. पहलीबार ब्लॉग पर प्रकाशित होना मेरे लिए सुखद है. प्रसन्नता हो रही है कि लोगों ने भी पसंद किया है.संतोष जी का बहुत बहुत आभार, धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  4. कविताएँ पढ़ीं। 'कबीर को याद करते हुए' सबसे अधिक प्रभावी लगी,तो शहर की देह गंध, पूनम के लिए, मुअनजोदड़ो भी पसंद आईं। पहली कविता अपनी सच्चाई और चित्रण में प्रभावी तो है, किंतु उसमें धूमिल के घालमेल सा कुछ लगा...साथ ही मुक्तिबोध की लय है, जो जँची।... मुअनजोदड़ों की यह पंक्ति कि बौद्ध स्तूप की लम्बाई खिंच गयी होगी सबसे लम्बी-- कुछ समझ में नहीं आई...

    जवाब देंहटाएं
  5. बेहतरीन कविताएँ , बहुत सुंदर .
    -नित्यानंद गायेन

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'