विनोद दास का संस्मरण 'बिना ताले का घर : अशोक सेक्सरिया'
अशोक सेकसरिया अशोक सेकसरिया ने समृद्ध घर में जन्म लेने के बावजूद जो सादगी भरा जीवन वरण किया था वह आज किंवदंती सरीखा लगता है। निर्लिप्त हो कर जीवन जीना आसान नहीं होता। अशोक जी ने इसे अपने जीवन में सम्भव किया था। अशोक जी को देख कर मन में सहज ही किसी ऋषि की तस्वीर उभर कर सामने आती है। वे हमेशा सामान्य जन की बेहतरी के लिए सोचने वाले खांटी समाजवादी व्यक्ति थे। कबीर का एक दोहा अक्सर मेरे जेहन में उमड़ता घुमड़ता रहता है - 'साईं इतना दीजिए जानें कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।।' आज जब धन लिप्सा लोगों का ध्येय और प्रेय बनी हुई है ऐसे में कबीर का यह दोहा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। अशोक सेकसरिया कबीर के इस पथ के ही अनुगामी थे। कवि सम्पादक विनोद दास को लम्बे समय तक अशोक जी का सान्निध्य मिला। उन्होंने अशोक जी के संस्मरण को आत्मीयता के साथ शब्दबद्ध किया है। कल 29 नवम्बर 2014 को अशोक जी की दसवीं पुण्य तिथि पर हमने शर्मिला जालान का संस्मरण प्रस्तुत किया था । इसी शृंखला में आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं विनोद दास का संस्मरण 'बिना ताले का घर : अशोक सेक्स...