विजेंद्र जी से अशोक तिवारी की बातचीत





विजेंद्र जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है. मूलतः एक कवि होने के साथ-साथ वे एक बेहतर इंसान हैं, बढ़िया पेंटिंग्स बनाते हैं, गद्य में भी उनका कोई सानी नहीं। 'कृति ओर' जैसी पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं. विजेंद्र जी से नोएडा में उनके घर पर अशोक तिवारी ने हाल ही में एक बातचीत की है जिसमें विजेंद्र जी ने साहित्य, समाज, राजनीति और कविता के विविध पक्षों पर खुल कर बातचीत की है. तो आईये पढ़ते हैं यह बातचीत। 

साहित्य - शिवेतर क्षतये 

लोक क्या है?

जब 1857 का युद्ध लड़ा जा रहा था तो कौन लड़ रहा था? जनता ही लड़ रही थी कि नहीं? तो लड़ने वाली जनता ही तो लोक है। हर जाति का एक सांस्कृतिक रूप होता है और एक संघर्षधर्मी रूप होता है। ये दुर्भाग्य है इस देश का,  इतिहासकारों का,  जो बूर्जुआ मनोवृत्ति के इतिहासकार हैं उनका, कि औपनिवेशिक आधुनिकता की वजह से उन्हें वो पक्ष दिखाई नहीं देता। लोक कहते ही एकदम से गांव, गांव की चित्रकला,  नृत्य, अन्धविश्वास - ये सारी चीज़ें बूर्जुआ ने हमारे दिमाग़ में बिठा रखी हैं। अब लोक का जो मनोरंजक रूप है - गाने,  लोकगीत,  लोकनृत्य वग़ैरा, जो आदिवासी करते हैं लेकिन वे लड़ते भी तो हैं। पूरे स्वतंत्रता संग्राम में सबसे ज़्यादा आदिवासी ही क़ुर्बानियां दे रहे थे। ऐसा कोई प्रांत नहीं था जहां आदिवासी अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़ नहीं रहे हों, लेकिन इतिहास इसको नहीं बताता। जो नई खोजें हुई हैं इतिहास की, आदिवासियों पर जिन्होंने काम किया है- उन्होंने बाकायदा आंकड़े दिए हैं कि इस प्रदेश में इतने आदिवासी मारे गए - और उस प्रदेश में इतने आदिवासी मारे गए।
सम्पन्न लोकतंत्र में हमें लोक को पुनर्परिभाषित करना बहुत ज़रूरी है। एक लोक है, एक प्रभु लोक है। संपन्न वर्गों का लोक है प्रभुलोक। लोक वह जो अपने श्रम पर जीवित है, जो लड़ रहा है - यानी सर्वहारा। मैं लोक को सर्वहारा का पर्याय मानता हूं। और पिछले 20 साल से इस बात पर बार-बार हिट कर रहा हूं। तुम्हें आश्चर्य होगा लेखन सूत्रका जो अंक मेरे ऊपर निकला था, उसमें कुंवरपाल सिंह का मेरे ऊपर एक लेख है - उन्होंने शुरू किया है कि विजेंद्र जी लोक के उस समय से समर्थक रहे हैं जब लोक को गाली समझा जाता था। आज स्थिति है कि लोग फैशन बतौर लोक को इस्तेमाल करने लगे हैं। लेकिन उसके सही रूप को इस्तेमाल नहीं करते हैं। जब आप लोक को सर्वहारा से जोड़ देते हैं तो गांव, शहर का फ़र्क़ कहां रहा? वहां भी एक सर्वहारा है और यहां भी है। पूरे विश्व में है। एक प्रतिरोध की जो शक्ति है, वो पूरे विश्व में है। मतलब लोक वैश्विक है - प्रतिरोध की शक्ति। फिर ये प्रश्न खड़ा कर देते हैं कि साहब लोक पर इतना ज़ोर क्यों? मेरा कहना है कि लोक हमारा अपना शब्द है जो सामान्य आदमी के साथ जुड़ा है। जैसे हम प्रोलेतेरियेत कहते हैं तो आदमी नहीं समझता उसे, या सर्वहारा कहते हैं तो वो नहीं समझता, लेकिन लोक कहते ही समझ जाता है। हमारा दायित्व ये है कि हम उसे पुनर्परिभाषित करें। भरत मुनि ने जब भरत नाट्यम लिखा था तो तीन तरह के लोगों को लोक में लिया था। जो श्रमार्थ हैं यानी श्रम से थके हुए, और शोकार्थ हैं, जीवन में जो शोक उत्पन्न होता है उससे दुखी हैं और दुखार्थ, अभावग्रस्त लोग जो हैं वो दुखी हैं। इन तीन कोटियों में वही वर्ग तो आता है। श्रमार्थ और दुखी वर्ग ही तो आता है। चूंकि भरत नाट्यम के पीछे अवधारणा ये थी कि वेद सबको पढ़ने के लिए स्वीकृत नहीं थे। लोग कहते हैं भरत मुनि सब वर्गों के नीचे वाली जाति के थे।

अब ये सोचने की बात है कि हमने अपनी राजनीतिक व्यवस्था का नाम नृपतंत्र क्यों नहीं रखा, लोक तंत्र ही क्यों रखा। अपनी जीवन पद्धति को ऐसे ही क्यों रखा? हमारे संविधान  का जो आमुख (Preamble) है, उसमें तीन मूल्य दिए हुए हैं - समाजवाद, धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्र। मतलब हमारे समाज की पूरी संरचना तीन खंभों पर खड़ी हुई है। भले ही वोपूरी नहीं कर रहे हैं। उसके लिए संघर्ष ज़रूरी है। हमने केवल क्रांति की पहली मंज़िल पार की है यानी राजनीतिक स्वतंत्रता। लेनिन ने कहा है कि क्रांति से पहले संघर्ष करना पड़ता है, क्रांति के दौरान व क्रांति के बाद भी संघर्ष करना पड़ता है। वो संघर्ष जारी है। जैसा भी है लेकिन वो जारी है। तो उस लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्राप्त करने के लिए जो संविधान के आमुख में चीज़ें दी गई हैं, आप जब तक लोक में एकात्म नहीं होंगे, तब तक उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते हैं। क्योंकि लड़ने वाली शक्ति तो वही है। सर्वहारा ही तो लड़ता है - यहां के किसान, छोटे किसान, भूमिहीन किसान, खेतिहार किसान, बुनकर, लकड़हारे इत्यादि। दूसरा ये है कि श्रमिकों को यहां के छोटे किसानों से जोड़ना पड़ेगा। भारत की स्थिति ऐसी नहीं है कि आप केवल श्रमिक वर्ग के आधार पर क्रांति कर दें। यह मुमकिन ही नहीं हैं। आज भी अगर ध्यान से देखा जाए तो जन शक्ति का जो स्वरूप है, वो देहातों में दिखाई देता है। आप देखिए, किसान जब आंदोलन करते हैं, पटरियों को घेर लेते हैं, सड़कें रोक लेते हैं .......ये सब तीन दिन से ज़्यादा नहीं चलता और सत्ता उनके सामने झुक जाती है। श्रमिक एक महीने तक हड़ताल करते रहें कोई सुनता ही नहीं हैं। ये शक्ति आज देहातों में, गांवों मे सुरक्षित हैं। उस शक्ति को संगठित करना ज़रूरी है। इस पर लेनिन की एक किताब है Alliance between workers and peasants. 
माओ ने जो बड़ी सेना तैयार की वो किसानों की ही तो थी। हमारे देश की जो भौगोलिक परिस्थितियां हैं, वो चीन से बहुत मिलती-जुलती हैं। किसानों की संख्या वहां भी ज़्यादा थी क्रांति के समय और हमारे यहां भी ज़्यादा है। तो मेरे कहने का मतलब यह है कि लोक को एक नई दृष्टि से देखने की ज़रूरत है आज। और उसके सही रूप को समझने की ज़रूरत है। यानी लोक का जो विलोम, प्रतिलेाम या उससे जो विपरीत है वो क्या होगा - प्रभुलोक ही तो होगा। लोक कहते ही सामान्य पर दृष्टि जाती है। तो सामान्य को खोजो। सामान्य और असामान्य। तो सामान्य ही तो लड़ने वाला और संघर्ष करने वाला वर्ग है जो उत्पीड़ित है, जिसका शोषण हो रहा है। और वो अपनी यथास्थिति से लड़ भी रहा है। ये विपरीत तत्वों की एकरूपता है। यानी सहअस्तित्व भी है और लड़ाई भी है। सहअस्तित्व उसकी मजबूरी है, लेकिन संघर्ष करना उसकी नियति है। तो जैसे तुमने कहा.......लोक नहीं छूटता...तो ये लोक का वह रोमांटिक रूप है जिसको बूर्जुआ हमारे दिमाग़ में बिठाता रहा है। विदेशी लोग भी यहां आते हैं। फ़ोक  डांस और फ़ोक  कल्चर के लिए परेशान रहते हैं। लेकिन कभी वे ये भी सोचते हैं कि ये फ़ोक का जो स्ट्रगल है, जन समूह का जो स्ट्रगल है, वो क्या है? उसके बारे में भी सोचें। तो आप पाएंगे कि हर किसी जाति का एक सांस्कृतिक रूप होता है और एक संघर्ष का भी रूप होता है। ये हमारी संस्कृति है, लेकिन हमारा संघर्ष भी तो है। हमने आज़ादी प्रार्थनाओं से नहीं ली है, संघर्ष से ली है और उसकी एक परंपरा है।
उस परंपरा में वे किसान ही थे, उनके लड़के थे जो बाक़ायदा लड़ रहे थे, सारा जनसमूह, पूरा हिंदुस्तान लड़ रहा था। नेतृत्व भले ही मध्य वर्ग का था लेकिन लड़ने वाला अग्रिम दस्ता हमेशा सर्वहारा ही होता है। वही लड़ता है। तो लोक को इससे जोड़ना चाहिए। इसके लिए उद्भावना के भारतीय चिंतन-सृजन का प्रगतिकामी मानवीय पक्षपर केंद्रित विशंषाक में मेरे एक लेख लोक की अवधारणा: समकालीन काव्य परिदृश्य में’ को पढ़ा जा सकता है। 
मेरी शुरू से यही अवधारणा रही है कि हम लोक को पुनर्परिभाषित करें व उसकी पुनर्व्याख्या करें और इसे इतिहास का जो संघर्षशील वर्ग है, उससे जोड़ें।

तो क्या वे व्यक्ति जो किसी राजनैतिक या सामाजिक संघर्ष का सीधे-सीधे हिस्सा नहीं रहे हैं और अपने जीवन में रोटी-पानी का संघर्ष कर रहे हैं, लोक का हिस्सा होंगे?
देखिए लोक का सीधा -सीधा अर्थ है जनता एवं संघर्ष करते लोग। अब तुम कहोगे बहुत सारे लोग संघर्ष नहीं कर रहे तो जब तक वे संघर्ष नहीं करेंगे तब तक मुक्त भी नहीं होंगे। अच्छा, संघर्ष क्यों नहीं कर रहे? क्योंकि प्रशिक्षित नहीं हैं। वर्किंग क्लास रिवोल्यूशनरी होती है। उसका दायित्व होता है कि जो निष्क्रिय और निकम्मे हैं, उनको सक्रिय करें। ऐसा कौन सा व्यक्ति है जिसकी इच्छा अच्छा जीवन जीने की न हो? लेकिन वो लगता है बिलकुल मुरझाया हुआ सा। कभी अपने कान को उसके सीने पर रख कर देखो, उसमें अंदर ज्वालामुखी धधक रहा है। जो तुम्हें मुरझाए हुए चेहरे दिखाई दे रहे हैं उनके अंदर अग्नि है, लेकिन मजबूर हैं। अब देखिए सारा बंगाल यहां आकर काम कर रहा है। काम करके चले जाते हैं, दुखी हैं। लेकिन इनको टटोलिए आप, इनके अंदर प्रवेश करके देखिए तो! poet is one who looks in to the heart of people also. देखिए किसी यथार्थ के दो पहलू होते हैं एक appearance जिसको हिंदी में कहेंगे छाया प्रतीति और एक होता है essence मतलब सार तत्व। तो हम 90 फ़ीसदी लोग बल्कि 95 फ़ीसदी लोग छाया प्रतीतियों से विमोहित होते हैं। ये बाज़ार क्या है? छाया प्रतीति ही तो है। जिस बाजार को सारे लोग महिमा मंडित कर रहे हैं वो छाया प्रतीति है। इसका सार तत्व क्या है? सार तत्व तो साम्राज्यवाद का जो वित्तीय पूंजी विस्तार हुआ है, वह है - नव उपनिवेशवाद का हमला। 
पिछले दिनों मैंने ज्ञानरंजन का एक छोटा सा साक्षात्कार एक पत्रिका में पढ़ा - मुझे उनका एक वाक्य पढ़ कर बड़ा दुख हुआ। ज्ञानरंजन ने कहा कि ये दुनिया बाजार की उपज है। कितना भ्रामक वाक्य है ये। कहना ये चाहिए कि ये बाज़ार इस दुनिया की उपज है। बाज़ार का मतलब क्या है? देखिए....साम्राज्यवादी देश चिकने चुपड़े शब्द बना कर जैसे मार्केट इकोनमी’, ‘लिबरल इकानोमीआदि को एक्सपोर्ट करते रहे हैं। ये भी ख़ासतौर से उन देशों के लिए जो विकासशील हैं। साम्राज्यवादी देश अपनी वित्तीय पूंजी को मंडियां तलाश करने के लिए चारों ओर परेशान हैं। उसका नाम बाज़ार दे दिया। मार्केट इकोनमीपर कविताएं लिखी जा रही हैं, बाज़ार और भूमंडलीकरण पर कविताएं लिखी जा रही हैं। लेकिन इसके जो कारक हैं उस पर कोई हमला नहीं कर रहा है। बाज़ार का कारक क्या है- साम्राज्यवाद। है कि नहीं? उस पर आक्रमण नहीं करते हैं। बाज़ार पर कविता लिखेंगे जैसे उसका महिमामंडन कर रहे हों। इसलिए मैंने कहा कि Market is the appearance of the reality - ये छाया प्रतीति है। इसका सारतत्व है साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी का विस्तार, जो हमारे देश को एक कॉलोनी बनाए हुए है। स्थिति ये है कि हम ईरान से अपने मैत्री संबंध भी नहीं बना सकते। अभी अमरीका ने धमकी दी है कि प्रतिबंध लगा देंगे। अगर हमने ईरान से ज़्यादा संबंध बढ़ाए या तेल ज़्यादा लिया तो हम प्रतिबंध लगा देंगे। ये एक कॉलोनियल विस्तार है उसका। मतलब कल साम्राज्यवाद का स्वरूप दूसरा था। युद्ध करता था। आज युद्ध नहीं करता है। आज अपनी वित्तीय पूंजी का विस्तार करके हमें ग़ुलाम बना लेता है। वर्ल्ड बैंक, इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड और वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन - इन तीन खंभों से विकासशील देशों को अपना दास बनाता है। तो कारक ये हैं। इन पर हमला नहीं होता। बाज़ार पर बोलेंगे। ज्ञानरंजन जैसा व्यक्ति जो 20-25 साल तक पहलचलाते रहे हैं। हालांकि मैं पहलको बहुत महत्त्वपूर्ण पत्रिका नहीं मानता। क्यों याद कर रहे हैं आप पहल को? कोई ऐसी बात बताइए जिससे पहलको याद किया जाए? जैसे हम सरस्वतीको याद करते हैं या रामविलास शर्मा के समालोचकको याद करते हैं। हमने कृति ओरसे लोक के लिए संघर्ष किया है और आज दुनिया जान गई है। हम से लोग कहते हैं कि ये तो लोक का जाप करते रहते हैं - हमें खुशी होती है। ऐसा पहलने कुछ नहीं किया। पहलआधुनिकतावादी लोगों को इकट्ठा करती रही है। कहने को बीच-बीच में मार्क्सवादियों को भी स्पेस देती है। मतलब वो भ्रम फैलाते हुए हमेशा उसे भव्य रूप में निकालते रहे। एक आंतक था उसे मोटी पत्रिका के रूप में निकाल कर। एक बार मैंने आनंद प्रकाश जी से पूछा तो वे बोले - पहलतो बूर्जुआ मैग्ज़ीन है। बिलकुल सही कहा उन्होंने। उनका सही चेहरा इसमें आ गया है। मैंने इस पर एक बहुत बड़ा नोट अपनी डायरी में लिखा है। ज्ञान जी ने अपने साक्षात्कार में कहा है कि अब हमारे जीवन का अंत हो गया हैया हमने अपने आपको सत्ता को समर्पित कर दिया हैवग़ैरा-वग़ैरा वाक्य दिए हैं उन्होंने। उनको ये नहीं दिखाई दिया कि संघर्ष भी है। इतिहास का ऐसा कोई दौर नहीं रहा जिसमें केवल पराजय ही पराजय हो। संघर्ष बराबर उद्घाटित हुआ है। इतिहास का मतलब ही ये है कि समाज में वर्ग संघर्ष है।
दरअसल इन सारे लोगों ने समर्पण कर दिया हैं। मेरा कहना है कि वे मार्क्सवादी नहीं थे केवल प्रगतिशील लेखक संघजो था उसके सदस्य थे - अंदर वो अराजक थे। आप देखिए कि उनका गहरा संबंध उन लोगों से था जो आधुनिकतावादी हैं, जो कॉलोनियल मॉडर्न (औपनिवेशिक आधुनिक) हैं, जैसे मंगलेश डबराल, असद जैदी, देवीप्रसाद मिश्र वग़ैरा वग़ैरा। अब बताओ तुमसे उन्होंने कभी पूछा रचना के लिए?

 
नहीं, कभी नहीं। मैने एक बार दो-तीन रचनाएं भेजीं। उन्होंने लौट कर पत्र लिखा कि हम आपकी रचनाओं का इस्तेमाल करेंगे, लेकिन अभी नहीं.......पत्र के आख़िर में उन्होंने कहा कि हम लोगों से कह के लिखवाते हैं।
हां कह के कराना, कि किसको उछालना है किसको नहीं - अब देवी प्रसाद मिश्र जैसा व्यक्ति जिसमें कविता बिल्कुल है ही नहीं- उसकी 40-40 पृष्ठों की कविताएं छापीं उन्होंने पहलमें। जिस पर लोगों ने ऐतराज़ किया कि ये तो कविता हैं ही नहीं। ऐसे लोगों को वे लाइमलाइट में लाते थे। मेरा तो उनसे कई बार कटु पत्र व्यवहार भी हुआ था। और हमारे संबंधों में भी खिंचाव आ गया था। क्योंकि जब उनके 60 वर्ष हुए थे तो उन्होंने जनसत्ताको एक इंटरव्यू दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि लफंगे, चरित्रहीन लोग भी उच्च श्रेणी का साहित्य लिख सकते हैं। इस पर मैंने एक पत्र लिखा था उन्हें। पर उसका जवाब नहीं दिया उन्होंने। पत्र मेरी डायरी में छपा है।
  
मार्क्सवाद उन्होंने पढ़ा ही नहीं है। मार्क्सवाद जो गहराई से पढ़ लेगा वो कभी ऐसा नहीं this is the insult of the people. ऐसा कोई महान लेखक नहीं है जो आदमीयत से गिरा हुआ हो और उसका लेखन महान हो। ये हो ही नहीं सकता। बल्कि मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूं अंग्रेज़ी लेखक ऑस्कर वाइल्ड का। ऑस्कर वाइल्ड बड़ा कुकर्मी था। आचरण से भी गिरा हुआ था। तो हुआ ये कि कुकर्मों की वजह से उसको जेल हो गई। वो हमेशा आर्ट-आर्ट चिल्लाता था। ब्यूटी आर्ट, ब्यूटी आर्ट। जब वह जेल में पड़ा हुआ था तो उसने कहा कि Now I change my statement----virtue is more important, morality is more important than anything else. और ये भी कहा कि मेरा देश मुझे अब बड़ा लेखक नहीं मानेगा और अब मेरे लिए जगह के नाम पर केवल गुफाएं है जहां पर मैं अपना मुंह छिपा के मर सकता हूं। ये पश्चाताप किया था ऑस्कर वाइल्ड ने।
किसी में हिम्मत नहीं थी, सब डरते थे ज्ञानरंजन जी से। उनके पास पुरस्कार भी था और पहलथी। मैं जो बात होती है उसे कहता हूं। मैंने ओरके निकलने पर जब कुंवर पाल सिंह को पहला पत्र लिखा था तब लोक का संदर्भ दिया था। तब वे हँसे थे, मज़ाक उड़ाया था मेरा ....अरे विजेंद्र जी क्या लोक-वोक की बात करते हो, वर्ग चेतना की बात करो। हां, एक सवाल ये खड़ा हो सकता है कि लोक ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है या वर्गचेतना? तो मेरा कहना ये है कि वर्ग चेतना तो हमारी एक दृष्टि है....वो लेाक से ही तो निकलेगी। लोक हम तभी तो कह रह हैं जब हमारे पास वर्ग दृष्टि है। प्रभुलोक और लोक का हमने जो विभाजन किया है, वो वर्ग दृष्टि से ही तो किया है। रिवोल्यूशनरी वर्ग जो है सर्वहारा का - वही सच है। The revolutionary class is the only truth.
अभी साक्षात्कार की एक मोटी किताब शिल्पायनसे आ रही है उसमें ऐसे बहुत सारे प्रश्न किए है लोगों ने मुझ से। 

परंपरा के सवाल पर पिछले दिनों अमर्त्य सेन ने काफ़ी कुछ लिखा है.....

अमर्त्य सेन घपलेबाज आदमी हैं। क्या लिखेंगे वो? अच्छी बात भी कह सकते हैं और भ्रमित करने वाली बात भी लिख सकते हैं। देखिए मैं इस बात में बहुत सख़्त हूं। मैं जानता हूं जिस आदमी को नोबल प्राइज़ मिला हुआ है, जो आदमी रात दिन अमेरिका में रहता है - वो क्या सोचेगा भारत जैसे देश के बारे में? यहां एजूकेशन नहीं है, एजूकेशन होनी चाहिए, भारी भुखमरी है - ये बता रहे हैं आप। लेकिन ये क्यों है, इस पर बात नहीं कर रहे। ये तो आप फ़िनोमिना बता रहे हैं। फ़िनोमिना बताना आईडियोलोजिस्टिक फ़िलोसफ़ी का काम है, रिवोल्यूशनरी फ़िलोसफ़ी का काम नहीं है। मार्क्सवादी फ़िलोसफ़ी का काम है - how to change the world. ज़्यादातर फ़िलोसफ़ी तो यही बताती रही है कि संसार ऐसा है, जीवन ये है, दुख ये है, दुख के कारण ये हैं लेकिन उन्होंने ये कभी नहीं बताया कि संसार को बुनियादी तौर पर बदल सकते हैं - ये केवल मार्क्स ने बताया। अमर्त्य सेन बग़ैरा को मैं ज़्यादा तवज्जोह नहीं देता।


मिथकों के जुझारूपन पर विभिन्न पौराणिक एवं मिथकीय संदर्भों को अमर्त्य सेन ने अपनी किताब The argumentative Indian में उठाया है - गीता के विभिन्न संदर्भों को ले कर अपनी बात कही है। इसके पहले अध्याय का पिछले दिनों मैंने हिंदी में अनुवाद किया है।
गीता के ऊपर भी वही अच्छा लिख सकता है जो मार्क्सिस्ट हो। अगर रामविलास शर्मा गीता के ऊपर लिखते तो बेहतरीन लिखते। अमर्त्य सेन गीता पर अच्छा नहीं लिख सकते। हो सकता है वे मार्क्सिस्ट रहे हों किसी समय - मुझे पता नहीं - मैंने थोड़ा बहुत जो पढ़ा है उनके बारे में, मुझे उनका लिखा हुआ और बोला हुआ कभी अपील नहीं करता। उनके लेखन में कुछ न कुछ टैक्टिक्स रहती है। To appease the people. और जो सत्ता है, उसके समांतर बोलते रहेंगे।
यथार्थ को व्यक्त करने वाली जो कविता थी, उसको हमने समकालीन कविता कहना शुरू किया। प्रमाण के लिए प्रो. रेवती रमण जो मुज़फ्फ़रपुर में हिंदी के प्रख्यात समीक्षक हैं, उन्होंने एक किताब लिखी है - 'कविता में समकाल' उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि समकालीनता में सर्वहारा संस्कृति का प्रस्ताव ज़रूरी है। अब देखिए अगर समकालीन होना है तो हमें उस स्तर तक जाना होगा। नागार्जुन ने कहा है – समकालीन होने के लिए ज़्यादा रचना-रचना नहीं करना चाहिए, कला के बारे में ज़्यादा नहीं सोचना चाहिए। हमें जो जन-शक्ति है, उसके बारे में ज़्यादा सोचना चाहिए। रेवतीरमण ने अपनी स्थापना को प्रमाणित करने के लिए नागार्जुन की ये पंक्तियां भी किताब में उद्धृत की हैं। मुझे इससे बहुत बल मिला। मेरे लिए समकालीन वही है जो इतिहास द्वारा प्रदत्त Social dynamics (सामाजिक गतिकी) को आगे बढाए।


 1921 के आसपास लिखी गई निराला की भिक्षुककविता या बाद में 1942-43 में लिखी कुकुरमुत्तासमकालीन कविता में आएंगी?
बिल्कुल-बिल्कुल, यानी कई बार लोग हमारे युग के नहीं होते पर समकालीन हो जाते हैं। कुछ कवि हमारे समय के न होते हुए भी हमारे समकालीन हो जाते हैं, जैसे मीरा। मीरा अपने समय में सामंतों के ख़िलाफ़ अपने आचरण से लड़ रही थी। वो हमारे ज़्यादा नज़दीक है बनिस्बत गगन गिल या अनामिका जी के। वो ज़्यादा समकालीन हैं क्योंकि वो हमसे जुड़ती है, हमारे संघर्ष से जुड़ती है। कबीर हमारे ज़्यादा समकालीन हैं जब वे आडंबरों और पाखंडों की तीव्र आलोचना करते हैं। आज की कोई कविता नहीं करती। मैं 95 फ़ीसदी कविता की बात कर रहा हूं।

और जब यही कबीर रहस्यवादी हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं तो कूता राम कातो वहां पर उनकी समकालीनता ख़त्म होती नज़र आती है।  
देखिए कबीर का सारा कुछ समकालीन नहीं है। मतलब ये समझने की बात है। कबीर में बहुत कुछ ऐसा है जो आज प्रासंगिक नहीं है। उनका जो critical attitude है- कर्मकाडों के प्रति - वो तो हमें समकालीन लगता है, लेकिन जहां वे रहस्यवादी हैं वो हमारे मतलब का नहीं है। इसलिए हमें परंपरा को critically accept करना चाहिए। ये ज़रूरी नहीं है कि सारा कुछ जैसा है, ग्राह्य हो। तुलसी में आज बहुत कुछ ऐसा है जो ग्राह्य है। तुलसी कबीर से ज़्यादा ग्राह्य हैं। कारण उसका ये है कि तुलसी सामान्य-जन के लिए लड़ते हैं। राम और रावण का युद्ध आप देखिए। रावण रथी विरथ रघुवीरा।रावण के पास रथ है, सेनाएं हैं, लेकिन राम के पास कुछ भी नहीं है। नंगे पांव हैं और कौन है उनके साथ, उनकी सेना में-वानर हैं, कोल हैं, भील हैं जो सामान्य जन हैं- वो लड़ रहे हैं।

एक विनाशक रूप के विरुद्ध राम लड़ रहे हैं, और ऐसी सेना के साथ लड़ रहे हैं जो सामान्य जन की सेना है। दूसरा, राम कभी लालायित नहीं हैं राज्याभिषेक के लिए। वो दिखाई नहीं देते। वन में भी एक वनवासी की तरह रहते हैं। वहां भी राजदरबार लग सकता था। लेकिन नहीं। केवट से गले मिलते हैं, भीलनी (शबरी) के जूठे बेर खाते हैं। ये एक कवि बोल रहा है। और तुलसीदास ने तो यहां तक दिखाया है कि ये समाज ऐसा है कि किसान को खाने को नहीं है, भूखों मर रहा है। और इतनी ग़रीबी है कि हम अपनी औलाद को भी बेचते हैं। यहां तक गए हैं। अच्छा, तुलसी का ‘लंका कांड’ निकाल दो तो क्या रह जाता है? एक बात और ध्यान रखने की है। कविता का जो प्रयोजन बताया गया है वो आत्म साक्षात्कार नहीं है जैसा कि रूपवादी-कलावादी लोग कहते हैं। मम्मट ने एक श्लोक दिया है। उसमें कहा है- काव्यम् यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये.....(काव्य प्रकाश-मम्मट 2)। काव्य यश के लिए होता है। यह हमारे मतलब का नहीं है। अर्थकृते, धन उपार्जन के लिए होता है। ये भी बहुत महत्व का नहीं है। व्यवहार विदेह, मनुष्य का व्यवहार जानने के लिए होता है। ये तो ठीक है। फिर कहा है शिवेतर क्षतये। जो जनविरोधी है उसके विनाश को भी काव्य होता है। शिव-इतर - शिव का मतलब मंगलकारी। लोक कल्याणकारी अगर है तो कविता वहां शस्त्र का काम करती है। शिवेतर क्षतयेयानी कविता जन विरोधी का क्षरण भी करेगी। ऐसा काव्य प्रयोजन किसी भी काव्य शास्त्री ने नहीं कहा है - पूरे संसार में। थोड़ा बहुत जो पढ़ा है मैंने यूरोप का काव्य शास्त्र, किसी ने भी नहीं कहा। हमारे भारत में भी केवल मम्मट ने कहा है -शिवेतर क्षतयेलोकतंत्र में तो इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। अगर आप जनता के पक्षधर हैं तो आपकी कविता शिवेतर क्षतये ही होगी। और हम सब जनता के पक्षधर तो हैं ही। जो जनवादी है, वो जनता का पक्षधर है। अगर वाल्मीकि का युद्धकांडनिकाल दीजिए तो शिवेतर क्षतये का जो तत्व है वो ख़त्म हो जाता है। इससे पूरी रामायण निष्प्रयोजन हो जाएगी। और इधर तुलसीदास का अगर लंकाकांडनिकाल दें तो रामचरितमानस निष्प्रयोजन हो जाएगी। क्योंकि वही तो सारतत्व है। शिवेतर क्षतयेवहीं तो दिखाई देता है। कविता शिवेतर क्षतये। आज के कवि पर यह सबसे ज़्यादा लागू होता है।
अच्छा अगर हम जनता के पक्षधर हैं, जनविरोधी सत्ता के प्रोटेस्ट में कविता लिख रहें है तो ये हमारा अस्त्र है। जैसे प्रेमचंद ने कहा था कलम का सिपाही’- उसी प्रकार कविता अस्त्र है। शब्द अस्त्र का काम भी करता है। ये भी सच है कि पिछले दिनों औपनिवेशिक आधुनिकतावादी जो हैं उन्होंने कविता को रीढ़हीन बना दिया है।.
कविता में आत्मग्रस्तता फैली हुई है। खूब पढ़ के देख लो कविताएं। एक-दो परसेंट की बात मैं नहीं करता, लड़ते हुए किसानों के चित्र कहां हैं? जो वर्किंग क्लासहै उसका संघर्ष कहीं दिखाई देता है कविता में? जो प्रतिष्ठित कवि हैं, जो अग्रज कवि हैं उनको छोड़ दो - निराला, निराला की जो नए पत्तेवाली कविताएं हैं वो संघर्ष की कविताएं हैं। और नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और केदार बाबू - इनकी अपनी जन संघर्ष की परंपरा है। लेकिन आज की बात बता रहा हूं - ये प्रश्न उठाने लायक है.....क्या ये यथार्थ नहीं है - वर्किंग क्लास’, किसान - इनके संघर्ष - वो दिखाने की चीज़ नहीं है कविता में? और अगर आपकी कविता राजनैतिक नहीं है तो आप लोकतंत्र में अपना दायित्व नहीं निभा रहे हैं। poetry must be political तभी तो वो शिवेतर क्षतयेहोगी। वरना होगी ही नहीं। इधर मेरा एक संग्रह आया है बुझते क़दमों की छाया’, ज़्यादातर राजनीतिक कविताएं हैं उसमें मेरी। 
कहां से छपा है?

जोधपुर से आया है, रमाकांत जी ने ही संपादित किया है। उसमें 1968 से लेकर 2010 तक की कविताएं हैं। तारीख़ भी पड़ी हुई हैं उन पर।



क्या काव्य शास्त्र और कविता को समझने के लिए मम्मट, वाणभट्ट, वाल्मीकि, कालिदास व भवभूति आदि को पढ़ना आज बेहद ज़रूरी है
बिल्कुल। मम्मट हैं, आनंदवर्धनाचार्य हैं -उनको भी पढ़ना चाहिए। आनंदवर्धन मूलतः कवि थे, आचार्य बाद में। आज से 1500 वर्ष पूर्व एक वाक्य कहा है आनंदवर्धनाचार्य ने। अब मैं जो श्लोक तुम्हें बता रहा हूं उस श्लोक की चर्चा संस्कृत के किसी पंडित ने नहीं की। जबकि ये बेहद महत्त्वपूर्ण है। वो कहते हैं-
अपारे काव्य संसारे, कविरे कः प्रजापति।
यथा स्मै रोचते, विश्वं, तथेदम् परिवर्तते।
अर्थात काव्य का जो संसार है वो विपुल है, विराट है। संकेत इसमें ये भी है कि काव्य का जो अनुभव संसार है वो विराट होना चाहिए। ये भी इसकी ध्वनि है। होता है और होना चाहिए। और कवि प्रजापति है यानी स्रष्टा है। 
ये आज से 1500 साल पहले कह रह हैं आनंदवर्धन। उनका जो बलाघात है, वो अनुभव के रूपांतरण पर है। वस्तु के रूपांतरण पर। और मार्क्स की ज्ञानमीमांसा भी यही कहती है कि वस्तु का रूपांतरण होता है। ज्ञान व्यवहार से होता है। देखिए हम वस्तु का अनुभव करते हैं, तो संवेदना पैदा होती है और संवेदना दिशाहीन होती है। निरा अनुभव दिशाहीन होता है। उसका कोई डायरेक्शन नहीं होता। फिर उस संवेदना को हमें पुनर्गठित करना पड़ता है। बुद्धिसंगत बनाना पड़ता है, क्योंकि उसके साथ बहुत सारे अनुभव जब जुड़ने लगते हैं। जैसे कि आयरन अयस्क इस्पात नहीं होता है, लेकिन अयस्क से इस्पात तब बनता है जब उसे हम भट्टियों में पका देते हैं। उसी तरह ये ज्ञान का पहला स्तर है जो दिशाहीन होता है लेकिन जब उस ज्ञान को हम अन्य ज्ञान से समृद्ध करते रहते हैं और उसको बुद्धिसंगत बनाते हैं, यानी उसका पुनर्गठन कर लेते हैं, तब वो अवधारणात्मक बनता है। तब उसमें एक दिशा आती है। ये ज्ञान का दूसरा स्तर है। इस ज्ञान के दूसरे स्तर को फिर हम व्यवहार में लाते हैं - ये तीसरा स्तर है। अगर वो व्यवहार में नहीं आ रहा है तो वो ज्ञान कच्चा है। इस पूरी प्रक्रिया में वस्तु का रूपांतरण होता है। वस्तु में अंतर्वस्तु बन जाती है। और जब अंतर्वस्तु बनती है तो उसमें हमारी जो निजता है, उसके रंग खिलने लगते हैं। मतलब वस्तु को आत्मपरक बनाना पहली मंज़िल होती है। वस्तु तो मूर्त होती है और भाव अमूर्त होता है। तो वस्तु का पहले अमूर्तन करते हैं अर्थात् वस्तु को आत्मपरक बनाते हैं। इसलिए कोई भी कविता आत्मपरक हुए बिना नहीं रह सकती। आत्मपरक का मतलब है कि आपका व्यक्तित्व उसमें शामिल है, घुल-मिल गया है। तो पहली मंज़िल से दूसरी मंज़िल की जो छलांग है वो बहुत महत्त्वपूर्ण है। जो पहली मंज़िल पर कविता लिखते रहते हैं वो दिशाहीन होते हैं। कई बार कहते हैं न, कि कविता दृष्टिहीन हैं, कुछ नहीं हैं इसमें। कविता में कोई दिशा नहीं है। क्यों होता है ऐसा? क्योंकि वो संवेदना की पहली मंज़िल पर ही रहते हैं।
असल में, कविता में हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हैं। वस्तु स्थूल है और सूक्ष्म की ओर यानी हम ज्ञान या भाव की ओर बढ़ते हैं। और जब हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हैं तो वह दूसरा स्तर होता है। उसमें हमारी बहुत सारी चीज़ें मिल जाती हैं। हमारी अवधारणाएं, हमारा ज्ञान और हमारा अनुभव - वो सब भी जुड़ जाता है। अनुभव भी दो तरह का होता है। एक प्रत्यक्ष अनुभव और दूसरा परोक्ष अनुभव। प्रत्यक्ष अनुभव एक चौथाई होता है। तीन-चौथाई परोक्ष अनुभव होता है। यानी अध्ययन कर के, लोगों को सुन कर, इतिहास का ज्ञान, अपने अतीत के साहित्य का ज्ञान - ये भी एक वो अनुभव है जो अत्यंत आवश्यक है। जिसे परोक्ष ज्ञान नहीं है उसका प्रत्यक्ष ज्ञान भी अधूरा है।
कई बार कहते हैं कि अमुक कवि समृद्ध संस्कार का कवि है। क्यों कहते हैं ऐसा? क्यों कि उसका परोक्ष ज्ञान बहुत ज़्यादा है। परोक्ष ज्ञान से अनुभव में समृद्धि आती है। जिसमें परोक्ष ज्ञान नहीं है, वो कविता वैसे ही होगी जैसा अभी आपने उदाहरण दिया - दिशाहीन। 
मेरे अंदर जो नई-नई उद्भावनाएं होती है वो केवल मार्क्सवाद की वजह से होती हैं। मैं आज भी पढ़ता हूं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता अशोक जी कि मैं मार्क्स को नहीं पढ़ता। जितना भी समय मुझे मिलता है मार्क्स को ज़रूर पढ़ता हूं। अब जैसे मैंने अभी सुनाया आनंदवर्धन का श्लोक, निरे लोग पढ़ते होंगे लेकिन किसी को ये नहीं सूझा कि ये सबसे प्रमुख श्लोक है। आज के संदर्भ में जो वस्तु के रूपांतरण का सिद्धांत दे रहा है। मैंने जितने भी काव्यशास्त्र पढ़े, किसी ने भी नहीं कहा ऐसा। यहां तक कि राधवल्लभ त्रिपाठी की संस्कृत की किताब है- भारतीय काव्यशास्त्र की आचार्य परंपराउसमें ये सारे लोग आते हैं। लेकिन आनंदवर्धन को लेते हुए उन्होंने भी इस श्लोक को उद्धृत नहीं किया। क्योंकि, वो दृष्टि नहीं है। मार्क्स जो दृष्टि देता है न, वो अद्भुत है। मतलब मार्क्स की जो मेटाफ़िज़िक्स है, उसको पढ़ने के बाद फिर  कुछ शेष नहीं रहता। और उसे बग़ैर पढ़े गंभीर कविता संभव नहीं है। इसे निरंतर पढ़ने की ज़रूरत है। क्योंकि ये विज्ञान-सम्मत दर्शन है। ये मेरा अपना अनुभव है कि उसमें बड़ी नई उद्भावनाएं हैं। मैंने मार्क्स को पढ़ने के बाद जब अपना साहित्य पढ़ा तो मुझे एकदम से नई-नई चीज़ें क्लिक हुईं। जैसे कि समकालीन सब नहीं होते- ये मुझे वहीं से मिला। या मॉडर्निटी में भी फ़र्क है। हमारी मॉडर्निटी वो नहीं है जिसे आज लोग मानते हैं। हमारी मॉडर्निटी व्यापक रूप से कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के प्रकाशन के साथ शुरू होती है। और वैसे 1857 की जो पहली राज्य क्रांति है, वहां से शुरू होती है। आप देखिए दोनों में ही मिलान है। 'कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो' जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष का दर्शन है और हम भी जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। मॉडर्न का मतलब नवीनता से भी होता है। ऐसी नवीनता पहले कहां थी? हम तो कॉलोनी थे। हमने कॉलोनी के विरुद्ध जो संघर्ष किया, उससे एक नवीनता पैदा हुई कि हम नया समाज बनाएंगे जो स्वदेशी होगा।
'कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो' को मैं इसलिए नवीनता की कसौटी मानता हूं क्योंकि उससे पहले सर्वहाराकेंद्र में नहीं था और इतिहास की द्वंद्वात्मकता भी नहीं थी। इतिहास की द्वंद्वात्मकता का मतलब ये है कि पूरे इतिहास में वर्ग संघर्षरहा है - ये नवीनता है। आज की प्रचलित नवीनता को मैं इसलिए औपनिवेशिक नवीनता कहता हूं। मेरे कुछ मित्रों ने जब कहा कि आप आधुनिकता का विरोध करते हैं, इससे तो हम जनवादियों को सब दकियानूस मानेंगे, तो इस पर मैंने एक लंबा संपादकीय लिखा था। तब से मैंने कहना शुरू किया कि ये आधुनिकता दरअसल औपनिवेशिक है, कॉलोनियल मॉडर्निटी है। And that Modernity is defined by the western thinkers. उनका साम्राज्य था। अब उनकी मॉडर्निटी की अवधारणा तो ये है कि हम उनके मार्केट बने रहें। हम उनके प्रतिबंध मानते रहें। अपनी भाषा को भूल जाएं और उनकी भाषा को पढ़ते रहें। अपनी नियति से जिएं और अपनी नियति से मरें। अभिशप्त हैं हम - ये उनकी मॉडर्निटी है। हमारी मॉडर्निटी ये नहीं है। हमारी मॉडर्निटी स्ट्रगल की है। इसलिए मैंने कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के प्रकाशन को एक लाइन बनाया था। वहां बहुत सारी चीज़ें नई हैं। इतिहास की द्वंद्वात्मकता बिलकुल नई है। वर्ग संघर्ष एकदम से नया है। और सर्वहारा का केंद्र में आना बिलकुल नया है। कहां था तब सर्वहारा केंद्र में? ये बिलकुल नवीन चीज़ है। प्रेमचंद सर्वहारा को केंद्र में लाते हैं, अज्ञेय नहीं ला पाते। तो अज्ञेय मॉडर्न कहां हुए और अगर मॉडर्न हैं भी तो औपनिवेशिक अस्तित्ववादी/ माडर्न हैं, जिनको हर वक़्त मृत्यु दिखाई देती है या रहस्य दिखाई देता है। कृति ओरके 62वें अंक में अज्ञेय की कविता असाध्य वीणापर मेरा एक लंबा लेख था। असाध्य वीणाकविता को हिंदी की मोनोलिजा कहते हैं। इस लेख पर बहुत से युवा लेखकों ने कहा कि आपने इस पर जिस तरह लिखा है उस तरह हमने सोचा ही नहीं था। 


अपने बुझे स्तंभों की छायासंग्रह के बारे में कुछ कहें।

पिछले चार दशक की कविताओं मे से डॉं. रमाकांत शर्मा ने चयन किया है। यहां ख़ास बात है कि इन कविताओं में से किसी कविता का अन्यंत्र नहीं छपना। अब तक के संकलनों में ऐसा नहीं है। दूसरे, पहले संकलनों में ज़्यादातर कविताएं वे हैं जो पुस्तक छपने के आसपास प्रकाशित हो चुकी थीं। ये कविताएं लगभग चार दशक का लंबा समय पार करती हैं। उस दौर में बहुत बदलाव हुए हैं। फिर भी 1968 से 1980 तक का समय मेरे लिए कई तरह से बहुत अहम रहा है। यही समय है जब मेरी सर्वाधिक लंबी कविताएं - जनशक्ति(1972) तथा कठपफूला बॉस(1977) सामने आईं। इन्हीं दिनों कविता के नए प्रतिमानों की स्थापनाओं से गहरा मतभेद रहा। मेरा विरोध बढ़ा।
श्रमिक संगठनों एवं किसान सभाओं के कार्यकर्ताओं से संपर्क बढ़ा। भरतपुर जनपद के दूर दराज इलाक़ों तथा आसपास घूमने फिरने के अवसर मिले। घना पक्षी विहार को पोर-पोर देख कर प्रकृतिसे गहरा सान्निध्य बना रहा। इस दौर में मार्क्सवादी दर्शन को कविता में ढालने तथा वैचारिक प्रतिबद्धता उजागर होने की परिस्थितियों का तीखा अनुभव भी हुआ। इन सब बातों का असर कहीं न कहीं इन कविताओं में शायद झलके। एक तरह से ये मेरा निर्माण काल है। इतना पीछे लौट कर कविताओं को सामने लाना कवि की सिंहावलोकन शैली का रचनात्मक हिस्सा है। (मतलब शेर जब चलता है तो पीछे मुड़ कर देखता है।) जब इन कविताओं से गुज़रा तो अनुभव हुआ कि वे मेरी स्मृति में भी नहीं हैं। इस तरह इन कविताओं को टाइप करते समय मुझे भी उसी समय में जैसे लौटना पड़ा हो। एक तरह से युवा महसूस करना। जब टाइप किया तो जहां-तहां जोड़ा-घटाया भी है। शिल्प में कुछ बदलाव। फिर भी ऐसा नहीं लगा कि भाषा में भावात्मक लगाव कहीं खंडित हुआ है। मैं एक समय में अनेक भावों को ले कर कविताएं शुरू से ही लिखता रहा हूं। मेरे प्रिय एवं संवेदनशील पाठकों के लिए हो सकता है ये संकलन कुछ भिन्न सा लगे। पर राग, रस, संवेदना और स्थापत्य बहुत कुछ यहां है। हां, यही समय है जब पेशेवर आलोचकों ने मेरी कविता का विरोध करना शुरू किया।

 
आप कवि के साथ-साथ एक अच्छे पेटर भी हैं। अब आप कैसे तय करते हैं कि क्या चीज़ कविता में देनी है और क्या चीज़ पेन्टिंग में देनी है या ऐसा होता है कई बार कि जो चीज़ कविता में नहीं दे पाते वो पेन्टिंग में निकलकर आती है। तो आप इसे कैसे तय करते हैं
बिलकुल सही कहा। मैं कविता में अमूर्त (abstract) नहीं हो पाता हूं। कविता में वस्तु जगत मेरे ऊपर हावी रहता है। लेकिन पेन्टिंग में मुझे आकृतियां बहुत ज़्यादा अच्छी नहीं लगती क्योंकि वो काम तो फ़ोटोग्राफ़ी कर देती है। मुझे वो चित्र अच्छा लगता है जो सोचने को आंदोलित करे। और संरचना (structure) उभरती हुई हों। उसकी संरचना में कुछ ऐसा हो, जिससे ये लगे कि कुछ उभर रहा है। अमूर्तन(abstraction) का मतलब मेरे लिए केवल इतना है कि चित्र आपको थोड़ा विचार करने के लिए आंदोलित करे। अब जैसे मान लीजिए आप चेहरे बना दें, तो फ़ोटोग्राफ़ी भी वही कर देती है। कविता में तो वो सब मैं करता रहता हूं। मैं कविता में अमूर्त नहीं होता परंतु पेन्टिंग मुझे अमूर्त ही अच्छी लगती है। 
     
कविता में अमूर्तन का अर्थ क्या है?

कविता में अमूर्तन का मतलब है कि जैसे वर्ग संघर्ष दिखाई न दे। आप जो लिख रहे हैं उससे समाज में पता ही न लगे कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। ये बात आधी रात के रंगमें आती भी है - मुझे वो चित्र अच्छे लगते हैं जो हमें विचार के लिए आंदोलित करें बल्कि करने के लिए चुनौती बनें।उसमें ये कि रंगों का संयोजन, रंगो के द्वारा आप संरचना उभार दें तो उस दृष्टि से अमूर्तन नहीं है। जैसे कि ये पेन्टिंग है (एक पेन्टिंग दिखाते हुए) इसे देखकर समझ में भले ही कुछ न आए परंतु रंगों का संयोजन और उभरी हुई जो टोन्स हैं कलर्स की, वे आंखों को अच्छे लगते हैं। दूसरा ये है कि दुनिया में ये चीज़ें कहीं न कहीं तो हैं, जैसे कि लेंडस्केप का कोई एक रूप नहीं होता। अब ये लैंडस्केप हमने नहीं देखा हो - ऐसा हो सकता है। तो कला यही नहीं बताती कि ऐसा है, बल्कि ये भी बताती है कि ऐसा हो सकता है। The possibility of being is also important. मुझे लेंडस्केप बहुत अच्छे लगते हैं। मुझे लगता है कि मेरा अभ्यांतर इन लेंडस्केपों में व्यक्त हुआ है। मेरे भाव मूर्त हो रहे हैं चित्रों में, शक्लें भले ही न आएं समझ में, लेकिन भावों की जो आत्मपरकता (subjectivity) है, वो सारी आत्मपरकता उसके कलर्स में, छंद में, उसकी संरचना में मूर्त होते हुए लगते हैं।  


इसमें कहीं आपको पुनरावृत्ति का ख़तरा नजर नहीं आता?

पुनरावृत्ति तो इसिलिए नहीं हो सकती क्योंकि एक पेन्टिंग दूसरी पेन्टिंग जैसी नहीं हो सकती। कभी नहीं हो सकती। आप कोशिश भी करेंगे तब भी नहीं हो सकती। कविता में तो पुनरावृत्ति हो सकती है परंतु अमूर्त पेन्टिंग में नहीं हो सकती। शेड्स अलग होंगे, कलर्स अलग होंगे, टोन्स अलग हो जाएंगे। there will be certain differences. लाइट एंड शेड्स के अंतर तो रहेंगे ही।
अपने लेखन की आलोचना के प्रति एक कवि को कितना सजग होना चाहिए? आज की आलोचना के बारे में कुछ कहें।
आपका ये सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि आलोचना भी कविता की तरह एक अत्यंत गंभीर तथा दायित्वशील कर्म है। इसलिए एक कवि का इसके बारे में सोचना सहज है। और ज़रूरी भी। मेरा अपना सोच है कवि को अपनी आलोचना के बारे में बहुत ही सजग रहने की ज़रूरत है। यदि मेरी आलोचना आस्वादपरक है तो मुझे उसे विसराते रहना चाहिए। उससे विमोहित होने की ज़रूरत नहीं। मुझे स्वयं आत्मलोचन से पता लगाना पड़ेगा कि जो आस्वादपरक बातें मेरी कविता के बारे में कही गई हैं वे कितनी सटीक हैं। कहीं मेरी पीठ अनावश्यक तो नहीं थपथपाई गई। यदि मेरी तीखी आलोचना की गई है तो मुझे उससे घबराने की ज़रूरत नहीं। मुझे उस आलोचना को रचनात्मक चुनौती की तरह स्वीकारना होगा। कवि को अपने रचना-कर्म से यह प्रमाणित करना होगा कि जो आलोचना की गई है वह प्रामाणिक नहीं है। इसलिए कविता और आलोचना के रिश्ते सीधे-सपाट न होकर द्वंद्वमय होते हैं। वे एक-दूसरे को जाने अनजाने असर दे कर भी सापेक्षतः स्वायत्त हैं। यह काम तभी हो सकता है जब कवि आलोचना के बारे में सचेत है। यही नहीं एक कवि को अपने समय की आलोचना से गहरी परिचिति रखकर अपने प्राचीन काव्यशास्त्र का ज्ञान भी ज़रूरी है। हमारे यहां ऐसी बहुत सी बातें हैं जो आज के कवि को उसके कवि कर्म के लिए मुफ़ीद हो सकती है। मैं अपनी बात एक उदाहरण से साफ़ करना चाहूंगा। काव्य मीमांसा में राजशेखर ने समीक्षा को कविता का अंतर्भाष्यकहा है - अंतर्भाष्यं समीक्षा। यानी समीक्षक को कविता में यथार्थ की छाया प्रतीति को भेदकर उसके सार तक जाना ज़रूरी है। मेरा अपना अनुभव है कि अधिसंख्य समीक्षक अपनी सुविधा के लिए कुछ ऐसी पंक्तियां चुन लेते हैं जिनसे वे अपनी बात प्रमाणित कर सकें। इससे कविता के सार तक नहीं पहुंचा जा सकता। कविता के सार तक पहुंचने के लिए आलोचक को बड़ा श्रम करना पड़ता है। वैसा धैर्य, वैसी साधना आज के हिंदी समीक्षकों में विरल है। हमारे यहां आलोचक को कवि का मित्र, स्वामी, मंत्री, शिष्य और गुरु तक कहा है - यानी उसके और कवि के रिश्ते बड़े व्यापक होते हैं। 
“स्वामी, मित्रं च मंत्री च शिष्यश्चाचार्य एव च कविर्भवति भावकः।” इससे हमें आज के कवि और समीक्षक के रिश्तों को पहचानने में सहूलियत होगी। फिर  हम आत्मालोचन भी कर सकते हैं। हमारे यहां दो तरह के कवि माने गए हैं। एक तो प्रतिभाशील और दूसरे प्रतिभाहीन। दोनों की विशेषताएं भी बताई हैं। प्रतिभाशील कवि को परोक्ष भी प्रत्यक्ष होता है। पर प्रतिभाहीन को सार्थक पदार्थ भी परोक्ष होता है।
अप्रतिभस्य पदार्थसार्थः परोक्ष इव
प्रतिभावतः पुनरपश्यतोपि प्रत्यक्ष इव।
इससे हमारे आज के हिंदी समीक्षक तथा कवि बहुत कुछ ग्रहणकर क्रमशः आलोचना तथा कविता को कई प्रकार के विचलनों से बचा सकते हैं।
मेरा विचार है कि आज की हिंदी आलोचना दिन व दिन अपनी साख खोती जा रही है। यह एक चिंता की बात है। मुझे इसका एक ही कारण नज़र आता है। यानी आलोचना को एक अकादमिक पेशा बना देना। इसीलिए आज पेशेवर आलोचकों की स्थिति बड़ी दयनीय है। साधक आलोचक नहीं हैं। कवि हो या आलोचक उसे अपने कर्म की गंभीरता को देखते हुए साधना का मार्ग अपनाना ही होगा। डॉ. रामविलास शर्मा ने आज की आलोचना से बहुत ही दुखी होकर उसे परस्पर लाभ-हानि या लेन-देन की चीज़ बताया है। वह हमारे समय के सर्वोत्तम शिखर साधक आलोचक थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हमें साधक आलोचकों की परंपरा दी है। यहां अपनी बात को साफ़ करने के लिए एक संस्मरण सुनाता हूं। राजस्थान के अलवर नरेश ने शुक्ल जी को अपने यहां हिंदी के संवर्धन तथा विकास के लिए बड़ी कठिनाइयों से बुला लिया। सारी सुख-सुविधाएं और अच्छा वेतन दिया। शुक्ल जी एक सप्ताह रहे। उसके बाद उन्होंने अलवर नरेश को दो पंक्तियों का एक पत्र लिख कर विदा ली। पंक्तियां देखने समझने लायक़ हैं। 
चीथड लपेट चने चाबेंगे निज चौखट चढ़ि
पै चाकरी करेंगे न काऊ चौपट (सामंत) की।
यहां सामंत शब्द मैंने पंक्ति पूरी करने को कहा है। उनका शब्द कुछ और था जिसे कहना मैंने उचित नहीं समझा। तो यह एक अनुकरणीय आदर्श है हमारे सामने - एक साधक आलोचक का। यही बात कवियों पर भी लागू होती है। सोचने की बात है कि रात-दिन तुच्छताओं के पीछे दौड़ने वाले कवि या आलोचक साधक कैसे हो सकते हैं। अनुकरणीय तो क़तई नहीं। यह भी सच है सब शुक्ल या रामविलास शर्मा नहीं हो सकते। पर हम उनके आदर्शों को पाने के लिए प्रयत्न तो कर ही सकते हैं। वैसा भी दिखाई नहीं देता। न साधना है, न उच्च मानवीय आचरण। उदार आर्थिकी तथा बाज़ार की चमक-दमक का इतना असर है कि हमारे लिए कविता या आलोचना जीवन की तरह प्राथमिक कर्म न होकर अकादमिक पेशा बन गए हैं।    
................................
सम्पर्क :
विजेंद्र जी
सी-130, वैशाली नगर
जयपुर, राजस्थान - 202001
फ़ोन: 9928242515
................................

अशोक तिवारी
17-डी, डी.डी.ए.फ्लैट्स
मानसरोवर पार्क, शाहदरा
दिल्ली -110032
फ़ोन: 22128079, 9312061821                                                  

टिप्पणियाँ

  1. बह्त समय बाद इतनी सुसंगत और बेवाक और हस्तक्षेप कारी टिप्प्डी पढने को मिली। विजेन्द्र जी को प्रणाम।

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  2. बहुत जरूरी साक्षात्कार । विजेंद्र जी की दृष्टि सबकुछ हिगरा के रख देती है -सही को सही गलत को गलत ।



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  3. वरिष्ठ लोकधर्मी कवि विजेंद्र का जीवन कविता को समर्पित है
    विजेंद कि कविता का सम्बंध देश कि मिट्टी से है उनकी कविताओं में गाँव कि धड़कन है किसानों और श्रमिकों कि ज़िन्दगी का संघर्ष उनकी कविताओं में नज़र आता है। उनका रहन-सहन, वेषभूषा, उत्सवों, खेती-बाड़ी आदि उनकी कवितओं में जुड़ी है।
    लोक को पुनर्परिभाषित कर विस्तार से लोक का परिचय दिया है और इसे सर्वहारा वर्ग से जोड़ा है।
    चीज़ों और इंसानो कि दुनियाँ में अकेलापन सब कुछ को नामहीन करते और बहुत कुछ छोड़ देने के बाद विजेंद्र जी आज भी कविता को अपने साथ जिन्दा रखे हुए हैं। आज भी उनके मन में एक बैचेनी है की जीतन करना चाहिए था उतना नहीं कर पाया हूँ। विजेंद्र को भव्यता पसंद नहीं है एक बेहतर इंसान जो अपने नैतिक मूल्यों के साथ कविता के रूप में साधना जारी है।

    शाहनाज़ इमरानी

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  4. विजेंद्र जी मेरे प्रिय कवि हैं. उनकी कविताओं का मैं उत्साही पाठक हुईं.उनकी कविताओं में लोक लाया नहीं गया है गरिमाहीन , दींन हीन का लोक समाया हुआ है जो आम जन में रहता है जिसने इतिहास रचा है . वह आदर्शवादी नहीं है सबके साथ चलता है सबके साथ संघर्ष करता है वह रिक्शे वाला तांगेवाला झुग्गी झोपडी वाला भी हो सकता;, गाँव का कृषक श्रमिक हो सकता है.. विजेंद्र जी ;की कविता में कहीं भी देवदूत नहीं हैं पूँजी और पूँजी पति नहीं हैं , यही सब कुछ तो विजेंद्र जी की कविता को सामान्य जन के करीब ले जाती ह.एक अच्छे साक्षत्कार के लिए बधाई . रेवतीरमण शर्मा .प्रत्युतर दे .

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  5. Bahut hi achchha Saakshaatkaar!! Dhanyavaad Vijendra jee, Ashok jee, Santosh jee...

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  6. सूर्य प्रकाश जीनगर फलौदी30 अप्रैल 2014 को 10:01 am बजे

    विजेन्द्र जी मेरे प्रिय कवि है। गुरू वर। लोक के लिये गहरी निष्ठा। रचनाओं में जमीनी स्वाद। श्रम की पूंजी। ये बातचीत महत्वपूर्ण लगी।पूरे लोक कीअद्भुत यात्रा कराने के लिये गुरूजी को सलाम ।अशोक तिवारी जी को बधाई। संतोष जी का आभार।

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  7. bahas karane ka man hai....... kai bar kar bhi chuka hoon par Vijendra ji maante hi nahi !!

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  8. अजेय जी कुछ स्पष्टता के साथ कहें तो हम भी समझ पाएंगे आपके सन्दर्भ को ....बहस करने को मन होते हुए आप अपनी बात को दबा रहे हैं ..बेबाकी से ही कहें आप अपनी बात तो चीज़ें ज़्यादा स्पष्ट होंगी.

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  9. कविता,जीवन और विचार के दीर्घकालीन संदर्भो से लैस ये बातचीत विमर्श के और रास्ते खोलती है।

    सुधीर सिंह

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