विजेन्द्र जी की किताब 'सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता' पर सुशील कुमार की समीक्षा
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किसी भी कवि को गद्य जरुर लिखना चाहिए. उसकी पहचान उसके गद्य से की जा सकती है. कवि का गद्य अन्ततः उसके कवि-कर्म को ही और निखारता है. विजेन्द्र जी हमारे समय के ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं जिन्होंने प्रचुर मात्रा में गद्य लेखन के साथ-साथ अद्भुत पेंटिंग्स भी बनाये हैं. कविता में सौन्दर्य दृष्टि को केन्द्र में रख कर विजेन्द्र जी की अभी-अभी एक महत्वपूर्ण किताब आई है 'सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता' इस किताब पर एक बेहतरीन समीक्षा लिखी है हमारे कवि मित्र सुशील कुमार ने. तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा
कविता में सौंदर्य-दृष्टि (कवि विजेंद्र के बहाने)
''पहले से बनी धूसर पगडंडियों पर
चलने
वालों ने
मुझे करुणा भरी हिकारत से देखा
वे मेरे नाम से चौंके
मेरे उगान को
रौंदा।
मैं चीजों को उलट-पुलट कर ही
आगे बढा़ हूँ।****
बडे़ इरादे वालों को
लाल
पत्थर की चौहद्दियाँ नहीं रोकतीं
दूर चली आयी लीकों पर
चलकर ही
मैंने अपनी राह
खोजी है।
मुझे अब जाल समटने दो
अमरता की बूँदों के लिये
बेचैन चातक का कंठ
चाहिए।"
('प्यार का कोई नाम नहीं कविता से'/विजेंद्र)
लगभग अस्सी के वय पार कर चुके कविवर विजेंद्र के लगभग चार दशकों से उपर के
दीर्घ कालखंड में समाये कविकर्म और सौंदर्यदृष्टि को देखकर यह सहज ही लक्ष्य किया
जा सकता है कि हिन्दी-काव्याकाश में निराला और त्रिलोचन की परंपरा के एक अत्यंत
दृष्टिसंपन्न कवि के रुप में उनका अभ्युदय हुआ है जो आज अन्यत्र विरल है, और जिसकी दीप्ति एक लंबे अरसे तक कवियों और उनके पाठकों को आलोकमान करेगी।
उनकी कविताओं के पीछे उनकी
काव्यमीमांसा का अपना ठोस सैद्धांतिक पक्ष है जिसकी जडे़ इस देश की लोक-परम्परा
में हैं। यहाँ विचारणीय बात यह है कि उनके चिंतन में विचार एक कवि के निकष पर कस कर
आते हैं जो हमारे कवियों, खासकर युवा कवियों का सही और सटीक
मार्गदर्शन करता है। विजेंद्र जी का सौंदर्यचिंतन मूलत: मार्क्सवादी सौंदर्यचिंतन
ही है, पर भारतीय भावभूमि पर एकदम निरखा-परखा
हुआ। वे अपने सौंदर्यचिंतन के समर्थन में जो कुछ भी कहते हैं, उसे साथ-साथ अपनी परम्परा और जातीय साहित्यनिष्ठा से प्रमाणित भी करते चलते
हैं। इसलिये उनकी सोच बहुत साफ़ और बोधगम्य रही है। वे अंग्रेजी भाषा सहित्य के
विद्वान भी हैं और उन्हें पाश्चात्य सौंदर्य-शिल्प का सघन ज्ञान है। पर यहाँ वे
उन्हीं विचारों का आश्रय लेते हैं या समर्थन करते हैं जिनका अपना भारतीय मूल्य
जीवित रह सकता है। इसलिये कहा जा सकता है कि विजेंद्र एक संस्कारवान सर्जक-चिंतक
हैं जिनके यहाँ सौंदर्य-चिंता में विचार और उनकी कविता का स्वभाव सदैव एकमेक रहा है
और जो किसी तृष्णा या लोभ में फँस कर अपने आसन से कभी च्युत नहीं हुए। उनके चिंतन में
जो गहन पार्थिवता है उसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि उनका शब्दकर्म शुरु से
ही जन का पक्षधर रहा है न कि अभिजन का। वे लोक और जन के प्रतिबद्ध रचनाकार रहे
हैं। उनकी सौंदर्यदृष्टि में मार्क्सवादी सौंदर्यचिंतन लोक के सौंदर्यबोध के साथ
इतना घुल-मिल कर पाठक के समक्ष प्रस्तुत होता है कि ऐसा विरल संयोग विजेंद्र और उन
जैसे कुछ ही कवियों के यहाँ ही विपुलता से गोचर होता है, जबकि बुर्जुआ सौंदर्यशास्त्री भाषा की बात भाषा से शुरु करके भाषा पर ही
समाप्त कर देना चाहते हैं यानि जीवन. प्रकृति,
समाज से
वंचित करके विचार को यथास्थिति की हद तक ही रखना चाहते हैं जिससे उनका विरोध है।
वे सौंदर्यशास्त्र में गहनता से जीवन. प्रकृति और समाज का संस्पर्श करते हैं। और
सिर्फ़ संस्पर्श ही नहीं करते, उसके भीतर आत्यांतिक सहजता और
निस्पृहता से प्रवेशकर सौंदर्य का खनिज भी ढूँढते हैं। साथ ही एक चित्रकार होने के
कारण उनकी चित्रात्मक सोच-शैली का प्रभाव भी उनके पूरे साहित्य पर पड़ा है। उनके
चित्रों की तुलना उनकी कविता से करने से यह सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है कि कि
उनके सारे चित्र भी एक तरह से अनबोलती कविताएँ ही हैं जिसमें लिपिहीन सौंदर्य का
झलक मिलता है, जहाँ कहें कि इसकी सौंदर्यशास्त्रीयता
में उनकी कविता के सौंदर्य का ही प्रतिरुप भासित होता है। अतएव उनके
सौंदर्यशास्त्र की अवधारणा का दायरा वृहत्तर और गहरा है जो उनकी सतत अध्ययनशीलता, निरंतर विकसित होती लोकपरक सौंदर्यदृष्टि और विचारप्रक्रिया की क्रमिक
सुदृढता का परिणाम है।
'त्रास' (1966) से अपनी काव्ययात्रा आरंभ करने वाले इस
मनीषी कवि की अब तक कुल तेरह कविता-पुस्तकें आ चुकी हैं । और गद्यकृति 'कविता और मेरा समय (2000) के बाद अब उनकी नई कृति 'सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता' आयी है जो न सिर्फ़ कविता को गहराई
से समझने का मर्म बतलाती है, बल्कि कवि-मन में आधुनिक भावबोध की
लोकचेतना का संस्कार उत्पन्न करने का उपक्रम भी करती है जो मानसपटल पर देर तक
टिक कर हमें रचना से जीवन तक सर्वत्र,
उत्कृष्टता
और उसमें जो कुछ 'सु'
है उसकी
ओर मोड़ता है जिसमें लोक-जीवन के सत्य-शिव-सुन्दर का प्रभूत माधुर्य भासित होता है।
यहाँ पाश्चात्य जीवन शैली से उद्भूत बुर्जुआ सौंदर्य-दृष्टि नहीं, वरन एक भारतीय मन की ऑंख से देखा-परखा गया विरासत में मिला वह लोकसौंदर्य
है जहाँ भारत की आत्मा शुरु से विराजती रही है पर उसको देखने-गुनने वालों को
पिछडा़ और दकियानूस कह कर दुत्कारा गया है।
एक ऐसे जनविरोधी समय में जबकि, कुंठा-संत्रास-तनाव के वातावरण में मध्यमवर्गीय विचार से सृजित
सौंदर्यशास्त्र के निकषों पर रची जा रही कविताएं दृश्य में देर तक नहीं ठहर पा
रहीं और बाजारवाद की ऑंधी में बिखर जा रही हैं,
विजेंद्र
की सौंदर्यदृष्टि और उनकी कविताओं की अलग पहचान होनी स्वाभाविक ही है जो हमें
तन्मयता से काव्यसौंदर्य के उन नये प्रतिमानों से जुडे़ सवालों की ओर ले चलते हैं
जिसका अर्थपूर्ण अवगाहन उनकी पुस्तक 'सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और
कविता' में हुआ है जहाँ लोकजीवन के स्पंदन और
आवेग को गहराई से महसूसने की बिलकुल चैतन्य नवदृष्टि प्राप्त होती है, हालॉकि लेखक ने बडे़ विनयभाव से पुस्तक के आमुख में ही स्पष्ट कर दिया है
कि 'ये बातें न तो पूर्ण हैं, न निष्कर्षमूलक। यह सब एक तरह से स्वयं से संवाद है। कुछ जानने का प्रयास।
कुछ खोजने की ललक। कुछ को फिर से जानने-समझने की कोशिश।' पर यह लेखक का प्रांजल अहोभाव ही है। यानि कि यह कृति एक तरह से एक कवि का
स्वयं से संवाद है जिसे कवि विजेंद्र के स्वयं के द्वारा सृजनप्रक्रिया में आत्मगत
हुए अनुभवों से कविता के स्वभाव को परखने की एक सार्थक पहल भी कही जा सकती है।
सौंदर्यशास्त्र की इस आलोच्यकृति में
उनके कुल उन्नीस लेख दृष्टिगत हैं जो आद्योपांत लगभग दो सौ पृष्ठों में कविता के
सौंदर्यशास्त्र से जुडे़ विविध विषय-पक्षों को क्रमवार उद्घाटित करते चलते हैं।
पहला आलेख जिसके शीर्षक से पुस्तक का नामकरण भी हुआ है, भारतीय चित्त की प्रकृति की मौलिक सूझ-समझ प्रस्तुत करता है। वस्तुत: इस
आलेख की मौलिक संकल्पना की टेक पर ही पुस्तक में अन्य सारे विचार प्रस्तुत हुए
हैं। इस आलेख में भारतीय चित्त की विशेषताओं का निरुपण जिस व्यापकता और गहराई से
किया गया है कि उसके मूल में काव्यलोक की अपनी लंबी परम्परा से प्रसंगवश जुडने की
प्रक्रिया की खोजबीन ही लक्षित होती है जहाँ क्रियाशील भारतीय जीवन की गतिकी हर
किसी को मूर्तमान और अनुभवनीय रुप में दिखाई पडे़गी।
यहाँ बात आदिकवि बाल्मिकि और आचार्य
भरत से लेकर कालिदास, भवभूति,
फिर
मध्यकालीन संत कवियों से लेकर निराला,
मुक्तिबोध
और समानधर्मा कई आधुनिक कवियों तक हुई है जिसमें यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थापना
की गयी है कि संपूर्ण भारतीय वाडँमय ही सदा लोक का पक्षधर रहा है जिसके समूचे
साहित्य का आधार ही लोकधर्म है क्योंकि बकौल विजेंद्र जी के ''जिस लोक की बात भरत ने की है जिसे अलग-अलग प्रसंगों में कवि कालिदास और
भवभूति ने कहा है -इससे लगता है कि भारतीय चित्त सदा लोकानुरागी, लोकसजग, तथा किन्हीं अर्थों में लोकपक्षधर भी
रहा है। इसीलिये आज लोक की बात उठाकर हम न केवल कविता में समकालीनता को सही
परिप्रेक्ष्य में परख रहे हैं बल्कि उसके बहाने हम अपनी परम्परा को भी आज के
सन्दर्भ में नवीकृत और व्याख्यायित कर रहे हैं। परम्परा का वह सबल पक्ष जो सदा
कविता में विद्यमान रहा है रहता है और कविता को जिन्दा रहना है तो वह आगे भी इसी
तरह वहाँ बना रहेगा (पृ. 6)।"
इस प्रकार इस लेख में गहन विचार हिन्दी
कविताओं की भारतीय पृष्ठभूमि स्पष्ट करके उस प्रच्छन्न पार्श्व की परतें खोलता है
जिसके संज्ञान से हम सौंदर्यशास्त्रीय अवधारणा के देशज पक्ष की मूल्यवत्ता और
योरोप के भाववादी बुर्जुआ चिंतकों की चालाकी को सरलता से समझ सकते हैं और ठीक यहीं, पाठक का वह प्रस्थानविन्दु भी शुरु होता है जहाँ से वह लोक की ओर
श्रद्धापूर्वक स्वविवेक से मुड़ सकता है क्योंकि उसके मन में लोकसंस्कार के बीज
फलित होने लगते हैं, फलत: उसके सोचने की क्रिया में व्यापक
सकारात्मक बदलाव आने लगता है और उसका चिंतन गहन पार्थिव और दृष्टि, दूरदर्शी बन पाने को क्रियाशील होने लगते हैं क्योंकि संस्कृति के उद्भवकाल
से ही हमारी लोकपरम्परा अत्यंत समृद्ध रही है जिसकी ''भाषा, मुहावरा,
शब्दसंपदा
अत्यंत जीवंत हैं' और जिसके काव्य में 'भावों की सबल संश्लिष्टता है'
जो संघर्षपूर्ण
भारतीय जीवन की उदात्तता के परिणामस्वरुप मानवीय भावों के एक पृथक मूर्त संवेदना
से उत्पन्न सौंदर्यबोध से जन्मते हैं क्योंकि कवि के शब्दों में ''सौंदर्यशास्त्र कविता पर कोई अंकुश न लगाकर उसे ज्यादा मानवीय, सुन्दर, पूर्ण,
यथार्थपरक
और हर प्रकार से असरदार बनाने के लिये कुछ रचनात्मक सूझाव प्रस्तुत करता है (पृ. 51)। इसलिये कवियों को अपनी परम्परा से नि:सृत सौंदर्यशास्त्र का गहन-गंभीर
ज्ञान होना ही चाहिए। हाँ, यह बात अलग है कि सौंदर्यशास्त्र एक
जटिल और संश्लिष्ट विषय है । जैसा कि स्वयं विजेंद्र कहते हैं, ''कविता और यथार्थ, कविता और संज्ञान, विचारधारा, राजनीतिक चेतना, कवि की प्रतिबद्धता, काव्यबिंब, कविता का संरचनात्मक स्थापत्य,
काव्यप्रक्रिया, कविता में वस्तुगत और आत्मगत की द्वंद्वात्मक स्थिति, वस्तु, भाव,
संवेग, और कल्पना के परस्पर संबंध,
काव्यसत्य
और वस्तुसत्य का फर्क, सामाजिक यथार्थ के विविध स्तर, अंतर्वस्तु और रुप के द्वंद्वात्मक रिश्ते,
कलात्मक
संस्कृति, प्रकृति और कविता, सौंदर्य का सार, सौंदर्यशास्त्र और विचारधारा आदि पर भी
विचार होता है (पृ.23)।" सचमुच ये ही सौंदर्यशास्त्र के
दार्शनिक आधार की ज़मीन देते हैं जो कि इस पुस्तक के दूसरे लेख का वर्ण्य-विषय है।
उपर्युक्त विश्लेषण में यह भी अंकनीय है कि मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को व्यापक
प्रतिष्ठा दी गयी है और लेनिन के 'प्रतिबिंबन-सिद्धांत की व्याख्या
कठोपनिषद के 'सर्वम् जगत् प्राणे एजति' अर्थात यह सारा भौतिक जगत हमारे प्राण में कंपित होता है, चमकता है की भारतीय पृष्ठभूमि से करके यह बता दिया है कि यह इतिहास की उस
वस्तुगत अवधारणा से भिन्न नहीं है जो हमारे यहाँ काफी पहले ही विकसित थी। यही कारण
है कि उनके सौंदर्यशास्त्र को पढ़ कर पाठक के भीतर जिस भावमानस का सृजन होता है
उसमें भारतीयता का संश्लिष्ट रुप विद्यमान रहता है।
तीसरे आलेख में विजेंद्र जी ने कविता
में जैविक रुप के स्वभाव की चर्चा की है जिसे वे कविता के सौंदर्यशास्त्र का एक
बहुत जरुरी पक्ष मानते हैं। इसे बिना समझे हम अपनी कविता के लिये 'सममितिमूलक जड़-सौंदर्य' का रुप चुन लेते हैं जिससे कविता
स्वस्फूर्तता और तेजस्विता खो देती है। विजेंद्र जी का कहना है कि यह समय और समाज
में निहित द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से निरंतर विकसित होता है जिसे कवि अपने आसपास
जीवन, प्रकृति और समाज को व्यापक यथार्थ की
गहराई से टटोलकर और अपने समय की रुढि़यों को तोड़ कर,
यानि कि
समय का अतिक्रमण कर प्राप्त करता है जो उसके द्वारा उपयोग में लाये गये रुपकों, पदविन्यास, लय,
छन्द, शब्द-गठन, संरचना और कविता के पूरे स्थापत्य की
पुनर्रचना में दृष्टिगोचर होता है।
चौथे आलेख का शीर्षक है -
सौंदर्यशास्त्र और हमारी परम्परा। हमारे सौंदर्यशास्त्र के खनिज अपनी जातीय
संस्कृति और परम्परा से ही प्राप्त होते हैं। इस मार्फत विजेंद्र ने कई अर्थपूर्ण
सवाल उठाये हैं जो स्वयं सौंदर्यशास्त्र की दिशा-दशा तय करते नजर आते हैं, यथा- "आखिर अपने अतीत से कैसे जुडे़?
उससे
जुडे़ या नहीं? क्या उससे अलग रह पाना हमारे लिये संभव
है? क्या अपने अतीत को विस्मृत कर हम किसी
महान रचनाकर्म की कल्पना कर सकते हैं?
....भारतीय
सन्दर्भ में जब भी सौंदर्यशास्त्र का सवाल उठायें तो देखें कि मुहावरा खंडित तो
नहीं।...क्या कविता में हम उसे दिखा पा रहे हैं?
सौंदर्यशास्त्र
का सवाल कैसे हल हो? (पृ.39/40)।" कुल मिलाकर ये सारे सवाल हमें
हमारे लोकधर्मी सौंदर्य की ओर ले चलते हैं जिसका एक कवि को अपने शब्दकर्म में
अर्थपूर्ण अवगाहन करना चाहिए ताकि उसकी रचना उत्कृष्टता का कीर्तिमान बन सके।
पाँचवा आलेख सौंदर्य की मूर्तता पर है।
इस अध्याय का अभिप्राय किसी कृति की समृद्धि में सौंदर्य की मूर्तता से है, अर्थात जो जितनी मूर्त और सामाजिक सरोकारों से युक्त होगी, वह कृति उसी अनुपात में महानता के सोपान का प्राप्त करेगी। इसी प्रकार छठा
अध्याय सौंदर्यशास्त्र के विविध आयामों को लेकर है। यहाँ कविता में सौंदर्य की
उदात्तता के लिये विजेंद्र ने कवि को कविता में रुपकों की खोज कर जीवन के पैटर्न को
मूर्त और अर्थगर्भित बिंबों से सजीव बनाने और बाहरी दुनिया यानि वस्तु जगत के
यथार्थ को कविता में लाने पर जोर दिया है। कवि के शब्दों में ही ''इससे लगता है कि कविता में औदात्य अर्थस्फीति और भावबोध के गौरव से ही रचा
जाता है।"
इसके बाद के लेख का शीर्षक है 'मुक्त
कविकर्म और सौंदर्यशास्त्र'। हम यह अनुभव करते हैं कि स्वत:स्फुर्त चित्त से रचना
करना तभी संभव है जब कविकर्म पर कोई बाहरी (या आंतरिक भी) दबाव न हो अर्थात कवि
स्वायत्त और मुक्त हो। इस अध्याय में कवि के मुक्ति के सवाल को विजेंद्र जी ने
बेहद गंभीर कविमन से उठाया है जो एक बहुत विचारणीय स्थापना है।
अगले आलेख का शीर्षक है-काव्य उपकरण और
सौंदर्यशास्त्र। विजेंद्र कहते हैं कि काव्य-उपकरणों के सांगतिक संयोजन से कविता
में जादू पैदा होता है। कविता से काव्य-उपकरणों के खो जाने को वे कविता की त्रासदी
समझते हैं और कविता की लय को कविता का जैविक हिस्सा मानते हैं। आजकल कविता में
नवीनता लाने की होड में काव्य लय, रुपक,उपमा आदि को नकारने का जो फैशन चल पड़ा
है उससे कविता निष्प्राण ही हुई है। यह कविता में आवेग और भाव लाने के अनिवार्य
साधन हैं। इसलिये उनका मानना है कि ''जो
कविता अपने देश की सुदीर्घ और समृद्ध काव्यपरम्परा को आत्मसात करके विकसित नहीं
होती वह न केवल संस्काररहित होती है,
अपितु
उसमें उच्च कोटि का सौंदर्यबोध भी नहीं होता। (पृ.72)"
यह आलेख
हमें हमारी सुदीर्घ और समृद्ध काव्यपरम्परा में काव्य-उपकरणों की महत्ता को समझाते
हुए उसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालता है।
इसके आगे 'लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र पर बडी़ विशद चर्चा हुई है। यहाँ ऐतिहासिक
विकास-क्रम से पुन: जोड़कर 'लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र' को देखा गया है और यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि किस तरह पूँजी का समाज
में सकेंद्रण होने से कविता का लोकधर्मी सौंदर्यबोध प्रभावित हुआ है और वह कुलीनता
की ओर गया है जहाँ न कोई बडा़ संकल्प है न विजन। बाहर के काव्य-प्रतिमानों की नकल
से कविता में रुपवाद और दुरुहता ही दिखाई पडे़ हैं,
वह
आत्मप्रलाप जैसा होता है। विजेंद्र इसके अनेक कारणों में एक प्रमुख कारण हमारे
चित्त की रिक्तता मानते हैं। ''यह पैदा होती है अपने इतिहास, अपनी परम्परा और अपनी जनता से बहुत दूर चले जाने से। (पृ,88)"
इस पुस्तक का दसवाँ आलेख है- 'वस्तु का
पुनस्सृजन।' यह सौंदर्यशास्त्र का बहुत ही महत्वपूर्ण पाठ है। हम जानते हैं कि
पुनस्सृजन की प्रक्रिया संश्लिष्ट होती है। पर दु:खद बात यह है कि वास्तव में कई
कवि नकल को ही पुनस्सृजन मानते हैं। यहाँ पुनस्सृजन के सौंदर्यशास्त्रीय सिद्धांत
का प्रतिपादन विजेंद्र ने भारतीय सौंदर्यशास्त्र को नज़र में रख कर किया है। उनके
अनुसार ''पुनस्सृजन का सिद्धांत समाज और प्रकृति
की आंतरिक गतिकी से जुडा़ है। कविता इसी व्यापक अर्थ में जीवन, प्रकृति और संसार का पुनस्सृजन है। सामाजिक गतिकी उसकी प्रेरणा है। दूसरे, पुनस्सृजन का गहरा रिश्ता कवि की आंतरिक बनक से भी है। कवि की विश्वदृष्टि
उसका सोच यह सब प्रमुख है।(पृ,95)''
पुस्तक का ग्यारहवाँ अध्याय है- 'नैतिक
आचरण और सौंदर्यशास्त्र', जो बताता है कि कविता का मामला कवि के
आचरण के मसले से भी गहरे जुडा़ है। विजेंद्र जी ने लैटिन भाषा के सौंदर्यशास्त्री
होरेस और जर्मन सौंदर्यशास्त्री रिल्के के विचार को लेकर यहाँ कविता के
मार्क्सवादी और बुर्जुआवादी, दोनों के आचरणों की विवेचना की है कि
किस तरह पंत, अज्ञेय जैसे रुपवादी कवियों की रचनाएं
हमारे निराला, नागार्जुन, केदार बाबू, त्रिलोचन, अरुण कमल, एकांत श्रीवास्तव जैसे कवियों की
रचनाओं से अलग हैं जिसकी नैतिकता ही उन्हें कमतर महान बनाती है। उनका कहना है कि ''पूँजी केंद्रित व्यवस्था न केवल कवियों-लेखकों की बल्कि श्रमिक की भी
मौलिकता और सृजनशक्ति को नष्ट करती है। वह सब मानवीय उच्च नैतिक मूल्यों को कुचल
कर नष्ट कर देती है। ऐसी हालत में जनपक्षधर लेखकों का महत दायित्व है कि वे जनवादी
मूल्यों का सृजन करके समानांतर जनसंस्कृति की रचना करें। एक नया सौंदर्यशास्त्र
रचें।"
''सौंदर्यशास्त्र के प्रसंग में यह बात बार-बार उठाई गई है, उठाई जानी चाहिए कि मेरे सामाजिक व्यवहार और नैतिक आचरण का गहरा प्रभाव
मेरी रचना पर पड़ता है। कबीर ने तो यहाँ तक कहा है कि'जैसा हम खाते हैं वैसा ही हमारा मन बनता है। जैसा हम पानी पीते हैं वैसी
हमारी वाणी होती है। (पृ.109)"
अगला लेख भाषा और सौंदर्यबोध पर है। यह
कविवर विजेंद्र के अनेक मूल्यवान विचारों में से एक है जिसमें भाषा के साथ
सौंदर्यबोध के समानांतर उससे तादात्म्य का संधान किया गया है। वे भाषा में गहरी
बिंबात्मकता को रचना की गतिशीलता और आवेग-सृजन के लिये जरुरी मानते हैं। इसलिये वे
भाषा से रचना में बडी़ जिम्मेदारी का कार्य लेते हैं, वे सिर्फ़ भाषा में ऐसा यथार्थ ही नहीं कहना चाहते जो उन्हें वैचारिक
अवधारणाओं से ही परिचित कराये, बल्कि भावबोध के उच्च स्तर पर
समाज-सापेक्ष सौंदर्यचेतना और यथार्थपरक संवेदना की भी सृष्टि करना चाहते हैं।
उनका विचार है कि "इसी से भाषा की रचनात्मकता के नये क्षितिज खुलते हैं। इससे
भाषा के सही रिश्ते की पहचान होती है।... दरअसल भाषा और यथार्थ का गहरा रिश्ता
उसके द्वारा सौंदर्यबोध, संवेदना,
संस्कृति
और अपने समय के संज्ञान का मूर्त स्थापत्य रचे जाने में है।( पृ.122)"
और भी कई आलेख हैं इस पुस्तक में, जैसे कविता में मूल्यदृष्टि, वस्तु की रुपमयता, भाषा और यथार्थ के आयाम, 'आखर,
अरथ, अलंकृति नाना ,विचारधारा और सांस्कृतिक कर्म, संस्कृति और समाज। इन सभी लेखों में प्रस्तुत विचार वीथियाँ सौंदर्यशास्त्र
के विविध पक्षों पर विचार करते हुए जनपदीय-जातीय-लोक सौंदर्यचेतना के विकास में
नये प्रतिमान को रचते हुए आगे बढ़ती है। उनका अंतिम विचारलेख 'तुलसी:जातीय क्लैसिक की पहचान'
है जहाँ
वे तुलसी की कविता में शिल्प और सौंदर्य को भारतीय कविता का अत्यंत विकसित, बदला हुआ, सार्थक और जातीय स्वरुप पाते हैं जिसकी
काव्य-प्रक्रिया और काव्य-प्रतिमान आज भी अनुकरणीय और शलाध्य प्रतीत होते हैं।
यहाँ मुख्य रुप से यह लक्ष्य किया जाना
चाहिए कि अपनी परम्पराबोध के मौलिक,सूक्ष्म ज्ञान से ही विजेंद्र जी काव्य
के नये सौंदर्य और प्रतिमान की खोज करते है,
उसको
दरकिनार कर पाश्चात्य काव्यसौंदर्य के चिंतन से नहीं।
हम जिस आलोचना-समय में जी रहे हैं,वहाँ हिंदी आलोचना के पास चिंतन की मौलिकता का अभाव है। नये मानक और
प्रतिमान रचने के जोखिम उठाने का न तो साहस है हमारे आलोचकों के पास, न बुद्धि-वैभव और न परम्परागत ज्ञान ही। कुछ को छोड़ कर, अधिकतर आलोचकों की स्थिति यह है कि वे अब तक न तो अपने जातीय साहित्य का
अवगाहन कर पाये हैं, न पश्चिम को भारतीयता और लोक की कसौटी
पर परख पाये हैं। सिर्फ़ भारतीय वाड़मय को एक खंडित मानसिकता से समझने का प्रयास
किया गया है, जिस कारण उनके मन में लोक-वस्तु का
सम्यक आत्मसाक्षात्कार नहीं हो पाया है। हाँ,
उन
लोगों ने एक हिंदी-मानस जरुर रचा है,
पर
समालोचना के समुचित विकास के लिए यह जरुरी है कि अपनी परंपरा को न सिर्फ़ समझा जाय, वरन उसे अपने संस्कृति-सूत्र से जोड़ कर उससे सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन की ऐसी
अवधारणा विकसित की जाय जो साहित्य और जन की समृद्धि के काम आ सके। साथ ही श्रम की
भाव=भूमि पर जन और लोक की प्रतिष्ठा के लिये मार्क्सवाद के भारतीय संस्करण को
विकसित किया जा सके और पश्चिम की उन अतियों की तीव्र निंदा भी, जो हमारे साहित्य को खोखला,
वक्र और
भावहीन बनाते हैं। ऐसे समय में विजेंद्र जी नई पुस्तक 'सौंदर्यशास्त्र: भारतीय चित्त और कविता'
का बड़ा
महत्व है, कारण कि उनके पास न सिर्फ़ परम्परा की
सही और परिमार्जित विपुल समझ है, बल्कि उससे अपनी कविता को विकसित करने
की व्यापक सोच-शैली और पश्चिम की उस सौंदर्यशास्त्रीय अवधारणा की काट भी मौजूद है
जो हमें भारतीय चिंतन-क्षेत्र से अपह्रतकर निरे कलावाद-रुपवाद की दुनिया में घसीट
ले जाते हैं जहाँ हमारी अपनी समृद्ध विरासत के खो जाने और समकालीनता के जड़ हो जाने
का खतरा बराबर बना रहता है। पूरे पुस्तक में उनके काव्य-चिंतन और मीमांसा का पक्ष
जितना सप्रमाण, ठोस,तार्किक,
सहज और
अर्थवान है उतना ही प्रगतिशील और वैज्ञानिक भी है। इससे भारतीय सौंदर्यचिंतन के
विकास के नये क्षितिज तो खुले ही हैं,
लोकधर्मी
सौंदर्यशास्त्र को नई दशा-दिशा भी मिली है और विरासत में हस्तगत परम्परा का भाव
समृद्ध हुआ है। साथ ही इसने भारतीय सौंदर्यशास्त्र में गहरे जड़ जमा रही निर्मूल
मान्यताओं को झटका दे कर उसमें सकारात्मक हस्तक्षेप भी किया है जिससे भविष्य में
जनपदीय साहित्य और लोक-साहित्य के दिन बहुरने के प्रबल आसार नज़र आने लगे हैं।
इसीलिए विजेंद्र अपने सौंदर्यचिंतन की उदात्तता के कारण हमें भविष्य के कवि भी
लगते हैं।
जो पाठक जयपुर से निकलने वाली लोकचेतना
की बहुप्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिका 'कृति ओर' नियमित पढ़ते हैं, उन्हें मालुम होगा कि संपादकीय के बहाने विजेंद्र जी भारतीय सौंदर्यशास्त्र
पर महत्वपूर्ण कार्य वर्षों से कितने मनोयोग से करते आ रहे हैं ! यह पुस्तक उसी का
परिणाम है।
कुछ दिन पहले मैं देहरादून की मासिक
पत्रिका 'लोक गंगा' के जनवरी 2008 अंक में समीक्षक रेवती रमण जी की एक समीक्षा पढ़ रहा था। वैसे तो पूरी
समीक्षा ही विजेंद्र जी के रचनाकर्म के पार्श्व में जो शास्त्रीयता और
सौंदर्यदृष्टि विद्यमान है, उसकी अन्यतम प्रस्तुति लगी, पर जो मन को सबसे अधिक भा गया वे उनके दो विचार हैं जिनका जिक्र यहाँ
लाजिमी है। एक तो रेवती रमण जी ने यह कहा कि ''मेरा खयाल है, हिन्दी के वे पाठक जिन्होंने मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का विधिवत अध्ययन
नहीं किया है, संक्षेप में विजेंद्र की इस किताब से
अपना एक भावमानस बना सकते हैं। बल्कि यह प्रयास अधिक सर्जनात्मक है। दूसरे कि''जो कार्य 'कविता के नये प्रतिमान से अपेक्षित था, विजेंद्र ने उस दिशा में पहलकदमी कर दिखाई है।... एक पंक्ति में यही कहना
है कि जो कार्य 'कविता के नये प्रतिमान' के लेखक से अपेक्षित था, विजेंद्र ने चुपचाप कर दिखाया।
वास्तव में यहाँ इस वक्तव्य के बडे़
मायने हैं। रमण जी वस्तुत: विनयशील भाव से यह बतलाना चाह रहे हैं कि
सौंदर्यशास्त्र पर इतना महत्वपूर्ण कार्य पहले ही दिग्गज आलोचकों के द्वारा हो
जाना चाहिए था पर आज तक आलोचना के पुरोधाओं का ध्यान शिद्दत और गंभीरता से इधर
नहीं गया,या कहें कि पूर्व में रचे गये कविता के
प्रतिमान पर अब पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
खैर,
मैं
अपने विचार की इतिश्री इस बात से करना चाहूँगा कि विजेंद्र जी के सौंदर्यशास्त्र
की इस पुस्तक को पढ़ते हुए न मात्र मेरी कई जड़ धारणाएँ ध्वस्त हुई हैं बल्कि हृदय
से यह महसूस हुआ है कि कवियों और कविता के पाठकों के लिये उनकी यह पुस्तक 'मणिकांचन योग' साबित होगा क्योंकि इस पुस्तक में
काव्यसौंदर्य के नये प्रतिमान की गहन खोज हो चुकी है जो विजेंद्र जी के अपने दीर्घ
समय की कविता के आत्मसंघर्ष और उसकी विचारणा की कार्यसिद्धि का फल है--
''तुमने मेरी काव्य प्रेरणा को
उजडी़
फसलें, उखडे़ पेड़, बूचड़खाने
और भ्रंश चट्टानें छोडी़ हैं।
ओ मेरे कवि
निरझरों के गान कहाँ से
लाऊँ
उगती फसल के सूर्योदय
उन्होंने हड़प लिये हैं।
कितनी पीडा़ सह कर
मैंने साँसों
की नमी को बचाया है। ('ओ मेरे प्रिय जन कविता से/
विजेंद्र)"
समीक्ष्य पुस्तक:
'सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता'
: विजेन्द्र
अभिषेक प्रकाशन, 5824, जवाहर नगर (निकट शिव मंदिर)
न्यू चंद्रावल, दिल्ली 110007, मोबाईल- 09811167357, 09899274796
प्रथम संस्करण 2006
पृष्ठ: 196, मूल्य: रु. 350
सुशील कुमार
जन्म-13/09/1964. पटना सिटी (बिहार) में।
सम्प्रति दुमका में निवास और मानव संसाधन विकास विभाग,
झारखंड में कार्यरत|
शिक्षा-बीएड।
संपर्क -
हंस निवास, कालीमंडा
हरनाकुंडी
रोड, पोस्ट-पुराना दुमका
झारखंड - 814 101
मोबाईल- 09431310216 / 09006740311
यह विजेंद्र जी की बेहद सुचिंतित एवं सुगठित गद्य पुस्तक है. समकालीन कविता की चिंताओं को लेकर जिस तरह विजेंद्र वांग्मय का समकालीन पाठ प्रस्तुत करते हैं ,वह अमूल्य है . दुर्भाग्यवश हिंदी में इस किताब कि जितनी चर्चा होनी चाहिए थी वह नही हुयी. नही हुयी तो इसके मूल में हिंदी का सत्ता संसार तो है ही साथ ही समकालीन पीढ़ी के तथाकथित सरोकार भी हैं .मेरा मानना है कि विजेंद्र की यह पुस्तक परम्परा का पुनर्पाठ प्रस्तुत करती है. पुनारुथान्वादी दृष्टिकोण के साथ नही बल्कि समकालीन चिन्तन के साथ . यह इस पुस्तक की बड़ी उपलब्धी है. बधाई सुशील कुमार को भी इतनी अच्छी समीक्षा के लिए ,संतोष भाई को भी जो बेहद सजगता एवं सहजता से साहित्य में अनिवार्यता को बनाये का उपक्रम जरी रखे हुए है .और विजेंद्र तो इस परिकल्पना के मूल में हैं ही .
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है।
जवाब देंहटाएंAchha laga parantu kaafi lambi ho gai.
जवाब देंहटाएंकविता को गहराई से समझने के लिए सौंदर्यशास्त्र मदद करता है। सौन्द्र्य को गृहण करना और सरहाना रचनात्मक कर्म है। सौंदर्यशास्त्र कि दृष्टि से काव्य उपकरणों का इस्तेमाल कैसे करें। लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र कि परम्परा क्या है ? कविता में लय, शिल्प , भाषा आदि सवालों को विजेंद्र जी ने सौंदर्यशास्त्र में बड़ी सहजता से सुलझाया है। शाहनाज़ इमरानी
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