रतीनाथ योगेश्वर के कविता संग्रह ‘थैंक्यू मरजीना’ पर उमाशंकर परमार की समीक्षा
किसी भी कवि का पहला कविता संग्रह उसके लिए महत्वपूर्ण होता
है। रतीनाथ योगेश्वर ऐसे कवि हैं जो दो दशकों से लिख रहे हैं लेकिन पहला संग्रह ‘थैंक्यू
मरजीना’ अभी-अभी इलाहाबाद के साहित्य भण्डार से प्रकाशित हुआ है। साहित्य भण्डार
ने एक अनूठी पहल के अंतर्गत इस वर्ष पचास किताबें पचास रूपये मूल्य पर प्रकाशित की
हैं। इस श्रंखला का साहित्य जगत में भरपूर स्वागत किया गया है। रतीनाथ योगेश्वर को
उनके संग्रह की बधाई देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनके संग्रह ‘थैंक्यू
मरजीना’ पर उमाशंकर परमार की समीक्षा।
थैंक्यू मरजीना-गुमशुदा मनुष्य की तलाश
आचार्य उमाशंकर सिंह परमार
साथी रतीनाथ योगेश्वर समकालीन हिन्दी कविता के उभरते कवि
है। उनका प्रथम काव्य संग्रह “थैंक्यू मरजीना” अभी हाल में ही
प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह के 68 कवितायें लगभग दो दशकों के अन्तराल में लिखी गयी हैं। ऊपरी
तौर पर देखने में हर एक कविता अलग-अलग विषय भूमि पर खड़ी दिखाई देती है। कविताओं का
स्वनहित परिवेश एवं अन्तर वस्तु अलग-अलग हैं। इस अलगाव के बावजूद भी इनके बीच
निहित कथ्यात्मक अन्तर संबंध सब को जोड़ देता है। अलग-अलग खाचे से गढ़ी गई कवितायें
अपने प्रयोग धर्मी शिल्प को बरकरार रखते हुए एक ही मूल स्वर बया करती है। वह मूल
स्वर है -वैयक्तिक और सामाजिक द्वन्दों के मध्य गुमशुदा मनुष्य का अन्वेषण।
“थैंक्यू मरजीना” की कवितायें पूँजी से आक्रान्त परिवेश व
व्यवस्था के कुचक्र में सोई हुई मनुष्यता की खोज और जागरण का गीत गाती है। ये
कवितायें अलगाव को ले कर चलती है यह अलगाव आज हमारे समाज का सबसे बड़ा सच है।
व्यक्ति, परिवार, समाज तीनों स्तरों पर अलगाव अपने पूरे वर्चस्व के साथ
विद्यमान है। इस अलगाव के कारण हम अपने मनुष्य होने का अहसास खो चुके है। हम अपनी
संस्कृति से दूर जा चुके है रिश्तों से ले कर वर्गीय चेतना तक के संबंध हम भूल चके
हैं। वर्गीय सच से अनभिज्ञता हमारी विसंगतियों का मूल कारण है। रतीनाथ की कविताएँ इस
अलगाव युक्त खतरनाक परिवेश में मनुष्य की खोज कर मनुष्यता को रेखांकित करती हैं।
एक ऐसा समाज जहाँ शोषण, उत्पीडन को नियत मानकर बुर्जुवा हित के लिए इन्सानियत को भी
वस्तु समझ कर बाजार के हवाले कर दिया जाय, ऐसा समाज जहाँ रिश्तों की पवित्रता
वैयक्तिक चेतना न करके उत्पादन के प्रक्रियागत संबंध तय करें, ऐसा समाज जहाँ
स्वप्न देखना भी खतरनाक है, ऐसा समाज जहाँ असहमति अपराध है, जाहिर है ऐसे समाज
में वैयक्तिक चेतना और वर्गीय समझ कहा तक टिकेगी। कवि अस्तित्व को बचाने के लिए
जद्दोजहद् कर रहा है, वह संघर्ष का स्वप्न देख रहा हैं, वह संघर्ष की
पीठिका तय कर रहा है। रतीनाथ की कवितायें ऐसे समाज का चित्र बड़े प्रभावोत्पादक ढंग
से प्रस्तुत करते हैं, वर्गीय विभेद की सच्चाई व सामाजिक खोखलापन रतीनाथ की नजरों
से ओझल नही है, वो बडी शिद्दत के साथ ऐसे समाज का खाका खीचते हैं।
कटी टाट-पट्टियों पर बैठा कतलाता सत्य
वर्तमानी चाँटे की चोट से
सारी संवेदनायें
यथार्थ के गालों पर झेलता
फँस कर रह गया है, भय आतंक का उलझाव
विचित्र-विचित्र आशंकाओं के बीच
लगड़ा भविष्य (पृष्ठ-18)
लगड़ा भविष्य का आशय है कि हमारा भविष्य भी इस परिवेश में
मुक्त नहीं है। वह हमारी चेतना को भी अपने जाल में फॅंसा चुका है, आज जरूरत है चेतना
की पहचान की, वह अपनी कई कविताओं में खोई हुई वर्गीय चेतना का जिक्र करते
हैं, वे बार-बार कहते है- ‘लोहे का सूर्य उगाओ’ देखिये लोहा का
सूर्य कविता में कवि ने सीधे-सीधे शब्दों मे कह दिया है कि आत्मा को ठंडी होने से
बचाओ, हमारे अन्दर लोहा है लोहे का सूर्य उगाओ -
भीतर अपने लोहा भी है
जाना तुमने
अपने रक्त सरोवर से
एक लोहा का सूर्य उगाओ
तो जाने। (पृष्ठ-23)
यही तो खोज है चेतना की कवि ने चेतना की पहचान बखूबी करा दी
हैं, लेकिन वह चेतना की खोज से ही संतुष्ट नही है, वह समझता है कि
व्यक्ति को जब तक अपनी शक्ति का अहसास न होगा, तो सामाजिक
विसंगतियों की मार में विखरता रहेगा। माता-पिता और वह कविता में पिता की सीख के
माध्यम से कवि ने आदमी को शक्ति की पहचान कराई हैं। पिता कहते है-
बेटा डरना मत, अकेला आदमी
सबसे ज्यादा ताकतवर होता है
वह सोचता है
और खतरनाक भी (पृष्ठ -25)
आदमी इसलिए ताकतवर होता है क्योंकि वह सोचता है, जो सोचता है वही
खतरनाक होता है हम संकटग्रस्त क्यों है? क्योंकि हम सोचते नही जब सोच लेगे तो
संकट खत्म हो जायेगा, क्योंकि सोचने पर हम खतरनाक हो जाते है, ताकतवर हो जाते
है।
मानवता के ऊपर
हावी बाजारवाद की पहचान में कवि को बखूबी हैं, बाजार में वस्तु
का मूल्य उपयोगिता तय करती है आदमी भी एक वस्तु है, अतः मानवता की
कसौटी व आदमी की मूल्यवत्ता भी उपयोगिता ही तय करती है, उपभोक्तावादी
बाजार के इस फण्डे से पारिवारिक ढ़ाचा भी
बिखर रहा है। मानवीय रिश्ते व संवेदनायें सब कुछ बाजार तय करता है, उपयोगिता खत्म तो
मूल्यवत्ता खत्म, झोले जैसा कविता में मानवीयता पर बाजार का असर देखिए।
जब-जब खाली हुआ मैं,
टांग दिया गया मुझे
दीवार में ठुकी किसी कील पर
या फेंक दिया गया मुझे,
घर के किसी कोने में (पृष्ठ-29)
यह पूँजीवादी अलगाव का उपयोगितावादी सच है। जब पूँजीवाद
अपनी चरम सीमा में होता है तो रोटी और पानी के लिए संघर्ष लाजमी है। आम आदमी की
मूलभूत अवश्यकताओं पर भी सुविधाभोगी वर्ग काबिज हो जाता है। 'रोटी दो' कविता में कवि
ने देखिए क्या लिखा है?
रोटी की धनात्विक शक्ति,
कम कर दी तुमने,
रोटी हमारे कद से
दो गुनी ऊँचाई छत से।। (पृष्ठ-31)
जीवन की मूलभूत अवश्यकताओं पर काबिज बुर्जुवा शक्ति के
खिलाफ एक दीर्घकालिक संघर्ष का आगाज नही हो पा रहा, क्योंकि कि हम
क्रान्ति और परिवर्तन की कल्पना से है कांप जाते हैं। क्रान्ति के प्रति यह भय एवं
दुराव कवि ने मध्यम वर्गीय संस्कारों से और प्रतिक्रियावादी विचारों से जोड़ कर
देखा है। आम आदमी लाख शोषण के बाद भी अपनी समूची शक्ति के साथ खड़ा नहीं होना चाहता,
क्योंकि हमारी सोच
मध्यमवर्गीय है। हमारे संस्कार ही हमारा प्रतिरोध करते है-
मै जानता हूँ
तुम सब डर रहे हो
कारण कुछ भी हो सकता है
संस्कार या विचार।।
भय और त्रास की दोहरी मार झेलता कवि अपने आप को हारा नही
समझता वह पूँजीवादी, बाजारवादी, सामान्तवादी संस्कारों में कैद मानव के मुक्त होने की प्रबल
आशा करता है। 'लामबन्द होंगे विचार' कविता में खुल कर कहते है-
अन्याय के खिलाफ
अपने हक की लड़ाई के लिए
लामबन्द होगे विचार
उन्हीं के साथ
कन्धे से कन्धा मिला कर
खडी होगी कविताएँ।। (पृष्ठ-104)
मनुष्यता के प्रति यह आशावादी दृष्टिकोण ‘थैक्यू मरजीना’
कविता में बहुत ही अनोखे अन्दाज में व्यक्त हुआ है। तमाम हारों, पराजयों, संघर्षों के बाद
संकटग्रस्त मनुष्य को अपनी सत्ता व संवेदना का अहसास कराती यह कविता एक स्वभाविक
द्वन्द रहित परिवेश का चित्र भी प्रस्तुत करती है।
‘थैंक्यू मरजीना’
तेरी हिकमत थी कि बच गया मै
वरना लुटेरों ने तो लगा दिया था
दरबाजे पर
कट्टम, कुट्टम का निशान।। (पृष्ठ-70)
यह कविता यह फन्टेसी है जहाँ किंवदन्ति बन चुकी मरजीना एक
जिजीविषा बन कर उभरती है। वह मनुष्य की मनुष्यता है, एक उद्देश्य है,
एक क्रान्ति है।
‘थैंक्यू मरजीना’ का रचनाकार रंगमंचों से जुड़ा है, और एक प्रसिद्ध
चित्रकार भी है। कला पक्ष को देखते समय उनकी रंगमंची प्रतिभा एवं चित्र कला का
मूर्त विधान अनदेखा नही किया जा सकता। ये दोनों पक्ष उनकी कविताओं में सिर चढ़ कर
बोलते है। रंगमंचों में वाचिक विक्षेप का बड़ा महत्व है। इस वाचिक विक्षेप से ही
कलाकार अपने कथ्य को दर्शक तक सम्प्रेषित करता है। शब्दों की विशिष्ट भंगिमा और
उनके मध्य विद्यमान आरोह-अवरोह की गत्यात्मक अवस्था रतीनाथ की कविताओं की खास
पहचान है। उनका शिल्प दो मोर्चें ले कर चलता है पहला शब्द चयन एवं दूसरा शब्द
गुम्फन वो दोनों मोर्चों में सफल है। कथ्य के अनुरूप कम से कम शब्दों का प्रयोग और
उनके मध्य लयात्मक आरोह-अवरोह मात्र कथ्य का संकेत करते है, बाकी काम व्यजंना कर जाती है। वे सब कुछ नही कहते व्यजंना
द्वारा कहलाते है व्यंजना का यह कलात्मक प्रयोग बिरले कवियों में मिलता है,
देखिए एक उदाहरण-
दो हाथ और दो पैर
बराबर चार पैर
नाल ठुकेगी, जीन कसेगी
लगाम लगेगी
चाबुक हवा में लहरायेगा
सटा ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ क।। (पृष्ठ-59)
पूँजीवाद परिवेश की अमानवीय परिस्थियाँ मनुष्य को कैसे
जानवर बना देती है इस तथ्य को रतीनाथ ने खूबसूरत अन्दाज में व्यक्त किया है। यहाँ
शब्द चुप है लेकिन व्यजंना बोल रही है।
जैसा कि मैने
बताया है कि रतीनाथ एक चित्रकार है, चित्र कला की मूर्त विधायनी कला (बिम्ब
विधान) कविता की जान है, वे अपने शब्दों द्वारा यथार्थ का बिम्ब सृजित करते है,
जिसकी संवेद्यता
से कठिन सी प्रतीत होने वाली कविता भी सहजगे हो जाती है। पूँजीवादी बाजार के
कटघरें में कैद मानवता की झट-पटाहट का चित्रण वे बिम्ब विधान के द्वारा ही करते
है। इस शब्द चित्रों के माध्यम से अपना मंतव्य कह देने की कला अज्ञेय में भी मिलती
है, लेकिन रतीनाथ के बिम्ब यर्थाथ की विसंगति को प्रदर्शित करते है और अज्ञेय के
बिम्ब मनोवैज्ञानिक कुण्ठाओं को व्यक्त करते है।
काज बटन सीखने
दर्जी के घर बैठाये गये
मासूम बच्चे के दिमाग में
किताब फडफड़ा रही है।। (पृष्ठ-43)
बालश्रम व बाल अपराध का इससे सुन्दर शब्द चित्र कहा मिल
सकता है, यहाँ किताबे फड़फड़ा रही हैं शब्द अपनी अर्थवत्ता से वह सब कह देता है जो कवि का
मंतव्य है। इन शब्द चित्रों के माध्यम से उनका कथ्य और भी प्रभावी बन गया है।
रतीनाथ की कवितायें कलात्मक रूप से उत्कृष्ट है बिम्ब परखता के साथ-साथ अमूर्त
विधान और रूपक विधान भी उनकी कविताओं को श्रेष्ठ कलात्मक पराकाष्ठा तक ले जाता है।
अमूर्त विधान और बिम्ब विधान दोनों में रूपक विधान समान्य होता है, वगैर रूपक विधान
के न तो अर्मूत विधान संभव है न ही बिम्ब विधान। देखिए समय को कुत्ते से आरोपित
करने वाला अमूर्त विधान है-
समय का काला कुत्ता
गन्धाते जुराबों की तरह
अपने दाँत में दबा
उठा ले जायेगा बडे बूढों को (पृष्ठ-54)
यथार्थ की असह्य कटु त्रासदी का सांगोपांग विवेचन करने के लिए
कवि उपमाओं का सहारा लेता है लेकिन अनावश्य रूप में नही लेता वह मात्र व्यंजना की
उच्चतम अनुभूति के लिए उपमा का सहारा लेता है। थैक्यू मरजीना में व्यंजनाधर्मी
उपमाये कई स्थलों पर दिखाइ देती है, इन उपमाओं के कारण व्यंजना और भी मारक बन
जाती है। देखिए एक उपमा जिसमें कायरता को बीज बताया गया है-
देख रहा हूँ मैं
भीतर-भीतर कुछ जलते
पलते कायरता का बीज (पृष्ठ-58)
‘थैंक्यू मरजीना’ के प्रतीक विधान पर मै कोई टिप्पणी नही
करूँगा, क्योंकि आज की कविता में प्रतीक विधान सामान्य बात है, आज की
परिस्थितियाँ इतनी जटिल है कि कोई भी कवि प्रतीकों को दरकिनार नही कर सकता। यही वह
माध्यम है जो कविता को विसंगति का स्वर देता है। लेकिन रतीनाथ का शिल्प वैशिष्ट्य
प्रतीकों पर टिका नही है, जहाँ प्रतीक का प्रयोग हो सकता है वहा वह बिम्ब का सहारा ले
लेते है और बिम्ब में व्यंजना का तड़का लगा कर अपने शब्द गुम्फन से कविता को
उत्कृष्ट कलात्मक ऊँचाई तक ले जाते है।
विचारणीय बिन्दु
यह है कि कलात्मक उत्कृष्टता के साथ -साथ उन्होंने अपनी कथ्यात्मक प्रभावपूर्णता
का बखूबी निर्वहन किया है। उनका मानव जो पूँजीवादी, बाजारवादी और
मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में खिलौना बन चुका है, उनका मानव उस
लोकतन्त्र का वाशिन्दा है जहाँ मुठ्ठी भर लोग लोकतान्त्रिक तानाशाही से आम आदमी को
मौत के मुह में ढ़केल रहे है। जहाँ मानव की वर्गीय समझ और चेतना नष्ट हो चुकी है,
वह अलगाव का शिकार
है। उसकी सोच पर खतरनाक पहरे है, वह मानव मनुष्यता खो चुका है। रतीनाथ की कविताएँ उस खोए हुए
मानव को खोजती है, उसकी आत्मा को ठंडी होने से बचाती है। वह परिवर्तन और बदलाव
की सीख देती है, वह कहती हैं कि यहाँ आदमी को जानवर बनाने में कोई कसर नही
है, बस अपने-आप को संभालो, अपने खोए हुए मनुष्य को पहचानो, बदलो दुनिया को
बदलो, बदलाव ही वह हथियार है जिससे मनुष्यता अपनी सत्ता को पुनः पा सकती है। इसी
चेतना का नाम मरजीना है, मरजीना हमें मनुष्यता से मिलाती है, वह हमें मानव
बनाती है, और हमारे मानव होने को परिभाषित करती है। ‘थैंक्यू मरजीना’
उमाशंकर सिंह
परमार
प्रवक्ता, हिन्दी
आदर्श किसान इण्टर
कालेज,
भभुवा (बाँदा)
मोबाईल-09838610776
बढ़िया. रतीनाथ जी की कविताओं में बिम्ब और ध्वनि का खूबसूरत संयोजन मिलता है. मुझे उनकी कवितायेँ पढ़ने और उनपर अपनी बात रखने का मौका मिला था.
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा बहुत उम्दा है.
साथी सन्तोष चतुर्वेदी बहुत बहुत आभार /आपने मेरे कविता संग्रह पर ''पहली बार'' में साथी उमाशंकर परमार की सारगर्भित समीक्षा प्रकाशित की / उमाशंकर भाई की कलम के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ --और उनकी समीक्षात्मक दृष्टि का कायल हूँ ----अच्छी पड़ताल की गयी है ''थैंक्यू मरजीना'' की ---
जवाब देंहटाएंकवि रतीनाथ योगेश्वर की बहुत सारी कवितायेँ स्त्री विमर्श को इंगित करती हैं ! इनकी कविताओं के बीच जाकर इनके भीतर के उथल-पुथल को महसूस किया जा सकता है इनकी कर्मठ लेखनी की भावात्मक अभिव्यक्ति विशेषतः हिंदी भाषी समाज के लिए बहुमूल्य है ,क्यूंकि इनकी कवितायेँ केवल भावुक उदगार नही बल्कि विचार पुष्ट भावाभिव्यक्तियां है जिनमें जनपक्षधरता का उद्घोष साफ़ तौर से सुना जा सकता है....
जवाब देंहटाएंउमाशंकर परमार जी की समीक्षात्मक टिप्पड़ी आज की हिंदी कविता को समझने में सहायक हो सकती है --मानक बदल रहे हैं समीक्षा के ---हमें भी अपनी कसौटी बदलनी होगी..शुभकामनाये...साधुवाद !
भाई रतीनाथ योगेश्वर जी कविताएँ हमें संवेदनाओं के नए इलाकों में ले जाती हैं और वहाँ हमें अकेला छोड़ देती हैं - आत्मावलोकन के लिए !........
जवाब देंहटाएंभाई परमार जी की समीक्षा ने - थैंक्यू मरजीना -को दोबारा पढ़ने की ललक जगा दी है !
धन्यवाद...संतोष जी ,रतीनाथ जी और परमार जी
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंरतीनाथ योगेश्वर के कविता संग्रह '' थैंक्यू मरजीना'' पर भाई उमाशंकर परमार ने बड़े मन से कलम चलाई है /रतीनाथ की कविताये वास्तव में जीवन से गुम होती संवेदनाओं को पुनर्स्थापित करने वाली कवितायेँ हैं /आज के समय में जब समकालीन हिंदी कविता लगातार अपने को दोहराने में मग्न है ''रतीनाथ'' की कवितायेँ इस एकरसता को भंग करती हैं /प्रिय सन्तोष जी को बहुत बहुत साधुवाद
जवाब देंहटाएंसमय को साधती और गझिन बुनावट की इन संवादी कविताओं को वास्तव में उमाशंकर ने खूबसूरती से साधा है ।
जवाब देंहटाएंसुधीर सिंह