मार्कण्डेय जी की कहानियों में बाल-मनोविज्ञान पर हिमांगी त्रिपाठी का आलेख
मार्कण्डेय जी की पुण्यतिथि 18 मार्च के अवसर पर विशेष प्रस्तुति के क्रम में हमने वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य का समीक्षा-आलेख प्रस्तुत किया था. इसी प्रस्तुति के दूसरे क्रम में पेश है हिमांगी त्रिपाठी का आलेख 'मार्कण्डेय जी की कहानियों में बाल-मनोविज्ञान एवं समय सन्दर्भ'
मार्कण्डेय की कहानियों में बाल-मनोविज्ञान एवं समय सन्दर्भ
हिमांगी त्रिपाठी
मार्कण्डेय का जीवन : एक संक्षिप्त परिचय
प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कथा-साहित्य के क्षेत्र में अपना
महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले मार्कण्डेय का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के
बराई नामक गाँव में 2 मई सन् 1930 में एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था। परिवार में सबसे
बडे़ पौत्र होने के कारण उन्हें बहुत लाड़-प्यार मिला। उनके पितामह श्री महादेव
सिंह का व्यक्तित्व अत्यन्त विशाल एवं व्यापक था। वे संस्कृत के अच्छे विद्वान थे
और धार्मिक अंधविश्वासों के प्रबल विरोधी थे। मार्कण्डेय के पिता का नाम तालुकदार
सिंह था और माता का नाम मोहरा देवी था। इनकी माता अत्यन्त सहृदय और धर्मभीरू
स्त्री थीं। गाँव में गरीब, निसहाय लोगों की मदद करने के लिये वह सदैव तत्पर रहती थीं।
उनके इसी स्वभाव का परिचय देते हुए बालकृष्ण पाण्डेय लिखते हैं- ‘जब वह दुल्हन बन कर
आयी थीं और घर की चौखट नहीं लाँघ सकती थी, अपनी बखरी के पिछवाडे़ एक झोपड़ी में रहने
वाली असहाय स्त्री दुखना को रात चुपके से खाना पहुँचा आती थीं। बाद में इसी दुखना
को आधार बना कर मार्कण्डेय ने ‘महुए का पेड़’ लिखी।‘1 मार्कण्डेय के हृदय में गरीबों के प्रति
जो लगाव, अपनापन था वह उनकी दयालु माँ के कारण ही था। गरीबों के प्रति उनकी माँ का
व्यवहार उपर्युक्त कथन में हमें दिखायी पड़ता है।
कहानीकार मार्कण्डेय के पिता तालुकदार सिंह अपने सम्बन्धी
की एक छोटी-सी रियासत की देखभाल किया करते थे। अपने बाबा के प्रति मार्कण्डेय के
हृदय में अपार स्नेह था। मार्कण्डेय की माध्यमिक शिक्षा पूरी होने के पहले ही उनको
दिल का दौरा पड़ा और वे पंचतत्व में विलीन हो गये। इस घटना के बाद उनके जीवन को
गहरा आघात लगा। ‘बाबा की मृत्यु के बाद मार्कण्डेय के जीवन में एक गहरी गम्भीरता आयी। मन
आन्दोलित हो उठा और ऐसी मनः स्थितियों में किस्मत ने उन्हें अवध की सड़ी-गली
ताल्लुकेदारी के बीच ला खड़ा कर दिया जहाँ उन्होंने जनता पर हाने वाले अत्याचारों
और अन्यायों को देखा। लगान की वसूली के लिये उनके साथ होने वाले पशुओं से भी बद्तर
सलूक को देखा जिन्होंने उनके संस्कारों को और भी बढावा दिया जो विरासत के रूप में
उन्हें अपने बाबा से मिले थे।’2 बाबा की मृत्यु के पश्चात वह अपनी आगे की पढ़ाई के लिये अपने पिता के साथ
प्रतापगढ़ आये थे। उन्हीं के शब्दों में- ‘आठ-दस साल का वह कालखण्ड जब मैं एक सामान्य किसान के घर से
निकल कर प्रतापगढ़ अपनी एक रियासतदार रिश्तेदार के यहाँ आगे पढ़ने क लिये चला गया
था। इस रियासत का प्रबन्ध मेरे पिता देखते थे।’3 मार्कण्डेय के दिल में जो स्वतन्त्र
भारत का सपना था उसका बीज बाबा ने ही बोया था। शोषितो के प्रति जो उनके मन में
सहानुभूति थी वह उनके बाबा और उनकी माँ के संस्कारों द्वारा ही थी।
उच्च शिक्षा को प्राप्त करने के लिये मार्कण्डेय इलाहाबाद
आये और यहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई को जारी रखा। जब मार्कण्डेय
इलाहाबाद आये थे उस समय यह शहर भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में विख्यात था।
यहीं पर उनकी मुलाकात निराला, पन्त, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा आदि अनेक साहित्यकारों से
हुई। इसके चलते मार्कण्डेय ने अमरकान्त और शेखर जोशी के साथ मिलकर नयी कहानी
आन्दोलन को नयी दिशा देने वाली इस मित्रता को एक नयी त्रयी के रूप में निर्मित
किया। इलाहाबाद में मार्कण्डैय प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में भाग लेने लगे
जिसमें अनेक प्रकार की साहित्यिक चर्चाएँ होती थी। मार्कण्डेय ने शरद जयन्ती के
उपलक्ष्य में अपनी पहली कहानी ‘गुलरा के बाबा’ का पाठ किया तो
वहाँ पर उपस्थित लेखक, साहित्यकारों ने उनकी खूब प्रशंसा की। अगले महीने उनकी यही
कहानी ‘कल्पना’ नामक पत्रिका में
प्रकाशित हुई और बहुत चर्चित हुई। इसके पश्चात एक-एक करके उनके आठ कहानी संग्रह
प्रकाशित हुए जिनमें उन्होंने ग्रामीण परिवेश की समस्याओं पर अधिक लिखा है।
इन्होंने प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कथा- साहित्य को एक नवीन जीवन प्रदान किया।
आठ कहानी संग्रहों ‘पानफूल’, ‘महुए का पेड़’, ‘हंसा जाई अकेला’, ‘भूदान’, ‘माही’, ‘सहज और शुभ’,
‘बीच के लोग’, और ‘हलयोग’ के अलावा उन्होंने दो उपन्यास ‘सेमल के फूल’ और ‘अग्निबीज’ लिखे। ‘सेमल के फूल’ में जहाँ उन्होंने नीलिमा और सुमंगल के असफल प्रेम को
दर्शाया है वहीं ‘अग्निबीज’ में गाँव के यथार्थ को प्रस्तुत करते हुए
अनेक प्रकार की समस्याओं को रेखांकित किया है। हर रचनाकार पहले एक कवि होता है
उक्ति को सही साबित करने के लिये मार्कण्डेय ने कविताएँ भी लिखीं। इनके कविता
संग्रह हैं- ‘सपने तुम्हारे थे’
और ‘यह धरती तुम्हें देता हूँ’। मार्कण्डेय जी ने ‘पत्थर और परछाइयां’ नाम से एक एकांकी संग्रह भी लिखा। आलोचना की एक
महत्त्वपूर्ण पुस्तक भी ‘कहानी की बात’ नाम से .लिखी।
अपने बाल हृदय का परिचय देते हुए उन्होंने ‘कालिदास’, ‘बाणभट्ट’, ‘भवभूति’, ‘बाल पंचतन्त्र’, एवं ‘हितोपदेश’ जैसे बाल-साहित्य की भी रचना की। इसके अलावा मार्कण्डेय ने 1969 ई0 में ‘कथा’ नामक अनियतकालिक पत्रिका का सम्पादन प्रारम्भ किया। उनके
सम्पादन में ‘कथा’ के कुल 14 अंक निकले।
ग्रामीण कथाकार मार्कण्डेय डेढ़ दशक तक कैंसर और हृदयाघात जैसी बीमारियों से जूझते रहे।
अन्ततः 18 मार्च 2010 को नई दिल्ली के रोहिणी के ‘राजीव गाँधी कैंसर
इन्स्टीट्यूट’ में उनका निधन हो
गया। उनके पार्थिव शरीर को अगले दिन इलाहाबाद लाया गया जहाँ गंगा घाट पर 19 मार्च
2010 को उनकी अंत्येष्टि कर दी गयी।
हिन्दी कहानी- साहित्य में मार्कण्डेय को आमतौर पर एक ग्रामीण
-कथाकार के रूप में स्मरण किया जाता है। कथा सम्राट प्रेमचन्द के पश्चात
मार्कण्डेय ने हिन्दी कथा-जगत को एक नवीन दृष्टि से देखा। इसी क्रम में उन्होने
ग्रामीण-परिवेश, स्त्रियों की दशा, कृषकों की दयनीय स्थिति, बाल-मनोविज्ञान,
आदि को अपनी कहानियों
का विषय बना कर अपनी एक अलग पहचान बनायी है। यद्यपि मार्कण्डेय के अतिरिक्त शेखर
जोशी, अमरकान्त, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव आदि ने भी इसी दौर में कहानियाँ लिखी किन्तु ग्रामीण जीवन
के यथार्थ तक जितनी गहराई में मार्कण्डेय पहुँच सके हैं वह उनकी विशिष्टता बन गयी
है। इनकी कहानियों में भले ही ग्रामीण-परिवेश और किसानों की दयनीय स्थिति की कितनी
अधिकता क्यों न हो किन्तु उनका कोमल हृदय बच्चों की मासूमियत को अपनी कहानियों में
शरीक करना नहीं भूलता। और इसी कारण उनकी अनेक कहानियाँ बाल-मनोविज्ञान को लेकर
लिखी गयी हैं।
मार्कण्डेय ने अपने कहानी-संग्रहों में स्वतन्त्रता के
प्रति उपजे मोहभंग से लेकर ग्रामीण वातावरण में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक,
आदि अनेक प्रकार
की समस्याओं को अपनी कहानी के माध्यम से प्रस्तुत किया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति
के पश्चात् भी निम्न- वर्ग किस प्रकार उच्च-वर्ग के पैरों तले रौंदे जाते हैं और
किस प्रकार उनके घर की बहू-बेटियाँ उच्च-वर्ग के पुरुषों के शोषण का शिकार बनती
हैं, यह उनकी कहानियाँ स्पष्ट तौर पर बयान करती हैं। यद्यपि मार्कण्डेय ग्रामीण
कथाकार के रूप में ख्यात थे किन्तु उनकी सूक्ष्म दृष्टि, कथा-शिल्पी मन एवं
व्यापक चिन्तनशीलता अपने समय व समाज के कोने-कोने तक विस्तीर्ण थी। उनकी कहानियों
में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, स्थितियो का
यथातथ्य चित्रण हैं।
मार्कण्डेय के कहानी-संग्रहों की कहानियों को पढने, गुनने व अनुशीलन
के पश्चात् मेरे मन मस्तिष्क में उनकी कहानियों के नये-नये आयाम खुलते हैं।
अलग-अलग भावभूमि दिखायी देती है। समय-सन्दर्भ के तमाम क्षितिज फैेलते हैं। कथाकार
के समकालीन सन्दर्भो का कैनवास बहुरंगी घटनाओं को उद्घाटित करता है। मार्कण्डेय की
उस रचनाधर्मिता की बहुआयामी दृष्टि से प्रेरित होकर मैंने ‘बाल-मनोविज्ञान और आज के समय-सन्दर्भ’ विषय को विश्लेषित
करने के लिये चयन किया है। मेरा मानना है कि मार्कण्डेय जी के ग्राम्य- संवेदना,
सामाजिक चेतना आदि
के परिप्रेक्ष्य में उनकी कहानियों की चर्चा व विवेचना तो बहुत हुई है किन्तु उनकी
कहानियों में समय-सन्दर्भ को चरितार्थ करते बाल-मनोविज्ञान विषयक कथावस्तु,
पात्रों व घटनाओं
की चर्चा या संवाद नगण्य ही हैं। यहाँ मेरा उद्देश्य इनकी कहानियों में बाल-मन की
सहजता, स्वाभाविकता,
बाल-संस्कार व
बाल-चरित्र के द्वारा तत्कालीन समाज की मूल्य-मान्यताओं को उद्घाटित करने के साथ
ही बच्चों के संस्कार, रहन-सहन, परम्परा, ग्राम्य संस्कृति आदि को उजागर करना है। आज के उपभाक्तावादी
संस्कृति के दौर एवं सूचना क्रान्ति के संजाल में इक्कीसवीं सदी की नई पीढी व बाल
मन किस तरह से बालोचित कोमल संस्कार-आत्मीयता-मैत्री-वात्सल्य से सायास-अनायास
पीछे छूटता जा रहा है। समय से पहले ही मूल्य- मान्यताओं को लांघ महत्वाकांक्षाओं
की बुलन्दियों पर पहुँचना चाहता है। ऐसे समय में बाल मन के चितेरे कहानीकार मार्कण्डेय
की उन कहानियों का मूल्यांकन प्रासंगिक है जो बाल-मनोविज्ञान की पीठिका पर रचित
हैं। निःसन्देह किसी भी रचनाकार की रचनाधर्मी प्रासंगिकता ही उसे कालजयी बनाती है।
मार्कण्डेय का प्रथम संकलन ‘पानफूल’ है जिसमें संग्रहित ‘पानफूल’ शीर्षक कहानी में दो मासूम बच्चियों की मित्रता को रेखांकित
किया गया है। छोटी बच्ची नीली जहाँ उच्च-वर्ग से सम्बन्धित है वहीं छोटी बच्ची
रीती निम्नवर्गीय नौकरानी की लडकी है। नीली की मित्रता रीती और पूसी कुतिया से
होती है। भले ही नीली और रीती के रहन-सहन में बहुत फर्क है किन्तु फिर भी दोनों की
मित्रता और पूसी कुतिया का दोनों के प्रति लगाव एक आत्मीयता को दर्शाता है जिसमें
ऊँच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्यता और मनुष्यत्व-पशुत्व के भेद के लिये कोई स्थान नहीं है।
तीनों ही एक-दूसरे की भावनाओं को समझने में सक्षम हैं। नीली के मन में पूसी कुतिया
और रीती दोनों के प्रति गहरी सहानुभूति दिखायी पडती है। कहानीकार ने इन तीनों की
मित्रता को कहानी में इस प्रकार दर्शाया है- ‘नीली,रितिया और पूसी अब
हमेशा साथ रहती। कभी गुडिया का ब्याह
रचाया जाता, तो कभी बडे सवेरे मुँह-अँधेरे ही नीली और रीती फुलवारी वाले
पारिजात के फूल बटोरने पहुँच जाती। वहाँ कोई तितली देखतीं, तो उसके पीछे मचल
पडती। फिर पूसी ही क्यों पीछे रहती, उछल-उछल कर ,मुँह बना कर
इधर-उधर दौडती।’4 कहानी में जहाँ एक ओर पूसी कुतिया के प्रति पशु प्रेम को दर्शाया गया है वहीं
दूसरी ओर बाल-प्रेम और उनकी समझ की भी मार्मिक अभिव्यक्ति की गयी है।
नीली, रीती और पूसी कुतिया तीनों में इतना भावात्मक सम्बन्ध है कि एक-दूसरे को बचाने
की कोशिश में तीनों बाउली में कूद जाती हैं और अन्ततः तीनों उसी बाउली में अपनी
अन्तिम साँस लेती हैं। इस कहानी को पढ कर मन में एक अजीब-सी कशमकश होती है कि किस
प्रकार एक-दूसरे के प्रति जुडाव, लगाव, और आत्मीयता के कारण वे तीनों मौत के मुँह में छलाँग लगा
देती हैं?
अमीरी-गरीबी के भेद को भुलाते हुए नीली,रीती और पूसी
कुतिया तीनों के बीच घनिष्ठ मित्रता हो जाती है। आलोचक मधुरेश ने इस कहानी के सन्दर्भ
में अपने विचार को इन शब्दों में व्यक्त किया है- ‘पान-फूल अलग-अलग वर्गों की दो लडकियों
रितिया और नीली को केन्द्र में रख कर सामाजिक ऊँच-नीच के कृत्रिम विभाजन के विरोध
की एक बनावटी, आदर्शवादी और भावुकतापूर्ण कहानी है।’5 इस कहानी में
मार्कण्डेय ने बच्चों के सहज मनोभावों, उनके बाल-हृदय में उपजे प्रेम को दर्शाया
है जिसमें भावुकता, लगाव, स्नेह, उनके संस्कार, उनकी परम्परा और रहन-सहन को दर्शाया है।
बाल-मनोविज्ञान पर लिखी गयी यह कहानी पूर्णरूपेण बच्चों की चंचलता और उनकी
मासूमियत पर आधारित अत्यन्त ही रोचक व मार्मिक कहानी है जिसमें मार्कण्डेय के
बाल-हृदय को देखा जा सकता है। इस कहानी में मानवीय रागात्मक सम्बन्धों को लेखक ने
बडी सूक्ष्मता के साथ उद्घाटित किया है।
बाल-मनोविज्ञान पर आधारित मार्कण्डेय ने अनेकों कहानियाँ
लिखीं, जिसमें बालकों के मन में उठ रहे द्वन्द्व और मासूमियत से भरे उनके हृदय को
देखा जा सकता है। चाहे स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व का समय हो चाहे पश्चात् का
किन्तु बच्चों का बाल-हृदय पहले भी मासूम था और आज भी। इसी कारण बच्चों का रहन-सहन
उच्च हो या निम्न किन्तु उन्हें इससे कोई लेना- देना नहीं है। वह निम्न या उच्च
रहन-सहन देख कर मित्रता नहीं करते अपितु अपनी इच्छानुसार मित्र बनाते हैं फिर चाहे
वह कोई पशु ही क्यों न हो। ऐसी मित्रता को दर्शाती ‘पानफूल’ कहानी देखी जा सकती है जिसमें न तो ऊँच-नीच, समानता-असमानता का
बन्धन है न ही मनुष्यत्व और पशुत्व का।
एक बहुत ही छोटे कथा-सूत्र में ग्रन्थित ‘जूते’ कहानी में भी बालक हृदय की झाँकी को प्रस्तुत किया गया है।
कहानी में ग्रामीण वातावरण में पला मनोहर नाम का बालक ठाकुर के यहाँ चाकरी करता है,
और मानसिक
द्वन्द्व में उलझा रहता है। उसके इस द्वन्द्व का कारण एक छोटी-सी वस्तु है और वह
है जूता। शहर से आयी बहू जी के कहने पर जब वह कमरे में जूते लेने जाता है तो जूते
को लाल रंग का खिलौना समझ कर वह वापस आ जाता है। कहानी में अन्त तक वह इसी उधेडबुन
में रहता है कि आखिर इन मखमली जूतों को पहना कैसे जाता है और इसी कौतूहल के कारण
वह लगातार बच्ची के पास ही मंडराता रहता है। वह हर बार बहू जी को जूते पहनाते हुए
देखना चाहता है किन्तु बार-बार वह इस दृश्य को देखने में असफल रहता है। कहानीकार
के शब्दों में- ‘मैं आज बहू जी का साथ नही छोडूँगा, देखें कब बच्ची को जूते पहनाती हैं! फिर
उसके जी में आया कह दे बच्ची को तैयार कर दीजिये, मैं लेकर चलूँ।‘6 इन वाक्यों में मनोहर के बचपने के साथ
ही जूतों केा पहनते देखने की लालसा को बखूबी देखा जा सकता है। उसके मन में उठ रहे
सवालों का जवाब उसे तभी मिलता जब वह उन जूतों को पैर में पहनते हुए देख सकता।
जूते पहनते देखने की लालसा के कारण मनोहर ठाकुर-ठकुराइन के
उन अत्याचारों को भी कुछ समय के लिये भूल
जाता है जो वे मनोहर को देते थे। बहू जी मनोहर के प्रति सदैव विनम्रता से पेश आती
हैं किन्तु मनोहर को उनकी इस विनम्रता पर यकीन नहीं होता क्योंकि ठाकुर-ठकुराइन की
मार ने उसके मन में भय उत्पन्न कर दिया है जिसके कारण उसे स्नेह पर भी संदेह होता
है। उसका बाल मन सदैव भय से ग्रसित रहता है जो कहानी में भी देखा जा सकता है। बहू
जी जब गाँव से पुनः दिल्ली वापस जाती हैं
तो तो मनोहर उन्हें स्टेशन तक छोडने जाता है और वहीं पर बहू जी उसे उपहारस्वरूप्
जूते प्रदान करती हैं, जिन्हें पैरों में पहनने के बजाय वह बगल में दबा कर कंकड व
धूल भरी राह में नंगे पैर चलता है- ‘पर लौटते समय पलास की पत्तियाँ, आग की तरह जलती धूप और जेठ की दुपहरिया, जैसे कुछ नहीं थी,
क्योकि रास्ते पर
धूल थी, कंकड थे और मनाहर की बगल में एक कागज का डब्बा दबा था, जिसमें उसके लिये
लाल-लाल जूते थे।‘7
प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आर्थिक विषमता रूपी सामाजिक
विडम्बना पर प्रहार किया है। बाल-मनोविज्ञान के परिचय के साथ-साथ इस कहानी में एक
गरीब बालक की दयनीय स्थिति को भी दर्शाया गया है। कहानीकार ने इस कहानी में बाल
सरित्रों के माध्यम से ग्राम्य -जीवन की आर्थिक विषमता को भी उद्घाटित किया है।
ग्रामीण परिवेश में पले बच्चे शहरी वातावरण से किस प्रकार अनभिज्ञ रहते हैं यह
दर्शाया गया है। कथाकार एक मासूम बच्चे को प्रश्नों के ऐसे जाल में फँसा देता है जिससे
वह कहानी के अन्त तक नहीं निकल पाता। इसी कारण वह बहू जी द्वारा दिये जूते को एक
आकर्षक वस्तु समझ कर बगल में दबा कर धूल व कंकड़ भरे रास्ते में नंगं पैर चलता है।
बालसुलभ जिज्ञासा, कौतूहल, आकर्षण, अन्तर्द्वन्द्व को प्रस्तुत करती हुई यह अत्यन्त मार्मिक
कहानी है। इसमें मनोहर के मन में जूते को लेकर जो द्वन्द्व है वह उसकी गरीबी और रहन-सहन के कारण है क्योंकि गरीबी में जीने
वाला और गाँव में पला बच्चा मनोहर ने न तो कभी जूते देखे थे और न ही उनकी कल्पना
की थी। इसी कारण वह आकर्षक खिलौने के अलावा उन जूतों को और कुछ नहीं समझता है। इस
प्रकार बाल-मनोविज्ञान पर लिखी गयी मार्कण्डेय की यह कहानी नवीन और रोचक जान पडती
है।
वर्ग-विषमता को सामने लाने वाली कहानी ‘मिट्टी का घोड़ा’ में भी एक निर्धन बच्चे की विसंगतियों को दर्शाया गया है
जिसमें अमीर और गरीब दोनों बच्चों का विवरण है। कहानी में गरीब बच्चा और अमीर
बच्चा दोनों सफर कर रहे होते हैं। दोनों ही बच्चों के पास घोड़ा है किन्तु फर्क यह
है कि गरीब बच्चे के पास मिट्टी का ऐसा
घोड़ा है जिसकी तीन टांगें टूटी हुई है जबकि अमीर बच्चे के पास रुई का
मुलायम मखमली घोड़ा है। अमीर बच्चा अपने मखमली घोड़े को छोड़ कर जब मिट्टी के घोड़े को
लालसा के वशीभूत होकर छूता है तो उसकी माँ उसे डाँटते हुए कहती है- ‘आखिर उसे छू ही लिया। मना कर रही थी,
माना नहीं! डर्टी,
बदतमीज।‘8 मिट्टी के घोड़े
के प्रति बच्चे की लालसा को देखकर वह अमीर महिला उस घोड़े को ट्रेन से बाहर फेंककर
अपने अहंकारी स्वभाव का परिचय देती है। उसे यह एक बार भी नहीं लगा कि वह गरीब
बच्चा दूसरा खिलौना कहाँ से खरीदेगा? प्रस्तुत कहानी में अमीर और गारीब के बीच
ऐसे अलगाव को दिखाया गया है जो हमारे समय और समाज की सच्चाई है।
कहानीकार ने इस कहानी के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयत्न
किया है कि सारी सुख-सुविधाएँ होने के बावजूद भी अमीर बच्चा वह मिट्टी का घोड़ा
पाना चाहता है जबकि गरीब बालक सहनशील होने के कारण न सिर्फ अपना खिलौना दे देता है
बल्कि सदैव के लिये अपने उस टूटे खिलौने को गवां देता है। बच्चों में ऊँच-नीच,
समानता-असमानता,
आदि का भाव नहीं
होता। यह अन्तर बडे ही बच्चों को सिखाते हैं। यह भेदभाव उस महिला के व्यवहार में स्पष्टतया देखा जा सकता है जो कि गरीब
बच्चे के प्रति सहानुभूति के बजाय कठोरता प्रदर्शित करती है और अमीरी के घमण्ड में
उस खिलौने को ट्रेन से बाहर फेंकती है जिसकी उसके नजर में कोई अहमिसत नहीं थी जबकि
उसी टूटे खिलौने की अहमियत उस बच्चे के लिये बहुत थी जिसका खेलने का एकमात्र सहारा
वह टूटा घोड़ा था। डॉ0 शामराव मोरे के अनुसार - ‘इस कहानी में चित्रित मिट्टी का घोड़ा
गरीबी का प्रतीक है और नरम रुई का घोड़ा अमीरी का। वैसे ही कहानी में दो तरह की
मानसिकता का भी प्रतीकात्मक चित्रण हुआ है- अमीरी
और गरीबी की मानसिकता। एक नफरत को दर्शाती है और दूसरी बेबसी को।‘9 कहानी में गरीब बच्चे की बेबसी अत्यन्त ही
मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।
स्वतन्त्रता के पश्चात् भी आज के समय में भी हमारे समाज में
ऐसे बहुत से धनी लोग हैं जो गरीब बच्चों पर, उनके परिवार पर
अत्याचार करना नहीं भूलते। शिक्षा के प्रति जागरुक होने के पश्चात् भी हमारे समाज
में लोगों की सोच सदैव तुच्छ रही है। मार्कण्डेय ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के
पश्चात् की स्थितियों, समय एवं सन्दर्भ को अपनी कहानियों में उकेरा है। और इसी
कारण उनकी कहानियों को कथा सम्राट प्रेमचन्द की कहानियों से साम्यता दी जाती है।
इस प्रकार इस कहानी में ऊँच-नीच की वास्तविकता को कथाकार ने बड़ी ही सुगमता के साथ
दर्शाया है और इसके साथ-साथ निम्नवर्ग के प्रति उच्च वर्ग की मानसिकता को भी
उद्घाटित किया है।
शाश्वत वात्सल्य और अपार ममता को कतिपय प्रसंगों के माध्यम
से रेखांकित करती कहानी ‘माई’ में भी बच्चों की
चंचलता, नटखटपना, संस्कार, मासूमियत आदि को चित्रित किया गया है। यद्यपि कहानी में कोई
नयापन नहीं है किन्तु फिर भी यह कहानी पाठक को अपनी ओर आकृष्ट अवश्य करती है। इस
कहानी में माई के चार बेटे हैं- कूनी, रज्जू, बीरू, और रवी। माई के
सभी पुत्र पढे-लिखे हैं किन्तु बीमारी के कारण बीरू का पढाई में कदाचित् मन नहीं
लगता। बीमार रहने के कारण माई का लाड़-प्यार बीरू के प्रति तीनों की अपेक्षा थोड़ा
अधिक है। इसी कारण वह अत्यन्त शरारती है और हमेशा पड़ोस के बच्चों को तंग करके
बेवजह झगड़ा मोल लेता है। इसी कारण गाँव में वह बदनाम भी है। यद्यपि माई सभी को एक
समान स्नेह करती है किन्तु बीरू की बीमारी माई की ऐसी कमजोरी है जिससे वह निकल
नहीं पाती और बीरू की ओर थोड़ा अधिक ध्यान देती है, जिसका गलत फायदा
उठा कर बीरू जुआ, बीड़ी, शराब जैसी गलत आदतों का शिकार हो जाता है। उसकी इन हरकतों
से माई सदैव उसके भविष्य को लेकर चिन्तित रहती है क्योंकि उसक तीनों बेटे पढ-लिखकर
पैसा कमा लेंगे किन्तु बीरू के अन्दर न तो इतनी क्षमता है न ही समझ। बीरू के प्रति
माई की चिन्ता इन वाक्यों में देखी जा सकती है- ‘जो पढ-लिख लेगा, साहब-सूबा हो
जाएगा उसे तो सब लोग पूँछेंगे, लेकिन जो रोगी है, बुरा है उसके लिये तो मैं ही हूँ न। कोई
किसी को कुछ दे नहीं देगा। लोग अपनी पढाई-लिखाई लेकर घर बैठे, आज से मुझसे किसी
से कोई मतलब नहीं। मैं मरूँगी उसे लेकर मैं देश-देश छानूँगी उसकी दवा के लिये।‘10 इन्हीं परिस्थितियोंवश उसका झुकाव अपने
छोटे पुत्र की ओर अधिक है जो उपर्युक्त वाक्यों में देखा जा सकता है।
माई का उपर्युक्त कथन आज के समय की एक कड़वी सच्चाई है।
हमारे समाज में निर्बल, रोगी, असहाय, नसेड़ी की मदद करने वाला कोई नहीं है जबकि जो धनी और उच्च पद
में है उसकी मदद करने के लिये हर कोई आगे आता है। जबकि उच्चवर्ग के लोगों की मदद
के बजाय गरीब, असहायों की मदद करना अधिक उपयुक्त है। भले ही समाज में
कितनी ही शिक्षा क्यों न हो जाए किन्तु आज भी लोगों की अमीर-गरीब के प्रति अलग-अलग
सोच हमारी रुग्ण मनोदशा को दर्शाती है। कथाकार मार्कण्डेय ने कहानी में ग्रामीण
परिवेश को दर्शाते हुए एक माँ का अपने पुत्र के प्रति स्नेह और ममता को भी रेखांकित किया है। युवा आलोचक बलभद्र लिखते
हैं- ‘माई में संयुक्त
परिवार की टूटन, उसकी सक्रियता-निष्क्रियता, आदि का वर्णन है।
परिवार के भीतर स्त्री, युवा, बच्चे और बूढों की स्थितियों के अपने-अपने यंग भी इस कहानी
में है।‘11 यहाँ माई अपने बेटे बीरू को अधिक स्नेह इसी कारण करती है क्योंकि उसे ऐसा
प्रतीत होता है कि उसके सिवा बीरू का कोई नहीं है।
यह कहानी अन्य कहानियों की भाँति मासूमियत को ही दर्शाती
है। बच्चों को जरूरत से लाड़-प्यार देना भी उनके बिगड़ने का कारण बनता है, क्योंकि ज्यादा
स्नेह करने पर भी बच्चे शरारती हो जाते हैं जैसा कि इस कहानी में हुआ। भले ही माई
ने बीरू की बीमारी के चलते उस पर लाड़ बरसाया किन्तु बीरू ने उसका गलत फायदा उठाया।
तत्पश्चात् माई उसे उसकी गलत आदतों के साथ भी स्वीकार करती है। इस कहानी में ‘मासूमियत एक मानवमूल्य के रूप में दिखाई गयी है माई भी उसी
मासूमियत की प्रतीक है।‘12 इसके साथ ही मार्कण्डेय का अंतिम कहानी संग्रह ‘हलयोग’ है जो 2012 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में भी बाल-मनोविज्ञान को
दर्शाती कुछ कहानियाँ प्रस्तुत की गई हैं। वैसे तो यह संग्रह दलित जीवन से सम्बन्धित
स्थितियों को उजागर करता है, लिसमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी निम्न वर्ग के
लोगो की दयनीय स्थिति को रेखांकित किया है। मार्कण्डेय अपनी कहानियों में वही
यथार्थ उठाते हैं जो आस-पास की दुनिया में घटित होता है। इस संग्रह में किसान,
मजदूर, दलित आदि की
स्थिति को दर्शाते हुए बालसुलभ रचनाएँ भी प्रस्तुत की। ‘मार्कण्डेय जी की अन्तिम कहानी ‘हलयोग’- इसी प्रकार की कहानी है, जिसे हिन्दी की
दलित-जीवन से सम्बन्धित कहानियों में एक महत्वपूर्ण स्थान का हकदार माना जायेगा।‘13 चूँकि यहाँ मरे शोध पत्र में
बाल-मनोविज्ञान से सम्बन्धित कहानियों का जिक्र हुआ है। इस कारण ‘हलयोग’ संग्रह में वर्णित कहानी
‘माँ जी का मोती’ कैसे पीछे रह सकती
है। यह कहानी भी बाल-चित्रण पर आधारित है। इस कहानी में मोती नाम के बालक की सोंच
और समझदारी का चित्रण कर कहानी में नया रंग भर दिया है।
‘माँ जी का मोती’ में एक गरीब, दुखियारी माँ की व्यथा को उसका बेटा मोती
भलीभाँति समझता है और इसी कारण वह उम्र से पहले ही समझदार हो जाता है। छोटी सी
उम्र में भी स्वयं काम करता हुआ वह अपने दाकनो भाइयों को पढाता है। दोनों भाई
स्कूल में पढने जाते हैं जबकि मोती कपनी माँ का हाथ बंटाता है। एक दिन मोती को
बीमार बछिया मिल जाती है जिसकी सेवा कर वह उसे बिल्कुल ठीक कर देता है। उसकी लगन
और मेहनत को देखकर मोती की माँ कहती है- ‘मोती की बातों को सुन कर माँ जी की आँखों में आँसू आ गये।
हं भगवान! यह लड़का क्या होकर पैदा हुआ है। उसने मन ही मन कहा और आग जला कर पानी
गरम करने लगी।‘14 मोती की माँ जो दूसरों के घर काम करने जाती है तो मोती को
बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता क्योंकि वह अपनी माँ को औरों की माँ की तरह घर में
देखना चाहता है- ‘वह बड़ा होकर माँ को दर-दर भटकने वाले इस काम से छुट्टी दिला देगा। आस-पास के
बच्चों की माँएँ तो घर में रहती हैं, फिर मेरी माँ?’15 मोती की यह सोच उसकी चिन्तनशीलता को
दर्शाते हुए अपनी माँ के प्रति आदर भाव को भी व्यक्त करती है। समझदारी के साथ-साथ
मोती में परिवार के प्रति जिम्मेदारी भी दिखाई पड़ती है।
एक दिन मोती अपनी बछिया को ले कर एक मील की दूरी पर स्टेशन
के पास पहुँचा। वह अपने काम इतना खो गया कि उसे यह भी न ख्याल हुआ कि उसकी बछिया
पटरी पार कर गई। अचानक दृष्टि पड़ी तो वह भागता हुआ गया। स्टेशन की सीढियों पर उसे
नोट से भरा पर्स मिला किन्तु उस पर्स को देख कर भी उसके मन में लंशमात्र भी लालच
नहीं उपजी। वह चिल्ला कर उस पर्स के मालिक को बताने का प्रयत्न कर रहा था कि यह
पर्स जिस किसी का भी हो वह आकर ले जाए। गरीबी से लबालब होने के बावजूद भी उसने अपनी
ईमानदारी का परिचय दिया, जिसका फल उसे यह मिला कि एक सिपाही ने उसं इतना मारा कि वह
बेहोश हो गया- ‘बहुत बड़ा जेबकट है। आप क्या-क्या समझेंगे! हम लोग तो रात-दिन यही देखते रहते
है......’ और वह मोती को
बेतहाशा पीटने लगा। मोती बेहोश होकर गिर पड़ा तो उसे कई लातें मारीं और घसीटकर
प्लेटफॉर्म के अन्दर ले गया।‘16 उस मासूम बच्चे मोती के साथ पुलिस का यह बर्बर व्यवहार अत्यन्त अमानवीय है।
जो अपने घर की जिम्मेदारी उठा रहा था उसी को निरपराधी होते हुए भी पुजिस ने सलाखों
के पीछे डाल कर उसकी माँ को पंगु बना दिया था। मोती ने वह नोंटो से भरा पर्स पुलिस
को नहीं दिया जिसके कारण उसे यह दण्ड मिला।
कहानीकार मार्कण्डेय ने इस कहानी में एक गरीब मासूम बच्चे
की व्यथा को व्यक्त करने के साथ पुलिस प्रशासन की अमानवीयता पर कठोर व्यंग्य किया
है। गरीब बच्चे की गरीबी का मजाक उड़ा कर पुलिस प्रशासन उसे निर्दोष होते हुए भी
दोषी ठहरा देता है। यह व्यवस्था जो हमें अँग्रेजी शासन से विरासत में मिली है वह
हमारे देश की कड़वी सच्चाई है। इस कहानी में मोती की मासूमियत छली जाती है, और उसका गरीब होना
ही उसे अपराधी बनाता है। ‘माँ जी का मोती में निर्दोष को अपराधी बनाने की पुलिस की निर्दयी प्रवृत्ति
वर्णित है।‘17 निर्दोष और मासूम
मोती के प्रति पुलिस की अमानवीयता को दर्शातं हुए लेखक ने आज के समय की ऐसी सच्चाई
को कहानी के माध्यम से प्रस्तुत किया है जो पूर्णत वास्तविकता को उजागर करती है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बाल-मनोविज्ञान की जितनी भी
कहानियाँ मार्कण्डेय ने लिखीं उसमे उन्होंने अपने समय एवं सन्दर्भ को पूरी
वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया है। जो हमारे समय में भी प्रासंगिक है।
बाल-मनोविज्ञान पर आधारित मार्कण्डेय ने उपर्युक्त कहानियो के अतिरिक्त ‘नीम की टहनी’ , ‘सोहगइला’, ‘घी के दिये’, ‘गरीबों की बस्ती, ‘बरकत’, आदि कहानियाँ लिख कर
अपने कोमल और बाल-हृदय की झाँकी को प्रस्तुत किया है। इन्होंने कहीं पर नीली और
रीती कह मित्रता को दिखाकर ऊँच-नीच में साम्यता दिखने का प्रयत्न किया है तो कहीं
ग्रामीण वातावरण में पले बच्चे मनोहर के मन में उठ रहे द्वन्द्व को व्यक्त किया
है। कहीं पर गरीब बच्चे की विसंगतियों को दर्शाया है, तो कहीं उम्र से
पहले ही बच्चे में समझदारी दिखायी है। इस तरह मार्कण्डेय ने स्वतन्त्रता प्राप्ति
के पश्चात् अपनी कहानियों को आज के समय एवं सन्दर्भ से जोड़कर कुछ विशिष्ट बना दिया
है। वह जिन स्थितियों को अपनी आँखों से देखते थे उन्हीं वास्तविकताओं को उजागर
करते हुए कहानियों में नयी जान डाल दी है। अनेक कहानियों के साथ-साथ अपने उपन्यास ‘अग्निबीज’ में तो मार्कण्डेय ने बच्चों की पूरी टोली ही तैयार की है।
जैसा कि बलभद्र लिखते हैं- ‘अपने उपन्यास ‘अग्निबीज’ में तो इन्होंने
कम उम्र बच्चों की पूरी एक टीम को नायक के रूप में खड़ा किया है। कम उम्र स्कूली
बच्चों को,जो एक गाँधीवादी आश्रम से भी जुड़े हुए हैं और जाति और इस तरह की अन्य
संकीर्णताओं से बाहर कदम रख रहे हैं और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व सांस्कृतिक
जटिलताओं को देखने समझने की तरफ भी, मार्कण्डेय ने भविष्य के अग्निबीज के रूप
में प्रस्तुत किया है।’18 इस तरह कहानियों के साथ-साथ मार्कण्डेय ने अग्निबीज उपन्यास में बाल-चित्रण
को प्रस्तुत किया है। इनकी कहानियों में बाल-चित्रण अत्यन्त वास्तविक ढंग से
प्रस्तुत किया है, जिसतें पाठक को कुछ नया जानने, समझने और करने को
मिलता है।
हिन्दी के साथ-साथ अँग्रेजी कथाकार जैसे टॉमस हार्डी,
शेक्सपियर जैसे
रचनाकारों ने भी अपनी रचनाओं में मासूमियत दर्शायी है। इन लोगों ने यह बताने का
प्रयत्न किया है कि आज के समय में छल, फरेब, झूठ, अन्याय से भरे इस
संसार में मासूमियत पहले भी छली गयी है और आज भी। फिर चाहे वह कोई मासूम बच्चा हो,
चाहे नौजवान या
फिर वृद्ध। मार्कण्डेय ने बाल-मनोविज्ञान पर लिखी कहानियों में बच्चों की सहनशीलता,
द्वन्द्व, प्रेम, लगाव, ईमानदारी, आदि को चित्रित
किया है। इस प्रकार मार्कण्डेय ने बाल-सुलभ रचनाएँ लिखकर हिन्दी कथा साहित्य में एक
नया प्रतिमान स्थापित किया है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
१. कथा-15, संपादक-सस्या, मार्च-2010,इलाहाबाद, पृष्ठ-170
2. डॉ0 सुरेन्द्र प्रसाद, मार्कण्डेय का रचना संसार, उद्धृत मधुरेश,प्रकाशक, कानपुर,वर्ष,-2001, पृष्ठ-13
3. उषा बनसोडे, मार्कण्डेय का कथा साहित्यः एक अनुशीलन, अप्रकाशित शोध प्रबन्ध,
पृष्ठ,12
4.
मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, लोकभारती प्रकाशन,
इलाहाबाद,
2010, पृष्ठ-30
5-
डॉ0 सुरेन्द्र प्रसाद, मार्कण्डेय का रचना संसार, उद्धृत मधुरेश,प्रकाशक, कानपुर,वर्ष,-2001,
पृष्ठ-78
6-
मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, पृष्ठ-94
7-
मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ- पृष्ठ-95
8-
मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ- पृष्ठ-171
9-
डॉ0 जिभाऊ शामराव मोरे, मार्कण्डेय का कथा
साहित्य और ग्रामीण सरोकार, प्रकाशक, विकास प्रकाशन, कानपुर, वर्ष-2010,
पृष्ठ-73
10-
मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, पृष्ठ-262
11-
अनहद-1, संपादक-संतोष कुमार चतुर्वेदी, जनवरी-2011,इलाहाबाद, पृष्ठ-12-13
12-
कथा-15, संपादक-सस्या, मार्च-2010,इलाहाबाद, पृष्ठ-255
13-
अनहद-3, संपादक-संतोष कुमार चतुर्वेदी, जनवरी-2011,इलाहाबाद, पृष्ठ-231
14-
मार्कण्डेय, हलयोग, पृष्ठ-109
15-
मार्कण्डेय, हलयोग, पृष्ठ-109
16-
मार्कण्डेय, हलयोग, पृष्ठ-111
17-
अनहद-3, संपादक-संतोष कुमार चतुर्वेदी, जनवरी-2011,इलाहाबाद, पृष्ठ-235
18-
अनहद-1, संपादक-संतोष कुमार चतुर्वेदी, जनवरी-2011,इलाहाबाद, पृष्ठ-14
सम्पर्क-
द्वारा श्री रजनीकान्त त्रिपाठी
ऊ थाने के सामने, बस स्टैण्ड, मऊ
चित्रकूट
उत्तर प्रदेश
ई-मेल : tripathihimangi@gmail.com
Swasti Thakur
जवाब देंहटाएंधन्यवाद Santosh पापा की कहानियों में 'बाल- मनोविज्ञान एवं समय सन्दर्भ' पर लिखे गए लेख को शेयर करने के लिए।
Gaurav Tripaathi
जवाब देंहटाएंHimangi didi ka alekh 'pahlee baar' pe dekhna kafi sukhad h.
Thanks a lot for your appreciation for her work