चंद्रेश्वर का आलेख 'टह-टह लाल नहीं रहे सेमल के फूल'






30 मार्च 1960 को बिहार के बक्सर जनपद के एक गाँव आशा पड़री में जन्म।
पहला कविता संग्रह 'अब भी' सन् 2010 में प्रकाशित। एक पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आन्दोलन' 1994 में प्रकाशित।
'इप्टा आन्दोलन : कुछ साक्षात्कार' नाम से एक मोनोग्राफ 'कथ्यरूप' की ओर से 1998 में प्रकाशित।
वर्तमान में बलरामपुर, उत्तर प्रदेश में एम.एल.के. पी.जी. कॉलेज में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर।

होली का पर्व आते ही एक अजीब सी मस्ती छाने लगती है. न केवल लोगों पर बल्कि मौसम पर भी. मौसम खुशगवार हो जाता है. एक साथ मिल कर यह पर्व मनाने की परम्परा के चलते बहरवांसू लोग आज भी होली के मौके पर घर जाने की तैयारी करने लगते हैं. आज भी गाँव में ही होली का असली रूप दिखाई पड़ता है. एक दूसरे को रंग लगाती युवाओं की टोलियाँ, फाग गाते बुजुर्ग से लेकर युवा लोग और तरह-तरह के पकवान होली के मुख्य आकर्षण होते हैं. होली के इस पर्व को लेकर अपनी यादों को हमसे ताजा कर रहे हैं आलोचक और कवि चंद्रेश्वर. आप सब को होली की ढेर सारी मुबारकवाद के साथ हम प्रस्तुत कर रहे हैं होली विशेष के अन्तर्गत चंद्रेश्वर का यह ख़ास आलेख 
         
चंद्रेश्वर                                                                                                                                      

टह-टह लाल नहीं रहे सेमल के फूल 

कहाँ जाऊँ, कहाँ रहूँ होली में इस बार? मुंबई में भइया-भाभी रहते हैं, दिल्ली में चाचा। गाँव पर माई-बाबूजी हैं। मुझे बाहर की होली अच्छी नहीं लगती है। हर बार गाँव ही पहुँचता रहा हूँ। पहली बार मेरा मन दुविधा में पड़ा है। गाँव की होली की कई यादें हैं- एक से बढ़ कर एक मोहक और सरस यादें। होली का इंतजार शुरू हो जाता था- महीना दिन पहले से ही।

सेमल के सांप को पीटते हुए

तब मैं बच्चा था। कोई दसेक बरस का। मेरे गाँव में बच्चों के कई झुण्ड महीना भर पहले से ही होली और होलिका दहन की तैयारी में जुट जाते थे। वे भी क्या दिन थे- सेमल के खिले लाल-लाल फूलों से टह-टह करते दिन! हम स्कूल के लिए झोला ले कर निकलते पर दिल मचलता रहता, सेमल के बगीचे में जाने के लिए। बिना खाए-पिए हम दिन-दिन भर सेमल के नीचे जमीन पर गिरे हुए लाल-लाल फूल चुनते। फूलों के नीचे की काली-भूरी बोतल की ठेपी (ढक्कन) की तरह किनारी को निकाल कर मूंज या पटसन की पतली रस्सी में गूंथ कर सांप बनाते। कोई लड़का इस सांप को घसीट कर होलिका दहन-स्थान तक ले जाता। पीछे से उसे अरहर या बांस की छड़ी से पीटते हुए बच्चों का झुण्ड होता। इस तरह बसंत के लाल चटख मौसम में फागुनी बयार की तरह हम बच्चे इस प्रतीकात्मक सांप को मार कर निर्भय होते थे। दूने उत्साह-उमंग के झोंके के बीच झूलते.....किलकारियां भरते हुए।

हर पुरुष की होलरी,
 औरतों की नहीं
होलिका-दहन (सम्मत) के दिन सुबह से ही पंडी जी से साईत समझ कर लोग रेंड़ का पेंड़ (अरंड) काटने और उसमे तिलहन के सूखे पौधे या पुआल बांध कर होलरी बनाने में जुट जाते थे। क्या बच्चे, क्या युवा, क्या बूढ़े-सबके चेहरे पर गजब का उत्साह देखते बनता था। यह कोई 1970-71 के आस-पास की बात है। घर में जितने सवांग (सदस्य) होते थे, उतनी ही होलरियां बनायी जाती थी। एक ठाकुर जी (भगवन जी) की भी होलरी होती थी। ईश्वर हर घर का अतिरिक्त, किन्तु श्रेष्ठ सवांग यानि पुरुष सदस्य हुआ करते थे। मेरे शिशु मस्तिष्क में एक प्रश्न जिज्ञासा के तौर पर तब भी कौंधता था कि औरतों के लिए होलरी क्यों नहीं? शायद पुरुष वर्चस्व वाली संस्कृति या सामाजिक संरचना के भीतर औरतों (घर की बहू-बेटियों) को गाँव के सीवान पर ले जाने की मनाही हो!

 बहरवासूं लोगों का
आगमन और गाँव की तैयारी

आज से कोई दो-तीन दशक पहले सभी नौकरी-चाकरी करने वाले लोग होली में गाँव आते थे। वे गाँव के लोगों के लिए बहरवासूं होते थे, विशेष आदर-स्नेह के पात्र!  बहरवासूं गली-दुआर की सफाई में तन-मन से लग जाते। होली में रौनक बढ़ जाती थी। गाँव सज कर दुल्हन की तरह तैयार हो जाता था। फसलें कट कर खलिहान में आ जाती थीं। किसान-मजूर भी नए अन्न (नवान्न) की गर्माहट से भरे होते थे। गाँव की चौपाल में होली की ही चर्चाएँ होती थीं। चिढ़ने वाले बड़े-बुजुर्ग पहले से ही निशाने बनने लगते थे। पूरे गाँव में हंसी-ठहाके गूंजते थे। हंसी-मजाक का फव्वारा छूटता था। तब भी गाँव में गरीबी थी, अशिक्षा थी और थी बदहाली। पर होली क्या आती सब के चेहरे पर चमक छितरा जाती थी। हर आदमी अपने असली स्वरुप में जीने लगता था- अंतरतम के स्याह-सफ़ेद और राग-द्वेष को बाहर कर! 

 हो-हो-हो होल्लरी
...मकून बो के धोकरी 

पंडी जी पतरा देख कर साईत (मुहूर्त) बताते थे कि होलिका-दहन का कार्यक्रम आधी रात के बाद विधिवत संपन्न होगा। मुखिया जी होलिका में आग धरायेंगे। दोपहर के बाद से ही माहौल में मस्ती छाने लगती थी और सांझ ढलते-ढलते युवाओं के साथ-साथ बच्चों -बूढों की आवाजें फैलकर आसमान में पसर जातीं- 'हो-हो-हो होल्लरी ...मकून बो के धोकरी।' मकून गोंड़ की जोरू गाँव भर की भौजाई। बेचारी घोंसार के पास ही दुबकी-छुपी रहती- बारिश में भीगी गौरैया या मैना की तरह। मुखिया जी तैयार होकर पंडी जी के साथ होलिका-दहन के लिए पहुँचते, उसके पहले सांझ बीतते ही झगरू तिवारी होल्लरी फूंक चुके होते थे। थोड़ा-बहुत क्रोधित हो कर, साल-सम्मत या साल-माथ के ख़राब होने की बात कह कर मुखिया जी शांत हो जाते थे और होली के हुड़दंग में न चाहते हुए भी शामिल।

पूरा गांव
एक परिवार की तरह

सारे गांव की होलरी एक स्थान पर ही जलती थी। बूढ़े, जवान और बच्चे सभी होलिका-दहन के समय इस स्थान पर एकत्र होते थे। जाति-भेद नहीं दिखता था। गांव में सभी जातियों के लोग एक साथ होलरी भांजते। इसमें मुस्लिम युवक भी शरीक हो जाते थे। पूरा गांव एक घर, एक परिवार हो जाता था। कभी-कभी होलरी भांजते हुए गांव के बच्चे और युवा पड़ोस के गांव के सीवान में प्रवेश कर जाते थे। अक्सर मारपीट की नौबत आ जाती थी। दोनों गांव  के लोग अपनी पूरी शक्ति और एकजुटता  के प्रदर्शन के लिये तैयार हो उठते थे। कबीलाई संस्कृति की याद ताज़ा करते हुए। एक बाभन, एक अहीर, एक दलित या एक मुसलमान के लिए पहले गांव था। गांव के सीवान की मर्यादा थी। बाद में जाति थी, धर्म था।

 होली के दिन
कोई बुरा न माने

मैं बचपन की स्मृतियों में लौटकर एक तरह की निर्दोष मोहकता को दुबारा पाना चाहता हूँ। ...इन्नर देव बाबा खूब जोगीरा गाते थे। चुटीले, व्यंग्य भरे। फूहड़ता की हदों को लांघते हुए। उनके पीछे रंगों से सराबोर हुए युवक और बच्चे होते थे। बाबा शुरू होते- 'मंगरू बो भौजी डालस गुलाल जोगीरा सररर...।' बूढ़े इन्नर देव बाबा की मुख की लाली ...मुख के भीतर हिलते पियराये दांतों की शोभा बढ़ जाती थी। पीछे से बीच-बीच में लोग एक स्वर में बोल उठते थे- 'भर फागुन बुढ़वा देवर लागे।'कोई किसी को रंग लगाता। कोई किसी को अंकवार भर लेता। दूने उत्साह में। होली के दिन बुरा मानने का रिवाज़ खत्म हो जाता था।

पर जरा ठहरिये

जब युवा हुआ, नज़र बदली। गांव  की होली का व्यूह और रण-कौशल पेंच से भरा लगने लगा। गांव में तीन टोलियाँ रंग खेलने निकली हैं। एक टोली में ज्यादातर बाभन ही क्यों हैं! दूसरी टोली में अहीर और बढ़ई ही क्यों हैं! तीसरी टोली में कुछ दलित युवक ही! मुख़्तार रंग डालने पर पिनक क्यों गए? नाली का गन्दा कीचड़ उठा-उठा कर चारों दिशाओं में फेंक रहें हैं। कुद्दूश हर टोली के लिए थोड़ा-थोड़ा समय निकल रहे हैं। जाकिर के चेहरे पर अबीर-गुलाल लगाइए तो पोछने लगते हैं। बचपन के लंगोटिया यार हैं मासूम। आज होली के दिन मायूस होकर एक किनारे खड़े हैं। मासूम की मायूसी को मैं भी खत्म नहीं कर पाता हूँ। उन्हें रंग या गुलाल लगाने में मैं भी सकपकाता हूँ। कहीं बुरा मान गये तो! मेरे अन्दर भी शक का चोर छुपा है। खैर! छोड़िये भी। मेरे अन्दर की प्रगतिशीलता पिछड़ने लगती है। दोपहर बाद नए कपड़े पहन कर हम अबीर-गुलाल लेकर निकलते हैं। अपनी जाति के बड़े-बुजुर्गों के पांव पर अबीर-गुलाल रख कर आशीर्वाद मांगते हैं। साथी शिवशंकर मिलते हैं। ज्यों ही झुक कर पांव छूने को बढ़ते हैं- हाथ मिलाने को कहता हूँ। पर अकेले मैं उन्हें कहाँ-कहाँ रोकूंगा?

यह नया बदलाव था?

सांझ से गवनई शुरू होती है फगुवा की। मुखिया जी के दुआर से उत्तर टोला के लोग फाग गाते हुए निकलते हैं। महावीर मठिया से बिचले टोले के लोग। दक्षिण टोले के लोग गाँधी चबूतरा से। सती स्थान पर आ कर तीनों टोले के लोग मिल जाते हैं। झाल, ढोलक, डम्फ एवं कठताल की मिली जुली संगीत ध्वनियों से वातावरण आच्छादित हो उठता है। .....पिछली होली में गांव पर ही था। हर बार की तरह फाग गाने वालों के तीनों गोल सती स्थान पर नहीं मिले। होलरी भांजने के लिए पूरा गांव  नहीं उमड़ा। सेमल के फूल पहले की ही तरह टह-टह लाल नहीं दिखे। पता नहीं, यह नया बदलाव था या मेरे मन में ही कुछ दरका था।

फिर भी जाऊंगा गांव

मैं गांव की होली की स्मृतियों में लौट कर अतीत राग नहीं सुनना चाहता। मुझे गांव ज़रूर जाना चाहिए। दुविधा में पड़ना बुरी बात है। मैं गांव जा कर रंगों में सराबोर होना चाहूँगा। अबीर-गुलाल उड़ाऊंगा....होलरी भाजूंगा। आखिर साल में एक बार आती है होली। एक दिन के लिए ही सही आदिम और मुखौटाविहीन होना चाहूँगा।



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