संतोष भदौरिया, नरेंद्र पुंडरीक के संपादन में छपी किताब 'केदारनाथ अग्रवाल : कविता का लोक आलोक' की समीक्षा
केदार को समझने के प्रयास के क्रम में अभी हाल ही में एक पुस्तक आयी है - 'केदारनाथ अग्रवाल: कविता का लोक आलोक'। संतोष भदौरिया एवं नरेंद्र पुण्डरीक के संपादन में केदार की जन्मशती पर प्रकाशित यह पुस्तक केदार व प्रगतिशील कविता को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने व परखने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। इस किताब की एक समीक्षा लिखी है प्रकाश चन्द्र ने. तो आईये पढ़ते हैं यह समीक्षा
कविता का लोक आलोक
प्रकाश चन्द्र
केदारनाथ अग्रवाल उन
प्रगतिशील कवियों में हैं जिन्होंने कविता को रोमानियत से मुक्त कर वास्तविक जमीन
पर खड़ा किया। कविता को ‘मैं’ से
बाहर निकालकर बृहत सामाजिक परिप्रेक्ष्यों से जोड़ा। जहाँ स्थितियाँ व
परिस्थितियाँ कल्पनालोक व रोमानियत से भरी नहीं थी बल्कि जमीनी यथार्थ से जुड़ी थी। यह जमीनी यथार्थ भारत के गाँव में निवास करने वाले बहुसंख्या लोगों का यथार्थ था। प्रगतिशील धारा
के कवियों ने कविता का केन्द्रिय विषय इसी जमीनी यथार्थ को बनाया जिसमें श्रमिक व
किसानों का एक बड़ा वर्ग शामिल है। केदार की कविता में इस वर्ग को लेकर विशेष
चिंता दिखाई देती है। रामविलास शर्मा ने लिखा भी है कि ‘श्रम
करते हुए मनुष्यों पर जितना केदार ने लिखा है उतना हिंदी के कम कवियों ने लिखा
होगा।’ प्रगतिशील धारा के कवि नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, मुक्तिबोध
की परंपरा में केदार नागार्जुन के ज्यादा
नज़दीक लगते हैं, मुक्तिबोध और शमशेर की अपेक्षा। वैचारिक
स्तर पर यह सारे कवि मार्क्सवादी चेतना के कवि थे इन्होंने मार्क्सवाद को वैचारिक
स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया और साहित्यिक जड़ता तथा अभिजात्यता को खत्म करने का
प्रयास किया। इसके बावजूद केदार की कविता का तेवर इन कवियों से भिन्न है। 1936
में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में प्रेमचंद के द्वारा दिया गया भाषण इस जड़ता
पर पहला प्रहार करता है। आगे चलकर जिसे प्रगतिशील लेखकों ने अपने लेखन का आधार
बनाया। इन कवियों के आने से कविता एक बार फिर आम आदमी के पक्ष में खड़ी दिखाई देने
लगी । केदार कविता को किसानों ,मजदूरों व शोषित समुदाय तक ले
गए अर्थात कविता के वर्जित क्षेत्र में केदार ने कविता का प्रवेश कराया।
भारत एक कृषि प्रधान
देश है जिसकी अधिकांश आबादी गाँव में निवास करती है। भारत में किसी भी बड़े
परिवर्तन में किसानों की अहम भूमिका रही है और रहेगी इसलिए उन्हें संघर्षशील व
प्रतिरोधी साहित्य से दूर नहीं रखा जा सकता। हिंदी साहित्य में प्रेमचंद इस बात को समझते थे इसलिए
उन्होंने किसान व ग्रामीण जीवन के इर्द-गिर्द ही लेखन किया। केदार की कविताओं का
आधार भी यही वर्ग है। केदारनाथ अग्रवाल : कविता का लोक आलोक पुस्तक के
फ्लैप पर रामविलास शर्मा के हवाले से कही गई यह बात ‘केदार की चेतना मूलतः किसान की चेतना है। केदार की कविता कथाकार प्रेमचंद
की विरासत का, अन्य विधा में,
क्रांतिकारी विकास है। केदार की कविता में यह किसान अपने समूचे परिवेश के साथ
विद्यमान है’ केदार की चेतना के मूल को और स्पष्ट करती है। भारत
में किसान ही परिवर्तन के द्योतक हो सकते हैं। मार्क्सवादी वैचारकी के तहत वर्ग-संघर्ष, क्रांति, मजदूर एकता जैसी जितनी भी बातें हैं उन
सभी का मूल भारतीय संदर्भों में किसानों से ही जुड़ता है। भारत में मजदूरों से
क्रांति की अपेक्षा करना या ‘दुनिया के सारे मजदूरों एक हो
जाओ’ जैसे नारे से काम नहीं चल सकता। भारत में मजदूरों से
बड़ा वर्ग किसानों का है जो किसी भी परिवर्तन में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।
इस बात को प्रगतिशील कवियों में केदार और नागार्जुन ने जितना समझा उतना संसदीय
मार्क्सवादी पार्टियों ने नहीं समझा।
केदार ने जब लेखन
आरंभ किया उस समय भारतीय स्वाधीनता आंदोलन चरम पर था। एक तरफ राजनैतिक रूप से भगत
सिंह जैसे लोग क्रांति के अग्रदूत बने हुए थे वहीं गाँधी, अंबेडकर की राजनैतिक पक्षधरता व प्रतिबद्धता जग जाहिर थी। साहित्यिक जगत
में स्वाधीनता चिंतन के केंद्र में था लेकिन इसकी अवधारणा व संदर्भ सबके लिए एक
समान नहीं थे। स्वधीनता का जो मतलब किसान व मजदूर के लिए था वही जमींदार व
कारखाने मालिक के लिए नहीं था। केदार ने स्वाधीनता के इस अंतर्विरोध को भी समझा
और अपनी कविता के माध्यम से जड़ व सामंती ढांचे पर प्रहार किया।
मार्क्सवादी चेतना के
रचनाकारों पर अक्सर कई आरोप लगाए जाते हैं उनके संदर्भ में भी केदार की कविताओं की
पड़ताल करना आवश्यक है। एक तो यह आरोप अक्सर लगाया जाता है कि उनकी रचनाओं में विचार
ज्यादा हावी रहते हैं केदार की कविताओं के संदर्भ में यह बात कहाँ तक सार्थक है साथ ही मार्क्सवादी लेखन में अक्सर एक सेट जीवन
पद्धति जिसमें ‘टाइप’ जीवन देखने को
मिलता है इस संदर्भ में केदार की कविताओं का क्या रुख़ है। मार्क्सवादी कविता के सौंदर्यशास्त्रीय पक्ष पर
लगने वाले आरोपों के बीच केदार की कविताओं का ढर्रा कैसा है, प्रतिबद्धता व पक्षधरता जैसे बड़े शब्दों को लेकर केदार अपनी कविताओं में
किस तरह का ‘ट्रीटमेंट’ करते हैं यह भी
देखना होगा। संसदीय राजनीति व साहित्यिक राजनीति के बीच केदार की कविता तालमेल
बैठा पाई है या नहीं वहीं साहित्यिक राजनीति के सवाल पर केदार की कविता व स्वयं
उनका क्या रुख़ रहा यह भी देखना समीचीन होगा । इसके अलावा उस दौर के दो महत्वपूर्ण
आलोचकों के बीच की लड़ाई में केदारनाथ अग्रवाल की कविता का कितना नुकसान हुआ, ‘कविता के नए प्रतिमान’ जैसी
पुस्तक में आखिर क्यों केदार जैसे महत्वपूर्ण कवि पर कम लिखा गया। इन सभी प्रश्नों व जिज्ञासाओं के बीच केदार की कविताओं
का एक बड़ा हिस्सा प्रकृति, प्रेम,
स्थानीयता, पत्नी आदि विषयों पर केन्द्रित है जिसमें परंपरा
से अलग इन सभी संदर्भों पर कविता ज़िरह करती है। केदार की प्रकृति न छायावादी है न
प्रयोगवादी उनके यहाँ प्रकृति प्रतिरोध का हथियार है,
प्रकृति यहाँ छायावाद की तरह मन की कोमलता को अभिव्यक्त करने का साधन नहीं है।
प्रेम भी केदार के यहाँ गृहास्तिक है जो खेत खलियानों में फलता-फूलता है। केदार
की कविताओं के इन सभी पक्षों व साहित्य के अंतर्विरोधों के संदर्भ
में केदार को समझने का प्रयास केदारनाथ अग्रवाल: कविता
का लोक आलोक पुस्तक करती है। संतोष भदौरिया एवं नरेंद्र
पुण्डरीक के संपादन में केदार की जन्मशती पर प्रकाशित यह पुस्तक केदार व प्रगतिशील
कविता को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने व परखने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
छायावाद के बाद कविता
में अपनी सारी ताकत व दुर्बलताओं के साथ आम आदमी कविता की परिधि में आता है।
केदार की कविता में वह आम आदमी अपने चेहरे व स्थितियों के साथ उपस्थित है उसमें ‘जब बाप मारा तब यह पाया /भूखे किसान के बेटे ने /घर का मालवा,/ टूटी खटिया,/ कुछ हाथ भूमि’
ये सारी स्थितियाँ मौजूद हैं। कविता में पहली बार स्थानीयता के साथ-साथ संवेदनाओं
का सघन सचित्र वर्णन हमें केदार की कविताओं में दिखाई देता है। इस किताब की
भूमिका में संपादक लिखते भी हैं कि-‘वे बड़े कवि हैं सिर्फ इसलिए नहीं कि उनकी कविता का कैनवास विस्तार लिए है
बल्कि इसलिए कि वे अत्यधिक संवेदनशील कवि हैं लिहाज़ा उनकी कविता की दुनिया भी अधिक
बड़ी है’। केदार की कविताओं में संवेदनाओं का गुंफन है जिसमें
गाँव का किसान, मजदूर व नौकरी पेशा मध्य वर्ग के दर्द व
स्थितियों तक का वर्णन है। इसलिए उनकी कविता ठेठ स्थानीयता के साथ–साथ विश्व की
संघर्षशील कविता से जुड़ती है, जिसका जिक्र ‘अपनी बात’ नाम से लिखी गई बतौर भूमिका में संपादक
करते हैं। भूमिका पुस्तक का प्रवेश द्वार होती है अमूमन लोग बड़ी-बड़ी भूमिकाएँ
लिखते हैं हिंदी का प्रमाणिक इतिहास ग्रन्थ भी भूमिका ही है इसलिए बड़ी भूमिकाएँ
परंपरा की देन भी हैं। इसके बावजूद कम शब्दों में सटीक बात कहने का कौशल संपादक
ने दिखाया है जो महत्वपूर्ण है। भूमिका छोटी
है लेकिन सारगर्भित है।
(लेखक : संतोष भदौरिया)
इस पुस्तक में केदार
की कविता के बहुआयामी पक्षों पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया गया। पुस्तक ‘केदारनाथ अग्रवाल : कविता का लोक आलोक’ में कुल तीस
लेख संकलित हैं, सन् 1965 से लेकर उनके शताब्दी वर्ष (2011)
तक लिखे गए हैं। इनके चयन एवं संपादन में यह विवेक निहित है कि केदार की कविता के
वैविध्य को सामने लाया जाए तथा उनकी कविताओं में व्याप्त समाज, प्रकृति और प्रेम का हर रूप सामने आए। पुस्तक में शंभूनाथ, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह,
विश्वनाथ त्रिपाठी, दूधनाथ सिंह,
खगेंद्र ठाकुर, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, नंद किशोर नवल, राजेश जोशी,
विजय बहादुर सिंह, शंभुनाथ, वीरेन
डंगवाल, धनंजय वर्मा, रविभूषण, राजेन्द्र कुमार, अजय तिवारी, अपूर्वानंद सहित उन तमाम विद्वानों के लेखों को स्थान दिया
गया है जो केदार की कविता को जग बदलने की कविता के रूप में व्याख्यायित करते
हैं। उनकी कविता जनजीवन के संघर्ष को पूरी कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करती है। इस
पुस्तक के माध्यम से केदार के बहाने कविता
की एक पूरी परंपरा पर रपटती निगाह डाली जा सकती है।
गद्य का संबंध जिस
तरह विचारों से होता है उसी तरह कविता का भावों से। केदार की कविता में प्रेम एक
महत्वपूर्ण भाव है। केदार के यहाँ प्रेम रोमांटिक नहीं है बल्कि जीवन संघर्षों से
उपजा प्रेम है। यह प्रेम खेत खलिहानों में फलता-फूलता है जिसका दायरा प्रकृति से
लेकर पत्नी, केन नदी, बांधा
गाँव तक फैला हुआ है। दूधनाथ सिंह व चंद्रबलि सिंह ने इस पुस्तक में इन संदर्भों
पर विस्तृत रूप से लिखा है। केदार की कविता में स्थानीयता व प्रकृति को लेकर गहरा
लगाव है । अन्य प्रगतिशील कवियों के मुक़ाबले केदार के यहाँ प्रकृति अपने समस्त
अवयवों व संभावनाओं के साथ उपस्थित है। शंभूनाथ ने अपने आलेख में लिखा भी है कि-‘केदारनाथ अग्रवाल की प्रकृति उनके स्थानीयता की द्योतक है, यह जैसे जातीय गुणों की तलाश है ....केन नदी के कवि को तोड़ कर देखने की
जरूरत नहीं है उसे उसकी वास्तविकता और विविधता में समझना चाहिए’। यह एक महत्वपूर्ण बात है कि गद्य के बढ़ते दबाव के बीच भी कविता का
मूल्यांकन उसकी संपूर्णता में किया जा रहा है अक्सर संदर्भों से काटकर ही कविता का
मूल्यांकन किया जाता रहा है। केदार के यहाँ प्रकृति का अपना एक मिज़ाज है जिसका
जिक्र इस पुस्तक में लगभग सभी लेखकों ने किया है। केदार प्रगतिवाद के दौर में भी
लिखते हैं व नई कविता के दौर में भी इसके बावजूद उनकी कविता का तेवर हमेशा प्रगतिशील
ही रहा। प्रयोगवाद के अग्रदूत अज्ञेय ने भी प्रकृति पर खूब लिखा लेकिन जो प्रकृति
केदार के यहाँ है वह अज्ञेय के यहाँ नहीं है। अज्ञेय की प्रकृति में एक ‘एलिटनेस’ या अभिजात्य भाव दिखाई देता है तो वहीं
केदार के यहाँ प्रकृति ठेठ स्थानीयता लिए हुए है। यह बात देखने लायक है कि ‘हरी घास’ दोनों कवियों के यहाँ है लेकिन संदर्भ
दोनों का अलग-अलग है। शंभुनाथ ने इस ओर संकेत अवश्य किया है –‘अज्ञेय की कविता में जो हरी घास है ,वही केदार की
कविता में रेत है’
इसके बावजूद इसे और गहराई से देखने की आवश्यकता है।
केदार का अपने गाँव व
केन नदी के प्रति अगाध प्रेम रहा। यह एक ओर स्थानीयता का मसला था तो दूसरी ओर
अपनी परंपरा व पहचान से जुड़े रहने का भी। उस दौर में स्थानीयता को महत्व कम ही
लोगों ने दिया केदार की कविता की धुरी हमेशा वही ‘लोकल’ व स्थानीयता ही रही उन्होंने उन्हीं स्थानीय संदर्भों में शब्द भरे। ‘चिड़ी मार ने चिड़ियाँ मारी’, ‘आज
नदी बिलकुल उदास थी’, केन किनारे /पालथी मारे /पत्थर बैठा
गुमसुम’, ‘चढ़ी पेड़ महुआ थपाथप मचाया’ जैसी पंक्तियाँ इसका उदाहरण है। इस पुस्तक में इन पंक्तियों व संदर्भों
का जिक्र कमोवेश सभी लेखकों ने किया है व उसकी गहरी पड़ताल भी की है। प्रकृति के
प्रति गहरा लगाव नागार्जुन, केदार सभी कवियों में रहा किन्तु
ट्रीटमेंट के स्तर पर केदार के यहाँ प्रकृति का खिलंदड़ापन ज्यादा है । प्रेम व
प्रकृति पर उस समय कम ही कवि लिख रहे थे ऐसे में केदार ने प्रेम के उत्स व संघर्षो
की कविता लिखी और प्रकृति को संघर्ष के हथियार के रूप में चित्रित किया।
अपूर्वानंद अपने आलेख में इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हैं ‘जब
खंडित व संकीर्ण ‘मार्क्सवादी’ समझ के
अनुसार कुछ कवियों-लेखकों ने प्रेम व प्रकृति की ओर से अपनी निगाहें फेर ली थी और
कविता को ‘क्रांति’ पर न्यौछावर कर
दिया था,अपनी दृष्टि पर पर्दा नहीं पड़ने दिया, संकीर्णतावाद के शिकार नहीं हुए और ऐसी कविताएं लिखते रहे जिनमें प्रकृति
अपने पूरे सौंदर्य के उत्सव के साथ दिखलाई पड़ी और प्रेम भी अपने पूरे वेग के साथ
प्रवाहित रहा’।
सामाजिक विषमताओं को
लेकर मार्क्सवादी लेखकों का एक खास तरह का अप्रोच रहा है जिसमें वर्ग संघर्ष से
लेकर क्रांति तक की बातें निहित रहीं है। केदार की चेतना इन्हीं मार्क्सवादी
विचारों से अनुकूलित रही है। केदार ने शोषित समुदाय पर जमकर कलम चलाई है उनकी
कविता में गुलाब की खुशबू नहीं पसीने की गंध है। वह अपनी कविताओं के माध्यम से
शोषित समाज में ऊर्जा भरने की कोशिश करते हैं और उन्हें अपनी लड़ाई लड़ने के लिए
तैयार भी। वर्ग-संघर्ष और क्रांति के बीच भारतीय जीवन की पड़ताल की कोशिश केदार की
कविताओं में दिखाई देती है। केदार ने विचार और भाव के बीच तालमेल बैठाते हुए
क्रांति व संघर्ष के साथ प्रेम की कविताएं भी उसी तेवर में लिखी हैं। केदार जब
लिखते हैं ‘सुन ले री सरकार!/कयामत ढाने वाला हुआ /एक
हथोड़े वाला घर में और हुआ’ तो वहाँ कविता अपनी कविताई में
पूर्ण दिखाई देती है न कि किसी राजनैतिक नारे बाजी जैसी । केदार ने अपनी कविताओं
में मेहनतकश जनता के वर्ग शत्रुओं का पर्दाफाश किया व श्रमजीवियों में एक ताकत
भरने की कोशिश की। श्याम कश्यप इस पुस्तक में लिखते भी हैं ‘केदार जी की राजनैतिक कविताएं भी उनकी अन्य कविताओं की तरह जितनी वस्तु
बोध की दृष्टि से संपन्न होती है उतनी ही रूप दृष्टि से भी समर्थ होती हैं।’
केदार छोटी-छोटी चीजों के बड़े कवि हैं। इस दौर में राजेश जोशी में वह कला दिखाई देती है जिस तरह केदार उपेक्षित व शोषित लोगों में शक्ति भरते है कमोवेश राजेश जोशी की कविताओं में भी वही देखने को मिलता है। चाहे वह ‘पलंबर’ को लेकर हो या इस समय की सबसे बड़ी त्रासदी ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ हो। केदार में यह एक ऐसी कला है जो उनको अन्य मार्क्सवादी कवियों से भी अलग करती है । नागार्जुन व त्रिलोचन में कहीं यह कला दिखाई देती है पर केदार उनसे कहीं आगे है जिसका एक कारण केदार की चिंता में व्याप्त ‘लोक’ है। केदार की कविता में व्याप्त ‘लोक’ का जिक्र ‘मित्र संवाद’ नाम से संकलित रामविलास शर्मा व केदारनाथ अग्रवाल के पत्रों के संकलन में रामविलास शर्मा ने किया है। ‘तुम्हारी कविताओं की भाषा, शैली, व्यंजना का ढंग ऐसा है जो एक लोक कवि को ही और संसार के थोड़े से बहुत बड़े-बड़े कवियों को ही सुलभ होते है’। केदार की कविताओं के वैविध्य को समझने के लिए उस ‘लोक’ को समझना आवश्यक है क्योंकि किसान हो या मजदूर सबका संबंध इसी लोक से है। केदार की कविता इसी ‘लोक’ से आकार ग्रहण करती है व धूल–धूसरित व पसीने से लथपथ उनकी कविता निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ से कहीं न कहीं अपने को जोड़ती है। रामविलास शर्मा ने अपने आलेख ‘श्रम का सूरज’ में केदार की कविता की इस कड़ी को पकड़ने की कोशिश की है । ‘वह तोड़ती पत्थर’ की परंपरा केदार और नागार्जुन की रचनाओं में विकसित हुई ....दूर खड़े ’होकर किसान को देखने वाले और होंगे, केदार बहुत नज़दीक से उसकी श्रम प्रक्रिया को देखते हैं’। कविता के लोक आलोक में कई कविताएं ऐसी है जिनमें कर्म की प्रधानता है। रामविलास शर्मा ने अपने आलेख में केदार की कर्मशील दृष्टि की गहरी पड़ताल की है । श्रम व श्रमिक के संबन्धों को भी व्यख्यायित किया है । केदार की काव्य यात्रा पर भी रामविलास शर्मा ने सरसरी दृष्टि डाली है ‘यहाँ केदार थक गए हैं, यह उनका सहज भाव नहीं है , स्थायी भाव नहीं है। यह बात वह भी जानते है’। केदार के संदर्भ में यह बात रमविलास शर्मा ही लिख सकते हैं क्योंकि जिन्होंने ‘मित्र संवाद’ में संकलित पत्रों को पढ़ा होगा वह यह जान सकते हैं कि कविता को लेकर किस तरह रामविलास शर्मा और केदार में बहस होती थी।
मार्क्सवादियों
पर लगने वाले सौंदर्यशास्त्र संबंधी आरोपों को केदार की कविता खारिज़ करती है।
सौंदर्यशास्त्र के प्रतिमानों में कहीं भी उनकी कविता कमजोर नहीं दिखाई देती।
उनकी कविता में लय, राग,
ताल , छन्द कमोवेश कविता के सभी ‘टूल्स’ ख़ोजे जा सकते हैं। श्रम में संगीत भरना कोई केदार से सीखे। नंद किशोर
नवल इसीलिए केदार को ‘शिल्प सजक’ कवि
कहते है। केदार की कविताओं का शिल्प बेजोड़ है। नंद किशोर नवल अपने आलेख में लिखते हैं कि ‘केदार के शब्द रसगुल्ले की तरह हैं रस से भरे हुए’।
केदार की कविता के इस सौंदर्यशास्त्रीय पक्ष की महिन पड़ताल नंद किशोर नवल ने अपने
आलेख में की है इसके अलावा इस पुस्तक में कमोवेश सभी लेखकों ने केदार की कविता के
सौंदर्यशास्त्रीय पक्ष पर जिरह की है। विश्वनाथ त्रिपाठी केदार के सौंदर्य बोध के
संदर्भ में अपने आलेख में लिखते हैं कि ‘केदारनाथ अग्रवाल का
सौंदर्य बोध दर्पण, दूब, ओस, धूप, गुलाब, बसंती हवा के साथ
पत्थर, लोहा, चट्टान को समाविष्ट करता
है’। केदार के यहाँ सौंदर्य
श्रम साध्य सौंदर्य है। मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के संबंध में वस्तु और भाव के
सौंदर्यशास्त्रीय पक्ष को लेकर चलने वाली बहस के संदर्भ में केदार की कविताओं का मूल्यांकन देखने को कम ही
मिलता है । इस पक्ष को लेकर भी केदार की कविता को परखा जा सकता है। केदार की
कविताओं में गीतात्मकता का एक सहज गुण विद्यमान रहा है। केदार की चेतना का मूल
बिंदु ‘लोक’ है,
लोक में गीतों का बड़ा महत्व होता है ‘फूल नहीं रंग बोलते है’ जैसा संग्रह के गीत इसका सशक्त उदाहरण है। ‘मांझी न
बजाओं वंशी /मेरा मन डोलता /जैसा जल का जहाज़ पल–पल डोलता’
जैसी पंक्तियाँ केदार की कविताओं में बिखरी पड़ी है । राम निहाल गुंजन केदार की
कविता में गीतात्मकता की पड़ताल करते हुए अपने आलेख में लिखते हैं ‘केदार अपने जीवन की अनुभूतियाँ, लोक संवेदना, भाषा की सरलता एवं सहजता आदि पर विशेष ध्यान देते थे’ यही कारण है कि उनके गीतों में संप्रेषणीयता की प्रधानता है इसके अलावा
उनके गीतों में लय व गेयता के साथ–साथ अंतर्वस्तु की विविधता और वस्तु परखता
प्रमुख है। केदार के गीतों में वही ठेठ गाँव का चित्रण दिखाई देता है जिसमें खेत, किसान, नदी ,पहाड़, मजदूर, कृषक बालाएँ सभी मौजूद है।
कुल
मिलाकर देखा जाए तो यह पुस्तक केदार की कविता के वैविध्य को भिन्न-भिन्न
दृष्टिकोणों से परखने व समझने का महतावपूर्ण प्रयास है। कविता पर लगने वाले
आक्षेपों का जवाब भी केदार पर लिखी यह पुस्तक देती है। साहित्यिक राजनीति के बीच अच्छी कविता का मूल्यांकन कितना हो पाता
है यह केदार के मूल्यांकन से जाना जा सकता है। नामवर सिंह स्वयं अपने आलेख में
लिखते हैं –‘उनके महत्व को पहचाना गया, साठ के दशक के अंतिम दौर में’। आखिर पूरे
प्रगतिशील आंदोलन के बीच रहते हुए केदार जैसे बड़े कवि का मूल्यांकन साठ के बाद
होता है शायद के ठीक–ठीक से अस्सी के बाद। केदार की कविता के कई महत्वपूर्ण
संदर्भों को यह पुस्तक खोलती है। कविता में राजनीति,
प्रतिबद्धता, वैचारिकी व पक्षधरता जैसे सवालों पर केदार की
कविता के बहाने लगभग सभी लेखकों ने बात की है । गद्य के बढ़ते दबाव के बीच केदार
जैसे कवि का समग्र मूल्यांकन सुखद है। आज कविता जहाँ बाजार व भूमंडलीकरण के दबावों में बिखरी नज़र आती
है यह पुस्तक कहीं न कहीं उस बिखराव को समेटने का भी प्रयास है। यह पुस्तक एक
संदर्भ ग्रंथ के रूप में केदार प्रेमियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
केदारनाथ
अग्रवाल : कविता का लोक आलोक
संपादक: संतोष भदौरिया,नरेंद्र
पुंडरीक
यश पब्लिकेशन्स
दिल्ली
मूल्य 795 रु .
सम्पर्क:
प्रकाश चन्द्र
शोधार्थी साहित्य
विभाग
म. गा.अ.हि. वि. वर्धा, महाराष्ट्र
मोबाईल -09657062744
e-mail:
nayakhun@gmail.com
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