मार्कण्डेय जी के कविता संग्रह 'यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ' की समीक्षा




मार्कण्डेय न केवल एक कहानीकार थे बल्कि एक सक्षम कवि भी थे. अभी पिछले ही वर्ष मार्कण्डेय जी का एक कविता संकलन यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ आया है. इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य ने. मार्कण्डेय जी की पुण्यतिथि (18 मार्च) के अवसर पर हम यह विशेष प्रस्तुति आपके लिए प्रकाशित कर रहे हैं. 
   
आजाद कलम की कविताएँ

(सन्दर्भः- यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ’ : मार्कण्डेय)
                                                                                                                                                                अमीर चन्द वैश्य

सन् 2013 में प्रकाशित काव्य-संकलन यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ अभी-अभी पढ़ कर समाप्त किया है। समकालीन हिन्दी कविताओें से इस संकलन की कविताएँ भिन्न हैं। आजकल के युवा कवियों की अधिकतर कविताएँ लय-विहीन होती हैं। उनमें सघन भाव-बोध एवं विचार-बोध का चारू सम्मिलन नहीं होता है। अधिकतर कवि लम्बे-लम्बे गद्यात्मक वाक्यों से अपने पाठकों की संख्या कम कर रहे हैं। किन्तु समीक्ष्य संकलन ऐसे दुर्गुणों से मुक्त है। संकलन के सम्पादक हैं श्रीयुत् दुर्गा प्रसाद सिंह और भूमिका-लेखक हैं डॉ0 राजेन्द्र कुमार। संकलित कविताओं के स्रष्टा हैं प्रख्यात कहानीकार मार्कण्डेय। उन्होंने अपना सम्पूर्ण कर्मठ जीवन लोकमंगलकारी साहित्य-सृष्टि के लिए समर्पित कर दिया था। अपने समय की नई रचनाशीलता को कथा के माध्यम से प्रकाशित किया था। अपने विवेक से युगीन उत्कृष्ट रचनाओं की ओर पाठकों का ध्यान भी आकृष्ट किया था।

                इन पंक्तियों के लेखक ने मार्कण्डेय को पहली बार नए कहानीकार के रूप में ही जाना था। प्रो0 मधुरेश के व्याख्यान से। व्याख्यान में उनकी दो कहानियों-हंसा जाई अकेला’ और गुलरा के बाबा की विशेष चर्चा की गई थी। उनके पहले कहानी-संकलन पान-फूल की समीक्षा विवेक के रंग’ में पढ़ी थी। समीक्षक धर्मवीर भारती ने इस संकलन को रागात्मक यथार्थ’  का उद्घाटन घोषित किया था। कालान्तर में मार्कण्डेय की कहानियाँ भी खरीदी थीं। लेकिन प्रमादवश सभी कहानियाँ नहीं पढ़ सका। हाँ, उनकी कविताएँ सभी पढ़ी हैं। अवधानपूर्वक। उनके कवि रूप से परिचित करवाया कथा’  के मार्कण्डेय स्मृति अंक ने। (मार्च 2011) युवा कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने लिखा है कि मार्कण्डेय के अन्दर पसरा हुआ था कविता का एक अनचरा मैदान। वे घनघोर काव्य-प्रेमी थे। (मार्कण्डेय स्मृति अंक, पृ0 203)

                यह भी सुखद संयोग है कि तीनों इलाहाबादी नए कहानीकार मार्कण्डेय, अमरकान्त और शेखर जोशी कविता-प्रेमी हैं। अमरकान्त गोष्ठियों में गज़लें सुनाया करते थे। कालान्तर में कहानियाँ रचने लगे।

                उन्होंने कहानीकार के रूप में अपनी खास पहचान भी बनाई। इसी प्रकार मार्कण्डेय और शेखर जोशी ने भी। लेकिन ये दोनों कविताएँ भी रचते थे। दोनों की कविताएँ पढ़ कर इन की कहानियाँ भी अच्छे ढंग से समझी जा सकती हैं। दोनों साथियों की कविताएँ प्रगतिशील एवं लोकधर्मी काव्य-धारा से अनुप्राणित हैं।

                सहृदय कवि मार्कण्डेय स्वयं को नदी का द्वीप नहीं मानते हैं। वह जन-गण की जीवन-धारा में अवगाहन करके कहते हैं-

मैं उनके लिए लिखूँगा

जो भटक रहे हैं गलियों में

अन्धी-वीरान

रोशनी तलाशते

चीखते-चिल्लाते

उग्रह करो आने दो!!/

वर्ना हम मशाल जलाते हैं। (यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ’  पृ0 21)

                इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि मार्कण्डेय जनपक्षधर कवि और लेखक हैं। समाज के श्रमशील उत्पादक वर्गों के प्रति उनकी संवेदना अकृत्रिम है। यह धरती किसकी है। यह ज्वलंत प्रश्न है। मार्क्सवादी कवि केदारनाथ अग्रवाल घोषणा करते हैं कि यह धरती नहीं राम की, नही कृष्ण की। यह तो उस किसान की है जो इसे जोतता है। इसमें बिजाई करता है, सींचता है। खरपतवार निराता है। धूप में तपता है। जाडे़ में शीत का प्रकोप झेलता है। लेकिन हिम्मत नहीं हारता है। वही अन्नदाता है और अन्न ही ब्रह्म है। नागार्जुन भी ऐसा ही मानते हैं। वह पकी फसल में किसान के पसीने की आभा देखते हैं। मार्कण्डेय भी इसी सुर में सुर मिला कर आत्मीय भाव से कहते हैं-

खड़े क्या हो इस तरह हाथ बाँधे

जाओ, ले जाओं

यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ

सब कुछ है यहाँ

हवा, पानी, मिटटी और आकाश

मृत्यु, जन्म, प्यार और अहंकार

तुम जो चाहोगे

माँगो जो कुछ

तुम्हें वह देगी

अपर्णा है, प्रेयसी पयश्वनी है

भगिनी है

पुत्री मनस्वी है

जाओ, ले जाओं

अपने अंतर का आलोक तुम्हें देता हूँ। (वही, पृ0 3)

                सन् 1987 में रचित इस सम्पूर्ण कविता का संदेश क्या है। प्रश्न ज्वलंत है। भारत में जब तक भूमि का समान वितरण नहीं होगा, तब तक किसानों की दुर्दशा यथावत् रहेगी। आजकल सबसे बड़ा संकट किसानों के सामने है। विकास के नाम पर सरकार उनकी भूमि का अधिग्रहण कर लेती है। उन्हें पूरा मूल्य नहीं दिया जाता है। सरकार अधिक मूल्य पर बेचकर मुनाफा कमाती है। किसान कर्ज में डूब कर आत्महत्या कर लेता है।

                मार्कण्डेय अपने समय और समाज को वर्गीय दृष्टि से देखते और परखते हैं। अतः उनकी कविताओं में शोषक सत्ताधारियों के दुराचरण की तीखी आलोचना है और शोषितों - वंचितों के प्रति हार्दिक सहानुभूति। चले चलो कविता में इतिहास का संदर्भ है। मुहम्मद तुगलक का आदेश कि दिल्ली से दौलताबाद चलो। कवि व्यंग्य के लहजे में कहता हैं –

मुखौटा लगा लो

मिटा लो पहचान और भाषा

बोलो कुछ ऐसा

जो भाए आलीजाह को

प्रश्नों में साजिश की गंध है

ऐसी जो ब्रूटस

की साँस से निकलती थी

संशय के मंत्र का

अनवरत जाप करो

मित्रों की गरदन पर

तेज करो छुरियाँ

कतल करो अपनों का

वे भी इस आदमखोर

संस्कृति की संतति(आत्मज) हैं

वही करो, वही सुनो

कहता जो ढिंढोरची है

शेष सब अर्थहीन मिथ्या है

$$$ चलो, दौलताबाद चलो

चले चलो।‘ (वही, पृ0 8,9)

                इस कविता में इतिहास की घटना को वर्तमान समय के लोकतंत्र से जोड़ा गया है। दौलताबाद’  शासन का केन्द्र है। वहीं से शासन चलाया जाता है। सत्ताधारियों के हित के लिए। उनके हितैषियों के लिए। मिथ्या विज्ञापन प्रसारित किए जाते हैं। जन-गण-मन को भ्रमाने के लिए। चुनाव से पूर्व बड़े-बड़े स्वार्थी नेता मुखौटा लगाकर उपस्थित होते हैं जनसभा में। उनकी पार्टियों के लोग जनता से कहते हैं - चलो, चलो, चलो। देश को बचाने के लिए। हिन्दुत्व को बचाने के लिए। इस्लाम को खतरे से बचाने के लिए और जन-गण प्रायः वैसा ही करते हैं, जैसा उन्हें समझाया जाता है। लेकिन मार्कण्डेय ऐसी कूटनीति की आलोचना करके जन-गण का विवेक जागरित करना चाहते हैं। इसलिए वह कहते हैं लड़ना ही है हासिल जीवन। वह धरती पुत्रों का जगाते हुए कहते हैं कि

उसे (धरती को) दुःख है कि हम सो रहे हैं और वे कर रहे हैं नरसंहार

अपने लोगों का लहू हो रहा है बेकार

सूख रहा माटी में अजन्मा हो कर

धरती की अन्तर प्रतिज्ञा

मैं जानता हूँ

वह माँ है ऐसी जो

.........लड़कों को

छाती से लगाती है

स्तन पिलाती है

कहती है जागो

और युद्धरत हो जाओे

लड़ना ही है हासिल जीवन का।‘ (वही, पृ0 10, 11)

                घनघोर विषमताग्रस्त विश्व में वर्ग-संर्घष जारी रहा है। जारी है और भविष्य में भी जारी रहेगा। रोटी-कपड़ा-मकान के लिए वंचितों का संघर्ष बदस्तूर चल रहा है। इतिहास-विधाता का विधान निरन्तर बदलता रहता है। यह बदलाव कभी सकारात्मक होता है। कभी नकारात्मक। वर्तमान समय में दुनिया विश्व के विकसित राष्ट्रों के अधीन हो रही है। ऐसे राष्ट्रों में अमरीकी साम्राज्य अग्रणी है। आज के भारतीय लोकतंत्र में अमरीकी दखल स्पष्टतः दिखाई पड़ रहा है। कांग्रेस और भाजपा दोनों अमरीका परस्त हैं। हिन्दुस्तान का इंडिया खुले आम अमरीका भक्त है। इस भक्ति ने भारत के मध्यम वर्ग एवं उच्च वर्ग को भारतीय भाषाओं और उनकी संस्कृतियों से काट दिया है। यही कारण है कि भारत में सर्वत्र सांस्कृतिक प्रदूषण परिव्याप्त है। नेता भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं। अब जन-गण उन पर भरोसा करनें में संकोच करते हैं। जैसे साँपनाथ हैं वैसे ही नागनाथ। मानवीय मूल्यों का इतना ह्रास हो गया है कि ‘चोर’  को साहूकार’  कहा जाता है। बेईमान’  कोईमानदार’। खलनायक’  को महानायक’। खाए-अघाए अभिजन इतने भोगवादी हो गये हैं कि वे लगातार वमन करते रहते हैं। दूसरी ओर कोटि-कोटि निरन्न-निर्वस्त्र जन एकता के अभाव के कारण अभिशप्त जीवन जी रहे हैं। मार्कण्डेय अपने समय-समाज की वास्तविकता अच्छी तरह समझते थे। इसीलिए उनकी कविताओं में शोषक वर्ग की कटु आलोचना है। नेता के नगर आने पर’  वह ठीक कहते हैं- 


उनके आते ही

सारा शहर बस्साने लगता है

नावदानों के फब्बारें हवा में उछल उछल कर

अपने रंग उगलने लगते हैं

दीवारें रंगीन छिपकलियों सी

तखतियों से अट जाती हैं

नारों का झूठ बिलबिलाने लगता है

मैला ढोते गुबरैलों की तरह

चिढ़ाने लगता है मूँह

गृहस्थी का भार ढोते

बेबस लाचार नागरिकों का

एक अनचाहा आतंक रिसने लगता है

धीमे-धीमें जहर की तरह। (वही, पृ0 33)

                इस कविता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मार्कण्डेय के मानस में घृणा की असंख्य लहरें आन्दोलित हो रही हैं और दूसरी ओर निरीह जनों के प्रति हार्दिक संवेदना। प्रेमचन्द ने बहुत पहले घृणा का सामाजिक महत्व समझाया था। यहाँ मार्कण्डेय प्रेमचन्द के विचार-बोध का अनुसरण कर रहे हैं। विरोधी भावों की अभिव्यक्ति ने कविता को उत्कृष्टता प्रदान की है। मार्कण्डेय अपनी वर्गीय जीवन-दृष्टि से दुनिया को समझते हैं। दुनिया के दुश्मनों-दोस्तों को पहचानते हैं। वह अपने दोस्तों के पक्ष में झंडा उठाते हैं और चोर को चोर कहना’  औचित्यपूर्ण समझते हैं, क्योंकि

श्रेष्ठ जन चोर को चोर

हुंकार कर तब कहते हैं

जब उस चोर का सरदार

देश का अलमबरदार हो

चाहे उसके हाथ में मोटा डण्डा हो

चाहे फाँसी का मोटा फंदा। (वही, पृ0 36)

                यह काव्यांश कवि का सत्साहन और निर्भीकता व्यक्त कर रहा है।


                मार्कण्डेय जीवन के प्रति निराशवादी नहीं अपितु आशावादी हैं। वह अँधेरा भगाने के लिए रोशनी की तलाश में संलग्न रहते हैं। अँधेरे में चीर की तरह दिखाई पड़ने वाली रोशनी को देख कर वह उल्लासपूर्वक कहते हैं –

मिल गया, मैंने कहा

मिल गया रत्न

जो काट देगा, अन्धे पहाड़ को

और मैं उस दरार मैं घुस जाऊँगा

पहले मनाऊँगा

यदि नहीं माना तो

बाँह पकड़कर

खींच लाऊँगा सूरज को। (वही, पृ0 39)

                सूरज’  सामूहिक श्रम के प्रकाश का प्रतीक है। धरती की व्यथा-कथा का समापन -दिव्य शक्ति’  नहीं कर सकती है। उसे तो ‘जनशक्ति’  ही सुख में बदल सकती है।

                समकालीन हिन्दी काव्य संसार में ऐसे अनेक सत्तामुखी कवि हैं, जो अपनी कविता को राजनीति की कीचड से दूर रखना नहीं चाहते हैं। सत्ता एसे कवियों को पुरस्कृत-सम्मानित भी करती हैं। लेकिन मार्कण्डेय न राजनीति-निरपेक्ष लेखक हैं और न ही कवि। उन्हें मालूम है कि जो कवि अपने देश-काल की जन-विरोधी राजनीति की आलोचना करता है, उसे जीवन में भयानक प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। हिन्दी में महाकवि निराला के अलावा केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, विजेन्द्र ऐसे ही कवि हैं। विश्व कविता में ऐसे कवियों का अभाव नहीं है। मार्कण्डेय ने यही तथ्य दृष्टिगत रखते हुए सूली पर कवि’  में बेंजामिन का प्रेरक स्मरण किया है-

जब कोई बेंजामिन

जनता का प्रेम गीत गाता है

लोगों को नींद से जगाता है

बताता है प्रेयसी से

धरती की गन्ध

रूप-रंग माटी का

$$$ तब कविता, कविता नहीं रहती

वह फसल बन जाती है

गीत गाये नहीं जाते

लोगों की साँसों में

चुपके से उतर जाते हैं

वे समझ नहीं पाते

घबराते हैं

पसीने-पसीने हो जाते हैं

और चढ़ा देते हैं

कवि को सूली पर।‘ (वही, पृ0 14,15)

                वे’ सर्वनाम पद से आशय है शोषक सत्ताधारी, जो स्वयं को आलोचना से परे मानते हैं। वे तानाशाह होते हैं। परन्तु सच्चा जपनक्षधर कवि उनका प्रतिरोध प्रखर ढंग से करता है।
                अन्यायी और शोषक व्यवस्था का मूलोच्छेदन करने के लिए संघर्ष निस्तर अनिवार्य है। शक्तिशाली एवं साम्राज्यवादी राष्ट्र, यथा-अमरीका, अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए युद्ध का भयंकर उद्घोष कर देता है। ऐसे युद्धों से निरीह मानवता की अपूरणीय क्षति होती है। अतएव मार्कण्डेय युद्ध’ के उज्ज्वल पक्ष का समर्थन करते हैं –

युद्ध सिर्फ लड़ाई नहीं है

क्योंकि युद्ध न्याय के लिए

अस्मिता की रक्षा के लिए

समानता और स्वाधिकार के लिए

शोषकों, जालिमों, हत्यारों के

विरूद्ध

लड़ी जाने वाली लड़ाई का नाम है।

$$$$$$ युद्ध के गीत हैं

मोलाइस, निराला

नजरूल, नेरूदा और नाजिम हिकमत

युद्ध का वैभव हैं

 $$$$ युद्ध का कोई धर्म नहीं होता

जात-पाँत देश भाषा कुछ भी नहीं

युद्ध आग के समान पवित्र है

जो लोहे को सिझाता है, करता है

अपनी ही तरह लाल और गर्म

सिर्फ जय में ही नहीं

पराजय में भी!(वही, पृ0 12,13)

वर्तमान काल में युद्ध विश्व मानवता के लिए घातक अभिशाप माना जाता है। लेकिन शोषितों-वंचितों के अधिकार के लिए युद्ध अभिशाप नहीं अपितु वरदान है। यह कविता वक्तव्य प्रधान है, लेकिन इसकी रचना-प्रक्रिया के मूल में करूणामूलक सात्विक क्रोध है। इसलिए यह उत्कृष्ट कविता है।

मार्कण्डेय की चौकन्नी दृष्टि से हिमालय और घूर’  दोनों को देखते-परखते हैं। दोनों में समानता तलाशते हैं। अपना ध्यान गाँव-गाँव में घुरों पर विशेष रूप से केन्द्रित करते हैं। क्या कारण है कि गाँव आज तक स्वच्छ और सुन्दर क्यों नहीं पाए हैं। वह ठीक चित्र अंकित करते हैं –

घूर तो बेचारा है

पड़ा हुआ, अतिमन्द

बच्चों की छी-छी, पीव, मवाद की पट्टियाँ

राख, कूड़ा, ऊपर से कुत्ते और बिल्लियों के मूत्र से सिंचित

गोबर और गोबर

लेकिन यह भी ठोस

स्थिर और काम्य

रूपाकार में हिमालय जैसा साम्य है

निःसंग, निरावृत्त

टिका है जन मानस में

वैसे ही

जैसे टिका है हिमालय। (वही, पृ0 65)

इन पंक्तियों में भारतीय गाँव का चित्र अंकित किया गया है। यथार्थवादी दृष्टि से। मूत्र से सिंचित’ पदबंध अज्ञेय का स्मरण करा रहा है। ‘मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त में।, खास बात यह है कि मार्कण्डेय ने अपनी अन्तर्दृष्टि से हिमालय और घूर में समानता तलाश की है। उस के बारे में बताया है –

टिका है जन-मानस में

वैसे ही

जैसे टिका है हिमालय।

मार्कण्डेय यह भी जानते हैं कि राजधानीके अनेक स्वनामधन्य एवं तथाकथित बड़े कवियों ने अपनी लेखनी को सत्ता के लिए समर्पित कर दिया है। युवा कवि भी उन्हीं का अनुकरण करते हैं और कर रहे हैं। कविता’  में यही कटु वास्तविकता व्यक्त की गई है। यह रचना संवाद शैली में है। वह अपनी रोजी-रोटी के लिए सत्ता के सामने घुटने टेक कर कहता है –

नौकरी के लिए हुजूर

जैसी भी हो

जहाँ हो, फौरन चला जाऊँगा

हुक्म बाजा लाऊँगा’

फिर कविता का

क्या होगा।‘

उस ने पूछा

कविता का...

कविता का क्या होना है

रहेगी वह

राजी-खुशी रहेगी

गुह-मूत करेगी

दुख दर्द सहेगी

कुछ नहीं कहेगी।(वही, पृ0 66)

                यह है समकालीन कविता का कुरूप, जो राग दरबारी गाया करता है। दिल्ली दरबार को रिझाता है। छुटभैये कवि नामवर जनों की चरण-वन्दना करके एवं पुरस्कार हासिल करके स्वयं को मौलिक कवि समझने लगते हैं। ऐसे कवियों की कविता नखदन्त विहीन हो जाती है। अन्ततोगत्वा ऐसे कवि इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं। इतिहास साक्षी है पंत जी की तुलना में निराला को क्यों महान कवि माना जाता है। अथवा रघुवीर सहाय और श्रीकान्त वर्मा की तुलना में केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन महत्त्वपूर्ण क्यों हैं। इसी प्रकार अज्ञेय की अपेक्षा मुक्तिबोध क्यों महान हैं। आप स्वयं निर्णय कीजिए।

                मार्कण्डेय उन कवियों की आलोचना करते हैं, जो स्वयं देश की राजधानी देहली को पार करके अन्दर जाना चाहते हैं। किसी वरिष्ठ मंत्री’  के समक्ष। वह मंत्री अपनी गोपनीय डायरी में लिखता है –

जब अस्तित्व का बोध खो जाता है

मैं और उसके साथी उसी में जी रहे हैं।

कभी गिरते हुए

कभी चढ़ते हुए

सच तो यह है कि

हम सब कहीं उस एक से अनुभव में हिस्सा बँटा रहे हैं

एक सन्नाहट में जी रहे हैं

वे जो चोटी पर है

वे भी जो चोटी के नीचे खड़े ताकते हैं

चोटी को टुकुर-टुकुर।(वही, पृ0 32)

                आशय यह है कि राजनीति में कुछ भी सुनिश्चित नहीं है। जो चोटी पर खड़े हैं, वे भी आशंकित हैं और जो नीचे खड़े हैं, वे भी उस चोटी के लिए लालायित रहते हैं। ऐसे अनिश्चित माहौल में सत्तामुखी कवि क्या जनपक्षधर हो सकता है। नहीं। श्रीकांत वर्मा का मोहभंग इस का प्रमाण है।
                उपर्युक्त भाव-भूमि पर रचित एक और कविता कवि-सभा’  भी उल्लेखनीय है। इस सभा में नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, अरूणकमल, राजेश, मनमोहन, विकल, डबराल, सोमदत्त, देवताले, केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, अपनी-अपनी भाव-भंगिमा से विराजमान हैं और खड़े हैं। मुक्तिबोध सीमान्त पर खड़े हैं। बाबा अपने ढंग से ढोल की पाल खोल रहे हैं।

तभी सहसा फाड़ कर

आँखों के पर्दे

धूमिल किसी मानव शरीर को

(जिसे कह सकते हैं राजकमल)

कंधे पर उठाए

आ धमका बीच में

कहने लगा-

नामवर स्वायत्ता की

ढोल के पोल में घुस गए हैं

गाहे-बगाहे, तुक-ताल देख कर

दल की चमड़ी, उठाते हैं

अब कविता को एक नए वकील की जरूरत है

पीछे की अदालत में

उस पर मुकदमा है

दावा है उसमें कि

वह व्यवस्था की दलाल वेश्याओं के दरवाजे पर ताक-झाँक करती है

इनाम-इकराम के लिए

अवसर की तलाश में

छिनाल होती जा रही है

हाव-भाव दिखाती है

नखरे पाटती है।(वही, पृ0 29,30)

                नामवरी स्वायत्तता की ऐसी तीखी आलोचना कविता में और अन्य कवि ने की है? शायद नहीं। विगत वर्षों में कई साहित्यकारों ने छिनाल’  विशेषण का प्रयोग अपने अहम् की संतुष्टि के लिए किया था। लेकिन इस प्रयोग से पहले सन् 1987 में, चाटुकारी एवं सत्तामुखी कविता को छिनाल मार्कण्डेय ने ही कहा था। उन का कथन आज भी खरा है, क्योंकि ऐसी छिनाल’  कविता का अभाव नहीं है। आज कविता की आलोचना के लिए लोकधर्मी दृष्टि की आवश्यकता है। स्वायत्तता’  की नहीं। स्वायत्तता’  तो कविता को लोक से अलग करके उसकी निरर्थक आलोचना करती है। ऐसी आलोचना बहुत खतरनाक है, क्योंकि वह कविता के जीवन-स्रोतों की उपेक्षा करती है। मार्कण्डेय ने स्वायत्तता’  का प्रयोग करके नामवरी आलोचना पुस्तक कविता के नए प्रतिमान’  की भी आलोचना की है। उसे नकार दिया है। धूमिल के द्वारा। है न मजे़दार बात।

                संकलन के पहले भाग में सन् 1980 के दशक की कविताएँ संकलित हैं। लगभग बयालीस कविताएँ। अब तक जिन कविताओं की चर्चा-विवेचना की गई है, वे इसी दशक की हैं। दो-तीन कविताएँ ऐसी भी हैं, जिन के अर्थ-बोध के लिए मानसिक व्यायाम करना पड़ता है। यथा-

तुम कुछ वैसी हो कविता। और काल चक्र। प्रूफ की भयंकर भूलों के कारण अर्थ-बोध में बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं।

                बया और कौवा पढ़ कर लघु कहानी का आभास होता है और बया की लाचारी का भी। नया वर्ष, गया वर्ष, मेरे गुलाब, बीते कितने वसन्त, इस देश-काल में, कहाँ गयी धार, घर इस तरह बना, हल्ला उठाओ, काल-बोध, समय, किरण और दृष्टि, बात बस इतनी सी, काल-चक्र, पहला पत्थर शीर्षक कविताएँ भाव एवं विचार वोध से समन्वित हैं। इनमें आत्मीयता भी है और कहीं-कहीं तीखा व्यंग्य भी। अपने समय की राजनीति पर। पेड़ पर घर’  कविता अज्ञेय के उस घर का स्मरण करा रही है, तो पेड़ पर बनवाया गया था। कविता-पाठ के लिए। लेकिन अज्ञेय की अभिलाषा पूरी नहीं हो सकी थी शायद। इस कविता के अन्त में मार्कण्डेय सर्तक भाव से पूछते है-

‘तुम तो महत्तर थे

कवि, शब्द शिल्पी

पेड़ तो बन्धु है धरती के नाते से

फिर उस के कन्धे पर घर क्यों? (वही, पृ0 61)

पिता कविता ज्ञाररंजन की कहानी पिता की याद जगाती है और पिता का हत्यारा’  आत्म-ग्लानि।

उपर्युक्त कालावधि में रचित लघु कविता पहला पत्थर’  मार्कण्डेय के सहृदय कवि की संवेदन शीलता का उत्तम प्रमाण है और नत्थू गवैया और हरिहर नचनियाँ’  आत्मीयता और स्थानीयता का सबूत है।

संकलन के दूसरे भाग में सन् 1952 से 54 के बीच की असंकलित कविताएँ हैं। इक्कीस कविताओं में अन्तर्वस्तु और काव्य-रूप एवं भाषाई रचाव की दृष्टि से प्रशंसनीय विविधता है। गीत भी है और मुक्त छन्द में रचित लयात्मक कविताएँ भी। प्रेम भाव के साथ-साथ मानवीय करूणा भी।

उस दिन जब तुम गई

प्यार की बातें कितनी हुई


 में दाम्पत्य प्रेम की सहज सुन्दर अभिव्यक्ति है। खलिहान’  में किसान की सम्पन्नता और विपन्नता का द्वन्द्व है, जिसके मूल में मानवीय करूणा है और उसकी आत्म-ग्लानि भी। कलम’ शीर्षक गीत में आत्म-समीक्षा के साथ-साथ श्रमशील लोक से जुड़ने का संकल्प है। मैं जो इंसान हूँमैं इंसानी दुनिया बसाने का सुनिश्चय है। ‘कलम का ईमान’  में कवि-लेखक के लोकपरायण होने का उल्लेख है। कवि-लेखक कलम के सिपाही’  हैं। इसलिए कविता के अन्त में कहा गया है

‘यह लड़ेगी

और लड़ती रहेगी

जब तक इस धरती पर

उमड़ता हुआ इंसान

उस का सहारा चाहता है

वह धरती की पुकार है

आसमान की उड़ान नहीं

यह जिन्दगी की पैरोकार है

बेजान की तलवार नहीं। (वही, पृ0 103)

एक होगा सारा संसार में कवि ने अपनी वैश्विक जीवन-दृष्टि से सारे संसार को देखा है। ‘मंजिल’ में गतिशीलता का संदेश है। ‘सजन घर आये’  गीत लोक गीत से अनुप्राणित है। ‘मुझे उबारो’ में खिन्नमना दीन-दलित को करूण पुकार है। कविता वाचक दीनता - भरे सुर में कहता है –

‘मुझे उबारो

मैं कीचड़ के बीच फँसा हूँ

मेरी साँसें

मेरा जीवन

मेरा तन मन

सब भारी है

जैसे काई गन्दा और

घिनौना कीचड़

इन सब की तह तह में

कसकर ठूँस उठा है

मुझे सँभारो

अपनी कोमल गरम गदोरी से

छूलो ये पंकिल बाँहें

शायद पावनता में

कोई छूत हो

जो मेरे जीवन को

प्राण दे सके

जो मेरी पापी काया को

त्राण दे सके।(वही, पृ0 118)

वाचक का यह अनुनय-विनय पाठक के मानस में करूणा जगाता है। यह कविता दलित जीवन’  से साक्षात्कार कराती है। निराला की पंक्तियाँ याद आ रही हैं-

दलित जन पर करो करूणा

दीनता पर उतर आये

प्रभु! तुम्हारी शक्ति अरूणा।

मार्कण्डेय प्रभु से प्रार्थना न करके इतिहास-विधाता के काल-चक्र’  की गति देखते-परखते हैं और दलित जनों को समझाते हैं कि

‘मैं ही बताऊँगा वह सब

जो कहीं नहीं लिखा है

काले अक्षरों की स्याह दरिया में

जो झूठ के सफेद बुलबुले

दिखते हैं, वे बस दिखते हैं

हैं फफोले/जो फूट जाएँगे

$$$$ ज्यादा कुछ ऐसा ही है

जो छाया है संस्कृति रूपी

घटाटोप बादलों की तरह

तुम्हें बहलाने के लिए, लोरियों से लेकर

मृत्युगीतों तक बेपनाह

विस्तार में तुम्हें पहचानना होगा

अपना गीत। (वही, पृ0 79,80)

दलित-शोषित जन भी अपने अनुभवों से जीवन की वास्तविकता स्वयं समझ जाते हैं।

रूसी माँ का शान्ति-सन्देश’  में मार्कण्डेय का अन्तरराष्ट्रीय सद्भाव व्यक्त हुआ है, जो शान्ति के लिए परम अनिवार्य है। रूसी माँ विगत युद्ध की महाअग्नि के होम में समिधा बने अपने बेटों को याद करके कहती है –

जब तुम वापस जाना

भारत की ललनाओं से कहना

मेरा यह सन्देश

धरती की छाती पर धरती के बेटों का

खून न बहने पाये

सारी मानव जाति एक है

युद्ध न होने पाए। (पृ0 93)

संकलन के तीसरे भाग में मार्कण्डेय के पहले काव्य-संकलन सपने तुम्हारे थे’  (सन् 1956) की कविताएँ संकलित हैं। इन का रचना-काल 1952 से 1956 तक है। इन कविताओं में युवा मार्कण्डेय की प्रेमल भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। अन्य भाव भी व्यक्त हुए हैं, जो कवि के सर्जनशील व्यक्तित्व को समष्टि से जोड़ते हैं। युवा मार्कण्डेय को महसूस होता है कि

बालू से माटी की छाती

सचमुच बहुत कड़ी है।(पृ0 125)

और ‘जीवन’ धरती माँ का वरदान है। लेकिन अभी सभी पूतों का जीवन

‘दुख से पूर

तमसावृत निशा में

एक धूमित (धूमिल) आग-जिज्ञासा लिये नतशीश है।

लेकिन कवि को आशा है कि

‘व्यवधान टूटेगा, छटेगा मोह

फिर स्रोतस्विनी - सी बह चलेगी

मानवी संसृति

जननि! जीवन जीव का तात्पर्य होगा

अभी तो धूरियों में घूमता रथ-चक्र है।(पृ0 127)


जीवन’  जीव का तात्पर्य हो जाएगा। क्या आशय है इसका। कवि ऐसे समाज का सपना देख रहा है कि भावी समाज ऐसा हो, जहाँ जीव मात्र भय-मुक्त हो। निर्द्वन्द्व हो। स्वतंत्र हो।

यह सपना साकार करने के लिए संघर्ष निरन्तर करना होगा। पथ के रोड़े’ सँवारने होगें, क्योंकि

ये पथ के रोड़़े हैं

इन की बातें बहुत बड़ी हैं

ऊपर से चिकने

पर इन की छाती बहुत कड़ी है

कितनों को मंजिल से रोका

कभी नहीं पछताये

फिर भी अपनी आदत से

अब तक ये बाज न आये

इनकी साँसें तोड़ न देना

ये पत्थर के टुकड़े

इन पर टाँकी मारो

खून पसीना आँसू दे कर

इन्हें सँवारो। (पृ0 133)

यह कविता पढ़कर एक सवाल सामने खड़ा हो रहा है कि रोड़ो को सँवारने की बात क्यों कही गई है। वस्तुतः रोड़े’  पद श्रमशीलजनों का प्रतीक है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति को अपने गन्तव्य तक पहुँचाने के लिए पथ के रोड़ो का सामना करना पड़ता है। वह उन्हें हटाना चाहता है। लेकिन वे हठीले होते हैं। सभ्यता-संस्कृति की रचना में श्रमशील जनों की भूमिका सर्वोपरि होती है। अतः उन्हें सँवारना अर्थात् सचेत करना अनिवार्य है। उनकी संगठित शक्ति ही समाज को बदल सकती है। चिकने रोड़े शत्रु पर प्रहार भी कर सकते हैं और परास्त भी। इन्हें सँवारने का काम मध्यम वर्ग कर सकता है। अपने व्यक्तित्व का रूपान्तरण करके।

याद का सरसिज’  उत्कृष्ट प्रेम कविता है,  जो युवा कवि की भावनाओं से साक्षात्कार कराती है। लेकिन याद का सरसिज कभी-कभी नहीं खिलता है। इसलिए कवि कहता है-

अब हवा है सर्द
पानी की सतह
जम कर हुई है वर्फ
ऊसर भूमि पर
जैसे जयी हो चाँदनी की पर्त
सूना है सरोवर
सलिल की कोख है सूनी
याद का सरसिज खिले क्यों
जब तुम्हीं हो
और अपनी याद है।(पृ0 128, 129)

यह है कवि का सात्विक अनुराग, जो अज्ञेय की प्रेम-भावना से अलग है। मार्कण्डेय के प्रेम में उद्दाम मनोकामना की उत्तप्त व्याकुल पुकार नहीं है। तुम कहाँ हो नारि’। अपितु स्वयं को परिष्कारने की अभिलाषा है। उनका प्रेम उन्हें संघर्ष के लिए दृढ़ संकल्पी बनाता है। यथा –

मुझे तुमने सीपियों मे देखा है
सतरंगी लघु किरणों में
$$$ नहीं देखा तुम ने किन्तु
टूटी चट्टानों की
शोख शमित धारों को
$$$ पैना मुझे कर दिया
इसलिए जागृत हूँ
टूटा हूँ
लेकिन समाहत हूँ
आऊँगा
तट का अभिलाषी मुक्त नागरिक हूँ। (पृ0139)

जीवन की उत्ताल तरंगों से संघर्ष करता हुआ मुक्त नागरिक’  प्रेम के तट पर पहुँचना चाहता है। उल्लेखनीय है कि मार्कण्डेय ने स्वाधीन एवं स्वतंत्र जीवन जिया था। अपनी शर्तों पर। उनकी संघर्ष मूलक उदात्त भावना तुम्हारी याद में’ भी व्यक्त हुई है-

वंचना का दुर्ग यह, गतिरोध की दीवार,
प्राण मेरे छीन कर, सकती न मुझको भार।
मैं रहूँगा विश्व के तम में जलन के साथ,
मैं उठूँगा एक दिन विश्वास धर कर माथ।।‘ (पृ0 144)
               
कहने की आवश्यकता नहीं है कि वंचना का दुर्ग’  अज्ञेय का स्मरण करा रहा है। सन् 1950 के दशक में हिन्दी के नए कवि अज्ञेय का अनुसरण कर रहे थे। उस समय प्रयोगवाद की धूम थी। परिमलवादियों का शोर था। प्रगतिशील शक्तियों का प्रतिरोध था। उस समय मार्कण्डेय प्रेमचन्द और निराला की भावधारा एवं विचारधारा में अवगाहन करके उन्हें अग्रसर कर रहे थे। उन्होंने एक कविता चींटी, ततैया और इंसान’  में लघु बोध-कथा का कलात्मक निबन्धन किया है। प्रतिरोध की भावना से प्रेरित होकर। कविता का अन्तिम अंश पढ़िए –

‘क्षुब्ध चींटी
ततैया संतप्त
दोनो कर रही थीं बात’
क्या यह आदमी था?
जो हमारे साथ यों बैठा हुआ चुपचाप, बेबस ऊँघता-सा तप रहा था
और बेअंजाम
अपनी जाति ही की खा रहा था लात
मैं तो काट लेती
मैं तो वीन्ह लेती।  (पृ0 142
)
मौन’  शीर्षक कविता पढ़कर घनानन्द अनायास आते हैं। विरही विचारन की मौन मैं पुकार है।‘ मार्कण्डेय भी कहते हैं – ‘आह! तेरे छोह की/ऐसी कथा है/और मेरे मौन की/तैसी व्यथा है।(पृ0 148)

                संकलन के तीसरे भाग में प्रायः लघु कविताएँ हैं, लेकिन एक अनतिदीर्घ कविता भी है। कल्पना का लिखित यक्ष। कालिदास के मेघदूत’  की स्मारिका। इस में जीवन की व्यथा-कथा अधिक है। समष्टि के जीवन की कथा। यह कविता अभिनव भाव-भंगिमा से प्रारम्भ होती है और जीवन-प्रसंगों की दुखद घटनाओं से परिचित कराती है। पाठकों से अनुरोध है कि वे स्वयं यह कविता पढें।

                सम्पूर्ण संकलन पढ़ने के उपरान्त कुछ निष्कर्ष उल्लेखनीय हैं। सन् 1950 के दशक में अज्ञेय-पंथी अधिक सक्रिय थे। उनकी अधिकतर अबूझ कविताओं की तुलना में मार्कण्डेय की कविताएँ अधिक सम्प्रेषणीय हैं। संकलित कविताओं में कुछ छान्दस हैं। कुछ गीतात्मक हैं। कुछ मुक्त छन्द में हैं। परम्परागत हरिगीतिका छन्द को मुक्त छन्द’  के रूप में अपनाया गया है। मुक्तिबोध के समान। भाषाई रचाव में तत्समता, तद्भवता ओर बोल-चाल की उर्दू शब्दावली का औचित्यपूर्ण सम्मिलन है। भाषिक, संरचना में यदि पंत जी की कोमलकान्त पदावली है तो निराला का ओजगुण भी है और भदेसपन भी। नागार्जुन जैसी सादगी के साथ-साथ व्यंग्य की तीखी धार भी है और त्रिलोचन की स्थनीयता भी। केदारनाथ अग्रवाल के समान श्रमशीलता का समादर है। सारांश यह है कि काव्य-भाषा में लयात्मकता और वक्तव्यता के साथ-साथ अलंकृति का सहज समावेश है। परम्परा से जुड़ाव भी है और समागम की अग्रगामी सोच का समावेश भी।

                यह संकलन पढ़ कर आज के बौने कवि अच्छी कविता रचना सीख सकते हैं। यह भी कि वे कितने गहरे पानी में हैं। स्वतंत्र हैं अथवा परतंत्र? दब्बू हैं अथवा दबंग।
                लेकिन प्रूफ की असंख्य भयंकर भूलों ने कविताओं का भाषाई सौन्दर्य विकृत कर दिया है। इस से गुड़ गोबर हो गया है। यदि सभी भूलों का उल्लेख किया जाए तो एक पृष्ठ तो भर जाएगा। यहाँ केवल एक कविता की भूलों की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है। कविता है कवि सभा’। (पृ0  26 से 30 तक)

ऐसी असंख्य भूलों के लिए सम्पादक और प्रकाशक दोनो जिम्मेदार हैं। इससे हिन्दी का गौरव घटेगा। इस पुस्तक का अगला संस्करण निकालते समय सम्पादक महोदय को इस तरफ सतर्कतापूर्वक ध्यान देना होना। 





सम्पर्क-

मोबाईल-  08533968269      

टिप्पणियाँ

  1. संग्रह पहले जब प्रकाशन हो रहा था तब पढ़ा था । अमीर जी की इस समीक्षा को पढ़ कर फिर पढने का मन कर रहा है।
    सुधीर सिंह

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  2. Yatharth ki kavitao ki yatharth bhari sameeksha. Uttam he. Badhye. Manisha jain

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