विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानी 'पर्स'

विमल चन्द्र पाण्डेय



युवा कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय की एक कहानी 'पर्स' अनहद-5 में प्रकाशित हुई है. इस कहानी की पाठकों के बीच अच्छी-खासी चर्चा हो रही है. हमेशा की तरह विमल ने ऐसे कथ्यों के सहारे कहानी की बुनावट की है जो रोचक होने के साथ-साथ प्रासंगिक और यथार्थ भी है. आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हमारा चौकन्नापन कुछ इस तरह का है जिसमें बहुत कुछ खोता जा रहा है. ओवर कांससनेस का आलम यह होता है कि हम उस खोने या छूटने का एहसास तक नहीं कर पाते. तो आइए पढ़ते हैं विमल की बिल्कुल नयी कहानी 'पर्स'.        
      
विमल चन्द्र पाण्डेय

पर्स
(जिस चीज़ का वजन कम हो तो उसकी गति अधिक होती है)

अपनी जानकारी में मैं दुनिया का सबसे चौकन्ना इंसान हूं। आप इस बात की तस्दीक मेरे मुहल्ले या ऑफिस के किसी भी आदमी से कर सकते हैं और मैं यह अच्छी तरह जानता हूं कि कौन सा आदमी मेरे चौकन्नेपन के बारे में बताने के लिये कौन सा उदाहरण देगा। यह भी मेरे चौकन्नेपन का एक नमूना है।

वैसे तो मैं आपको इस बात के दसियों उदाहरण दे कर साबित कर सकता हूं, घर परिवार के, दफ्तर के, सेहत के, जीवन के हर मोड़ पर आपको मेरे चौकन्नेपन का जलवा दिखायी देगा। घर परिवार की बातों पर आप भी ज़रूर अपनी या अपने किसी चहेते की बात उठा लाएंगे या ऑफिस की बात कहने पर कह सकते हैं कि यह चौकन्नापन नहीं चमचागिरी या कुछ और है। मैं एक ऐसे उदाहरण से अपनी बात को सही साबित करुंगा कि आप को फिर कुछ सूझेगा नहीं।

बयालीस साल की उम्र तक दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में नौकरी करते हुये, बाकायदा मुंबई की लोकल और दिल्ली में डीटीसी बसों की यात्रा करते हुये अगर किसी आदमी की जेब कभी न कटी हो तो आप क्या कहेंगे ? खा गये न चक्कर? कभी नहीं मतलब कभी नहीं। नहीं मान्यवर, एक बार भी नहीं। अरे मेरी याद्दाश्त पर शक मत कीजिये, यह आज भी चौबीस की उम्र जैसी है। 

बसों या लोकल ट्रेन में चढ़ते हुये मेरे दिमाग में न ऑफिस होता है न भीड़। मेरी हथेली तुरंत मेरी पिछली जेब पर जाती है और मैं अपना बटुआ निकाल कर जींस के आगे वाली जेब में रख लेता हूं। भीड़ भरी लोकल में खड़ा मैं सोचता रहता हूं कि आज फिर मेरा पर्स नहीं मारा जा सकता। मैं अपने से चार आदमियों के बाद खड़े एक लुक्खा दिखते नवयुवक की ओर देखता हूं तो मुझे लगता है कि यह पॉकेटमार है। जब मैं चढ़ा था तो इसने मेरी पिछली जेब पर हाथ फिराया होगा और पर्स न पाकर अब मुझे गुस्से से घूर रहा है। मैं उसकी ओर देख कर विजयी मुस्कान मुस्कराता हूं। ‘‘मेरा पर्स मारना इतना आसान नहीं बच्चेवाला भाव मेरे चेहरे पर है और मुझे मुस्कराते देख अपनी इज़्ज़त रखने के लिये वह भी मुस्कराया है। वह अपनी भंगिमाओं से मुझे कहता हुआ दिख रहा है, ‘‘अगली बार नहीं बचेगा तुम्हारा पर्स’’। मैं उसकी मुस्कराहट से डर जाता हूं और अनायास ही मेरी हथेली अपनी अगली जेब पर होती है। पर्स सही सलामत है। ‘‘मेरा पर्स मारना बच्चों का खेल नहीं।’’ आज तक एक बार भी मेरी जेब नहीं कटी।

मैं बाइक से कहीं जा रहा होता हूं, मसलन घर से ऑफिस या ऑफिस से किसी काम से स्टेशन तो कभी-कभार एकाध लिफ्ट मांग रहे लोगों को अपनी बाइक की पिछली सीट पर बिठा लेता हूं। मुझे लोगों की मदद करना अच्छा लगता है। लेकिन उसके बैठते ही मुझे याद आता है कि शिट, मेरा पर्स तो पिछली ही जेब में है और अब मैं बाइक रोक कर पर्स निकाल कर अगली जेब में रखूं, यह अच्छा नहीं लगेगा। जब यह बैठा था तो मैं खड़े होने के बाद टेढ़ा होकर फिर बैठा था, उस एक पल के लिये मेरा ध्यान अपनी जेब से हटा था, अगर इसे मारना होगा तो इसने मेरा पर्स मार दिया होगा, होगा क्या, मार ही दिया लगता है। मैं अपने पर्स को महसूस करने के लिये बाइक की सीट पर पीछे की तरफ दाहिनी ओर झुकता हूं। अपना दाहिना नितम्ब सीट पर दबा कर महसूस करता हूं तो लगता है कि पर्स पीछे वाले जेब में सलामत है। लेकिन यह बात मैं सौ प्रतिशत निश्चित होकर नहीं कह सकता। हालांकि अस्सी प्रतिशत संभावना है कि पर्स जेब में ही है लेकिन बीस प्रतिशत इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसने बैठते ही पर्स मार लिया हो। शक्ल से स्कूली छात्र लगता है, मुझे अंकल कहा है लेकिन आजकल स्कूली छात्र ही तो सबसे ज़्यादा इन सब कामों में लगे रहते हैं। फैशन और नशे ने युवा पीढ़ी को बरबाद कर रखा है। मैं बहुत कम पीता हूं और अपने जीवन के बयालिस सालों में सिर्फ़ दो मौके ऐसे रहे हैं जब मैं पीकर होश खो बैठा हूं। वह भी कॉलेज टाइम की बात है, उस समय मेरे जीवन में कोई अनुशासन नहीं था। अब तो तीन पेग के बाद कोई दोस्ती की कसम देता देता मर जाये, मैं टस से मस नहीं हो सकता। मेरे विल पॉवर की कसमें खायी जाती हैं भाई साहब। 

‘‘अंकल यहीं रोक दीजिये। थैंक्यू अंकल।’’ कह कर लड़का जाने के लिये पलटा है। इधर लड़का पलटा है और उधर मेरी हथेली मेरी पिछली जेब तक पहुंची है। शिट ! पर्स सही सलामत मौजूद है। मुझे ख़ुद पर इस वक्त लोकल ट्रेन जैसी खुशी नहीं बल्कि शर्म सी महसूस हुयी है। एक अच्छा काम किया, अब उसका भी पुण्य मुझे नहीं मिलने वाला। एक बार शक कर मैंने अच्छे काम पर पानी फेर दिया हैं।

मेरी बगल से कोई भिखारी गुज़र जाये या फिर कोई सेल्समैन रास्ते में मुझसे टाइम पूछ कर आगे निकल जाये, छूटते ही मेरा हाथ जेब पर होता है। अगर आपको तुरंत पता चल जाये तो पॉकेट मारने वाले को आप दौड़ा कर पकड़ सकते हैं। आप हंसेंगे कि आज भी और आज से दस पंद्रह साल पहले भी, भीड़ में मुझे कोई लड़की टक्कर मार जाये तो मेरे दिमाग में तुरंत पिछले दिनों की अख़बार में पढ़ी ख़बर की कटिंग दौड़ जाती है कि आजकल महिला पॉकेटमारों का गिरोह काफी सक्रिय है। पंद्रह साल पहले वाली बात मैंने अपने चरित्र के बारे में बताने के लिये कही। उस उम्र में जब लड़के को लड़की के अलावा कोई और बात नहीं सूझती, मैंने कई लड़कियों से टकराने के बावजूद आज तक अपना पर्स नहीं खोया। मेरा ध्यान हमेशा पर्स पर रहता था। आपको विश्वास नहीं होगा कि मेरी पत्नी भी मेरी इस बात पर मेरा लोहा मानती है कि मेरी जेब में कितने रुपये पड़े हैं, चवन्नी की हद तक मुझे याद रहता है। अरे पचीस रुपये की ली थी मच्छर भगाने वाली अगरबत्ती, पच्चीस रुपये की दही, तीन रुपये का पान खाया था और पांच रुपये का अदरक धनिया खरीदा था, कुल हो गये अठावन रुपये तो जेब में बचे चार सौ बयालिस रुपये। अब श्रीमती जी अपना हुनर दिखाएंगीं तो मैं अगले दिन उनसे पूरे आत्मविश्वास से कहूंगा, ‘‘आपने मेरी जेब से एक सौ बयालिस रुपये निकाल लिये हैं वो वापस करिये।’’ उनके चेहरा देखने लायक होगा। इससे बचने के लिये शुरुआती ऐसे कुछ मौकों के बाद उन्होंने मेरे पर्स में हाथ डालना बंद कर दिया।
मेरी इस खूबी का सभी लोग लोहा मानते हैं लेकिन एक मेरे बचपन का दोस्त रासबिहारी है जो इसके लिये मुझे कोसता है। मैं इसके पीछे का कारण समझता हूं। वह बहुत गरीब परिवार से है। बेचारे के पिताजी एक सरकारी ऑफिस में चपरासी थे और कई भाई बहन होने के कारण इसकी मां और बहनों को पहले लिफाफे बनाने पड़ते थे। अब अपनी मेहनत से रासबिहारी ने बैंक में अच्छी नौकरी पायी है। उसने बहुत गरीबी देखी है और वह जीवन का आनंद लेना चाहता है। मैंने तो जीवन के बहुत आनंद लिये हैं। पत्नी को लेकर शादी के बाद घूमने कश्मीर भी गया था।




रासबिहारी मुझे कंजूस कहता है लेकिन दरअसल बात यह है कि मुझे कभी किसी चीज़ की कमी नहीं रही इसलिये मुझे किसी चीज़ की हाह ने नहीं पीट रखा है। मेरे पिता ने मुझे दसवीं और बारहवीं में नेपाल और भूटान घुमाया था, मैं कश्मीर घूम चुका हूं, अब कितनी जगहें देखेगा आदमी, हर जगह तो वही पहाड़ और नदियां होती हैं। कश्मीर इतनी खूबसूरत जगह है कि यहां घूमने के बाद आदमी इससे खूबसूरत जगह और कहां घूमेगा। श्रीमती जी मेरे इस तर्क पर नाराज़ हो जाती हैं और मुझे कंजूस कहने लगती हैं। वह रासबिहारी का उदाहरण देने लगती हैं जो साल भर इसलिये पैसे जुटाता है कि साल में वह अपने परिवार को एक बार कहीं घुमाने ले जा सके। अभी वह केरल घूम कर लौटा है और मेरी श्रीमती जी हैं कि उनके बेटे के कंप्यूटर पर नारियल के पेड़ों और समुद्र की तस्वीरें जब से देख कर आयी हैं, केरल जाने की जि़द लिये बैठी हैं। मैंने कुल खर्चा जोड़ा है, इतने में हम साल भर आराम से बिजली का बिल भर सकते हैं। इन औरतों को भी न भाई साहब सब कुछ देखा देखी करना होता है। मैं अपनी पत्नी को खुश करना जानता हूं। मैं उसे अपनी लक्ष्मी कहता हूं। जब से वह मेरी जि़ंदगी में आयी है, मेरा बैंक बैलेंस बढ़ता गया है। मैं आपको बता नहीं सकता क्योंकि पता नहीं कब कहां कोई बाहरवाला इस बात को सुन रहा हो। भले ही यह कहानी है और इसके लेखक ने मेरा किरदार तैयार किया है लेकिन सच कहूं भाई साहब मुझे सचमुच इतना डर लगता है कि मैं कहानी में भी नहीं बता सकता कि मेरे कितने बैंक खातों में कितनी रकम है, नहीं फुसफुसा कर भी नहीं। मैं इसे सोचने से भी डरता हूं कि कहीं किसी के पास यह बात टेलीपैथी के ज़रिये न पहुंच जाय।

‘‘तुम मेरी लक्ष्मी हो जान।’’ मैं पत्नी को मनाने का यत्न करता हूं। ‘‘उसकी पत्नी अगर घरबोरन है तो होने दो। उसे नहीं समझ कि भविष्य के लिये बचत करनी चाहिये लेकिन हम तो यह बात समझते हैं। सोचो अभी ईश्वर न करे उनके घर में कोई बीमार पड़ गया तो ? उनके पास इलाज के पैसे तक नहीं होंगे। हम भी घूमेंगे थोड़ी बचत तो कर लें।’’ मेरी पत्नी समझदार है। समझाने पर मान जाती है वरना मेरे कई दोस्तों की बीवियां जब से उनकी जि़ंदगी में आयी हैं, उनकी जि़ंदगी नर्क बन गयी है। रासबिहारी जैसा छुट्टा खर्च करने वाला है, उसकी बीवी भी दो कदम मिलाने वाली मिली है। मुझे अक्सर चिंता होने लगती है कि आखि़र उसकी दोनों संतानों की पढ़ाई लिखाई कैसे होगी ? आजकल की पढ़ाई लिखाई के बारे में तो आप जानते ही हैं, इतनी महंगी है कि आदमी बिक जाय।

इस बार तो रासबिहारी ने हद ही कर दी। अपने जन्मदिन पर सब दोस्तों को घुमाने रिषीकेश ले जायेगा। वह तो पूरे ऑफिस को ले जाने का प्लान बना रहा था लेकिन मणि और दिवाकर के समझाने पर तय रहा कि पुराने दोस्त चलेंगे यानि उनमें मैं भी हूंगा। मैं इस प्रकार की किसी भी बेवकूफी से दूर रहने का पूरा प्रयत्न करता हूं लेकिन ये पट्ठा रासबिहारी भी जि़द का पक्का है। पत्नी ने समझाया कि इतनी जि़द कर रहे हैं, रविवार पड़ भी रहा है उस दिन, घूम आइये, वैसे भी ऐसे तो आप जाने से रहे।’’ खैर, भाईसाहब, मैंने सोचा दोस्त का दिल क्या तोड़ूं, चला चलता हूं। श्रीमती जी ने मेरा बैग तैयार किया और मैंने अपने पैसे अंडरवियर समेत चार जगहों पर अलग अलग रख लिये। इसके बारे में आपकी भी मां ने आपको बताया ही होगा कि एक जगह का पैसा अगर चोरी हो जाय तो कम से कम दूसरी जगह का पैसा मुसीबत में मदद करे।

हम चारों की दिल्ली यात्रा सुखद रही। रास ने कहा था कि सारे बिल वह वहन करेगा इसलिये मैंने सोचा कि उसकी इच्छा पूरी होनी चाहिये, आखिर उसका जन्मदिन है। लेकिन मणि और दिवाकर ने वहां का बाकी का खर्चा ज़बरदस्ती अपने ऊपर ले लिया। अरे यार, उसका जन्मदिन है, वह जि़द कर रहा है तो करने दो खर्चा, मैंने उन दोनों की जि़द से खुद को अलग रखा। वे दोनों हंसने लगे, दिवाकर ने तो बद्तमीज़ी से यह भी कहा कि भाई तेरा तो मैं जोड़ कर चल ही रहा हूं। इस पर तीनों काफी देर तक हंसते रहे। मुझे बुरा नहीं लगा। अपने दोस्त है, यही तो मज़ाक उड़ाएंगे, पैसे की ज़रूरत जब हम चारों के सामने एक साथ आयेगी तो सबको पता चल ही जायेगा कि कौन कितने पानी में है।

अगले दिन घूमने का प्लान था। हम होटल से तय समय से निकल गये। रास्ते में दिवाकर ने गाड़ी रुकवा कर सबको नाश्ता कराया। नाश्ता कर हम पहाड़ों की ओर निकले। वहां रोपवे पर आनंद लेने की योजना बनी। रोपवे पर जाने के लिये टिकट कटवाने के बाद लाइन लगा कर ऊपर की ओर चढ़ना था। वहां थोड़ी भीड़ भी थी। हमने यात्रियों को चढ़ाने वाले भाई साहब से मनुहार किया कि हम चारों दोस्तों को एक ही साथ जाने का मौका दिया जाय। वह भला आदमी था। दो लोगों का नंबर हमसे पहले था, उसने उन्हें रोक कर हम चारों को एक साथ एक ही झूले में जाने का मौका दिया। 

झूला अपनी गति से चल रहा था और नीचे अंनत अथाह दूरी पर दिख रही थी ज़मीन। मैंने नीचे की ओर देखा तो मुझे झांईं सी आने लगी। मैंने नज़रें ऊपर कर लीं। मैं भी पहाड़ों की ओर देखने लगा जहां कि तस्वीरें मणि धड़ाधड़ लिये जा रहा था। मणि बाकायदा खड़े होकर तस्वीरें ले रहा था। वह वाकई बहुत साहसी है। रासबिहारी बैठे-बैठे पहाडों को बडे़ प्यार से देख रहा था। पता नहीं उसे क्या ख़ूबसूरती नज़र आ रही थी। उसके चेहरे से यह भी लग रहा था कि वह बड़ा भावुक हो रहा है। दिवाकर के चेहरे पर भी ऐसे ही भाव थे। मैंने देखा पहाड़ों के ऊपर बादल थे। पहाड़ों के ऊपर बादल ही तो होंगे कोई नदी थोड़ी होगी। पता नहीं रासबिहारी क्या देख रहा था कि अचानक वह उत्तेजना में झूला पकड़ कर खड़ा हो गया, ‘‘वो देख दिवाकर इंद्रधनुष !’’ आवाज़ सुनकर मणि ने भी सिर घुमाया। उसने एक बार कैमरा हटा कर देखा फिर कैमरा आंख पर लगा ही नहीं पाया।

‘‘अद्भुत सुंदर है यार ! और कितना करीब। लगता है हम इसे हाथ से छू सकते हैं।’’ मणि ने मुग्ध भाव से कहा। कैमरा उसने गले में लटका लिया। उसने कैमरे के लेंस का कवर पिछली जेब से निकाला ताकि कैमरे का लेंस बंद कर उसे थोड़ी देर का विराम दे। अचानक पिछली जेब से उसका पर्स उसकी हथेली के साथ सरक कर बाहर आया और गिर गया। मैंने पूरे चौकन्नेपन के साथ खुद को संभाले हुये एक झपट्टा मारा कि गिरते पर्स को पकड़ सकूं लेकिन पर्स की गति मेरी गति से अधिक थी क्योंकि उसका वज़न कम था। किसी भी चीज़ का वजन कम हो तो उसकी गति अधिक होती ही है। मेरे मुंह से चीख निकल गयी। ‘‘ओह तुम्हारा पर्स !’’ मणि चौंक गया। उसने पलट कर नीचे की ओर देखा। उसका पर्स हवा में गोते खाता नीचे की ओर जा रहा था। उसमें से कुछ कागज़ भी निकल कर बाहर उड़ रहे थे। मणि ने दुखी भाव से नज़र ऊपर उठा कर मेरी ओर देखा। उसके चेहरे पर दुख की रेखाएं थीं। उसने जल्दी से अपनी पैण्ट की जेब में हाथ डाला और जब उसका पंजा बाहर आया तो उसकी उंगलियों में कुछ सौ और पांच सौ के नोट फंसे हुये थे। उसने फिर से चेहरे पर दुख लिये एक बार नीचे की ओर देखा जहां उसका पर्स अब नज़रों से ओझल होने वाली सीमा पर था। ‘‘अच्छा हुआ जो ये पैसे मैंने आलसवश पर्स में नहीं डाले थे, भाई इसे तू रखे रह, इस काम के लिये सबसे सही आदमी है तू। मैं बहुत लापरवाह हूं यार।’’ मैंने उसकी अमानत अपने पास सुरक्षित की। यह जि़म्मेदारी मेरे लिये एक तरह से मेरे चौकन्नेपन का सम्मान है। मेरे दोस्त भले मुक्त कंठ से इस बात को स्वीकार न करें लेकिन इसी बात के लिये मेरी कद्र तो करते ही हैं। मैं उसके पैसे अपने पर्स में एक तरफ सुरक्षित कर ही रहा था कि वह फिर से रासबिहारी के पास जाकर इंद्रधनुष देखने लगा। 

‘‘इसका पर्स गिर गया भाइयों नीचे।’’ मैंने रासबिहारी को सुना कर कहा। उसने एक बार मेरी ओर देखा और कहा, ‘‘ओह।’’ और फिर से इंद्रधनुष देखने लगा। ‘‘अबे इसका पर्स गिर गया और तुम लोगों को कोई परवाह ही नहीं है।’’ मैंने थोड़ी ऊंची आवाज़ में कहा तो मणि ने पलट कर संक्षिप्त जवाब दिया और फिर उसी ओर देखने लगा, ‘‘अरे आरटीओ में मेरा परिचित है, डीएल दुबारा बन जायेगा, कार्ड ब्लॉक करा दूंगा, कैश ज़्यादा था नहीं।’’

मुझे आश्चर्य हुआ कि यह पर्स गिर जाने जैसी बड़ी घटना को इतना छोटा करके क्यों देख रहा है। फिर मुझे लगा कि ये लोग मेरा इतना मज़ा लिया करते हैं कि इसी संकोच में वह ज़्यादा चिंता दिखा नहीं सकता, अंदर से तो परेशान होगा ही। मुझे लगा जिस फालतू काम में सब खुद को इतना व्यस्त दिखा रहे हैं उसमें मुझे भी अपना उत्साह दिखाना चाहिये। मैंने दोनों हाथों से झूले को मज़बूती से पकड़ा और दूसरी ओर यानि रासबिहारी की ओर जाने लगा। रासबिहारी ने मुझे रुकने का इशारा किया और खुद मेरी तरफ आ गया ताकि झूले का वज़न बराबर रहे। मैं मणि और दिवाकर के पास जाकर इंद्रधनुष देखने की कोशिश करने लगा।

‘‘कहां हैं इंद्रधनुष?’’ मैंने मणि से पूछा। उसने भौंहों से सामने की ओर इशारा किया और फिर मुग्ध-भाव से उसी ओर देखने लगा। मैंने फिर से देखने की कोशिश की। आसमान साफ था और लगता था जैसे किसी ने सूखी रेत बिखेर दी हो। मुझे कुछ दिखायी नहीं दिया। ‘‘कहां है, मुझे तो नहीं दिख रहा।’’ मैंने हर तरफ गर्दन घुमायी, मुझे सात रंग क्या एक भी रंग दिखायी नहीं दिया। 

मैंने रासबिहारी की ओर देखा और अपना सवाल दोहराया। उसने भी उंगली से जिस ओर इशारा किया उधर कुछ नहीं था। वे सब मेरे लिये चिंतित होने लगे। ये चिंता करने वाले भी कैसी कैसी बातों पर चिंता करने लगते हैं। अरे ठीक है यार, मुझे नहीं दिखायी दे रहा है उधर क्या है। मुझे लग रहा है उधर कुछ नहीं है तो दिक्कत क्या है ? और उधर कुछ होता भी तो क्या हो जाता, इंद्रधनुष ही है न, मैंने कितनी ही बार देखा है।

मुझे लगता है मेरी दृष्टि कमज़ोर हो गयी है। वापस जा कर पहला काम यही करुंगा कि नेत्र विशेषज्ञ डॉ. अनिल से अपनी आंख चेक कराउंगा । परिचित हैं, फीस लेंगे नहीं और दवाइयां पड़ोसी के एमआर से कह दूंगा कि दे जाये।

हर बात को ले कर चौकन्ना रहता हूं भाई साहब। यह मेरे चौकन्नेपन का ही नमूना है कि समस्या आयी नहीं कि मेरे पास उसका निदान मौजूद रहता है।

(अनहद - 5 से साभार) 

(कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'