उमाशंकर सिंह परमार का आलेख 'हिंदी भाषा का विकास और लोक की भूमिका'
मनुष्य दुनिया का एक मात्र प्राणी है जिसने आपसी संवाद के लिए भाषा ईजाद किया है. यह भाषा भी एक-दो दिन में या अचानक ही नहीं बन गयी अपितु इसके बनने में एक लम्बा समय लगा. किसी भी भाषा के विकास में लोक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. धीरे-धीरे अभिजात वर्ग जब इसे व्याकरणिक नियमों उपनियमों से घेरने-बाँधने लगता है तब भाषा क्लिष्ट होती चली जाती है. भाषा खासकर हिन्दी की विकास यात्रा पर एक रोचक नजर डाली है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने अपने आलेख 'हिन्दी भाषा का विकास और लोक की भूमिका' में. आइए पढ़ते हैं यह आलेख.
हिंदी भाषा
का विकास और लोक की भूमिका
उमाशंकर सिंह परमार
भाषा एक सामाजिक क्रिया है। वह किसी एक व्यक्ति की निजी
अभिव्यक्ति नहीं है, समाज में आपसी विचार-विनिमय का सामूहिक माध्यम है। यह कहा जा
सकता है की “मनुष्य और मनुष्य के बीच अपने अभिमत और इच्छा की अभिव्यक्ति हेतु
प्रयुक्त किये गए ध्वनि व संकेत भाषा संज्ञा से अभिहित किये जातें हैं”। इच्छा के अंतर्गत विशाल जन-समुदाय के विचारों का भी समावेश होता है, और विचार
समाज सापेक्ष्य ही होते हैं उनका कोई न कोई प्रयोजन होता है। कालांतर में यही
विचार विहंगम जन-समुदाय का चरित्र बन जाते हैं। अत: सैद्धांतिक रूप से भी भाषा को
किसी वर्ग विशेष की आदतों व चरित्र से नहीं जोड़ा जा सकता है। यह बात दीगर है
इतिहास और अन्य सामाजिक विज्ञानों की तरह भाषा का भी विकास ‘द्वंदात्मक-प्रक्रिया”
से ही होता है। किसी खास वर्ग का चरित्र द्वंद में एक पक्ष हो सकता है, पर पूरे
समुदाय का चरित्र नहीं बन सकता। पूरे समुदाय का चरित्र बनने के लिए द्वंदात्मक
टकरावों से गुजरते हुए किसी भी वाद को “संवाद” की स्थिति में आना पड़ेगा यही इतिहास
का तकाज़ा है समाज के मूलभूत परिवर्तनों का तकाज़ा है।
भाषा के विकास का अध्ययन
समाज के वर्गीय-विभेदों के आलोक में ही किया जा सकता है। बगैर वर्गीय-चरित्र को
बूझे हुए हम भाषाई विकास के सूत्र नहीं खोज सकते हैं। जिस प्रकार वैचारिक एवं
सांस्कृतिक विकास का मूल उत्स विद्यमान “वर्गीय-द्वंद” है उसी प्रकार भाषाई विकास
और उत्पत्ति का भी मूलाधार यही अंतर्द्वंद है।
यह सच है कि जन-समूह का श्रम ही समस्त मानवीय अभिव्यक्तियों का उत्पादक है। सभी विचारों का जन्मदाता है। इन विचारों को प्रेषित करने के लिए मेहनत-कश वर्ग अपनी एक भाषा गढ़ता है। यह भाषा विशाल जन-समुदाय के मध्य कलात्मक सृजन का आधार होती है। यह भाषा उत्पादक समुदाय की भाषा से अलग होती है। उत्पादक समुदाय की भाषा और उनके द्वारा सृजित मूल्य आम जन के विरुद्ध होते हैं। उसमें वो शक्ति नहीं होती जिससे जन-समुदाय अपने मूल्यों व संस्कृति को सहेज सके। अस्तु अभिजन और लोक के मध्य कभी भी भाषाई एकरूपता नहीं रही। अभिजन और लोक आर्थिक–सांस्कृतिक अलगाव के साथ-साथ भाषाई रूप में अलग ही रहे। दोनों का अपना साहित्य रहा, अपनी भाषा रही, अपनी संस्कृति रही, दोनों संस्कृतियों का आपसी टकराव भी रहा। उत्पादक स्वामी वर्ग की सबसे बड़ी खासियत है कि वो सर्वाधिकारवादी होता है। आर्थिक संसाधनों के साथ ही वो सम्पूर्ण सांस्कृतिक उपागमों को भी अपने स्वामित्व में रखना चाहता है। उसका यही चरित्र “वर्गीय-द्वंद” को जन्म देता है। भाषा की उत्पत्ति में प्रयुक्त “भाषायी मरण” का सिद्धांत इसी वर्गीय द्वंद का वैज्ञानिक अभिकथन है। यह सिद्धांत भाषाई सृजन और सामाजीकरण का वस्तुपरक रेखांकन है। भाषा की उत्पत्ति में अभिजन और लोक की भूमिका का समुचित मूल्यांकन है। लोक की ऐतिहासिक भूमिका को कमतर आंकने के लिए पूंजीवादी भाषा–वैज्ञानिकों ने “भाषाई मरण” के सिद्धांत को हमेशा नकारा है क्योंकि भाषा की उत्पत्ति में लोक की भूमिका को नज़र अंदाज़ करके ही अभिजन-वर्ग के मंसूबों को भाषा के जातिगत चरित्र पर थोपा जा सकता है। और लोक द्वारा सृजित वर्ग-चेतन मूल्यों को नष्ट किया जा सकता है। अभिजन वर्ग की तमाम साजिशों और नकारात्मक वृत्तियों के बावजूद भी इतिहास को नकारा नहीं जा सकता, जब भी हिंदी के विकास की चर्चा होती है तो लोक अपनी पूर्ण सत्ता के साथ भाषाई उत्पादन-भूमि के रूप में स्थापित मिलता है।
यह सच है कि जन-समूह का श्रम ही समस्त मानवीय अभिव्यक्तियों का उत्पादक है। सभी विचारों का जन्मदाता है। इन विचारों को प्रेषित करने के लिए मेहनत-कश वर्ग अपनी एक भाषा गढ़ता है। यह भाषा विशाल जन-समुदाय के मध्य कलात्मक सृजन का आधार होती है। यह भाषा उत्पादक समुदाय की भाषा से अलग होती है। उत्पादक समुदाय की भाषा और उनके द्वारा सृजित मूल्य आम जन के विरुद्ध होते हैं। उसमें वो शक्ति नहीं होती जिससे जन-समुदाय अपने मूल्यों व संस्कृति को सहेज सके। अस्तु अभिजन और लोक के मध्य कभी भी भाषाई एकरूपता नहीं रही। अभिजन और लोक आर्थिक–सांस्कृतिक अलगाव के साथ-साथ भाषाई रूप में अलग ही रहे। दोनों का अपना साहित्य रहा, अपनी भाषा रही, अपनी संस्कृति रही, दोनों संस्कृतियों का आपसी टकराव भी रहा। उत्पादक स्वामी वर्ग की सबसे बड़ी खासियत है कि वो सर्वाधिकारवादी होता है। आर्थिक संसाधनों के साथ ही वो सम्पूर्ण सांस्कृतिक उपागमों को भी अपने स्वामित्व में रखना चाहता है। उसका यही चरित्र “वर्गीय-द्वंद” को जन्म देता है। भाषा की उत्पत्ति में प्रयुक्त “भाषायी मरण” का सिद्धांत इसी वर्गीय द्वंद का वैज्ञानिक अभिकथन है। यह सिद्धांत भाषाई सृजन और सामाजीकरण का वस्तुपरक रेखांकन है। भाषा की उत्पत्ति में अभिजन और लोक की भूमिका का समुचित मूल्यांकन है। लोक की ऐतिहासिक भूमिका को कमतर आंकने के लिए पूंजीवादी भाषा–वैज्ञानिकों ने “भाषाई मरण” के सिद्धांत को हमेशा नकारा है क्योंकि भाषा की उत्पत्ति में लोक की भूमिका को नज़र अंदाज़ करके ही अभिजन-वर्ग के मंसूबों को भाषा के जातिगत चरित्र पर थोपा जा सकता है। और लोक द्वारा सृजित वर्ग-चेतन मूल्यों को नष्ट किया जा सकता है। अभिजन वर्ग की तमाम साजिशों और नकारात्मक वृत्तियों के बावजूद भी इतिहास को नकारा नहीं जा सकता, जब भी हिंदी के विकास की चर्चा होती है तो लोक अपनी पूर्ण सत्ता के साथ भाषाई उत्पादन-भूमि के रूप में स्थापित मिलता है।
भाषा नदी की तरह
प्रवाहमान है। भाषा के अपने गुण और स्वभाव होते हैं। जो जनसमुदाय का सांस्कृतिक
स्वभाव होता है, यही भाषा की प्रकृति होती है। इस प्रकृति का उपार्जन भाषा अपने
पूर्ववर्ती इतिहास से करती है। इस प्रकार भाषा परम्परागत और उपार्जित दोनों
प्रक्रियाओं का समुच्चय होती है। जाहिर है कि यह समुच्चय भौगोलिक व जातीय
संस्कारों की सृजनात्मक परिणिति है। अत: विश्व में भौगोलिक विभेदों के साथ-साथ
भाषाई विभेद भी पाए जाते हैं। विभिन्न प्रकार की भाषाएँ, संस्कृतियाँ, विश्व के
अलग-अलग हिस्सों में लोक और अभिजन के मध्य विद्यमान अंत:संघर्षों का परिणाम है।
जैसा कि मैंने ऊपर बताया है कि अभिजन वर्ग की आदतें व सांस्कृतिक सरोकार जन
सामान्य से भिन्न होते हैं। जब बुर्जुवा-वर्ग लोक की सांस्कृतिक सरंचनाओं में
काबिज़ हो जाता है तो लोक अपने लिए एक नयी संस्कृति की खोज कर लेता है। इस नयी
संस्कृति का वर्ग-चरित्र बुर्जुवा वर्ग-चरित्र से पूर्णतया भिन्न होता है इस
सांस्कृतिक “अन्वेषण” में भाषा का अहम् स्थान है। क्योंकि भाषा ही वह माध्यम है
जिसमे सम्पूर्ण सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखा जा सकता है।
कोई भी भाषा व्यापक जनसमुदाय के आपसी व्यवहार से उत्पन्न होती है। वहीं विकास करती है, वहीँ से उर्जा अर्जित करती है। जब यह जनभाषा सत्ता और शक्ति पोषित अभिजन के संपर्क में आती है तो अपनी सहजता को खो कर कठोर व्याकरणिक नियमों में आबद्ध होने लगती है। यह संकुचन भाषा को विद्वानों और पंडितों की भाषा बना देता है। इस तरह भाषा जन समुदाय की समझ और संवेदना से दूर होती चली जाती है। कालांतर में भाषा केवल पढ़े-लिखे और सत्ता के इर्द-गिर्द बैठे अभिजन वर्ग की भाषा बन कर रह जाती है और लोक अपनी अभिव्यक्ति हेतु एक नयी भाषा की खोज कर लेता है। भाषा का नियमो में आबद्ध होना व विशिष्ट जन के बीच सीमित हो जाना ही लोक द्वारा नयी खोज का कारण बनता है। भाषा का जन-समुदाय से दूर होना ही “भाषा की मृत्यु” है। जिन्दा भाषा वह है जो आम-प्रचलन में हो। यही कारण है कि हमारे देश में भी एक ही समय, एक ही भू-भाग पर, दो भाषाओँ का प्रयोग होता रहा। एक भाषा जो अभिजन वर्ग की भाषा रही और दूसरी भाषा जो आम जनता की भाषा रही। आम जनता की भाषा ही कालांतर में बुर्जुवा वर्ग की भाषा बनती है और भाषाई मृत्यु को प्राप्त होती है। यही है “भाषायी मरण” का सिद्धांत, यह सिद्धांत समस्त आर्य –भाषाओँ के विकास में लागू होता है और हिंदी के विकास में भी लागू होता है।
हिंदी का वर्तमान स्वरूप एक क्षण की देन नहीं है, अपितु सदियों से चल रहे भाषाई लोक द्वंद का नतीजा है। हिंदी का वर्तमान स्वरूप तमाम भाषाई संघर्षो में लोक की भूमिका का जीवंत उदाहरण है। अभिजन और लोक के मध्य इस भाषागत द्वंद को नकारा नहीं जा सकता। इसको नकारने का आशय होगा कि हम भाषा के विकास में एतिहासिक तकाजों को नकार रहे हैं।
चित्रात्मक और संकेतात्मक भाषा को छोड़ दिया जाय तो “वैदिक संस्कृत” पहली भाषा है जो संगठित स्वरूप में हमारे सामने उपस्थित होती है। वैदिक संस्कृत उत्तर वैदिक काल तक अभिजन-वर्ग की भाषा बन गयी। तब जन-सामान्य में प्रयुक्त भाषा “लोकिक संस्कृत” कहलाई। वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में अपने स्वरूप को लेकर काफी अंतर है। जब लौकिक संस्कृत व्याकरणिक नियमों व विधि-निषेधों को वहां करने लगी व सत्ताधारी सामंतों और पुरोहितों की भाषा बन गयी तो “लोक” ने अपनी अभिव्यक्ति हेतु “प्राकृत” और अपभ्रंश का प्रयोग शुरू किया। शीघ्र ही प्राकृत और अपभ्रंश भी नियमों और विधि-निषेधों की संवाहक हो गयीं तब लोक ने “अवहट्ट” या 'पुरानी हिंदी' में अपनी अभिव्यक्ति की। जाहिर है एक के बाद एक भाषा आती गयी, रूढ़ होती गयी, जैसे-जैसे भाषा पर अभिजन काबिज़ होते गए वैसे वैसे लोक ने पुरानी भाषा से भी सहज और परिष्कृत भाषा की खोज की। लोक ने अभिजन भाषा के खिलाफ जन-भाषा की खोज में पुरानी भाषा को नकारते हुए भी प्रगतिशील तत्त्वों को नयी भाषा में सहेजा, और “बहते नीर” के मुहावरे को सार्थक करते हुए सामंती विचारों व संस्कृति को नकारा। हिंदी का वह स्वरूप जो आज हमारे सामने उपस्थित है इसका विकास सरल-रेखीय गति से नहीं हुआ। इसके पीछे लोक और अभिजन के संघर्षों का इतिहास है। तमाम मतों, विचारों, भाषाओँ, संस्कृतियों का पारस्परिक समूहन है।
कोई भी भाषा व्यापक जनसमुदाय के आपसी व्यवहार से उत्पन्न होती है। वहीं विकास करती है, वहीँ से उर्जा अर्जित करती है। जब यह जनभाषा सत्ता और शक्ति पोषित अभिजन के संपर्क में आती है तो अपनी सहजता को खो कर कठोर व्याकरणिक नियमों में आबद्ध होने लगती है। यह संकुचन भाषा को विद्वानों और पंडितों की भाषा बना देता है। इस तरह भाषा जन समुदाय की समझ और संवेदना से दूर होती चली जाती है। कालांतर में भाषा केवल पढ़े-लिखे और सत्ता के इर्द-गिर्द बैठे अभिजन वर्ग की भाषा बन कर रह जाती है और लोक अपनी अभिव्यक्ति हेतु एक नयी भाषा की खोज कर लेता है। भाषा का नियमो में आबद्ध होना व विशिष्ट जन के बीच सीमित हो जाना ही लोक द्वारा नयी खोज का कारण बनता है। भाषा का जन-समुदाय से दूर होना ही “भाषा की मृत्यु” है। जिन्दा भाषा वह है जो आम-प्रचलन में हो। यही कारण है कि हमारे देश में भी एक ही समय, एक ही भू-भाग पर, दो भाषाओँ का प्रयोग होता रहा। एक भाषा जो अभिजन वर्ग की भाषा रही और दूसरी भाषा जो आम जनता की भाषा रही। आम जनता की भाषा ही कालांतर में बुर्जुवा वर्ग की भाषा बनती है और भाषाई मृत्यु को प्राप्त होती है। यही है “भाषायी मरण” का सिद्धांत, यह सिद्धांत समस्त आर्य –भाषाओँ के विकास में लागू होता है और हिंदी के विकास में भी लागू होता है।
हिंदी का वर्तमान स्वरूप एक क्षण की देन नहीं है, अपितु सदियों से चल रहे भाषाई लोक द्वंद का नतीजा है। हिंदी का वर्तमान स्वरूप तमाम भाषाई संघर्षो में लोक की भूमिका का जीवंत उदाहरण है। अभिजन और लोक के मध्य इस भाषागत द्वंद को नकारा नहीं जा सकता। इसको नकारने का आशय होगा कि हम भाषा के विकास में एतिहासिक तकाजों को नकार रहे हैं।
चित्रात्मक और संकेतात्मक भाषा को छोड़ दिया जाय तो “वैदिक संस्कृत” पहली भाषा है जो संगठित स्वरूप में हमारे सामने उपस्थित होती है। वैदिक संस्कृत उत्तर वैदिक काल तक अभिजन-वर्ग की भाषा बन गयी। तब जन-सामान्य में प्रयुक्त भाषा “लोकिक संस्कृत” कहलाई। वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में अपने स्वरूप को लेकर काफी अंतर है। जब लौकिक संस्कृत व्याकरणिक नियमों व विधि-निषेधों को वहां करने लगी व सत्ताधारी सामंतों और पुरोहितों की भाषा बन गयी तो “लोक” ने अपनी अभिव्यक्ति हेतु “प्राकृत” और अपभ्रंश का प्रयोग शुरू किया। शीघ्र ही प्राकृत और अपभ्रंश भी नियमों और विधि-निषेधों की संवाहक हो गयीं तब लोक ने “अवहट्ट” या 'पुरानी हिंदी' में अपनी अभिव्यक्ति की। जाहिर है एक के बाद एक भाषा आती गयी, रूढ़ होती गयी, जैसे-जैसे भाषा पर अभिजन काबिज़ होते गए वैसे वैसे लोक ने पुरानी भाषा से भी सहज और परिष्कृत भाषा की खोज की। लोक ने अभिजन भाषा के खिलाफ जन-भाषा की खोज में पुरानी भाषा को नकारते हुए भी प्रगतिशील तत्त्वों को नयी भाषा में सहेजा, और “बहते नीर” के मुहावरे को सार्थक करते हुए सामंती विचारों व संस्कृति को नकारा। हिंदी का वह स्वरूप जो आज हमारे सामने उपस्थित है इसका विकास सरल-रेखीय गति से नहीं हुआ। इसके पीछे लोक और अभिजन के संघर्षों का इतिहास है। तमाम मतों, विचारों, भाषाओँ, संस्कृतियों का पारस्परिक समूहन है।
वैदिक साहित्य
मूल रूप में धर्म-प्रधान साहित्य है। देवताओं की उपासना और उनका पूजन यज्ञ, कमनीय
स्तुतियाँ, इस साहित्य की मुख्य विशेषता है। इसमें आम लोक जीवन का सर्वथा अभाव ही
दिखता है। वैदिक संस्कृत जन-भाषा रही या नहीं यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है पर
इतना जरूर कहना चाहूँगा कि वैदिक संस्कृत अपने उच्चारण, और पाठन के कठिन नियमों से
आम जनता के बीच लोकप्रिय नहीं रही। यदि यह भाषा जन-भाषा रही होती तो इसमें धर्म–उपासना
की प्रधानता नहीं होती। वेदों में आम जन जीवन के चित्र भी उपस्थित होते जैसा कि
लौकिक संस्कृत में है। लौकिक संस्कृत का नाम ही सिद्ध कर देता है कि यह आम जनता
की भाषा थी महाभारत में “वैदिकाच्च वैदिक: लोकाच्च लौकिक:” कह कर दोनों भाषाओँ के वर्गीय स्वरूप का संकेत कर
दिया गया है।
यास्क ने भी वैदिक भाषा को लोक भाषा से श्रेष्ठ कहा है। इसका अर्थ है की वैदिक भाषा पुरोहित और राजाओं की भाषा थी और संस्कृत आम जनता की भाषा थी। इसीलिए वैदिक नीतिकार संस्कृत को “लौकिक” कह कर निंदा करते रहे। यास्क के निरुक्त में वैदिक संस्कृत से भिन्न भाषा जो आम-जनता के बीच बोल-चाल में प्रयुक्त होती थी स्थान-स्थान उसे “लोक भाषा” कहा गया है। वैदिक कृदंत शब्दों की व्युत्पत्ति में उन धातुओं का प्रयोग किया है जो लोक-व्यवहार में प्रचलित थे। “भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नैगम:कृतो भाष्यंते” अर्थात मैं भाषाई धातुओं से भाष्य लिख रहा हूँ। इससे सिद्ध है कि वैदिक संस्कृत मात्र पुरोहितों और सामंतों की भाषा थी। आम जनता के लोकव्यवहार में लोकिक संस्कृत का प्रयोग होता था। संस्कृत वैदिक संस्कृत की तरह केवल धार्मिक नहीं रही उसमें जनरंजन और और लोकवृत्तों का भी उपयोग हुआ। प्राचीन संस्कृत में तो कई नाटक ऐसे मिलते है जिसमें आम जन जीवन का जीवंत वर्णन है। यही नहीं कहीं-कहीं तो वैदिक संस्कृत की स्थापित परम्पराओं का खुल कर विरोध भी किया गया है। इस दृष्टि से शूद्रक का “मृच्छकटिकम” उल्लेखनीय है। इस नाटक में नायक किसी राजा-महाराजा को न बना कर एक आम गरीब ब्राह्मण 'चारुदत्त' को बनाया गया है और नायिका एक सामान्य सी वेश्या 'बसंतसेना' को बनाया गया है। पतंजलि के महाभाष्य में तत्कालीन मुहावरों का उल्लेख आया है जो आज भी हिंदी की लोक-भाषाओँ में प्रचलित है। जैसे “पृष्ठ कुरु पादौ कुरु” का हूबहू भोजपुरी अनुवाद “गोडों कईली मूड़ों कईली” जैसा मुहावरा मिलता है। प्राचीन संस्कृत के ऐसे तमाम वाक्य-खंड आज भी लोक-जीवन में प्रचलित मिल जाते हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि वैदिक संस्कृत जब अभिजन वर्ग की भाषा थी तो लौकिक संस्कृत आम जन जीवन में रच-बस गयी थी। यही कारण है कि वैदिक संस्कृत के आचार्यों ने लौकिक संस्कृत को कमतर करके आँका है।
यास्क ने भी वैदिक भाषा को लोक भाषा से श्रेष्ठ कहा है। इसका अर्थ है की वैदिक भाषा पुरोहित और राजाओं की भाषा थी और संस्कृत आम जनता की भाषा थी। इसीलिए वैदिक नीतिकार संस्कृत को “लौकिक” कह कर निंदा करते रहे। यास्क के निरुक्त में वैदिक संस्कृत से भिन्न भाषा जो आम-जनता के बीच बोल-चाल में प्रयुक्त होती थी स्थान-स्थान उसे “लोक भाषा” कहा गया है। वैदिक कृदंत शब्दों की व्युत्पत्ति में उन धातुओं का प्रयोग किया है जो लोक-व्यवहार में प्रचलित थे। “भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नैगम:कृतो भाष्यंते” अर्थात मैं भाषाई धातुओं से भाष्य लिख रहा हूँ। इससे सिद्ध है कि वैदिक संस्कृत मात्र पुरोहितों और सामंतों की भाषा थी। आम जनता के लोकव्यवहार में लोकिक संस्कृत का प्रयोग होता था। संस्कृत वैदिक संस्कृत की तरह केवल धार्मिक नहीं रही उसमें जनरंजन और और लोकवृत्तों का भी उपयोग हुआ। प्राचीन संस्कृत में तो कई नाटक ऐसे मिलते है जिसमें आम जन जीवन का जीवंत वर्णन है। यही नहीं कहीं-कहीं तो वैदिक संस्कृत की स्थापित परम्पराओं का खुल कर विरोध भी किया गया है। इस दृष्टि से शूद्रक का “मृच्छकटिकम” उल्लेखनीय है। इस नाटक में नायक किसी राजा-महाराजा को न बना कर एक आम गरीब ब्राह्मण 'चारुदत्त' को बनाया गया है और नायिका एक सामान्य सी वेश्या 'बसंतसेना' को बनाया गया है। पतंजलि के महाभाष्य में तत्कालीन मुहावरों का उल्लेख आया है जो आज भी हिंदी की लोक-भाषाओँ में प्रचलित है। जैसे “पृष्ठ कुरु पादौ कुरु” का हूबहू भोजपुरी अनुवाद “गोडों कईली मूड़ों कईली” जैसा मुहावरा मिलता है। प्राचीन संस्कृत के ऐसे तमाम वाक्य-खंड आज भी लोक-जीवन में प्रचलित मिल जाते हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि वैदिक संस्कृत जब अभिजन वर्ग की भाषा थी तो लौकिक संस्कृत आम जन जीवन में रच-बस गयी थी। यही कारण है कि वैदिक संस्कृत के आचार्यों ने लौकिक संस्कृत को कमतर करके आँका है।
संस्कृत का यह
लोकजीवी स्वरूप अधिक दिनों तक नही रहा। पाणिनि और कात्यायन जैसे व्याकरणाचार्यों
ने संस्कृत के बिगड़ते हुए स्वरूप का परिष्कार करने के बहाने से इसका परिमार्जन और
संस्कार किया जिससे यह नियमबद्ध और पांडित्यपूर्ण हो गयी। इस तरह संस्कृत धीरे-धीरे लोक-जीवन से
दूर हटने लगी। कोरे उपदेश, गूढ़ –दर्शन, सूत्र-साहित्य इत्यादि की व्याख्या में
संस्कृत के आचार्यों ने अपनी सारी उर्जा
झोंक दी जिसका प्रतिफल यह हुआ कि संस्कृत जो कभी आम जन की भाषा थी, विद्वानों और पंडितों
की भाषा बन कर रह गयी। बाद के सत्ताधारी राजाओं ने तो बाकायदा अपने मनोरंजन हेतु इसी
भाषा में कठिन आलंकारिक काव्य लिखवाये। सामंती सत्ता को बरक़रार रखने के लिए स्मृति
शास्त्र जैसी जनविरोधी रचनाएँ लिखी-लिखवायी गयीं। वैदिक आचार्यों ने संस्कृत की तीखी आलोचना कहीं नहीं की पर संस्कृत आचार्यों ने तो
“देशी भाषाओँ” की आलोचना में मर्यादा की सारी हदें तोड़ दीं। इसका मूल कारण था कि
संस्कृत उच्च-वर्गीय सामन्ती वर्ग की भाषा बन चुकी थी और जिन भाषाओँ को उन्होंने गाली दी
है वे भाषाएँ आम लोक जीवन में जनभाषा का रूप धारण कर चुकी थीं। अत: अभिजन द्वारा
लोक-भाषा और लोक-जीवन की आलोचना कोई नयी बात नहीं है। क्योंकि बुर्जुवा शक्तियां कभी भी
लोक-सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकती हैं और लोक तमाम संघर्षों के बाद भी बुर्जुवा
संस्कृति का वाहक नहीं हो सकता। संस्कृत और लोक-भाषाओँ के आपसी द्वंद के मूल में
अभिजन का यही वर्ग-चरित्र रहा है।
लगभग ५०० ई. पू. से
१००० ईस्वी तक जब संस्कृत और वैदिक संस्कृत राज-सत्ता के इर्द-गिर्द अपना विकास कर
रही थी इसी काल में आम जन समुदाय एक और लोकभाषा का विकास कर रहा था। जब तक
संस्कृत का साम्राज्य स्थापित रहा तब तक यह लोक-भाषा बोलचाल की भाषा के रूप में दबी
पडी रही। संस्कृत के पूर्ण अभिजात्य होते ही अपना अनुकूल समय पाकर इस लोकभाषा ने
अपना सर उठाया। इस लोकभाषा का विकसित स्वरूप “प्राकृत” कहलाया। इस भाषा का पहला
विकास “पालि” के रूप में सामने आया और दूसरा विकास अनेक प्रकार की प्राकृतों के
रूप में हुआ अपनी अंतिम अवस्था में प्राकृत ने अपभ्रंशों का विकास किया। पालि पहली
देश-भाषा थी जिसका मुकम्मल साहित्य मिलता है। इसको पुरानी प्राकृत भी कहते हैं। ब्राह्मणवाद और धार्मिक अतिशयता का प्रतीक बन चुकी संस्कृत के विरुद्ध बौद्धों ने
पालि को ही अपनाया और सामंतवादी विचारों
का प्रतिरोध करते हुए पालि को जन-जन के बीच प्रचारित किया। पालि में तत्कालीन अनेक
भाषाओँ के तत्व वर्तमान हैं। इस भाषा में संस्कृत के शिष्ट शब्दों का लोक में
प्रचलित स्वरूप बहुतायत मात्रा में मिलता है। ऐसे शब्दों को “तद्भव” कहा जाता है यही
तद्भव कालांतर में थोड़े परिवर्तन के साथ हिंदी में भी आये। पाली के बाद दूसरी
महत्वपूर्ण प्राकृत अर्ध-मागधी रही जिसका उपयोग जैन साहित्य में किया गया। सन ५००
ई. तक प्राकृत जन-सामान्य के बीच विद्यमान रही। ज्यों ही हेमचंद वररुची जैसे प्राकृत व्याकरण
आचार्यों के नियम लागू हुए एवं बौद्धों के
दर्शन का भार इस पर पड़ा तो यह भाषा भी
अपना लोकवादी स्वरूप खोने लगी अपने अवसान तक आते-आते प्राकृत केवल धार्मिक उपदेशों
और राजा महराजाओं तक ही सीमित रह गयी।
प्राकृत की बड़ी विशेषता यह रही कि इसने भौगोलिक आधार पर अपना विकास किया। प्राकृत के सारे भेद भौगोलिक ही रहे। विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर इसके उपभेदों का नामकरण हुआ। यही प्रवृत्ति अपभ्रंसों और आधुनिक हिंदी बोलियों की भी रही। चूंकि अपभ्रंस प्राकृत का ही परिष्कृत रूप है। एक ही समय दोनों अलग-अलग वर्गों के बीच लोकप्रिय रहीं। जिस समय प्राकृत लोक से दूर हट रही थी उसी समय अपभ्रंस लोक-भाषा का स्थान ले रही थी। चूंकि अपभ्रंस प्राकृत की अपेक्षा अधिक सुगठित थी, सहज थी, इसलिए आम जीवन की भाषा बनने में इसे समय नहीं लगा। यह भाषा साहित्य में भी धार्मिक कल्पनाओं की अपेक्षा लोक-जीवन के अधिक निकट रही इसलिए संस्कृत के अपभ्रंस को अधिक संकुचित दृष्टि से मूल्यांकित किया। जब भी अभिजन सत्ता के विरुद्ध कोई लोक आन्दोलन खड़ा होता है तो अभिजन इसे अपने वर्चस्व के विरुद्ध खतरा ही समझता है। यह अभिजन का वर्ग-चरित्र है। अपनी सत्ता को बरक़रार रखने के लिए अभिजन लोक के खिलाफ तमाम तरह की साज़िसें और दुष्प्रचार करता है। संस्कृत के विरुद्ध और समान्तर लोक-भाषाओँ का उभारना संस्कृत आचार्यों को रास नहीं आया अत: प्राकृत व अपभ्रंस की निंदा करना कोई नई बात नहीं थी। आज भी अभिजन के इस वर्ग-चरित्र को देखा जा सकता है।
प्राकृत की बड़ी विशेषता यह रही कि इसने भौगोलिक आधार पर अपना विकास किया। प्राकृत के सारे भेद भौगोलिक ही रहे। विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर इसके उपभेदों का नामकरण हुआ। यही प्रवृत्ति अपभ्रंसों और आधुनिक हिंदी बोलियों की भी रही। चूंकि अपभ्रंस प्राकृत का ही परिष्कृत रूप है। एक ही समय दोनों अलग-अलग वर्गों के बीच लोकप्रिय रहीं। जिस समय प्राकृत लोक से दूर हट रही थी उसी समय अपभ्रंस लोक-भाषा का स्थान ले रही थी। चूंकि अपभ्रंस प्राकृत की अपेक्षा अधिक सुगठित थी, सहज थी, इसलिए आम जीवन की भाषा बनने में इसे समय नहीं लगा। यह भाषा साहित्य में भी धार्मिक कल्पनाओं की अपेक्षा लोक-जीवन के अधिक निकट रही इसलिए संस्कृत के अपभ्रंस को अधिक संकुचित दृष्टि से मूल्यांकित किया। जब भी अभिजन सत्ता के विरुद्ध कोई लोक आन्दोलन खड़ा होता है तो अभिजन इसे अपने वर्चस्व के विरुद्ध खतरा ही समझता है। यह अभिजन का वर्ग-चरित्र है। अपनी सत्ता को बरक़रार रखने के लिए अभिजन लोक के खिलाफ तमाम तरह की साज़िसें और दुष्प्रचार करता है। संस्कृत के विरुद्ध और समान्तर लोक-भाषाओँ का उभारना संस्कृत आचार्यों को रास नहीं आया अत: प्राकृत व अपभ्रंस की निंदा करना कोई नई बात नहीं थी। आज भी अभिजन के इस वर्ग-चरित्र को देखा जा सकता है।
जब प्राकृत
साहित्य की भाषा बन कर राजदरबारों तक पहुँच गयी तो लोक-जीवन के आम व्यवहार ने
अपभ्रंस को आम-चलन की भाषा बनाया। अपभ्रंस संस्कृत आचार्यो के अभिमत में “मूर्खों
की भाषा” है। अपभ्रंस भी उन्हीं का दिया नाम है जिसका अर्थ है “गिरा हुआ” या “भ्रष्ट”।
अर्थात संस्कृत की अपेक्षा अपभ्रंस नीची कौम के लोगों या अशिक्षित लोगों की भाषा
है। जब प्राकृत और अपभ्रंस संस्कृत की राह में आगे बढ़ने लगी तो अभिजन विचारकों ने
व्यंग्य में इसका यह नामकरण किया। आज यही नामकरण इसकी पहचान बन गया है। दंडी ने
अपभ्रंस को अभीरों (निम्न कोटि के लोग) की भाषा कह कर जबकि भर्तिहरी ने अशुद्ध कह कर तत्कालीन लोक के विरुद्ध
अपनी मंशा को स्पष्ट कर दिया है। अपभ्रंस मध्यकालीन आर्यभाषाओं का चरम-विकास है।
जब प्राकृत व्याकरण के खांचे में ढल गयी तो प्राकृत के खिलाफ अपभ्रंस ने
विद्रोह किया। यह विद्रोह स्थापित भाषाओँ के खिलाफ लोक-विद्रोह था जिसमे पांडित्य
हारा और जन सहजता जीती। अपभ्रंस ही, ग्राम-भाषा, जनभाषा, लोकभाषा, अवहट्ट, अवहंस
के नाम से जानी जाती है। आधुनिक भारतीय भाषाओँ की उत्पत्ति इन्ही अपभ्रंसों से हुई।
एक प्रकार से अपभ्रंस प्राकृत भाषाओँ और आधुनिक भाषाओँ के बीच की कड़ी है। अपभ्रंस
का जन्म और विकास मध्य-देश में हुआ। हिंदी का भी विकास मध्य-देश में हुआ। अस्तु
हिंदी का ध्वनि-परक ढांचा अपभ्रंस के ढाँचे से काफी प्रभावित है। उत्तर भारत में
अपभ्रंस के सात भेद प्रचलित थे जिनसे आधुनिक भारतीय भाषाओँ का जन्म हुआ ये सातो
अपभ्रंस हैं- शौरशेनी (पश्चिमी हिंदी), पैशाची (लहंदा पंजाबी), ब्रचाड (सिन्धी), खस
(पहाड़ी भाषाएँ), महाराष्ट्री (मराठी), अर्ध-मागधी (पूर्वी हिंदी), मागधी (बिहारी,
असमिया, बंगाली)। अपभ्रंस से उत्पन्न होने वाली आधुनिक भाषाओँ का विवरण (कोष्ठ के
अन्दर) देखने से पता चलता है कि अपभ्रंस ही वर्तमान हिंदी और उसकी बोलियों की जननी
है।
अपभ्रंस में लगभग वही ध्वनियाँ थीं जो प्राकृत और संस्कृत में प्रयुक्त होतीं थी। स्वरों का अनुनासिक रूप भी बिलकुल संस्कृत और पालि जैसा था। फिर भी कुछ बातों की समानता रखते हुए भी अपभ्रंस संस्कृत और प्राकृत से बहुत दूर निकल गयी। वह प्राचीन भाषाओँ की अपेक्षा आधुनिक भाषाओँ के अधिक निकट चली गयी। संस्कृत और पालि संयोगात्मक भाषा रही लेकिन अपभ्रंस वियोगात्मक भाषा थी। इसका यह लक्षण हिंदी ने पूर्ण रूप से अंगीकार कर लिया। अपभ्रंस में नपुंसक लिंग लगभग लुप्त हो चला और हिंदी तक आते-आते विलुप्त हो गया। अपभ्रंस की बहुत सी विशेषताएं हैं जो हिंदी में यथावत विद्यमान हैं। इसलिए अपभ्रंस प्राचीन भाषाओँ की अपेक्षा हिंदी के अधिक निकट है। सातवीं शताब्दी से ही अपभ्रंस को साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त हो गयी थी। १०वीं सदी तक अपभ्रंस का परिष्कृत स्वरूप सामने आया। अपभ्रंस का विशाल साहित्य-भण्डार इसी परिनिष्ठित भाषा में लिखा गया। १० वीं सदी में ही जब अपभ्रंस रूढ़ हो चली और तमाम नियमों, उपनियमों में आबद्ध होने लगी तो यह भी जनसामान्य से दूर हटने लगी। अपभ्रंस में भी जादू-टोना, झाड-फूंक, तंत्र-मंत्र, अश्लीलता, साधना का कुरुचिपूर्ण लोकविरोधी साहित्य लिखा गया। आदिकाल का सिद्ध साहित्य और सरहपा का का लेखन इसका बड़ा उदाहरण है। अपभ्रंस के इस रूप में आते ही लोक ने जिस देश –भाषा का विकास किया उसी देशभाषा में आधुनिक हिंदी भाषा के सूत्र मिल जाते हैं।
अपभ्रंस में लगभग वही ध्वनियाँ थीं जो प्राकृत और संस्कृत में प्रयुक्त होतीं थी। स्वरों का अनुनासिक रूप भी बिलकुल संस्कृत और पालि जैसा था। फिर भी कुछ बातों की समानता रखते हुए भी अपभ्रंस संस्कृत और प्राकृत से बहुत दूर निकल गयी। वह प्राचीन भाषाओँ की अपेक्षा आधुनिक भाषाओँ के अधिक निकट चली गयी। संस्कृत और पालि संयोगात्मक भाषा रही लेकिन अपभ्रंस वियोगात्मक भाषा थी। इसका यह लक्षण हिंदी ने पूर्ण रूप से अंगीकार कर लिया। अपभ्रंस में नपुंसक लिंग लगभग लुप्त हो चला और हिंदी तक आते-आते विलुप्त हो गया। अपभ्रंस की बहुत सी विशेषताएं हैं जो हिंदी में यथावत विद्यमान हैं। इसलिए अपभ्रंस प्राचीन भाषाओँ की अपेक्षा हिंदी के अधिक निकट है। सातवीं शताब्दी से ही अपभ्रंस को साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त हो गयी थी। १०वीं सदी तक अपभ्रंस का परिष्कृत स्वरूप सामने आया। अपभ्रंस का विशाल साहित्य-भण्डार इसी परिनिष्ठित भाषा में लिखा गया। १० वीं सदी में ही जब अपभ्रंस रूढ़ हो चली और तमाम नियमों, उपनियमों में आबद्ध होने लगी तो यह भी जनसामान्य से दूर हटने लगी। अपभ्रंस में भी जादू-टोना, झाड-फूंक, तंत्र-मंत्र, अश्लीलता, साधना का कुरुचिपूर्ण लोकविरोधी साहित्य लिखा गया। आदिकाल का सिद्ध साहित्य और सरहपा का का लेखन इसका बड़ा उदाहरण है। अपभ्रंस के इस रूप में आते ही लोक ने जिस देश –भाषा का विकास किया उसी देशभाषा में आधुनिक हिंदी भाषा के सूत्र मिल जाते हैं।
अपभ्रंस से ले कर आज
तक की यात्रा में हिंदी भाषा के कई पड़ाव आये और बगैर इन पड़ावों को समझे हम हिंदी के
विकास में लोक की भूमिका का अंदाजा नहीं
कर सकते। क्योंकि किसी भी भाषा के विकास में लोक ही वह कारक है जो भाषा को आम-चलन
में ला कर जन-मानस का खाका खींचता है। जब कभी भाषा आम जन से दूर जा कर अभिजन की गोद
में विराजमान होती है तो लोक अपनी अभिव्यक्ति का नया संकेत तलाश करने लगता है। आधुनिक हिंदी के विकास में ज्यों ज्यों लोक
सामंती शक्तियों के प्रतिरोध में रचनात्मक होता गया, त्यों-त्यों भाषा भी अपना वजूद
खोजती गयी। आदिकाल की वीर-गाथात्मक कविता
को छोड़ दिया जाय तो जितना भी लौकिक साहित्य है, लोक का दीप्यमान उदाहरण है, जो
सामन्ती सत्ता से दूर रह कर तत्कालीन मुख्य-धारा से अलग आम-जनमानस की सर्वांग
वृत्तियों का सुन्दर चित्रण करता है। भक्ति काल और रीति काल में अवधी और ब्रज भाषा
की प्रधानता भी बदलती सामाजिक परिस्थितियों और राजनीतिक हालातों में लोक द्वारा
खोजा गया नया माध्यम है। अपभ्रंस से ले कर हिंदी तक आते-आते भाषाई विकास के छ;
पडाव आए। पहला पड़ाव अवहट्ट, दूसरा पुरानी हिंदी, तीसरा हिन्दवी, चौथा ब्रज भाषा, पांचवा अवधी, छठवा खड़ी-बोली। इस तरह हिंदी आज जिस मुकाम पर खड़ी है वहां तक पहुचने में
उसे तमाम संघर्षों से होकर गुजरना पड़ा। इन संघर्षो में कभी-कभी तो भाषागत भटकावों
का भी सामना करना पड़ा। जैसे अमीर खुसरो की हिन्दवी के बाद अचानक ब्रज और अवधी भाषा
का उदभव एक प्रकार का भटकाव ही है। हिंदी का जो वर्तमान रूप है उसे खुसरो ने आकार
दिया था। अस्तु खुसरो की धारा से भटक कर दूसरी भाषाओं का आश्रय लेना भटकाव ही कहा
जायेगा।
अवहट्ट, अपभ्रंस और
और आधुनिक आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी है। आरम्भ में विद्वान् अवहट्ट को अपभ्रंस का
ही एक रूप मानते रहे। परन्तु जब आगे चलकर विस्तार से अध्ययन किया गया तो अवहट्ट
अपभ्रंस से आगे बढ़ी हुई भाषा निकली। अवहट्ट और अपभ्रंस के अंतर का मूल कारण
“लोकतत्व” है। अवहट्ट व्याकरण के नियमो में आबद्ध हो कर चलने वाली भाषा नहीं रही।
इसके साहित्य में लोकानुभव ही लोकाभिव्यक्ति का स्थान पाते रहे। इस भाषा के बड़े
कवि विद्यापति अपनी भाषा को हमेशा “देशिलबयना” ही कहते रहे। अवहट्ट अपभ्रंस की
अपेक्षा अधिक उदार थी। इसने अपने शब्द-शास्त्र में स्थापित भाषाओँ का मुँह नहीं ताका
अपितु शब्दों की खोज हेतु इसने लोक-व्यवहार का आश्रय लिया। इससे अवहट्ट की
लोक-आसक्ति ही झलकती है। इतना ही नहीं अवहट्ट ने आधुनिक हिंदी की तरह विदेशी
शब्दावलियों को भी अपनाया। अवहट्ट ने अपना स्वरूप किसी परिष्कृत भाषा की तरह नहीं
रखा अपितु जनभाषा की तरह रखा। अपनी इसी लोक आसक्ति के कारण अवहट्ट आगे आने वाली
भाषाओँ का आदर्श बन सकी। पुरानी हिंदी इसका बढ़िया उदाहरण है। पुरानी हिंदी का असली
स्वरूप क्या है इस पर पर्याप्त मतभेद हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपभ्रंस
मिश्रित देशी भाषा को पुरानी हिंदी माना है। इनका स्वरूप डिंगल और पिंगल के रूप
देखा जा सकता है। डिंगल व पिंगल भक्तिकालीन, रीतिकालीन भाषा के पूर्व आगे आने
वाली भाषा का संकेत है। डिंगल राजस्थानी मिश्रित अपभ्रंस है तो पिंगल ब्रिज
मिश्रित अपभ्रंस है। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार परिनिष्ठित अपभ्रंस जब व्याकरणबद्ध हो गयी तो कई लोकभाषाओं का विकास हुआ। इसमें विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के
आधार पर पुरानी हिंदी के भी कई रूप सामने
आये। इनमें डिंगल और पिंगल मुख्य रहीं। पर ये दोनों भाषाएँ अधिक समय तक अपना
लोकव्यापी रूप बरकरार नहीं रख पायीं। डिंगल राजदरबारों की भाषा हो कर अभिजन के हाथों
खेलने लगी। चारणों ने इसको अतिशयोक्ति की भाषा बना कर क्लिष्ट बना डाला। शब्दों का
द्वित्व इसकी कठिनता का मूल कारण रहा जबकि पिंगल निरंतर लोक से अनुप्राणित होती रही
और आगे चलकर ब्रजभाषा के रूप में सम्पूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र की भाषा बनकर उभरी। हम पिंगल को पुरानी हिंदी की
प्रतिनिधि भाषा कह सकते है जिसने अपना लोकवादी स्वरूप नहीं खोया। सुकोमल और मृदु
भावों की अभिव्यक्ति के लिए पिंगल का आदिकाल में व्यापक प्रयोग हुआ। यह कभी भी
राजदरबारों की प्रतिनिधि भाषा नहीं बन सकी। इसलिए डिंगल की तरह लोक से दूर होकर अकाल मौत का शिकार नहीं
बनी। लोक से जुड़ाव होने के कारण यह परिवर्तित रूपों में ब्रज भाषा के रूप में
आधुनिक काल तक काव्य की भाषा बनी रही। तमाम परिवर्तनों के वावजूद एक भाषा का लम्बे
समय तक कविता में उपस्थित रहना तभी संभव है जब आम जनता के सरोकारों की अभिव्यक्ति
की क्षमता हो। पिंगल इस क्षमता से पूर्ण थी। लोक इसे आत्मसात कर चुका था। लोक ने ही
इसे ब्रजभाषा के रूप में नया संस्कार दिया। नई उर्जा दी। ब्रजभाषा का काव्यभाषा के
रूप में जो व्यापक प्रयोग हुआ वह लोक की ही देन है। हालांकि पिंगल कही जाने भाषा का
कोई स्वतंत्र ग्रन्थ प्राचीन-काल में नहीं
मिलता। इसका आरंभिक रूप डिंगल में ही समाहित है पर पुरानी हिंदी की प्रतीक
भाषा पिंगल अपभ्रंस की सीमाओं से बाहर निकल कर आगे चलकर हिंदी की मुख्य भाषा बनकर
प्रतिष्ठित हुई।
हिंदी की इस
विकासयात्रा में अमीर खुसरो का विवेचन न हो तो तो हिंदी में “लोकोन्मुखी”
हस्तक्षेप का पूरा खाका नहीं खींचा जा सकता है। अमीर खुसरो विलक्षण “लोक-कवि” थे
उन्होंने कल्पना से बहुत दूर तत्कालीन
जमीनी कविता का प्रारूप सामने रखा। उनकी लोकानुभूति मंडित साहित्य में कहीं भविष्य
की खड़ी बोली झांकती है तो कहीं ब्रज-भाषा के दर्शन होते हैं। उनकी काव्य-भाषा
परवर्ती कालों में विकसित होने वाली भाषाओं का प्राचीन संकेत है। आधुनिक हिंदी के
पद पर आरूढ़ होने वाली खड़ी बोली का भी निखरा हुआ स्वरूप अमीर खुसरो में प्राप्त हो
जाता है। जिस समय खुसरो कविता लिख रहे थे उस समय हिन्दू डिंगल और पिंगल में अपनी
रचना लिख रहे थे और मुसलमान अरबी फ़ारसी में अपनी कवितायेँ लिख रहे थे। हिन्दू और
मुसलमान दोनों जानते थे कि जनता की भाषा न तो अपभ्रंश है और न ही अरबी फ़ारसी। पर
दोनों जातियों के कवि उन भाषाओ पर आसक्त थे जिन्हें जनता नहीं समझती थी। यही कारण था
कि लोक का जो प्यार अमीर खुसरो को मिला वह न तो डिंगल को मिल सका न ही अपभ्रंस को। क्योंकि अमीर खुसरो ने जनता नब्ज़ को पकड़ा और जनता की ही भाषा में जनता के बीच के
आपसी वार्तालाप को अपनी कविता में उतारा। तत्कालीन जनभाषा में रचना करके खुसरो ने हिंदी
और उर्दू के भविष्य की रह खोल दी। खुसरो की भाषा देख कर कोई अनुमान नही कर सकता की
यह इतनी पुरानी भाषा है।
“एक थाल मोती भरा, सबके सर पर औंधा धरा,
चारों और वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।”
यह तत्कालीन लोक की भाषा थी जिसे अमीर खुसरो ने अपनी कविता में उतारा। इस भाषा को हम सच्चे अर्थों में हिन्दुस्तानी कह सकते हैं, जिसकी यात्रा अमीर खुसरो से आरम्भ हो कर आज खड़ी बोली मानक हिंदी में समाप्त हुई। यह यात्रा किसी कवि की देन नहीं है वरन लोक की उस परंपरा की देन है जो अनंत काल तक अपने ह्रदय में सामासिक संस्कृति को समाहित किये रही और जब अपने अनुकूल अवसर देखा तो लोक ने ही हिंदी की जातीय भाषा के रूप में इस हिन्दुस्तानी को प्रतिष्ठित कर दिया।
“एक थाल मोती भरा, सबके सर पर औंधा धरा,
चारों और वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।”
यह तत्कालीन लोक की भाषा थी जिसे अमीर खुसरो ने अपनी कविता में उतारा। इस भाषा को हम सच्चे अर्थों में हिन्दुस्तानी कह सकते हैं, जिसकी यात्रा अमीर खुसरो से आरम्भ हो कर आज खड़ी बोली मानक हिंदी में समाप्त हुई। यह यात्रा किसी कवि की देन नहीं है वरन लोक की उस परंपरा की देन है जो अनंत काल तक अपने ह्रदय में सामासिक संस्कृति को समाहित किये रही और जब अपने अनुकूल अवसर देखा तो लोक ने ही हिंदी की जातीय भाषा के रूप में इस हिन्दुस्तानी को प्रतिष्ठित कर दिया।
यह हिंदी के विकास
की संक्षिप्त रूप रेखा है। वैदिक संस्कृत से लेकर हिन्दवी और हिन्दुस्तानी तक के
भाषाई विकास में हम लोक की भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते और न ही भक्ति काल व
रीति काल में काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित अवधी व ब्रज को समझने में हम लोक की
भूमिका से इनकार कर सकते हैं। हिंदी की उत्पत्ति और विकास एक लोकजन्य परिघटना है।
इसे राजसत्ता और अभिजात्य से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। तमाम भाषाओँ और बोलियों में एक भी भाषा नहीं है जिसे अभिजन और सामंतों ने
विकसित किया हो या उत्पन्न किया हो। समस्त भाषाएँ लोक से ही उत्पन्न होती है। लोक
द्वारा ही विकसित होती है। लोक द्वारा ही साहित्य भाषा बनती है। किसी जाति की निजी
पहचान बनती है। जब भी कोई भाषा लोक से दूर हट कर सामन्ती शक्तियों के हाथ में
खिलौना बन जाती है तो लोक उसका परित्याग कर एक नयी भाषा की खोज कर लेता है। यह
प्रक्रिया निरंतर गतिमान रहती है भाषा बनती रहती है, विकसित होती रहती है,
लोक-विमुख होती रहती है। मरण को भी प्राप्त होती रहती है। लोक की सबसे बड़ी खासियत
है कि वह अकृत्रिम भाषा को ही अपनाता है जबकि
अभिजन सुसंस्कृत व परिनिष्ठित भाषा के व्यवहार पर जोर देता है। यही कारण है कि अति
शुद्धतावाद के कारण भाषा कालांतर में पढ़े-लिखे लोगों की भाषा बन कर रह जाती है। लोक
से दूर होने लगती है। यह चाहे लोक का चरित्र कहिये या लोक की विशेषता लोक केवल सहज
व बोधगम्य भाषा को ही अपनाता है। और उन शब्दों का चयन करता है जिसमे उसकी माटी की
सुगंध हो उसके परिक्षेत्र का प्रतिबिम्ब हो। लोक का यही गुण उसे अभिजन और जनविरोधी
शक्तियों के खिलाफ खड़ा कर देता है। भाषा और संस्कृति दोनों स्तरों पर लोक और अभिजन
एक दूसरे के विरुद्ध खड़े रहे। दोनों वर्गों के संघर्ष ने इतिहास का निर्माण किया,
भाषा की खोज की, शब्दों का गठन किया, संस्कृति की नयी परिभाषाएं खोजी, अपनी
लोकधर्मी चेतना के साथ आज भी लोक संघर्ष-रत है।
सम्पर्क-
मोबाईल- 09838610776
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
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