जयपाल सिंह प्रजापति का आलेख 'एक ‘अग्निबीज़’ इनमें भी है'
आम आदमी खासकर एक गरीब आदमी की पीड़ा और उसकी जलालत भरी
जिन्दगी मार्कण्डेय जी की रचनाओं में हमें सहज ही दिख जाती है। इन सबके दिलों में एक
गहरा आक्रोश और असंतुष्टि है। मार्कण्डेय की रचनाओं के इस पहलू पर नजर डाली है
जयपाल प्रजापति ने। कल 18 मार्च को मार्कण्डेय जी की पुण्य-तिथि है तो आइए पढ़ते हैं। इस अवसर पर मार्कण्डेय जी को याद करते हुए प्रस्तुत है यह आलेख ‘एक ‘अग्निबीज़’ इनमें भी है।
एक ‘अग्निबीज़’ इनमें भी है
जयपाल सिंह प्रजापति
रचनाकार किसी वस्तु को किस तरह ¼Angle½ से देखता है और
कितनी मात्रा में अनुभूत करता है यह प्रश्न उतना अधिक महत्व का नहीं जितना कि यह
कि वह उस वस्तु को उसी सजीवता, संजीदगी, पूर्णता और यथार्थ रूप में पाठक के समक्ष कितने
सफल तरीके से प्रस्तुत कर पाया है जो उस वस्तु में है - जिसे उसने देखा और समझा
है। हाँ, देखने का उसका
नज़रिया आधारहीन न हो। एक सजग रचनाकार का हो भी नहीं सकता। यह इसलिए भी जरूरी है
क्यों कि पाठक उसके लिखे शब्दों में उस वस्तु का प्रतिबिंब देखने और अनुभव करने की
कोशिश करता है। और तो और वह अपने ज्ञान और बुद्धि से उसकी सच्चाई भी परखना चाहता
है इसलिए पाठक प्रारंभ में कल्पनालोक में तो कदापि नहीं होता। यह तो रचना के ऊपर
निर्भर है कि वह पाठक को कितना आकर्षित कर पायी है। हालाँकि पाठक वस्तु की
वास्तविकता से दूर अवश्य होता है फिर भी पाठक और रचनाकार द्वारा अनुभूति की मात्रा
का अंतर जितना कम होगा उतना ही अधिक रचनाकार की लेखकीय के बिंदु तय करने में उसे
सहायता मिल सकेगी। यदि रचनाकार की अनुभूति से पाठक तारतम्य बिठा ले तो समझे
रचनाकार के लिए सफलता का बिंदु विकसित हो चला।
कथाकार मार्कण्डेय के लेखन में वह सामर्थ्य है जो पाठकों को
आकर्षित करने में सफल हुआ है। उनकी रचनाएँ पाठकों को केवल आकर्षित इसलिए नहीं करती
हैं कि उन रचनाओं में सिर्फ मनोरंजन के
लिए सामग्री उपलब्ध है बल्कि इसलिए कि उसमें जो सामग्री है वह पाठक को मनोरंजन से
ज्यादा समाज के बारे में सोचने पर मजबूर करती हैं, जिंदगी की सच्चाई
के वे कडवे घूट पीने के लिए विवश करती है जिसे आमतौर पर कोई भी पीना नहीं चाहेगा।
ठीक वैसी ही स्थिति जैसे-भूखे पेट में घुन खाए दाने निगले नहीं जाते लेकिन निगलने
पड़ें। यह कदापि अनुभूति की बलात स्वीकृति नहीं कही जानी चाहिए क्योंकि वस्तुतः यह
लेखक की अनुभूति को अभिव्यक्ति के लिए विवशता नहीं बल्कि इसमें जो स्वर निकल रहें
हैं उसमें उस वर्ग की किलकार से ले कर चीत्कार तक की अनूगूँज-गाँव की पगडंडियों से
लेकर कस्बे, शहरों, नगरों और
महानगरों की उन सकरी गलियों में भी गूँजती रही है जिसे उसने गढ़ा है; बनाया है-अपने को
तपा कर, गला कर, लुटा कर। जहाँ अब
उनके लिए कोई जगह नहीं- आधार बनाने वाला अधिकारहीन! क्या यह मेहनतकश सृष्टि को
सुन्दरतम बनाने वाले कलाकार से कम है? और वह कलाकार है तो फिर वह हाँशिए पर क्यों रखा
जाता रहा है? यह ठीक वैसा ही
लगता है जैसे कि भैरव प्रसाद गुप्त जी ने अपनी कहानी ‘इंसान और
मक्खियाँ’ में लिखा ‘‘रोटी की माँग
करना शांति में खलल डालना है और भूखे चुपचाप मक्खियों की तरह मर जाना शांति की
राह!’’ माकण्डेय जी भी
कदाचित् उस बिंदु की तलाश में रहे हैं जहाँ इस वर्ग के लिए कोई सार्थक पहल की जा
सके।
इस वर्गीय अंतर्विरोध को पकड़ पाना आसान नहीं। समाज में
व्याप्त इस अंतर्विरोध को अभिव्यक्त करने के लिए माकण्डेय की लेखनी कितनी कसमसायी
होगी इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है। वे जब अपने आसपास, समाज की विषय-वस्तु
लेकर कथा गढ़ते हैं, तब पात्रों के
माध्यम से एक सामान्य ‘जन’ की सादी जिंदगी को पूर्णता में उभारने का एक साहस भरा बड़ा
जिम्मा रहा होगा। इसके साथ ही इस वर्ग के विविध रूप भी रहे हैं जो उनके रचना-कर्म
में बिखरे किन्तु अपने स्थायित्व की तलाश में लगातार संघर्षरत् कहानी, उपन्यास, काव्य, एकांकी, आलोचना में समानान्तर
चलता रहा है। इसलिए उनके कहानी पात्रों में एक ओर जहाँ संघर्ष करता कहानी ‘भूदान’ का किसान ‘रामजतन’ मिल जाता है तो
दूसरी ओर क्रांति का आह्वान करता ‘मनरा’ जैसा दूसरा पात्र, एक ओर ‘आदर्श
कुक्कुट-गृह’ के शासकीय योजनाओं
का पुलिंदा, अधिकारियों के
लिए धन की बारिश की तरह है तो दूसरी ओर पात्र ‘रमजान’ की वही हालत जो
सदियों से रही है, वह उसी स्थिति
में आज भी है - मूकदर्शक बना निर्वाक, अधिकारहीन। एक और कहानी ‘दौने की पत्तियाँ’ की वह स्त्री ‘गुलाबो’ जो अपनी परंपरा
और संस्कार की लक्ष्मण रेखा को अपने स्त्रीत्व और अधिकारों की सीमा समझती है जिसे
समाज ने कभी बना दिया था, तो दूसरी ओर ‘सन्नो’, ‘प्रिया’,‘सैनी’ जैसी ओ युवतियाँ हैं जो अपने अस्तित्व को समाज
में ढूंढ़ रही है या अपने अनुरूप समाज को गढ़ना चाह रही हैं; अपने वजूद को
स्वीकार करवाना चाहती हैं लेकिन समाज के गठन में जिन बिंदुओं को मिलाया गया है,
उनमें वे केवल तन्तु है, बिन्दुओं का मिलान समाज करता रहा है- अपनों के बीच अपने
होने की तलाश। ठीक मार्कण्डेय की इन पंक्तियों की तरह-
क्या यह आदमी था?
जो हमारे साथ यों बौठा हुआ चुपचाप,
बेबश ऊँघता-सा, तप रहा था,
और बे अंजाम,
अपनी जाति ही की खा रहा था लात’’
प्रश्न है आखिर यह वर्ग करे क्या? क्या अपने
अस्तित्व को समाप्त होने से बचाए रखना भर ही उसकी अजीब-सी पहचान है? क्या उसके हाथ
में बस यही शेष है या अपने अधिकारों की माँग के लिए उग्र हो कर कभी वह आगे आ पाएगा? संभवतः इसका अभी कोई भी जवाब
देना जल्दबाजी होगी अभी फिलहाल वह कह सकता है- केवल अस्तित्व को बचाए रखने में ही ऊर्जा
लग जा रही है आगे के लिए शक्ति-सामर्थता शेष नहीं, कम-से-कम अभी तो
नहीं। मार्कण्डेय की कहानी ‘दाना-भूसा’ का पात्र ‘बसन’ यही कर रहा है- ‘‘वह धीरे-धीरे चल
कर बकरी के पास पुहँचा और आम की एक पतली डाल उठा कर एक कउची को तोड़ा तो चट की
आवाज निकली- यह सूखी है। उसने दूसरी कउची उठायी, उसे तोड़ा और
मूँह में ले कर कूँचने लगा।’’
साम्राज्यवादी, पूँजीवादी शक्तियाँ इस मेहनतकश को केन्द्र में
रख कर जिस तरह अपनी मायावी सौंदर्य भरी भूमिका और आभामयी आवरण फैलाए हुए हैं इसमें
यह मेहनतकश दूरगामी बिंदुओं को देख पाने में असफल हो रहा है और आज वह स्थिति में
पहुँच गया है कि स्वयं अपने को देख नहीं पा रहा है -उसका अस्तित्व खतरे में है।
आज तेजी से पूँजीवादी समाज बाजार के रूप में विकसित हुआ है
उसमें भी वर्गीय स्थिति का एक अंतर्संबध और अव्यक्त द्वंद्व है। जो एक दूसरे पर
आश्रित है। चूकि केन्द्र में पूँजी है इसलिए अधिकार भी उसी पूँजीवादियों के हाथों
में है-श्रम और अधिकारों में समानता ¼Equal½ कहना बैमानी है। मार्कण्डेय की सोच इस ओर लगी रही है जिसमें
इस मेहनतकश के अधिकरों को सुरक्षित रख समाजवाद की उस बुनियाद को पोषण देना
उद्देश्य रहा है जो समान अधिकार की बात करता है। उन्होंने संदर्भ, पात्र-चरित्र
चाहे गाँव के ही क्यों न लिए हों लेकिन उनमें भी वर्गीय स्थिति को बेवाकी से
अभियव्यक्त किया है। भले उन्हें आदर्शवादी गुलरा के ‘बाबा’ चैतू को यह कह कर
मना करे कि ‘‘लेकिन तुम क्या
कर रहे हो? चैतू बोले- ‘‘सरपत काट रहे हैं, बाबा बोले! अच्छा
कल से मत काटना! लेकिन इधर चैतू का वह सुसुप्त ‘अग्निबीज’ जल उठे और उसे
कहने को विवश कर दे कि - ‘‘ऐसे ही काटूँगा और चैतु लटक कर हँसिया चलाने लगा।’’
मार्कण्डेय के रचनाकर्म में भी ‘अग्निबीज’ एक उपन्यास नहीं
मेहनतकश पात्रों के हृदय और उनके अंतस से निकलती वही चिंगारी का वही बीज-बिंदु है
जो नियंत्रित रही तो ‘दीप’ का मनाहोरी प्रकाश ‘असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय’ और अनियंत्रित हुई तो ‘ज्वाला’ बन जाती है।
जयपाल सिंह प्रजापति |
डॉ जयपाल सिंह प्रजापति
साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला,
पं. रविशंकर
शुक्ल विश्वविद्यलय,
रायपुर (छ.ग.)-492010
लगातार लेखन कार्य,
अध्ययन-अध्यापन, कबीर से आज के
कवि
आलोचनात्मक पुस्तकीय कार्य प्रगति पर।
सम्पर्क-
ई-मेल : singh.jaipal82@gmail.com
मोबाईल- 09229703055
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