नीलिमा पाण्डेय का आलेख 'मार्कण्डेय: व्यक्तित्व एवं कृतित्व'


मार्कण्डेय जी
नयी कहानी आन्दोलन के पुरोधाओं में से एक मार्कण्डेय का व्यक्तित्व बहुआयामी था। एक बेहतर कहानीकार होने के साथ-साथ वे एक बेहतर व्यक्तित्व के मालिक भी थे। उनकी विनम्रता के हम सब कायल थे। जो भी उन्हें जानते हैं इस बात से परिचित होंगे कि अंतिम समय तक वे किसी भी आगंतुक की ख़ुद अगवानी करते थे। अपने हाथों से लड्डू, बिस्कुट खिलाते थे और चाय पिलाते थे। किसी अपरिचित से भी वे तुरंत ही कुछ इस तरह घुल-मिल जाते थे जैसे वो उनका बहुत पुराना परिचित हो। इसके बाद  सिलसिलेवार बातों का जो क्रम आरम्भ होता तो खत्म होने का नाम नहीं लेता था। उनके पास बैठने पर समय कैसे बीत जाता था हमें पता ही नहीं चलता था। ऐसे अपने  मार्कण्डेय दादा की पुण्यतिथि के अवसर पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं नीलिमा पाण्डेय का आलेख 'मार्कण्डेय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व'          

मार्कण्डेय: व्यक्तित्व एवं कृतित्व


नीलिमा पाण्डेय 

मार्कण्डेय का जन्म 2 मई, 1930 ई0 को उत्तर प्रदेश के जनपद जौनपुर के अन्तर्गत केराकत तहसील के एक गाँव बराई में एक सम्पन्न किसान परिवार में हुआ। पिता श्री ताल्लुकेदार सिंह के सबसे बड़े बेटे होने के कारण इनका लालन-पालन भी पूर्ण सजगता और पारिवारिक मर्यादा के अनुरूप हुआ। पिता प्रतापगढ़ में अपने एक सम्बन्धी की छोटी सी रियासत की देखभाल करते थे। माँ के हृदय में परंपरागत हिन्दू नारी की सहृदयता और धर्मभरुता का भाव प्रबल था। पितामह श्री महादेव सिंह गाँव जवार के प्रतिष्ठित देशभक्त और मर्यादित क्षत्रिय थे। कांग्रेस तथा क्रांतिकारियों से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। इन्हीं की छत्रछाया में बालक मार्कण्डेय की शिक्षा-दीक्षा हुई और स्वभावतः पिता की अपेक्षा पितामह के व्यक्तित्व का प्रभाव भी अधिक पड़ा। ठाकुर महादेव सिंह की सहायता से क्षेत्र में सुराजियों की सभाएँ होती रहती थीं, अन्यथा अन्य सम्पन्न ब्राह्मण-क्षत्रिय सुराजियों के विरोधी ही थे। और; बालक मार्कण्डेय पितामह के कन्धों पर बैठ कर सुराजियों की सभा में जाया करते थे।’’1

मार्कण्डेय की माँ बखरी के पीछे झोपड़ी में रहने वाली असहाय गरीब दुखना को स्वयं खाना पहुँचाया करती थीं। माँ की उदारता, बाबा के देशप्रेम और स्त्री जाति के प्रति सहज सम्मानित दृष्टि और प्रेममयी कोमल भावना का प्रभाव इन्हीं चरित्रों की देन है। ध्यातव्य है कि इसी दुखना को आधार बना कर ‘महुए का पेड़’ कहानी की रचना हुई। माँ और दुखना के सामीप्य ने इनमें लोक जीवन, लोकनीति और लोकभाषा की अनुभूति करायी।

मार्कण्डेय की प्रारंभिक शिक्षा गाँव की प्राइमरी पाठशाला में सम्पन्न हुई। पं0 मूलचन्द्र ने विधिवत मंत्र पाठ कर अपनी दीक्षा में स्वीकार किया। चैथी जमात तक की पढ़ाई यहीं सम्पन्न कर पाँचवीं में उर्दू मिडिल करने के लिए अपने पूर्वजों के गाँव बिहड़ा जाने लगे। संयोग से इस विद्यालय के मौलवी साहब स्वाधीनता और देशप्रेम के कट्टर हिमायती थे। अध्ययन के दौरान भावावेश में देशप्रेम की नज़्में सुनाते हुये मौलवी साहब बालक मार्कण्डेय के हृदय में पारिवारिक देशप्रेम के संस्कारों को दृढ़ करते रहे। जब वह खद्दर पहनने की जिद करने लगे तो बाबा ने खद्दर के साथ तिरंगा भी ला कर दे दिया जिसे वह बहुत वर्षों तक पास रखे रहे और सहपाठियों के साथ प्रभात फेरी और जुलूस आदि संगठित करने लगे। धीरे-धीरे उनका झुकाव झंड़ा, खद्दर, चर्खा, गाँधी साहित्य और नेताओं के चित्र एकत्रित करने की ओर बढ़ता गया और देश के प्रति सोचने-समझने का दायरा भी बढ़ने लगा। इसी बीच साठ वर्ष की आयु में एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से जब बाबा की मृत्यु हो गयी; मार्कण्डेय अवाक् रह गये और माँ की गोद में छिप कर फूट-फूटकर रोते रहे। बाबा के साथ एक युग का अंत हो चुका था, एक चरित्र का असमय अवसान हो गया था जो गाँव-जवार के युवकों को कुश्ती-अखाड़े में प्रशिक्षित करता था, दीन- दुखियों की सहायता करता था, भूमिगत क्रांतिकारियों की मदद करता था। इसी रिक्ति ने उनके हृदय में सृजनात्मकता, अन्तर्मुखता और बाहरी संसार में अकेले साक्षात् करने की दृढ़ता पैदा कर दी थी। बात-चीत के क्रम में मार्कण्डेय जी ने कहा था- ‘प्रश्नों से चल कर प्रश्नेतर होना और खुद से उत्तरित होने की प्रक्रिया से ही शायद व्यक्तित्व सृजित होता है।’

मिडिल की परीक्षा पास कर मार्कण्डेय अपने पिता के पास प्रतापगढ़ आ गये और यहीं के प्रतिष्ठित प्रताप बहादुर कालेज में दाखिला मिल गया। यह कालेज राजा अजित प्रताप सिंह का था और रियासत अंग्रेज भक्त थी। अतः इस कालेज में गाँधी, नेहरू का नाम लेना भी दण्डनीय अपराध था। दूसरी ओर इस जनपद की काला काँकर रियासत अंग्रेज विरोधी और कांग्रेस समर्थक थी। यहाँ के राजा अवधेश प्रताप सिंह कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से थे।

संयोग से कालेज में प्रवेश लेते ही पहले ही दिन एक निर्णायक घटना घटी। पं0 जवाहर लाल नेहरू कालेज से लगी सड़क से किसानों की सभा में भाग लेने कुण्डा जाने वाले थे। कुछ उत्साही छात्रों ने कालेज के मुख्य द्वार पर उनके स्वागत की गुप्त योजना बनायी थी। सहसा छात्रों का एक छोटा सा गुट कक्षाओं का बहिष्कार कर पं0 नेहरू की जय बोलता हुआ सड़क पर आ गया। मार्कण्डेय जी झण्डा ले कर कूद पड़े। प्राचार्य और पुलिस अधिकारी ने दूसरे दिन मार्कण्डेय को तलब कर झण्डे के विषय मे पूछताछ की। उन्होंने निर्भीकता से बताया कि ‘‘झण्डा बाबा का दिया हुआ है।’’ उनकी साफगोई, निडरता और उत्साही राष्ट्रीयता से कालेज के सचिव प्रभावित हुए। इस घटना के बाद यह कालेज कांग्रेस की राजनीति का गढ़ बन गया।’’2

इस कालेज के छः वर्ष तक के अपने अध्ययन काल में मार्कण्डेय को विचार धारात्मक आधार मिला। उन्होंने सामंती संस्कृति को निकट से देखा और सामान्य जन के शोषण का बहुआयामी चित्र भी। कांग्रेस पूँजीपतियों और सामंतों की पार्टी बन गयी थी और सामान्य जन की आकांक्षाओं से भटकने लगी थी। इससे क्षुब्ध हो कर जब आचार्य नरेन्द्र देव ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनायी तो मार्कण्डेय उसमें सक्रिय हो गये और सामाजिक बनावट को समझ कर तथा राजनीति और साहित्य का अध्ययन कर वैचारिक गोष्ठियों, बहसों में हिस्सा लेने लगे। कालेज की ओर से साप्ताहिक शिविर लगाया गया। मार्कण्डेय को इसका संयोजक बनाया गया था। इसमें विचार धाराओं पर अनेक वक्तव्य दिये गये। फैजाबाद के एक आचार्य जो कि आचार्य नरेन्द्र देव के शिष्य थे; मार्क्सवाद पर वक्तव्य दे रहे थे। उनसे प्रभावित हो कर मार्कण्डेय माक्र्सवादी साहित्य का अध्ययन करने लगे और कांग्रेस से मोहभंग हुआ। यशपाल साहित्य का उन पर अधिक प्रभाव पड़ा। कालेज के एक कार्यक्रम के सिलसिले में कालाकाँकर जाकर सुमित्रा नंदन पंत से मिल आये और उनके तत्कालीन मार्क्सवाद प्रभावित साहित्य से भी प्रभावित हुए। ध्यातव्य है कि अज्ञेय, जैनेन्द्र और निराला के साथ समस्य प्रगतिशील साहित्यकारों का अध्ययन कर लेने के बाद मार्कण्डेय ने प्रेमचन्द को पढ़ा।


इसी समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले कर सर गंगानाथ झा छात्रावास में रहने लगे और क्रानिक मलेरिया की चपेट में आ कर अस्वस्थ हो गये तथा दो वर्ष तक प्रायः सबसे कटे रहे। इस समय वह स्नातक कर रहे थे किन्तु भीतर ही भीतर चिन्तन और अनुभूत सत्य की प्रक्रिया चल रही थी। भीतर एक आक्रोश जन्म ले रहा था।

देशी रियासतों के शोषण के वह मात्र दृष्टा नहीं थे। एक घटना से उनकी मानसिक बनावट का अंदाजा लग सकता है। रायबरेली की एक रियासत राजा मऊ के कर्ता-धर्ता उनकी बुआ के बेटे ही थे। मार्कण्डेय गर्मी की छुट्टियों में वहाँ गये हुए थे। रिआया से बेगार व नजराना का दृश्य देखा। बेगार करने से मना करने पर गाँव के एक युवा को बाँध कर इतना पीटा गया था कि वह मरणासन्न हो गया। मार्कण्डेय ने सामंत की दो भांजियों से मिल कर चुपके से युवक को मुक्त कर दिया और रियासत का कोपभाजन बने। वह अपने गाँव लौट आये और फिर कभी राजामऊ नहीं गये।

इसी समय 1949 ई0 में मार्कण्डेय का विवाह बनारस जिले के रजला नामक ग्राम में विद्या जी के साथ कर दिया गया। विद्या जी प्रत्येक परिस्थिति में मार्कण्डेय की सहधर्मिणी रहीं और अब भी हर क्षण उनकी सेवा में तत्पर रहती हैं।

आजादी के बाद साम्प्रदायिक दंगों में जनता त्रस्त थी और कांग्रेसी कोटा- परमिट की राजनीति में उलझे थे। इसी समय मार्कण्डेय ने ‘शहीद की माँ’ नामक कहानी लिखकर ‘आज’ तथा ‘अमृत पत्रिका’ के रविवासरीय अंक में प्रकाशित कराया।

वाराणसी से आयुर्वेदिक चिकित्सा द्वारा स्वस्थ होकर एम0ए0 प्रथम वर्ष के दौरान मार्कण्डेय जी इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश में ताक-झाँक करने लगे। प्रगतिशील लेखक संघ में प्रकाश चन्द्र गुप्त, भैरव प्रसाद गुप्त तथा अमृत राय सक्रिय थे। समय-समय पर भगवत शरण उपाध्याय, केदार नाथ अग्रवाल, नामवर सिंह आदि भी आते रहते थे।

नेमि चंद जैन तथा शमशेर बहादुर सिंह इलाहाबाद में ही रहते थे। मार्कण्डेय, दुष्यन्त कुमार, कमलेश्वर, ओम प्रकाश श्रीवास्तव, जितेन्द्र आदि नये लेखक सब का ध्यान आकर्षित करने लगे थे और इलाहाबाद में आधुनिकतावादियों के नये खेमों के इला चन्द्र जोशी, धर्मवीर भारती, केशव चन्द्र वर्मा, लक्ष्मी कान्त वर्मा तथा डॉ. जगदीश गुप्त आदि से वैचारिक भिड़न्त करने लगे थे।’’3

प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में रचनाओं पर समीक्षा करते हुए मार्कण्डेय के विचार सबसे अलग दिखायी पड़ते क्योंकि वे मान्यताओं की अपेक्षा साहित्य में समकालीन सन्दर्भों और सामाजिक यथार्थ पर आधारित होते। पुराने मार्क्सवादी चिंतक-आलोचक विचार धारा की लीक पर चलने का आग्रह करते थे और नयी सामाजिक स्थितियों तथा जन आकांक्षाओं की उपेक्षा भी।

इसी समय सन् 1953 ई0 में शरद जयंती के अवसर पर मार्कण्डेय ने ‘गुलरा के बाबा’ नामक कहानी का पाठ किया। इसे सभी ने हाथो-हाथ लिया। यह कहानी दूसरे ही महीने ‘कल्पना’ में छपी। यद्यपि यह इनकी पहली रचना नहीं थी। इसके पहले ‘पथ के रोड़े’ नामक कविता अज्ञेय संपादित प्रसिद्ध पत्रिका ‘प्रतीक’ में छप चुकी थी। मार्कण्डेय इसे अपनी प्रथम प्रकाशित रचना मानते हैं।’’4

1954 ई0 में ‘पान-फूल’ नामक इनका प्रथम कहानी संकलन प्रकाशित हुआ जिसमें व्याप्त परिवर्तनशील ग्रामीण यथार्थ ने आलोचकों का ध्यान आकृष्ट किया। प्रकाश चन्द्र गुप्त, भगवत शरण उपाध्याय, श्रीपत राय, भैरव प्रसाद गुप्त, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश और नामवर सिंह आदि ने इस संग्रह पर विस्तृत समीक्षाएँ लिखीं।

भगवत शरण उपाध्याय ने लिखा- ‘‘मार्कण्डेय की कहानियों में बदलती परिस्थितियों के अनुकूल वैविध्य, तारतम्य, घटनाओं का तीखा विकास और भावनाओं का वेगावेग; और इन सब के ऊपर छायी हुई अनुभूति की प्रखरता और आकलन की शक्ति अनेक बार पाठक को जकड़ लेती है।’’ आलोचक प्रकाश चन्द्र गुप्त ने लिखा- ‘मानवीय भावना, आवेग, चरित्र के उन्नत स्वरूप का निदर्शन, भाषा का बल............।’’

श्रीपत राय तो अभिभूत जान पड़ते हैं- ‘मार्कण्डेय की लेखनी में कहीं-कहीं पर वह जादू अवश्य है, जो आप भूल नहीं पाते।’’

नामवर सिंह ने स्वीकार किया- पहला कहानी संग्रह ‘पान-फूल’ है मार्कण्डेय का, जिसकी तरफ हिन्दी जगत की सहसा दृष्टि गयी। निश्चय ही इस आकर्षण के मूल में वस्तु और शिल्प दोनों में निहित एक नयी सर्जना दृष्टि थी।’’5

      सबसे महत्त्वपूर्ण समीक्षा ‘नयी कहानी’ के पुरोधा भैरव प्रसाद गुप्त की है- ‘सहसा ही कल्पना में लगातार प्रकाशित होने वाली मार्कण्डेय की कहानियों ने पाठकों और साहित्य मर्मज्ञों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया और जब वे कहानियाँ ‘पान-फूल’ संग्रह में शीघ्र ही प्रकाशित हुईं तो उनकी धूम सी मच गयी। यह अजीब बात है कि पात्र को लेकर कहानी बनाने के यत्न ने यशपाल की जो कहानी में कहानी के बजाय शब्द चित्र बन जाने का भय था; उसी से मार्कण्डेय ने यह नयी जमीन तोड़ी थी। ‘पान-फूल’ संग्रह की कहानियाँ शब्दचित्र नुमा ही हैं; किन्तु यहाँ पात्रों को लेकर कहानी बनाने का यत्न नहीं है। यहाँ पात्रों को सीधे उनके जीवन परिवेशों से उठा लिया गया है। यहाँ कोई बात कहने के लिए पात्रों को गढ़कर खड़ा नहीं किया गया है और न उनके इर्द-गिर्द कल्पित घटनाओं का जाल बुना गया है। यहाँ पात्र अपने जिन्दा परिवेश में, ग्रामीण रंग-रूपों की पूर्णता में, स्वयं जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं और अपने भोगे हुए जीवन को ईमानदारी से व्यक्त करते हैं। इन कहानियों की यह विशेषता और नवीनता थी, जिसने बिल्कुल एक ताजी हवा का अहसास कराया और मरियल कहानी में प्राण फूँके।’’6

मार्कण्डेय के दो अन्य कहानी संग्रह ‘महुए का पेड़’ और ‘हंसा जाई अकेला’ 1957 तक प्रकाशित हो ख्याति अर्जित कर चुके थे। 1957 में प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा साहित्यकारों का संयुक्त और वृहद् राष्ट्रीय सम्मेलन इलाहाबाद में आयोजित किया गया। मार्कण्डेय को इसके संयोजन का उत्तरदायित्व सौंपा गया। यह ऐतिहासिक सम्मेलन अभूतपूर्व था और मार्कण्डेय की संगठन क्षमता का गवाह भी बना।


एम0ए0 उत्तीर्ण कर पिता की आकांक्षा के अनुरूप मार्कण्डेय कानून की पढ़ाई कर उच्च न्यायालय में वकालत करने का मन बना चुके थे किन्तु वैसा हो नहीं सका। पिता के इस स्वप्न की पूर्ति उन्होंने अपने बेटे से करायी। उनके बेटे सौमित्र सिंह हाईकोर्ट के प्रसिद्ध और प्रखर अधिवक्ता हैं और दो पुत्रियाँ डॉ. स्वस्ति सिंह और डॉ. शस्या सिंह हैं।

मार्कण्डेय ‘कबीर में लोक तत्व’ विषय लेकर इलाहाबाद विश्व विद्यालय से डी0फिल्0 करने लगे किन्तु लेखन में अधिक सक्रियता के कारण बीच में ही छोड़ दिया। इन्हीं दिनों पी0सी0 जोशी के सम्पर्क में आये और उनसे बहुत प्रोत्साहित हुए। जब मार्कण्डेय ने माया पत्रिका का ‘भारत 1965’ नामक विशेषांक संपादित किया तो श्री जोशी ने उनकी सहायता की। धर्म, संस्कृति, इतिहास, अर्थशास्त्र और साहित्य पर आधारित यह विशेषांक अभूतपूर्व था। सन् 1964 ई0 में उन्होंने माया का ‘समकालीन कहानी’ अंक भी संपादित किया था।

एकांकी लेखक के रूप में ‘पत्थर और परछाइयाँ’ और कवि रूप में ‘सपने तुम्हारे थे’ के प्रकाशन तो मार्कण्डेय को एक अलग पहचान प्रदान करने में सफल हुए किंतु आलोचक के रूप में इनकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगा। ‘कल्पना’ में कहानी लेखन के साथ-साथ ‘साहित्य धारा’ पर आलोचनात्मक लेख लिखने लगे जो सन् 1954 ई0 से 1957 तक चलता रहा। इसके बाद भैरव प्रसाद गुप्ता संपादित प्रसिद्ध पत्रिका ‘नयी कहानियाँ’ में, जो लिखा जा रहा है, नामक स्थायी स्तम्भ में समीक्षाएँ लिखने लगे। अज्ञेय, उग्र, अश्क, भैरव प्रसाद गुप्त पर लिखी समीक्षाएँ वाद-विवाद का केन्द्र बनीं। यह कथा-आलोचना की सर्वथा नयी शैली थी जो पारंपरिक और सैद्धान्तिक आलोचना से एकदम भिन्न थी।

अज्ञेय की कहानी ‘शेखूपुर के शरणार्थी’ की आलोचना करते हुए मार्कण्डेय ने उनकी कहानी विषयक दृष्टि पर लिखा- ‘‘न जाने क्यों दिन-पर-दिन अज्ञेय का रचनाकार जीवन और जगत की ओर से उदासीन होता चला जा रहा है और ‘कलाकार की मृत्यु’ तक पहुँचते - पहुँचते उसमें इतनी असमर्थता आ गयी कि वह किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं के शिल्प पर उतर आया। आरोपित आग्रह रचनाकार के विचारों का परिचय जरूर देते हैं, पर वे रचना में ही क्यों आयें। उनके लिए भाषण और लेख का माध्यम क्या बुरा है? ..........हैरत की बात है कि अज्ञेय ने जहाँ भी एक राजनीति का विरोध किया है, वहीं एक दूसरी कमजोर राजनीति ने जन्म ले कर उनकी रचना को पंगु और प्रचारात्मक बना दिया है।’’7

इसी प्रकार उग्र की कहानियों की समीक्षा करते हुए पात्रों के चुनाव, चरित्र चित्रण, यथार्थ जीवन की पकड़ तथा दृष्टिगत अभाव की चर्चा करते हैं - ‘उग्र हमेशा बने-बनाये पात्रों की खोज में ही रहे हैं। वे जीवन की भूसी में से दाना चुनने का तकलीफ देह काम नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे दृष्टि को भी काम में लाने आवश्यकता पड़ती है, इसलिए मात्र संस्कारों के सहारे वे पात्रों की चुटिया पकड़ते फिरते हैं। .............अद्भुत बात है कि प्रेमचन्द ने हमेशा आदमी को उसके काम के बीच में से उठाकर पात्र बनाया और इसी कारण यथार्थ के प्रारंभिक प्रतिभास से उनका सम्पर्क उस समय भी बना रहा, जब वे निहायत कमजोर, आदर्शवादी समस्याओं को लेकर कहानियाँ लिखते थे। ..........पर वह देखते जरूर रहे, आँखें कभी नहीं मूँदी,  फलतः जीवन ने उन्हें अपनी ओर खींचा। उग्र के लिए जीवन का यह अमृत घट हमेशा छूछा ही रहा। ऐसा लगा कि उनमें जीवन को गहराई से समझने की क्षमता ही नहीं है।’’8

मार्कण्डेय वर्तमान जीवन के जीते-जागते पात्रों को लेकर वास्तविक जीवन की कहानी लिखने पर बल देते हैं और अपनी कहानियों की जमीन भी वही रखते हैं। नयी कहानी आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में पुराने कथाकारों की जीवन-दृष्टि पर उन्होंने बड़ा निर्मम प्रहार किया। खासकर जैनेन्द्र और अश्क पर लिखी समीक्षाएँ आक्रामक हैं। जैनेन्द्र पर लिखा- ‘जैन दर्शन के जिस संशयवाद में उनका निर्माण हुआ है, वह स्वयं अपने ही तर्कों की काट नहीं सह पाता। अगर कोई पदार्थ हो, तो वह नहीं कैसे हो सकता? .......... जैनेन्द्र की मरीचिका का मृग यही चिन्तन प्रणाली है और फिर मंत्र फूँक कर उसे हथेली पर ला रखने वाले मदारी की तरह उन्हें पाठकों की एक भीड़ में ला खड़ा किया है। वैसे हथेली पर रखे पैसे की बात तो दूर रही, उन्हें स्वयं अपनी हथेली पर भी संदेह है कि वह है या नहीं है। .............जीवन की सहज सच्चाईयों को कहानी की वस्तु बनाने का मतलब है, किन्हीं सुनिश्चित नतीजों पर पहँुचना किन्तु जो संशय मात्र को रचना का परम उद्देश्य मानता है..................। जैनेन्द्र पहले लेखक होंगे, जिन्होंने अपनी मान्यताओं के लिए कल्पना की एक नयी दुनिया खड़ी की और उसमें रक्त-मांसहीन पात्रों की परछाइयाँ दिखा कर कथानक का धोखा खड़ा किया और कथ्य को उसके भीतर से उभारने की चेष्टा की। बात मात्र जीवन के साथ गहरे तादात्म्य की है। .........जितना ही जीवनानुभव कम होगा, कल्पना उतनी ही निरंकुश होगी।............ ‘काका’ की कहानियों में गहरी समझ और जीवन की सहज सच्चाइयों के प्रति महान आस्था का लोहा मानना पड़ता है।’’9

वह उपेन्द्रनाथ अश्क पर भी हमला बोलते हैं और आरोपित मनोविज्ञान की कलई भी खोलते हैं और एक कहानी ‘ठहराव’ में लिखे शक्को के पत्र का उत्तर देते हैं- ‘हर स्थिति में सफलता की खोज को ही आप कला में भी चरम लक्ष्य बना लेते हैं, इसलिए प्रेम का कोई अव्यवस्थित प्रसंग मिलते ही आप झट उसमें बिचवई करने के लिए पक्षधर बन कर पत्र लिख देने की सीमा तक पहुँच जाते हैं। ............लेकिन सच्चाई के नजदीक वही पहुँचते हैं, जिनके पास चरित्र, उसके पूरे परिवेश की समझ और उसकी रचना के लिए शिल्पगत कुशलता होती है............ सेक्स के साथ आवेग एक आवश्यक तत्व है और बिना सेक्स के प्रेम की बात करना तो मानवीय राग के प्रवेश द्वार की अभिज्ञता ही प्रकट करेगा.............। बहरहाल मेरी राय तो यह है कि इन चरित्रों को आप कुछ दिन असली शिलाजीत के सेवन की सलाह दें।’’10

मार्कण्डेय का विचारधारात्मक विकास कांग्रेस से चल कर समाजवादी दल से होते हुए मार्क्सवादी साम्यवाद तक पहुँचता है और वह प्रगतिशील लेखक संगठन के सक्रिय सदस्य बनते हैं किन्तु अधिक जड़ और खोखली होती जाती विचारधारा से अधिक जनोन्मुखी विचारधारा का आग्रह करने वाले विचारकों का अलगाव होता गया और जब ‘जनवादी लेखक संघ’ का जन्म हुआ; मार्कण्डेय उसके संस्थापक सदस्यों में से एक रहे। ध्यातव्य है कि प्रगतिशील लेखकों के सिरमौर यशपाल और भैरव प्रसाद गुप्त तक को मार्कण्डेय ने अपनी आलोचना से हतप्रभ कर दिया था। उन्होंने इनकी कहानियों में आरोपित विचारधारा का विरोध कर इसे नयी कहानी के विकास मार्ग में बाधा सिद्ध किया और यथार्थ जीवन तथा परिवर्तित जीवन के यथार्थ को चित्रित न करने पर आड़े हाथों लिया। यशपाल की कहानियों पर जैसी बेबाक और कटु आलोचना मार्कण्डेय ने लिखी; उनके किसी समकालीन ने नहीं लिखी। आश्चर्य है कि स्वयं यशपाल ने अपनी आलोचना पढ़कर कहा कि यह अब तक उनकी कहानियों पर लिखी गयी सर्वाधिक प्रामाणित और मौलिक समीक्षा है।

मार्कण्डेय ने लिखा - ‘यशपाल जीवन के प्रति नहीं, उन बाधाओं के प्रति प्रतिश्रुत हैं, जो जीवन के विकास के मार्ग में (रूढ़ परंपरा, अंध विश्वास, अज्ञान, कुंठा) आ पड़ी है। फलतः यशपाल ने जाहिरा तौर पर जीवन की जिन समस्याओं का चुनाव किया, वे प्रगतिशील तो थीं, लेकिन उनसे कहानी की मूल प्रकृति पर कोई अन्तर नहीं आया। कल्पना की देह पर जहाँ आदर्शों की सफेद टोपी थी, वहीं अब लाल कर दी गयी। नतीजा यह हुआ कि कहानी न घर की रही न घाट की। चरित्र नकली हो उठे। .............विचारों का बोझ ढोने के लिए ऐसे ही आत्म निर्मित चरित्रों की जरूरत पड़ती है; ...........यशपाल जीवन की वास्तविकताओं के बुद्धिवादी व्याख्याता हैं, इसलिए उनके चरित्र कठपुतलियों की तरह लगते हैं। .............कथोपकथन, भाषा, प्रासंगिक वर्णनों में किसी यथार्थगत भिन्नता की बात स्वभावतः समाप्त हो जाती है। .......कहानी वह स्वयं कहते हैं..........। वह आदमी की काल्पनिक कहानियाँ कहकर सामान्य यथार्थ जीवन के मनोविज्ञान के प्रति अपनी उदासीनता प्रकट करते हैं। ..........काश वे जीवन को लेकर आये होते .............। लेकिन जीवन आता कहाँ है, वह तो बुलाता है, और रचनाकार के लिए निकष बन जाता है।’’11

भैरव प्रसाद गुप्त की समीक्षा में भी आरोपित दृष्टि-प्रक्षेप और सच्चाइयों के प्रति आँख में पट्टी बाँधने का आरोप करते हुए मार्कण्डेय उनकी कहानियों को आँखों देखा विवरण कहते हैं, जोकि भावुकता और भ्रम की सृष्टि भर है।’’12

मोहन राकेश, राम कुमार, कृष्णा सोबती, राजेन्द्र यादव, शेखर जोशी, अमरकांत, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी की कहानियों की समीक्षा करते हुए मार्कण्डेय कहानी की रचना प्रक्रिया के तमाम सवाल उठाते हैं। ‘नई कहानी की पृष्ठभूमि ही आदर्श और रोमान की रही है’- कह कर पूरे आन्दोलन को पारिभाषित करते हैं। समकालीन नयी कहानीकारों पर उनकी कुछ टिप्पणियों के आधार पर नयी कहानी के विषय में मार्कण्डेय की धारणा को समझा जा सकता है। निर्मल वर्मा के लिए लिखा- ‘लेखक जीवन की वास्तविकतओं से दूर है।’ शेखर जोशी के लिए ‘विछोह या विरक्ति की कथा’ कहकर ‘शुद्ध रोमानी’, ‘मध्यवर्गीय संस्कार ग्रस्त व परदेशी’ तक कह जाते हैं। अमरकांत से भी उन्हें शिकायत है कि ‘‘आलोचनात्मक यथार्थ की कुशल दृष्टि रखने वाले लेखक के भीतर रूमानियत का यह कोना क्यों शेष रह गया। चेतना में खालीपन आना शुरू हो गया है। जीवन के सम्बन्ध में एक अपरिवर्तनशील दृष्टि का आभास अमरकांत के एकरूपी कथानकों में है जो ठहरा हुआ यथार्थबोध सा लगने लगा है। ...........आज नयी कहानी नाम से प्रचारित अधिकांश रचनाएँ भावबोध के स्तर पर नवीनता से कोसों दूर हैं और लेखक कहीं का रोड़ा और कहीं का पत्थर मिलाकर ऐसा घाल-मेल कर रहे हैं जो भ्रमपूर्ण मनोविज्ञान की सृष्टि कर रहे हैं। समय नये सवालों के उठाने का है, न कि उन सवालों के नये उत्तर देने का जो आज की जिन्दगी से पीछे छूट गये हैं।’’13

राजेन्द्र यादव के लिए- ‘सूचनाधर्मी परिवेश में वास्तविकताओं की बुझौवल’ शीर्षक में लिखा- ‘सदियों की समाज व्यवस्था टूट रही है और जो बन रहा है उसे पहचानने के लिए नयी भौतिक दृष्टि की जरूरत है और आज का भौतिक जीवनबोध परंपरागत मान्यताओं के लिए चुनौती हो उठा है। जिसे स्वीकार करने का मतलब है बाजार से उपेक्षा, इनामी समितियों और सरकारी साहित्यकारों से तिरस्कार और पूँजीशाहों से दुश्मनी। जो दामन बचा कर निकल रहें हैं वे भ्रम की सृष्टि कर रहे हैं और भ्रम पूँजीवादी बाजार का सबसे तेज बिकने वाला सौदा है। वस्तुतः आज का संघर्ष शांति और युद्ध में नहीं वरन् दो शक्तियों में ही है। कहना न होगा इनमें से एक शक्ति भ्रम है, दूसरी वास्तविकता! और अनजाने राजेन्द्र यादव जैसा कथाकार इधर की कहानियों में भ्रम के साथ हो गया है। .............वस्तुतः मानवीय संवेदना और अनुभूतियों का सचेत परित्याग ही व्यावसायिक लेखन की सबसे बड़ी पहचान है। ............वे बड़े ठंडे दिल से निहायत बनावटी कहानी का सृजन करते हैं................ वह इस महाजनी युग की मूलवृत्ति के प्रभाव में नयी कहानियों की वस्तुवादी, जीवनोन्मुख धारा से किनारा कर चुके हैं।’’14

राजेन्द्र यादव और उन जैसे मध्यमवर्गीय जीवन पर रोमानी कहानियाँ लिखने वाली समूची पीढ़ी पर इससे सटीक टिप्पणी कोई दूसरी नहीं हो सकती थी। कृष्णा सोबती के लिए ‘अनोखी रीति इस देह तन की’ शीर्षक के अन्तर्गत लिखा- ‘मार्ग में टिके रहने का अश्लील दुराग्रह कर रही हैं। यह मात्र आत्म-प्रक्षेपण की नकली
कहानी की तरह विकृतियों में चटखारे लेने के सिवा और क्या है? ‘मित्रो’ में समसामयिक स्त्री के शील का औसत प्रतिभास नहीं है और विपरीत मनोविचार की सृष्टि करती है। ........वे यथार्थ के आभास की लेखिका है और इससे तनिक और नीचे उतरने पर नुस्खों का रचनाकार बनते देर नहीं लगती।’’15

रामकुमार के सन्दर्भ में मार्कण्डेय काफ्का और कामू की कहानियों की तारीफ करते हैं। भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ के चारित्रिक विकास पर आपत्ति करते हैं और ‘परम्परागत बोध के पठार से आगे बढ़ कर बोधहीनता की नयी सच्चाई को भी देखने’ की सलाह देते हैं - ‘‘भीष्म साहनी की कहानियाँ पढ़ते हुए बार-बार हवा में उड़ते हुये उस दामन की याद आती है जो एक नन्हें से काँटे में फँस गया है। न वह खुलकर उड़ ही पाता है, न बदन में चिपक कर रह पाता है।’’16

ध्यातव्य है कि इस समीक्षात्मक दौर में मार्कण्डेय का रचनात्मक लेखन अत्यल्प रह गया। सन् 1960 में जब कहानी संग्रह ‘माही’ का प्रकाशन हुआ तो उसकी रागात्मक बोध की कहानियों को पढ़कर लोगों ने कटु आलोचना की। उन्होंने लिखा- ‘उभरती हुई नयी सच्चाइयों के रागात्मक सम्बन्धों का रूप इसमें चित्रित है।’’17 डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल ने लिखा- ‘पान-फूल’ और ‘महुए का पेड’ के सशक्त और जागरूक कहानीकार की उस संघर्षमयी सार्थक सामाजिक चेतना को क्या हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘कामू’ और ‘सात्र्र’ की किताबों द्वारा प्राप्त आधुनिकता के मोह ने तो उसे नहीं डँसा? या लोक ग्राम जीवन की यथार्थ सामाजिकता की संघर्षमयी चेतना में जीना उसे हेय  लगा।’’18

मार्कण्डेय पर इन प्रतिकूल आलोचनाओं का प्रभाव पड़ा और जल्दी ही उन्होंने भूल सुधार कर ली। डॉ. विवेकी राय लिखते हैं- ‘वही 59-60 तक नगर बोध ओढ़ कर सो रहते हैं। कथा साहित्य के इतिहास में यह एक चिंता का अध्याय है। अपने छठवें कहानी संग्रह ‘सहज और शुभ’ (1964) में पुनः उलझाव छोड़कर मार्कण्डेय ग्राम जीवन की ओर लौटते हैं। शायद ‘माही’ पर आयी प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं का यह प्रभाव रहा।’’19


      सन् 1960 में भारत सरकार द्वारा बुलाकर दी गयी रेडियो की नौकरी मार्कण्डेय ने केवल दो माह में छोड़ दी और पुनः पारिवारिक चिंता और उलझाव में रम गये। वह अक्सर कहते हैं- ‘अब तो कान्ह मर गयी है।’’20 इसके बाद लगभग सन् 1975 ई0 तक मार्कण्डेय पारिवारिक उलझनों में घिरे रहे किंतु हारे नहीं। ‘प्रिया सैनी’ और ‘बीच के लोग’ नामक कहानियों के प्रकाशन से एक बार फिर चर्चा में आये। सन् 1980 में प्रकाशित ‘अग्निबीज’ नामक उपन्यास ने उन्हें राजनैतिक जीवन की मजबूत पकड़ रखने वाले कथाकारों की कोटि में पहुँचा दिया। इस पर तमाम पत्र-पत्रिकाओं में व्यापक विचार-विमर्श हुआ।

राजेन्द्र वर्मा ने लिखा- ‘अग्निबीज’ आजादी के बाद के भारतीय ग्राम की तस्वीर है।’’21

प्रकाश मिश्र ने लिखा है - ‘मार्कण्डेय एक प्रतिबद्ध रचनाकार है। ‘अग्निबीज’ में समूचा ग्रामीण समाज अपने पूरे स्वाभाविक रूप में उभरा है। इस सच्चाई को उजागर किया है कि यह आजादी वास्तविक आजादी नहीं है। लेखक का वास्तविक लक्ष्य ग्रामीण समाज की सारी विकृतियों के बीच से फूटने वाली उस चेतना को रेखांकित करना रहा है जो अंततः सारी विसंगतियों को भस्मीभूत कर सार्थक व्यवस्था की वाहिका सिद्ध होगी। ..........लेखक की आस्था गाँव की मिट्टी में अंकुरित होने वाले चारों अग्निबीजों पर केन्द्रित है। प्रेमचन्द परम्परा की एक सशक्त कड़ी है ‘अग्निबीज’।’’22

एक अन्य समीक्षा में ‘अग्निबीज’ को भारत के सम्पूर्ण ग्रामीण समाज की कथा स्वीकार किया गया है।’’23

    डॉ.  आनन्द प्रकाश इसे ‘नयी लेखकीय चुनौती का स्वीकार’ शीर्षक से विश्लेषित करते हैं।’’24 आकाशवाणी में पठित अपनी समीक्षा में आचोचक डॉ. सत्य प्रकाश मिश्र ने इसे मानवीय और सामाजिक रिश्तों के बदलते सन्दर्भों और स्थितियों के दबाव से टूटते रिश्तों की सशक्त कथा स्वीकार किया।’’25 अरुण माहेश्वरी ने इसे ‘युवा संकल्पों के निर्माण का प्रभावशाली उपन्यास’ सिद्ध किया है।’’26 डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव ने इसे ‘राजनीतिक उपन्यास के बहाने हिन्दी की जातीय धारा का महत्त्वपूर्ण उपन्यास कहा।’’27 डॉ. शिव कुमार मिश्र ने भी ‘सही इतिहास दृष्टि की पहचान’ शीर्षक से लम्बी समीक्षा लिखी। उनके उपन्यास कहानियों पर अन्य अनेक समीक्षाएँ भी प्रकाशित हुई हैं।

मार्कण्डेय मिलनसार और ‘अतिथि देवो भव’ की भारतीय संस्कृति के प्रबल पक्षधर हैं। उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए किंतु उन्होंने उन्हें अत्यन्त सहजता से स्वीकार किया। उनकी तीन संतानें-एक बेटा और दो बेटियाँ हैं। तीनों अब व्यवस्थित हो चुके हैं। पत्नी विद्या जी परम धर्मनिष्ठ, विनम्र, सरल और ममतामयी सद्गृहिणी हैं। मार्कण्डेय जी जनवादी लेखक संघ के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्याख्याता और नीतिनियंता हैं। पूरे देश में उनके मित्रों, सहयोगियों और अनुयायियों, प्रशंसकों की लम्बी फेहरिस्त है। छोटे से छोटा रचनाकार या विद्यार्थी भी मार्कण्डेय के अथाह स्नेह और सम्मान से अभिभूत रहा करता है। उनकी संगठन शक्ति, वक्तृत्व शैली, साफगोई, हँसमुख व्यक्तित्व और हल्की मुसकराहट के बीच व्यंग्य की मीठी- गुदगुदाती शैली सामने बैठे मित्रों, सहयोगियों को आनंदित करती है। उनका व्यक्तित्व मानों एक दर्पण है जो उनकी रचनाओं में भी बार-बार दीप्त होता रहता है।’’28

मार्कण्डेय राजनीतिक संघर्षों में साहित्य के नेतृत्व की भूमिका स्वीकार करने वाले लेखक नहीं हैं; बल्कि सामाजिक यथार्थ की समझ और क्रान्तिकारी चेतना के निर्माण तक की यात्रा को ही सृजन की यात्रा मानने के पक्षधर हैं। वे सत्य और शिव के साथ सौन्दर्य के समर्थक हैं।’’29 ‘कथा’ नामक अनियतकालीन प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक रूप में भी इनका व्यक्तित्व साकार हुआ है।
 

मार्कण्डेय बाद में कई बीमारियों के चपेट में आ गए। पहले 1997 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा। दिल्ली में इलाज करा कर इलाहाबाद वापस लौट कर मार्कण्डेय उसी जिजीविषा से काम करने लगे।  लेकिन एक बार फिर 2008 में मार्कण्डेय ने अपने गले में कुछ गड़बड़ पाया। जांच कराये जाने पर यह गले का कैंसर निकला। पहली बार तो वे इलाज से स्वस्थ हो गए लेकिन दूसरी बार 2010 में यह कैंसर फेफड़े तक पहुँच गया। दिल्ली के रोहिणी में राजीव गांधी कैंसर संस्थान में  मार्कण्डेय का समुचित इलाज कराया गया। एकबारगी यह लगा कि अब वे स्वस्थ हो गए हैं और वापस जिस दिन बेटी के साथ आजमगढ़ जाना था उसी दिन 18 मार्च को सायं पाँच बजे उनका निधन हो गया।  मार्कण्डेय इलाहाबाद लौटना चाहते थे लेकिन लौटे पार्थिव हो कर। 19 मार्च 2010 को इलाहाबा में रसूलाबाद घात पर उनकी अंत्येष्टि कर दी गयी।

मार्कण्डेय का कृतित्व:
मार्कण्डेय ने कहानी, उपन्यास, एकांकी, कविता और आलोचना साहित्य को समृद्ध किया है और सफल संपादक के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं। उनकी कृतियों का संक्षिप्त विवरण अपेक्षित है।

कहानी संग्रह

पान-फूल:

मार्कण्डेय का यह प्रथम कहानी संग्रह सन् 1954 ई0 में बद्री विशाल पित्ती की प्रेरणा से नवहिन्द पब्लिकेशन्स हैदराबाद से छपा। बाद में सन् 1957 ई0 में इसे स्वयं मार्कण्डेय ने अपने प्रकाशन ‘नया साहित्य प्रकाशन’ 2-डी, मिन्टो रोड, इलाहाबाद से छापा। इसमें कुल बारह कहानियाँ हैं। अनेक आलोचक इसे नयी कहानी आंदोलन का प्रथम कहानी संग्रह मानते हैं।’’30 कहानियाँ हैं:- गुलरा के बाबा, बासवी का माँ, नीम की टहनी, सवरइया, पान-फूल, घूरा, रेखाएँ, रामलाल, संगीत आंसू और इन्सान, मुंशी जी, सात बच्चों की माँ, कहानी के लिए नारी पात्र चाहिए।

महुए का पेड़:

मार्कण्डेय का दूसरा कहानी संग्रह सन् 1955 ई0 में ‘नया साहित्य प्रकाशन’, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। ‘इसमें ‘पान-फूल’ के बाद की दस चुनी हुई कहानियाँ संगृहीत हैं।’’31 जूते, एक दिन की डायरी, नौ सौ रूपये और एक ऊँट दाना, साबुन, मिस शांता, महुए का पेड़, मन के मोड़, हरामी के बच्चे, मिट्टी का घोड़ा, अगली कहानी।

हंसा जाई अकेला:

मार्कण्डेय का तीसरा कहानी संग्रह सन् 1957 ई0 में ‘नया साहित्य प्रकाशन’, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। ‘इसमें न ‘पान-फूल’ की कोमल संवेदनाएँ और लुभावनी भाषा है, न ‘महुए के पेड़’ की झुंझलाहट और आक्रोश से भरी तीखी सामाजिक दृष्टि। बेहद सहज शैली में कही गयी इन कहानियों में मैंने गाँव का नया धरातल छूने का प्रयास किया है। .........जनता का जीवन ही वह धरातल है जहाँ लेखक अपने अनुभव संगठित करता है। कथानक की नवीनता इसमें है कि साधारण मानवीय जीवन में वह कौन सा विशेष नयापन है जो हमारी सामाजिक परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण पैदा हो गया है या बिना किसी परिवर्तन के भी जीवन का कौन सा ऐसा पहलू है, जो साहित्य में अब तक अछूता है। उदाहरण के लिए प्रेमचन्द (पूस की रात) ने जीवन के परिवर्तित होने वाले पहलू को देखा और यशपाल (फूलों का कुर्ता) ने केवल एक अनदेखे जीवन चित्र पर से परदा हटा दिया है। .........गाँव के जीवन में नयी दृष्टि का समावेश करना तथा वहाँ के जीवन की परिवर्तित दिशा को देख पाना ही नयी कहानी के सृजन में सहायक हो सकता है। गाँव-शहर का विभाजन उचित नहीं। हमारा नया संवेद्य जनतंत्र का गरीब जन है।’’32

इस संग्रह में कुल सात कहानियाँ हैं - कल्यानमन, सोहगइला, दौने की पत्तियाँ, बातचीत, हंसा जाई अकेला, चाँद का टुकड़ा तथा प्रलय और मनुष्य।

भूदान:

मार्कण्डेय का चैथा कहानी संग्रह सन् 1958 ई0 में उन्हीं के प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। मार्कण्डेय ने इसकी विस्तृत भूमिका में नयी-पुरानी कहानियों के पार्थक्य पर विचार करते हुए नयी कहानी के अधकचरे कथाकारों पर भी निशाना साधा है और नयी ग्रहणशीलता पर बल दिया है। नयी कहानी आंदोलन की शक्ति, सीमा और प्रासंगिकता से लेकर शिल्प, वस्तु, प्रतीक विधान आदि पर नये ढंग से प्रकाश डाला है।’’33

इस संग्रह में आठ कहानियाँ हैं:- माई, आदर्श कुक्कुट गृह, धूल का घर, भूदान, बिन्दी, शव साधना, उत्तराधिकार और दाना-भूसा।

माही:

मार्कण्डेय का पाँचवा कहानी संग्रह सन् 1960 ई0 में उनके ही प्रकाशन ‘नया साहित्य प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ। ‘भूदान के बाद लिखी गयी कहानियों में से कुछ कहानियाँ...........। उभरती हुई नयी सच्चाइयों के संदर्भ में रागात्मक सम्बन्धों का जो रूप इन कहानियों में चित्रित है................बदलते हुए जीवन के यथार्थ के प्रति लोगों को सजग करके......।’’34

इसके प्रकाशन पर काफी आक्रामक प्रतिक्रियाएँ हुई थीं और उन पर ग्राम्य जीवन की समस्याओं से पलायन करने के आरोप लगे थे।

इस संग्रह में आठ कहानियाँ हैं:- दूध और दवा, सतह की बातें, माही, सूर्या, तारों का गुच्छा, आदर्शों का नायक, पक्षाघात और आवाज।

नारी पात्र चाहिए:

यह पाकेट बुक्स संस्करण ‘पान-फूल’ संग्रह के आधार पर तैयार कर मार्च 1961 में मार्कण्डेय के ही प्रकाशन से छापा गया था।’’35

तारों का गुच्छा:

सन् 1961 में प्रकाशित यह संग्रह ‘माही’ का पाकेट संस्करण है, जिसे लेखक ने पाठकों की माँग पर काफी सस्ते मूल्य 75 नये पैसे में छापा है।’’36


सहज और शुभ:

मार्कण्डेय की कहानियों का छठा संग्रह नवम्बर 1964 को उन्हीं के प्रकाशन से छपा। मूल्य था तीन रूपये पचास पैसे। उन्होंने लिखा- ‘‘मेरे लिए सच्ची रचना वहीं कहीं छिपी है, जहाँ जीवन बदल रहा है।’’37

इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं:- घुन, आदमी की दुम, आँखें, मधुपुर के सिवान का एक कोना, सहज और शुभ, कानी घोड़ी और एक काला दायरा।

बीच के लोग:

मार्कण्डेय का सातवाँ कहानी संग्रह लगभग इक्कीस वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद 1985 ई0 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने छोटी सी भूमिका में स्वीकार किया- ‘यह सातवाँ संकलन एक अरसे बाद तब प्रकाशित हो रहा है जब आत्मानुभूति पर आधारित भाववादी अनुरक्ति का दबाव कहानी को यथार्थवादी मार्ग से विचलित कर रहा है।’’38 इसमें लँगड़ा दरवाजा, बादलों का टुकड़ा, बीच के लोग, बयान, गनेसी और प्रिया सैनी नामक छः कहानियाँ संकलित हैं।

मार्कण्डेय की कहानियाँ:

इस नाम का प्रथम भाग मार्कण्डेय ने नया साहित्य प्रकाशन से 1986 ई0 में प्रकाशित किया था। इसमें पूर्व संग्रहों में से दस कहानियाँ चयनित हैं किन्तु अन्य भाग प्रकाशित नहीं किये गये।

बाद में 2002 ई0 में इसी नाम से अब तक कुल प्रकाशित सातों संग्रहों की कुल 58 कहानियों का एक संकलन लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है, जिसका मूल्य है पाँच सौ रूपये। इस समय तक मार्कण्डेय मिन्टो रोड स्थित अपना किराये का मकान छोड़कर निजी नये मकान ए0डी0 2, एकांकी कुंज, 24, म्योर रोड, इलाहाबाद में आ गये थे।

उपन्यास

सेमल के फूल:

यह माह दिसम्बर, 1956 ई0 में प्रकाशित मार्कण्डेय का प्रथम उपन्यास है जो मानव के शाश्वत रागबोध पर आधारित एक प्रेमाख्यानक उपन्यास है। वस्तुतः इसके पूर्व ‘धर्मयुग’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन हो चुका था। नेमि चंद जैन ने इसे ‘कथाकार व्यक्तित्व का एक नया स्तर’ स्वीकार किया है।’’39 कवि केदारनाथ अग्रवाल ने 18 फरवरी, 1957 ई0 को लिखे पत्र में इसे खूब सराहा है।’’40

ऐसा लगता है कि इसे नीलिमा और सुमंगल की प्रेम कहानी कहना बहुत तर्कपूर्ण नहीं होगा। दरअसल यह सुमंगल नाम के एक युवा सर्वोदयी नेता की कहानी है, जो जनसेवा की सनक में अपने वैयक्तिक जीवन को नष्ट और सारहीन कर, अपने निर्मल समर्पित प्रेम तथा प्रेमिका की बलि दे देता है।

अग्निबीज:

यह बहुचर्चित उपन्यास सन् 1981 ई0 में ‘नया साहित्य प्रकाशन’ इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ; और इस संकल्प के साथ-साथ ‘अग्निबीज’ स्वतन्त्रता के बाद, 53, 54 के आस-पास के ग्रामीण संदर्भों में उभरते पात्रों की सामाजिक, राजनैतिक चेतना की विकास यात्रा को रेखांकित करने वाले कथानक का पहला उपन्यास है।’’41 इसके अन्य भाग भी लेखक की योजना के अंग थे पर लिखे नहीं जा सके। 


कविता-संग्रह

सपने तुम्हारे थे:

यह सन् 1961 ई0 में प्रकाशित मार्कण्डेय का एक मात्र कविता संग्रह है; जिसमें कहीं हृदय की नितांत कोमल भावनाओं का संस्पर्श है तो कहीं जीवन और युग की विडंबनाओं के चित्र।

एकांकी संकलन

पत्थर और परछाईयाँ:

सन् 1960 ई0 में प्रकाशित मार्कण्डेय के एकांकियों का एक मात्र संकलन है।

आलोचना

कहानी की बात:

सन् 1984 ई0 में लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित यह ग्रंथ कथा आलोचना का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसमें छठे दशक में ‘माया’ तथा ‘नयी कहानी’ में लिखे गये लेखों का संकलन किया गया है। कहानीकारों पर लिखे गये मार्कण्डेय के पन्द्रह समीक्षात्मक लेख इसमें संकलित हैं।

सम्पादन

कथा:

अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘कथा’ का सम्पादन मार्कण्डेय के कुशल रचनात्मक व्यक्तित्व का दर्पण है। इसका पहला अंक जनवरी 1970 में, दूसरा अंक जून 1970 में, तीसरा अंक मई 1971 में प्रकाशित हुआ। अंक 4 अगस्त 1974 तथा अंक 5 नवम्बर 1975 में प्रकाशित हुआ। इसका ताजा अंक 11 दिसम्बर 2006 में प्रकाशित हो चुका है। कथा और आलोचना को केन्द्र में रखकर मार्कण्डेय समसामायिक साहित्य पर विचार विमर्श करने पर बल देते हैं।

बाल साहित्य:

मार्कण्डेय ने नया साहित्य प्रकाशन से कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति, बाल हितोपदेश, बाल पंचतंत्र और प्रेमचन्द आदि बाल साहित्य की पुस्तकों का भी सम्पादन किया।

इसके अतिरिक्त मार्कण्डेय के अनेक लेख, वक्तव्य, वार्ताएँ, समीक्षाएँ, कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। उनसे लिए गये एक लम्बे साक्षात्कार के आधार पर डॉ. बाल कृष्ण पाण्डेय ने उनके व्यक्तित्व पर एक परिचयात्मक लेख तैयार किया है जो शीघ्र ही प्रकाशित भी हो रहा है।

नयी कहानी आन्दोलन में परिवर्तनशील ग्रामीण यथार्थ को आधार बनाकर वस्तु परक जीवन संदर्भों की कथा लिखने वाले मार्कण्डेय नयी कहानी आंदोलन में सबसे अलग राह बनाने वाले किन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं चर्चित रचनाकार के रूप में स्थापित हैं। सच्चे अर्थों में मार्कण्डेय एक अग्निबीज हैं।








सम्पर्क-

मोबाइल- 09450945041

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (20-03-2015) को "शब्दों की तलवार" (चर्चा - 1923) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. मैं आपके बलोग को बहुत पसंद करता है इसमें बहुत सारी जानकारियां है। मेरा भी कार्य कुछ इसी तरह का है और मैं Social work करता हूं। आप मेरी साईट को पढ़ने के लिए यहां पर Click करें-
    Herbal remedies

    जवाब देंहटाएं
  3. मार्कंडेयजी के कहानी संग्रहपर ph. D कर रहा हुॅं| उनके7 कहानीसंग्रह चाहिए थे|कैसे मिलेंगे
    1) पान-फूल 2) महान का पेड3)

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं