महाभूत चन्दन राय की कविताएँ



 
महाभूत चन्दन राय


परिचय
जन्म तिथि  : 25.11.1981, स्थान- ग्राम-बैकुंठपुर, जिला-वैशाली, बिहार! 

शिक्षा  :  केमिकल इंजीनियरिंग

लेखन : स्वतन्त्र लेखन !

कविता, कथा और उपन्यास विधा में समानांतर लेखन!

कवितायेँ : उम्मीद, कथादेश”, “परिकथा”, “दैनिक जागरण”,आगाज”,“हिंदी चेतना”, “कृति ओर” “कादम्बनी”, “समालोचन”, “कविताकोश”, “असुविधा”,  “जानकीपुल”, अनुनाद, फर्गुदिया, सिताब-दियारा में प्रकाशित,!

कहानी : हंस अगस्त अंक  में प्रकाशित कहानी "काली लड़की" कहीं भी प्रकाशित होने वाली प्रथम कहानी!  बेपरवाह पहली लिखी कहानीनिकट पत्रिका में चयनित ! एक और  कहानी कथादेश में चयनित

एक प्रश्न सहज ही मन में उठता है कि कवि औरों से आखिर किस मायने में अलग होते हैं? और इसका जवाब भी कवि की कविता में ही मिल जाता है. युवा कवि महाभूत चन्दन राय आज की समकालीन पीढ़ी में एक चर्चित हस्ताक्षर हैं जिनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से एक कवि दिखायी पड़ता है. कवि जो स्वाभिमानी है. और वह इसीलिए है कि उसके पास दुनिया का सब कुछ अपने पास ही बटोर लेने की सनक नहीं है बल्कि वह तो समूची मानवता को बचाए रखते हुए कम की आदत को आज भी बचाए-बनाए हुए है. कबीर के शब्दों में कहें तो 'साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाय.' समृद्ध कवि परंपरा को बचाए रखने की आश्वस्ति चन्दन की कविताओं में सहज ही दिख जाती है. तो आइए पढ़ते हैं महाभूत चन्दन की कुछ बिल्कुल नयी कविताएँ.   

महाभूत चन्दन राय की कविताएँ           


कम की आदत



मुझे कम लोगों के बीच रहने की आदत है
भीड़ से जाने क्यों मुझे घबराहट होती है  

शायद इसलिए कि दुनियादारी की इस प्रदूषित हवा में
जब मेरे भीतर के आदमी की सांस फूलने लगे
तो इस कम होती आदमियत की रौशनी  
और धुंधले पड़ते अपनापे के बीच
अपने लोगों को पहचान सकूँ

कि जब फूट-फूट रोता हूँ तो कोई अपना 
एक हँसी का टुकड़ा उधार दे सके
और कहे लो हँस लो जी भर हम सूद न लेंगे

कि जब थक कर हाथ उठा सकने का भी मन न हो
तब भी कहें चलो यार! हम तुम्हे अपने पाँव देते हैं
जो मेरे हारने पर भी दे मुझे शाबाशी
कमाल हारते हो यार...
भाड़ में जाए ससुरी जीत!!
 
जब मरूं तो अकेला कमरे में न सड़ता रहूँ
अपने कंधे पर उठा छोड़ आये मुझे मेरे मायके
और तुनक कर कहें
लो तुम्हारा गौना कर ही दिया आखिर
अब खूब मजे लो / अपनी महबूबा के साथ

इस  कम पड़ते प्रेम और कठिन होते जीवन में
मैं उस कम होती अपनौती को बचाये रखना चाहता हूँ
जिनके लिए जीवन मुनाफे और घाटे का विषय नहीं है
जिन्हें इस कम में रहने की आदत है...
जिन्हें प्रेम करने के लिए 'कारणों' की जरूरत नहीं पड़ती!


चूहों के प्रदेश में बिल्लियों का चातुर्य

बिल्लियाँ कभी घोषणा नहीं करती कि
चूहे अब उनकी भूख में शामिल नहीं हैं
यद्यपि वे भरमाये रखती हैं अपनी हज-यात्राओं की घोषणाओं से  

यह देख चूहे बिलों से निकलते हैं बाहर
अपनी-अपनी प्रार्थनाओं की घंटियाँ लिए
बिल्लियाँ जितनी जोर से गा सकती हैं चूहा-भजन गाने लगती  है
फुटपाथ पर खड़ा कोई एक चूहा साहस करता है बोलने का
और बिल्लियों के चातुर्य पर लगभग सम्मोहित
अचानक पढ़ने लगता है बिल्लियों की प्रशंसा में शब्दोच्चारण
बिल्लियाँ मुस्कराहट के अभिनय के साथ पहनती  है   
चूहे की लायी घंटियाँ, पुष्प गुच्छे और उपहार!

यह सही अवसर है चूहा अब पूरी तरह से 
प्रतीकों और संकेतों के भ्रम से इस खेल में फांस लिया गया है
बिल्ली झपट्टा मारती है और चूहे को निगल जाती हैं

चूहे बिल्ली का यह खेल दरअसल हर ताकतवर और कमजोर
के बीच होने वाले संघर्ष का एक चिरपरिचित तरीका है
जिससे सत्ता का प्रतिनिधित्व करती बिल्लियाँ चतुराई से
अपनी भूख और महत्वकांक्षाओं का कारोबार चलाती है  
और पिछड़े वर्ग के प्रतीक चूहों के भीतर पनपते हुए प्रतिरोध को
आसानी से प्रार्थना की घंटियों में तब्दील कर देती है 
मुर्ख चूहे पूजने लगते हैं बिल्लियों के पाँव  

इस तरह कोई नहीं जान पाता चूहे मारे जाते रहते हैं
और बिल्लियाँ पुरस्कृत होती रहती है..
हजयात्रा सी अपनी इस दोगली सदभावना पर!

यह घोर चिंता का विषय है कि.. 
आत्म-त्राण से भयभीत चूहे भूलने लगे अब कुतरने का दुस्साहस
और बिल्लियाँ घूम रही निर्भीक है पांवों में महावर लगाये
डरपोक चूहों के प्रदेश में!! 


हाथी के दांत

वह कोई जादूगर था, ही था कोई देव
वह न यक्ष था, गन्धर्व, दरवेश..
यहाँ तक कि वह ठीक से मनुष्य तक भी नहीं था 
वह किसी ऐसे वेश में था जिसे प्रजा अपरिचित थी
संभवत वह माहिर था हाथ की सफाई में..
क्योंकि उसने वादों की पिटारी खोल कर 
दिखाए थे प्रजा को मनोकामना पूर्ण करने वाले
कुछ पकड़े हुए इच्छाधारी साँप
वह धूर्त जंगल हो चुकी नगरी का राजा घोषित हुआ!

यद्यपि वह सपेरा भी नहीं था...
किन्तु उसने खूब बजाई इच्छाधारी साँपों के वश में करने वाली बीन
वह जब बोलता था केवल तभी प्रकट होती थी उसकी सूंड
उसने अपनी सूंड उठा कर प्रजा को भरोसा दिया था..
हे प्रजाजनों आपका यह संभावित भूपति
शत्रुओं और मित्रों की आँखों में आँखे डाल कर 
समानुपाती भाव में बाते करेगा..
वह शत्रुओं का शत्रु है और मित्रों का मित्र”!

जबकि उसने शत्रुओं की परिभाषा बताई
ही मित्र होने के अनिवार्य गुण बताये
तथापि प्रजा आनंदित थी ललायित थी और मंत्रमुग्ध भी 
देखकर उसकी हाथी वाली सूंड और सांपवशी बीन 
जो देखने में चमकीली चिकनी चुपड़ी थी
और बीन बजने में मनमोहक!

वह अपनी पूर्वघोषित सद्भावना राज-यात्रा में
जंगल के कुछ विख्यात और कुख्यात
वजीरों, सिपहसलारों, नरेशों, कुलपतियों, धर्मभीरुओं से मिला 
वह चोर-उचक्कों, भांडों,लुटेरों, हत्यारों से मिला 
उसके आतिथेय में कुछ बाघ थे, सियार थे, कुछ भालू 
कुछ बंदर और कुछ लकड़बग्घे..
उन सारी संगोष्ठियों, समारोह, चर्चाओं, अनुष्ठानों में 
वह कभी नृप हुआ कभी रंक कभी एक  भृत्य
कभी-कभी उसने की दरबानी भी..
कुछ के पैर पखारे, कुछ की ताजपोशी !

हतप्रभ थी प्रजा
वह विस्मृत कर चुका था अपना राजधर्म
वह मायावी था रूप बदलता था अवसरवादी था
उसकी पोटली खाली थी और नदारद थे सारे सांप..
और उग आई उसकी कुत्ते वाली दुम 
प्रजा आहत थी ऐसे राजा के चुनाव पर
किन्तु यही तो प्रजातंत्र जिसमे 
हाथी के दांत खाने के कुछ और हैं 
और दिखाने के कुछ और
पर प्रजा है कि हाथियों का पक्षधर होने के बाद 
उनका विपक्ष हो नहीं पाती

हे प्रजा हाथियों से सावधान!! 

 
गाँव वापसी



इस बेरहम परदेश में बैठोर
मैं दाने-पानी को दर-दर भटकता
लुटता-पिटता-गिरता-मरता जीता हुआ जुगाड़ सा जीवन
मैं थक चुका हूँ अब इस शहर की चालबाजियों से
मैं मिटटी के देश का परिंदा अब लौट जाना चाहता हूँ
अपने पुरखों के गाँव अपने घास के घौंसले में
यहाँ शहर की बनावटों से अब जी उचटता है मेरा !

लौटते हुए मैं मन भर बतियाऊँगा गेहूँ की बालियों से
पूछूंगा जौ से तुम इतनी खूबसूरत क्यों हो
जानूंगा धान से कहाँ से पाया है तुमने ये धानी रंग
कौन वर में मकई तुमको मिला है ई सुनहला राजसी पोशाक
किसके प्रेम में पीली चुनरिया ओढ़ तुम झूमती हो सरसों
अरी महुआ जेठ की झाँख में भी तुम कैसे बचाती हो अपनी महक
ओ कपास तुम्हारे फूल न होते तो नींद सिरहाने कैसे सोती!

मैं गाँव की मिटटी में नहाऊंगा जी भर लोट-पोट
वैसे ही जैसे पंडुक धोता है अपने पंख पोखरी में
जैसे चंचल गिलहरियाँ इत-उत डार-डार नाचती कूदती हैं

कभी सुग्गे सा आम की गाछी में उड़ूँगा
कभी मैना हो चोरी-चोरी महाजन की बगिया की जामुन चखूँगा
लीची के लसियाए गुच्छों पर मधुमक्खी बन मँडराऊंगा
जीयूँगा खप्पर के घर में खेतिहर सा जीवन
पहनूँगा गमछे का मुरैठा, सूती-धोती, खादी-कुर्ता और लंगोट
खाऊंगा खूब खीरा-ककड़ी तरबूजे और खरबूजे!!

बाँधूगा नीम की डारी पर मचान और रात भर ताकूंगा चाँद
सुबह ईख के खेतों से खोन कर फाकूंगा एक मुट्ठी मिटटी
रोज सवेरे सोनचिरई सा चोंच भर-भर पीऊंगा ओस
सारस से सीखूंगा पढ़ना बादलों का शगुन
जानूंगा कैसे मोर अपने पंखों में भरते है मेघ का रंग...
फाग की ताल पपीहे से तो कोयलिया से सावन का सुर...
कभी कागा हो कर, कभी बगुला हो कर ऊँचे उड़ूंगा बादलों में
पोर-पोर में रोम-रोम में भरूंगा गाँव का स्वाद!

रोज अंगोछे में बांध कर चने का सत्तू
पोटली में मक्के की रोटी
डब्बे में तीसी की चटनी आलू का चोखा

सरसों का साग परबल की तरकारी
हाँकते हुए यह जीवन
रोज जाऊँगा खेत बैलगाड़ी में
खूब छाटूँगा छाँव बटोरूँगा धूप जोतूंगा हल
साँझ होते.होते मेरी पीठ पर जब उगेगा
परिश्रम का अर्घ्य, बित्ते भर खेत
सुखाऊंगा बदन फिर पीपल के नीचे

माटी की इस ऊसर देह में गोड़ने
माटी पानी का जीवन
करता हूँ मैं अब गाँव वापसी!!

शब्द-राग



शब्द ही तो आखिर...
शेष सम्बन्ध  है हमारे,
हम मरी हुई दुनिया के मरे हुए लोग...
आखिर शब्दों में ही तो जिन्दा हैं

दुनिया का सबसे छोटा और पवित्र शब्द हैं
‘माँ’
जिसे उच्चारते ही प्रवेश लेता है
हमारे भीतर एक शब्द ‘पुण्य’
‘पिता’ यह दूजा विनम्र शब्द है
यहीं से शुरू हुआ है प्रार्थनाओं का क्रम
तीसरा शब्द है ‘चरण-स्पर्श’
यही तीसरा शब्द हमारे समर्पण का अर्घ्य है
यहीं से जन्मता है हमारी सृष्टि में संस्कार !

शब्द भाषा का वह नाद है!
जिसे उच्चारते ही सजीव हो उठती है जड़ता!
 सूर्य के अधरों से फूटता है एक शब्द
‘भोर’
और दिन ग्रहण करता है जीवन का भेद
चल पड़ता है दबे पाँव ज्ञान की खोज में
उसका जीवन-विन्यास
शाम होते-होते जगह छोड़ता है दिन
कि स्थायी नहीं कुछ भी
और अँधेरा सृजता है अभिव्यक्ति का एक शब्द
‘रात’
पनपता है वहीं से ‘सुकून’ एक शब्द
जो सिखाता है त्यागो मोह
‘नींद’ हमारे अस्तित्व में उपस्थित एक अनिवार्य शब्द है
इस तरह एक जीवन-चक्र पूरा होता है
मोह-वैराग्य-मृत्यु-मोक्ष-मुक्ति का!

एक और निहायत जरुरी शब्द है ‘प्रेम’
यही वह शब्द है जो समेटे अपने भीतर सारा ब्रह्माण्ड
और यही से प्रारम्भ होती है हमारे कथनों में कसमे
और यही से अंकुरित हुआ था हमारे हृदयों में ‘विश्वास’

याचना लगभग विलाप से मिलता जुलता शब्द है
अहंकार और अपमान इसी निर्वाह की शब्द-कड़ी है

फूल ‘क्रोध’ नहीं करते
वृक्ष नहीं रखते ‘ईर्ष्या’
मुरझा जाते है जब दोनों चुपचाप
इस तरह नष्ट होता है एक शब्द ‘खुशबू’
यह ‘खुशबू’ एक शब्द है ‘मनुष्यता’
महक रही है जिससे पृथ्वी का कण-कण !

 और यह आखिरी शब्द है ‘घर’
यहीं से शुरू होती है सारी स्मृतियाँ
सारे शब्द-अनुष्ठान
दुनियां की सारी कविताएँ इसी घर की पगडंडियों के
अगल-बगल खिले फूल हैं


यही से छिड़ता है वह शब्द-राग
जिसे पीकर बुझती हैं भाषा की प्यास
भाषा अल्हड़ आमोद में उचक-उचक नाचती गाती घूमती है
बेपरवाह सी!



अकवि

इतने अर्थ
इतनी विवेचनाएं
इतनी समीक्षा
इतनी आलोचनाएं
इतने कुतर्क
इतनी व्याख्याएँ
इतने प्रश्न
स्वीकार्यता कहाँ हो तुम..??
किस शिल्प, किस भाषा, किस गुण, किस परिभाषा, किस सुर में हो तुम
किस ओर जा बैठी है कटिबद्धता.. 
कविता तुम कब मरी ??
पुछता है अकवि
कहीं "परिचय" तो नहीं तुम्हारा डेरा ??


आदमी की तरह



मैं तुमसे मिलने उन सीढ़ियों को चढ़ कर नहीं आऊंगा...
जिनका प्रवेश-द्वार तुम्हारे राजमहलों में खुलता हो
मैं तुम्हारे ऊँचे-ऊँचे किलों को लांघ कर भी नहीं आऊंगा
तुम लाख भेजों मुझे नेह निमंत्रण
मैं तुम्हारे राजसिहासनों और राजदरबारों तक कभी नहीं आऊंगा
मैं उन दहलीजों तक नहीं पहुँचूँगा
जो कितनी ही किस्मों की दीवारों और कपाटों से घिरी हुई हैं !!

तुम भी कभी नीचे उतर कर मुझसे मिलने
उन तलघरों में मत आना जहाँ मैं रहता हूँ!

कह देता हूँ यह मुझसे नहीं होगा कि
तुम्हारे लिए चंवर डुलाऊँ
फूलों का हार गढ़ूं
तुम्हारे लिए झूठे स्वागत गीत गाउँ
यह मुझसे कदापि नहीं होगा!

गर फिर भी जो तुम मुझसे मिलना चाहो
तो आओ ऊँच नीच की खाईयों को फांद कर

भेदभाव के उबड़-खाबड पठारों को पार कर
स्वार्थ के दर्रों को लांघते हुए
यथार्थ के रेगिस्तानी धरातल पर चलते हुए
तप कर आओ!

आओ मुझसे मिलने
फकत आदमी की तरह 
समतल मैदान में हम मिलेंगे


सम्पर्क-
फ्लैट नंबर 2557A हाउसिंग बोर्ड कालोनी  
सेक्टर-55 फरीदाबाद-121004, हरियाणा
दूरभाष - 09953637548
 
मेल :  rai_chandan_81@yahoo.co.in

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'