केदार नाथ सिंह के संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ की आशीष मिश्र द्वारा की गयी समीक्षा

केदार नाथ सिंह


 केदार नाथ सिंह का हाल ही में एक नया कविता संग्रह आया है ‘सृष्टि पर पहरा’। इसमें केदार जी अपने पूरे काव्य-रौ में दिखाई पड़ते हैं। अपने आस-पास की चीजों को ले कर ही उसे एक मिथकीय रूप दे देना जैसे केदार जी के कवि को भाता रहा है। यह संग्रह पिछले दिनों काफी चर्चा में भी रहा है। इस संग्रह पर एक नजर डाली है युवा एवं प्रतिभाशाली आलोचक आशीष मिश्र ने। तो आइए पढ़ते हैं आशीष मिश्र द्वारा की गयी यह समीक्षा

सृष्टि पर पहरा

आशीष मिश्र

‘कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज़ तीन-चार पत्तों का हिलना
उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते।‘

इस कठिन समय में यह महज तीन-चार पत्तों का हिलना जीवन और कविता का बिम्ब है। इनका होना आश्वस्ति की तरह है। केदार नाथ सिंह की कविताएं भाषा में जीवन केन्द्र तक पहुंचने का प्रयास होती हैं यह वह केन्द्र है जो एक तरफ हरहराते हुए संकटों के बावजूद सब कुछ को निष्कम्प थामे हुए है। जो सारे सुखाड़ के बावजूद रस और सौन्दर्य में विश्वास बनाए हुए है। जहाँ से मनुष्य को सारी अमानवीयता से लड़ने की ताकत मिलती है। इस दृष्टि से केदार जी की कविताएं क्रमशः प्रभावक्षम हुई है। यह संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ इसी की नवीन और अगली कड़ी है। संग्रह की अधिकांश कविताएं पहले ही पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जिनकी वस्तु के बारे में केदार जी ने अपने संस्मरणों में लिखा था, जो ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ शीर्षक पुस्तक में संकलित है। लम्बी कविता ‘मंच और मचान’, ‘बंगाली जी’, ‘समय से मुलाकात’, ‘निराला की आवाज़’ आदि इसी तरह की कविताएँ हैं।

केदार नाथ सिंह की कविताएँ हमारी अवचेतन की सीमाओं को तोड़ती हैं तथा हमारे बोध को लोकतांत्रिक और विस्तृत बनाती हैं। चीजों के प्रति हमारी अनुकूलित दृष्टि, आदतें, पूर्वाग्रह, औपचारिकताएँ, सामाजिक अंकुश, चालू मत और विचार, मतांधता आदि बचपन से ही हमारे और वस्तुगत दुनिया के बीच एक चमकदार दीवार खड़ी करने लगती हैं। हमारी दृष्टि इसी दीवार से टकरा कर लौटने लगती है और क्रमशः यह दीवार ज्यादा मोटी व चमकदार होने लगती है। इस तरह हमारा अपना और दुनिया का अवबोधन बासी, बेहद झूठा, एकरस, ठस्स और टूटे सीसे की तरह खंडित होता है। हम अपनी इस खोल में कैद होने लगते हैं और कुछ समय बाद सिर्फ खोल ही बचती है, हम बचते ही नहीं। हमारा आत्म एक ऐसा ‘इल्यूजिअम’ बन जाता है जिसका ताजा संवेदनों, वास्तविक दुनिया, प्रेम व प्रकृति से संबंध् ही टूट जाता है। हम सामान्य लोगों जैसे नहीं बल्कि रोगग्रस्त लोगों जैसे ही अध्कि होने लगते हैं। बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद ने इस प्रक्रिया को पहले की अपेक्षा कई गुना ज़्यादा तेज कर दिया है। दुनिया के अधिकाँश समाज इस प्रेत-बाधा से ग्रस्त नज़र आते हैं। केदार नाथ सिंह की कविताएँ इस सब को पार करती हुई हमें उस वास्तविक जीवन और दुनिया की कोमल-कठोर वस्तुवत्ता तक ले जाती हैं, जहाँ हम अपने जैसे हो सकें ओर दुनिया दुनिया जैसी। इस संग्रह में ‘विद्रोह’ शीर्षक से एक सुन्दर कविता है। कवि जैसे ही घर में घुसता है, सारी चीजें शिकायत करने लगती हैं। बिस्तर कपास के भीतर जाना चाहता है। कुर्सी और मेज को अपने पेड़ के भीतर के जिन्दा द्रव याद करने लगते हैं। आलमारी में बन्द किताबें बाँस के जंगल में बिच्छुओं के डंक और साँपों के चुम्बन से मिलना चाहती है। नाराज़ शॉल कहती है. ‘मेरा दुम्बा भेंड मुझे कब से पुकार रहा है/ और आप हैं कि अपनी देह की कैद में लपेटे हुए हैं मुझे।’ उधर नल से टपकता पानी तड़पा और आखिरी फैसला सुनाया-

कि अब हम
यानी आपके सारे के सारे कै़दी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं।

यह आदमी की कौन सी जेल है जहाँ ये सब कैद हैं? बात तब खुलती है जब हमारा ध्यान शॉल की शिकायत पर जाता है। शॉल तो देह पर लपेटी जाती हैए तो देह की कैद में शॉल कहने का क्या मतलब? आदमी का शॉल के प्रति पूरा अवबोध् सिर्फ देह के लिए उसकी उपयोगिता से निर्मित है पर यह जिस भेंड़ के बालों से बनी है वह भेड़ और उसका पूरा जीवन-संदर्भ उपेक्षित है। कविता बोध् की इस सीमा को तोड़ना चाहती है ताकि वह वस्तुनिष्ठ दुनिया और जीवन से जुड़ सके। केदार नाथ सिंह चीजों के प्रति हमारे रुढ़ सामान्य समझ को पुनर्व्यवस्थित करते हुए उसमें नवीन अर्थों की सम्भावना पैदा करते हैं। उसे और लोकतांत्रिक बनाते हैं। वे चीजों का एक नया पक्ष रचते हें। इस तरह हमारी दुनिया को विस्तृत करते हैं। जिसके साक्षात्कार के बाद लगता है- ‘यह अपेक्षाकृत ज्यादा सुन्दर है और शुभ है।’ ‘फसल’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें-

भेड़ें उसे अच्छी लगती थीं
ऊन ज़रूरी है- वह मानता था
पर कहता था- उससे भी ज्यादा जरूरी है

उनके थनों की वह गरमाहट
जिससे मिट्टी खेतों में
जिन्दा हो जाती है।

इसी तरह की एक दूसरी कविता उनके ‘यहाँ से देखो’ शीर्षक संग्रह में है। जिसमें कवि अखबार वाले से कहता है- ‘अखबार जरूरी है/ पर उससे भी ज्यादा जरूरी है वह काली कुतिया / जो वहाँ धूप में बैठ कर / अपने तीन बच्चों को दूध पिला रही है।‘ वे चीजों के सूचना बन जाने से डरते हैं। उनकी कविताएँ अपने सम्वेदना में इसी का विरोध् रचती है। वे बूंद और आँसू में अंतर देखना चाहते हैं। वे चीजों में निहित संवेदना और सौन्दर्य को बचाए रखना चाहते हैं। उनके यहाँ अदना कीचड़ भी इस महान सांस्कृतिक कृत्य में योग देता है-

‘खुरों के लम्बे निशान गवाह थे
कि कृतज्ञ कीचड़
उस प्यासे को छोड़ने
कुछ दूर तक गया था
दुनिया बचाने के
गुरुतर कार्य में
तुच्छ कीचड़ का यह अपना योगदान था।’

यह काव्य-सत्य है। यह एक जरूरी शुभेच्छा है, जिसमें एक सुन्दर दुनिया की संभावना शेष है। संग्रह में पीछे से दूसरी कविता है- ‘सबसे बड़ी ख़बर’। कवि को भरी दोपहरी में दिल्ली की व्यस्ततम सड़क पर निर्भय-निश्चिंत अपने बच्चे की उंगली पकड़ कर जा रही बुढि़या सबसे बड़ी खबर और एक विशिष्ट घटना लगती है। यह उन्हें सृष्टि का उदात्त रूपक लगता है। जीवन-सौन्दर्य का यह अनुभव सभी अमानवीय प्रवृत्तियों और विमानवीकरण की प्रक्रिया का विरोध् करने की ताकत पैदा करता है। संग्रह में ‘एक ठेठ किसान के सुख’ शीर्षक एक सुन्दर कविता है। किसान पिछले कुछ दिनों से सुस्त निढाल पड़ा था। एक दिन उसने नरकट की पत्तियों में गाँव की चमकती हुई आँखें देखीं। ‘उसने जोखिम में देखी/ एक अद्भुत सुन्दरता/ और कुछ पल अवाक / देखता रहा उसे।‘ फिर – ‘वह चौके में गया/ वहाँ दिन की थाली में/ रात की लिट्टी थी/ लिट्टी की बगल में/ उसने एक खूब दमकती हरी मिर्च देखी/ और जैसे जीने में लौट आया/ फिर  से स्वाद।‘ साँप की आँख और मिर्च को भी इतना सुन्दर बना देने की क्षमता सिर्फ केदार जी में है। मैं जिस अवधी समाज से हूँ वहाँ साँप की आखें डर और रोमांच का विषय है। केदार जी इसे अद्भुत तरह से सुन्दर बना देते हैं और कहीं से कुछ भी सायाश नहीं लगता। इस ‘अद्भुत-सुन्दरता का नरकट की पत्तियों में फँसा होना’ एक बिम्ब है, जिसमें सम्भवतः वह रोमांच भी है और कहीं उसे बचा पाने की शुभेच्छा भी। वैसे केदार जी के यहाँ सुन्दरता और प्रेम इसी तरह के अनुभवों की संघटना है। इनके यहाँ सौन्दर्य और रोमांच को अलगाया नहीं जा सकता। इसके लिए उनका सबसे अच्छा रूपक बाघ है। यह एक गहन अनुभव है जिससे आदमी को अपने होने और गरिमा का भान होता है। यही अनुभव उसे प्रतिरोधी चीजों से लड़ने की ताकत देता है। वह किसान फिर कचहरी जाता है-

‘वह कचहरी गया
वहाँ उसके सामने रखा गया
एक सादा कागज़
कहा गया- ‘यहाँ... यहाँ...
एक दस्तखत करो’
उसने इनकार किया
और उसे लगा
वह दस गुना
बीस गुना
सौ गुना और जिन्दा हो गया।‘’

कई लोगों ने केदार जी को उनकी कविताओं में, बहुत कोमल और मासूम समझने की भूल की है। यह भूल उनकी अपनी अक्षमता के कारण है, जो सिर्फ ‘कविता में पत्थरबाजी’ को ही समझ और पकड़ पाते हैं। केदार जी की कविताएँ इस बात को अभिव्यक्त करती हैं, कि जीवन का गहन अनुभव ही उस जीवन को बचपने की चेतना पैदा करता है। वे एक आदमी के ‘न’ कह सकने की ताकत और सब कुछ बदल देने वाली उसकी संकल्प-शक्ति पर विश्वास करते हैं।

केदार नाथ सिंह की कविताएँ पूँजी-सत्ता द्वारा ‘हेज्मनाइज्ड’ चेतना को प्रकृति और सौन्दर्य द्वारा ‘सेंसर’ करती है। गहराई से देखें तो यह एक उत्तर-आधुनिक फेनामना लगती है जहाँ प्रकृति आदि उपकेन्द्रों द्वारा प्रतिरोध किया जाता है। यहाँ स्मृतियाँ भी प्रतिरोध में बदल जाती है। इस सबके साथ भी अगर केदार जी के पूरे काव्य-विकास पर ध्यान दें तो मिलेगा कि वे ‘तीसरा सप्तक’ से ले कर ‘सृष्टि पर पहरा’ तक भाषा की विशिष्ट छविमयता से सामान्य जीवन-सौंदर्य की भाषा के तरफ बढ़ते गये हैं। हिन्दी के लिए यह एक नया अनुभव है कि अगर केदार नाथ सिंह जैसी क्षमता हो तो, ‘खुश  रह चितकबरा खुश रह’ जैसी पंक्तियाँ भी कविता बन सकती है। केदार जी की कविताएँ जीवन की एक भाषा है, सारे विमानवीकरण का विरोध् रचती उस जमीन की भाषा जो आदमी और प्रकृति दोनों एक दूसरे को बनाने संवारने में साथ-साथ सक्रिय हैं। इस संग्रह में यह बात और गहराई से अनुभव होता है।

आशीष मिश्र









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