शेखर जोशी




आज १० सितम्बर को हम सबके प्रिय कहानीकार शेखर जोशी का जन्म दिन है। शेखर जी की कहानियों में एक अनूठा सा आस्वाद है जो बिरले ही दिखाई पड़ता है। वे ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने कारखाना-मजदूरों के जीवन पर ऐसी क्लासिकल कहानियां लिखीं हैं जो उन्हें विश्व के अनन्यतम कहानीकारों की पंक्ति में स्थापित कर देती है। ऐसी ही एक कहानी है बदबू। शेखर जी को जन्म दिन की बधाईयाँ देते हुए हम आप सब के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं ये चर्चित कहानी।     

बदबू

एक साथी ने उसकी परेशानी का कारण भाँप लिया था, ‘ऐसे नहीं उतरेगा मास्टर! आओ, तेल में धो लो’, कहकर उस साथी ने उसे अपने साथ चले आने का संकेत किया।

एक बड़े टब में घटिया किस्म का केरोसीन तेल रखा हुआ था। दोनों ने अपने हाथों को कुहनी-कुहनी भर उसमें डुबा कर मला। अब हथेलियों और बाँहों में लिपटी सारी चिकनी कालिख धुल गयी थी, परंतु उसे लगा जैसे दोनों बाँहों में अदृश्य चीटियाँ रेंग रही हों। केरोसिन तेल की गंध के कारण उसका जी मिचला उठा। इस खीझ और गंध से मुक्ति पाने के लिए वह नल की ओर चल दिया।

अंतिम साइरन बज चुका था। पानी के प्रत्येक नल पर बीसियों कामगार घिरे हुए थे, कुछ लोग हाथों में साबुन मल रहे थे और शेष मल चुकने पर हाथों को पानी से धोने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे देखकर सबकी अजनबी निगाहें उसकी ओर लग गयी। एक-दो मजदूरों ने सौजन्य प्रदर्शन के लिए अपनी बारी आने से पहले ही उसे पानी लेने को बढ़ावा दिया। किंचित संकोच के बाद उसने आगे बढ़ कर पानी ले लिया। यह संकोच स्वाभाविक था। अपनी बारी आने से पहले पानी लेने का प्रयत्न करने वालों को उत्साहित करने की  इच्छा किसी के मन में न थी, यह वह दो क्षण पहले विभिन्न स्वरों में सुन चुका था।

परंतु उसे पानी लेते देख कर किसी ने आपत्ति नहीं की। एक बार हाथ अच्छी तरह धो लेने पर उसने उन्हें नाक तक ले जाकर सूँघा। केरोसीन की गंध अभी छूटी नहीं थी। दुबारा साबुन से धो लेने पर भी उसे वैसी ही गंध का आभास हुआ, फिर एक बार और साबुन जेब से निकाल कर उसने हाथों में मलना शुरू कर दिया।

घासी रस ले-लेकर एक किस्सा सुनाने लगा और सारा समूह अपनी व्यस्तता भूल कर उसकी बात सुनता रहा—

एक गाँव के मेहतर की लौंडिया थी। उसकी शादी हुई शहर में। जैसा तुम जानो, गाँव के मेहतरों को तो कभी गंदा उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। नयी-नयी शहर में गयी  तो दिन-रात नाक चढ़ा के अपने खसम से कहा करे—बदबू आती है, बदबू आती है। मालिक क्या करता। उसकी खातिर पेशा तो छोड़ नहीं सकता था। धीरे-धीरे लौंडिया भी काम पर जाने लगी। साल-छ: महीने के बाद मेहतर की सासू शहर देखने आयी। रास्ते में ही हाथ में झाड़ू बाल्टी लिये बेटी मिल गयी। माँ पहले तो लाड़ से बेटी से गले मिली और फिर नाक पर आँचल रख लिया।

बेटी ने पूछा, ‘ऐ अम्मा, नाक-मुँह क्यों बंद कर लिया?’

माँ बोली, ‘बेटी, बदबू आती है।’

बेटी अचम्भे से बोली, ‘कैसी बदबू? मुझे तो कुछ नहीं मालूम देती।’

नल के इर्द-गिर्द घिरे हुए सभी कामगरों के थके चेहरों पर भी उसकी बात सुनकर हँसी खिल गयी। घासी ने ही फिर बात को स्पष्ट किया, ‘ये भाई भी अभी हाथ नाक पै ले जा-जा के सूँघ रहे थे तभी किस्सा याद आया। पहले-पहल हम भी ऐसे ही सूँघा करें थे। पर अब तो ससुरा पता नहीं लगता। कितना बार तो साबुन नहीं मिलता, ऐसे ही पोंछ-पोंछ कर रोटी खाने बैठ जाते हैं।’

संकेत उसी की ओर था। परिहास के उत्तर में गम्भीर हो जाना उसे उचित न लगा। सभी की हँसी में उसने अपना योग भी दे दिया। परंतु घासी की बात पर उसे आश्चर्य हो रहा था। तेल की ऐसी तीखी दुर्गंध को साबुन से छुटाये बिना आदमी कैसे भला चैन से रह सकेगा। इसका उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था।

कपड़े बदल कर वह लाइन में जा लगा। इकहरी पंक्ति के प्रारम्भ में हेड फोरमैन के साथ एक गोरखा सिपाही खड़ा था। प्रत्येक मजदूर अपना रोटी का खाली डिब्बा खोल कर उसे दिखाता और फिर दोनों हाथ ऊँचे उठा कर तलाशी देने की मुद्रा में खड़ा हो जाता। गोरखा सर्चर मजदूर की छाती, कमर और जेबों को टटोल कर आगे बढ़ जाने का संकेत कर देता। जल्दी घर पहुँचने की इच्छा रखने वालों को पंक्ति की धीमी गति के कारण झुँझलाहट हो रही थी। ऐसी झुँझलाहट में कभी-कभी लोग पंक्ति में अपने से आगे व्यक्ति को ठेल देते। बीच-बीच में मोटा फोरमैन उनकी इस जल्दबाजी को कोई भद्दी, अश्लील व्याख्या कर हँस देता था। उसे फोरमैन का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। परंतु उसने सुना, पंक्ति में से ही कोई कह रहा था, ‘फोरमैन जी बड़े रंगीले आदमी हैं।’सम्मति प्रकट करने वाला एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति था जो अब भी कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से फोरमैन की ओर देख रहा था कि जैसे फोरमैन ने यह मजाक कर के उन पर बड़ी कृपा कर दी हो।

उसकी तलाशी देने की बारी आ गयी थी। ठिगने सिपाही ने अपनी एड़ी उठा कर बड़ी कठिनाई से उसकी तलाशी ली। सिपाही के इस आयास को देख कर उसका मन हँसने को हुआ परंतु मन पर अवसाद की धुंध इतनी गहरी छा गयी थी कि वह हँस न सका। बड़े फाटक से पहले फिर इकहरी पंक्ति बन गयी थी। परंतु इस बार पंक्ति के परले सिरे पर खड़ा हुआ सिपाही तलाशी नहीं ले रहा था, वरन् वह यह देखने के लिए खड़ा था कि कोई भी व्यक्ति कठघरे में आड़ी गिरी हुई लकड़ी को लाँघे बिना न चला जाये। अन्य सभी मजदूरों की भाँति वह भी आड़ी गिरी हुई लकड़ी को लाँघ कर बाहर चला गया। पीछे मुड़ कर उसने फिर एक बार कठघरे की ओर देखा- लोग अब भी एक-एक कर कूदते हुए चले आ रहे थे। इस उछल-वूâद का प्रयोजन वह नहीं समझ पाया। गेट से बाहर निकल कर उसने अनुभव किया जैसे वह बंद कोठरी से निकलकर खुली हवा में चला आया हो।

‘क्या आफत बना रखी है!’ अनायास ही उसके मुँह से निकल गया।

अनजाने में ही कहे गये ये शब्द साथ चलने वाले एक बुजुर्ग के कानों तक पहुँच गये थे। उन्होंने धीरे से अपनी राय प्रकट की, ‘नये आये लगते हो? पहले-पहल ऐसा ही लगता है, धीरे-धीरे आदत पड़ जायेगी।’ आकाश की ओर अँगुली उठा कर उन्होंने बात आगे बढ़ाई, ‘उस नीली छतरी वाले का शुक्र करो कि यहाँ काम मिल गया। अच्छे-भले पढ़े-लिखे लोग धक्के खाते फिरते हैं; हमारे पड़ोस में एक लड़का....,बुजुर्ग अपने अनुभव की पोटली खोल कर बहुत कुछ बिखेरना चाहते थे, लेकिन उसका मन उनकी बातों में नहीं लगा, कनखियों से उसने उनकी ओर देखा। उस ऊपर वाले के अहसान का बोझ उठाते-उठाते ही जैसे उनकी कमर टेढ़ी हो गयी थी। वह चाल तेज कर आगे बढ़ गया।

रास्ते-भर उसके दिमाग में वही सब-कुछ घूमता रहा जो वह दिन-भर में देख- सुन चुका था। घासी और उस बुजुर्ग आदमी की बात याद आने पर वह सोचने लगा, ‘क्या सच ही एक दिन वह भी सब कुछ सहने का आदी हो जायेगा और नीली छतरी वाले के अहसानों का बोझ उसकी कमर को भी वैसे ही झुका देगा।’

कारखाने में यह उसका पहला दिन था।

फिर एक-एक कई दिन बीत गये। परंतु घुटन और अवसाद की छाया दिनोंदिन बोझिल होती गयी।

शहर के बाहरी भाग में स्थित कारखाने की पहली सीटी पर प्रतिदिन कामगार लोग अपनी-अपनी गृहस्थी छोड़ कर, हाथों में रोटी-चबैना की पोटली या डिब्बा लटकाये अपनी सुध-बुध खो कर तेज कदमों से कारखाने की ओर चले आते। दिन-भर कारखाने की खटर-पटर में मशीनों और औजारों से जूझकर थकी-लस्त देह वालों का यह काफिला साँझ के धुँधलके में अपने घरों की ओर चल देता। सर्दी, गरमी, बरसात में कभी भी इस क्रम में कोई बाधा न पड़ती।

कारखाने में अपने-अपने अड्डे पर काम करते हुए लोगों को हर रोज सुबह से शाम तक एक ही स्थान में, उन्हीं चिर-परिचित मुद्राओं में देख कर उसे ऐसा लगता जैसे वह वर्षों से उन्हें उसी स्थान पर इसी रूप में देखता आ रहा हो। इस नीरस जिंदगी में कोई हलचल हो भी जाती तो उसका प्रभाव अधिक देर तक नहीं टिकता। तालाब में ठहरे हुए जल में कंकड़ फेंक देने पर जिस तरह क्षणिक हलचल होती है वह प्रतिक्रिया वहाँ किसी नयी घटना की होती। एक-दो दिन तक कारखाने में उस घटना की चर्चा रहती और फिर सब-कुछ पूर्ववत, शांत हो जाता। साथी कामगरों के चेहरों पर असहनीय कष्टों और दैन्य की एक गहरी छाप थी, जो आपस की बात-चीत या हँसी-मजाक के क्षणों में भी स्पष्ट झलक पड़ती थी। किसी प्रकार की नवीनता के प्रति सबके मन में एक विचित्र शंका-भाव जड़ जमाये बैठा रहता। शायद यही कारण था कि अचानक ही  एक छोटी-सी घटना के पश्चात उसके साथियों का व्यवहार उसके प्रति शंकालु हो उठा था।

यों घटना कुछ विशेष नहीं थी। उस दिन कारखाने में हर जगह बीड़ी का तूफान मचा हुआ था-

‘अबे हद हो गयी यार! साला बुधुन सुलगती बीड़ी निगल गया।’

‘हम वहीं खड़े थे भाई! साहब ने मुँह खुलवाया, मुँह में नहीं थी।’

‘कमाल है! साले को सरकस में जाना चाहिए।’

चीफ साहब के आदेश पर सभी मजदूर एक स्थान पर एकत्रित हो गये थे। साहब के निकट ही बुद्धन सिर झुकाए खड़ा था। उपस्थित समूह को नसीहत देते हुए साहब ने बताया कि किस तरह उन्होंने पीछे से जाकर बुद्धन को कारखाने के अंदर बीड़ी पीते हुए पकड़ा और किस प्रकार चतुराई से उसने बीड़ी मुँह के अंदर ही डाल कर गायब कर ली थी।

साहब बोले, ‘कारखाने में इतनी कीमती चीजें पड़ी रहती हैं, किसी भी वक्त आग लग सकती है, एक आदमी की वजह से लाखों रुपये का नुकसान हो सकता है। हम ऐसी गलतियों पर कड़ी-से-कड़ी सजा दे सकते हैं।’

बुद्धन को कड़ी चेतावनी के साथ एक रुपये का दण्ड देने की साहब ने घोषण कर दी, तभी भीड़ में से किसी ने ऊँचे स्वर में कहा, ‘साहब, आग तो सभी की बीड़ी-सिगरेट से लग सकती है।’

सैकड़ों विस्मित आँखें उस ओर उठ गयीं जिधर से आवाज आयी थी। साहब कुछ कहें इससे पहले वही व्यक्ति फिर बोला, ‘अफसर साहबान तो कारखाने में मुँह में सिगरेट दाबे घूमते रहते हैं!’

भीड़ में एक भायनक खमोशी छा गयी। इस मुँहजोर नये आदमी की उद्दंडता देखकर साहब का मुँह तमतमा उठा। बड़ी कठिनाई से उनके मुँह से निकला, ‘ठीक है, हम देखेंगे’ और जाते-जाते उन्होंने तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा जैसे उसकी मुखाकृति को अच्छी तरह पहचान लेने का प्रयत्न कर रहे हों।

चीफ साहब अपने चैम्बर की ओर चल दिये। भीड़ छँट गयी। हवा में चारों ओर कानाफूसी के विचित्र स्वर फैलने लगे। बुद्धन की ओर से हटकर लोगों का ध्यान अब उसकी ओर केन्द्रित हो गया था।

उस दिन छुट्टी के बाद लौटते हुए दो-तीन नौजवान उसके साथ हो लिये। प्रत्यक्ष रूप में किसी ने भी बीड़ी वाली घटना को लेकर उसकी सराहना नहीं की, यद्यपि उनके व्यवहार और उनकी बातों से उसे लगा जैसे उन्हें यह अच्छा लगा हो और वे उसके अधिक निकट आना चाहते हों। कठघरे से निकल कर एक नौजवान बुदबुदाया, ‘सालों को शक रहता है कि हम टाँगों के साथ कुछ बाँधे ले जा रहे हैं, इसलिए अब यह उछल-कूद का खेल कराने लगे हैं।’

‘इनका बस चले तो ये गेट तक हमारी नागा साधुओं की-सी बारात बना कर भेजा करें’, दूसरे ने उसकी बात का समर्थन किया।

‘खीर खाये बामणी, फाँसी चढ़े शेख, नहीं देखा तो यहाँ आकर देख! छोटे साहब की गाड़ी के पिस्टन अंदर बदले गये हैं, खुद मैंने अपनी आँखों से देखा’,पहले वाले व्यक्ति ने आवेश में आकर कहा।

‘चुप’, दूसरे नौजवान ने फुसफुसा कर उसे टोक दिया, ‘टेलीफून जा रहा है।’

एक चुस्त चालाक आदमी उनके साथ-साथ चलने लगा था। तभी दोनों जवानों ने अपनी बीवियों के बारे में बातें शुरू कर दीं।

इस घटना के बाद कुछ लोगों की दबी-दबी सहानुभूति पा जाने पर उसे ऐसा अनुभव हुआ जैसे किसी अँधेरे, बंद तहखाने में प्रकाश की हल्की किरण का आसरा उसे मिल गया हो। पर सभी कामगरों की आँखों में सहानुभूति का यह भाव नहीं था। अनेक सहकर्मी इस घटना के पश्चात उसके प्रति रूखा व्यवहार करने लगे थे, और कुछ ऐसी भी आँखे थीं जिनमें अचानक ही ईर्ष्या और उपेक्षा की भावना उभर आयी थी। ऐसी ही एक जोड़ा आँखें एक दिन छु्ट्टी के बाद मार्ग में बहुत दूर तक उसका पीछा करती रहीं थी। उसे लगा जैसे साथ में चलने वाला वह व्यक्ति उससे कुछ कहने के लिए अकुला रहा है। उन दोनों के साथ-साथ मजदूरों का झुण्ड हाथों में थैला या टिफिन का खाली डिब्बा लटकाए चला जा रहा था। एक नयी उम्र के शरारती कारीगर बीरू ने अपने से आगे चलने वाले अधेड़ उम्र के लालमणि के कुर्ते का पिछला हिस्सा उठाकर सिगरेट के खाली पैकेट फँसा दिया था, पीछे चलने वाली भीड़ लालमणि के कुर्ते की पूँछनुमा बनावट और इस संबंध में उसकी अज्ञानता का आनंद ले रही थी। तभी किसी ने उसके साथ चलने वाले आदमी को लक्ष्य कर आवाज दी-

‘नेता जी, जैराम जी की!’

साथ चलने वाले व्यक्ति को ईष्र्यालु दृष्टि का रहस्य उसकी समझ में आ गया। उत्तर में ‘नेता’ ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा, ‘काहे शर्मिंदा करते हो भाई, अब तो कारखाने में बड़े-बड़े नेता पैदा हो गयें हैं। हम किस खेत की मूली हैं!’

जिस बात की उसे आशंका थी वही हुआ। शायद रात की सारी रिपोर्ट चीफ साहब के पास पहुँच गयी थी। चपरासी ने साहब के कमरे का द्वार खोलकर उसे उनके सामने पहुँचा दिया, फिर द्वार पूर्ववत बंद हो गया। साहब ने अपने हाथों से स्टूल उठाकर उसके बैठने के लिए आगे बढ़ा दिया और फिर नर्मी से बोले, ‘हम तुम्हारी भलाई के लिए ही कह रहे हैं। जमाना बुरा है। बाल-बच्चों वाले आदमी को ऐसी बातों में नहीं पड़ना चाहिए।’

अपने कथन की प्रतिक्रिया जानने के लिए साहब ने उसकी ओर देखा। उनके हाथ मेज पर बिछे कपड़े की सलवटों को सहलाने में व्यस्त थे। साहब की ओर देखकर इस प्रश्न का उत्तर उनकी आँखों में ही झाँक पाने का उसका मन हुआ। परंतु काले चश्मे में अपारदर्शी शीशों के पीछे छिपी आँखों के स्थान पर केवल अंधकार घिरा हुआ था।

‘ऐसा कोई खतरनाक काम तो मैंने नहीं किया साहब’, उसने पेपरवेट के फूलों पर अपनी नज़र जमा कर उत्तर दिया।

‘हम जानते हैं, सब कुछ जानते हैं। कल रात तुम्हारे घर मीटिंग हुई थी या नहीं?’ मानसिक उत्तेजना के कारण साहब दोनों हाथों की अँगुलियों को आपस में उलझाते हुए बोले।

‘दो-चार यार-दोस्त बैठने के लिए आ जायें तो उसे मीटिंग कौन कहेगा साहब?’ उसने बात का महत्त्व कम करने की कोशिश में मुस्कराने का अभिनय किया।

‘सुनो जवान! यार-दोस्त की महफिल में गप्पें होती हैं, ताश खेले जाते हैं, शराब पी जाती है; लेकिन स्कीमें नहीं बनतीं।’ इस बार स्वर कुछ अधिक सधा हुआ था।

‘साहब, लोगों को मकान की परेशानी है, छुट्टियों का ठीक हिसाब नहीं, छोटी-छोटी बातों पर जुर्माना हो जाता है। यही बातें आपसे अर्ज करनी थीं। यहीं वहाँ भी सोच रहे थे।’ स्वर में दीनता थी परंतु साहब के चेहरे पर टिकी हुई उसकी तीखी दृष्टि अनजान में ही जैसे इस अभिनय को झुठला रही थी।

‘मैं कौन होता हूँ, जो तुम लोग मुझसे यह कहने के लिए आते हो? मैं भी तो भाई, तुम्हीं लोगों की तरह एक छोटा-मोटा नौकर हूँ’, अपनी दोनों हथेलियों को मेज पर फैलाकर साहब ने कृत्रिम मुस्कान का ऋण लौटा दिया और अपनी कुर्सी पर अधिक आश्वस्त होकर बैठ गये। उनके सामने बैठे हुए व्यक्ति को यह समझौता स्वीकार न हुआ। कृत्रिमता के आवरण को पूरी तरह उतार कर दृढ़ स्वर में वह बोला, ‘तो जो हमारी बात सुनेगा उसी से कहेंगे साहब।’

एकाएक साहब बौखला कर कुर्सी पर उछल पड़े, ‘तुम बाहर की पार्टियों के एजेंट हो, ऐसे लोग ही हड़ताल करवाते हैं। मैं एक-एक को सीधा करवा दूँगा। मैं जानता हूँ तुम्हारे गुट में कौन-कौन हैं। आइंदा ऐसी बातें मैं नहीं सुनना चाहता।’

वह चीफ के कमरे से निकल कर अपने काम पर लौटा तो मिस्त्री पास बैठ कर समझाने लगा, ‘इस दुनिया में सबसे मेल-जोल रखकर चलना पड़ता है। नदी किनारे की घास पानी के साथ थोड़ा झुक लेती है और फिर उठ खड़ी होती है। लेकिन बड़े -बड़े पेड़ धार के सामने अड़ते हैं और टूट जाते हैं। साहब ने तुम्हारी बदली कास्टिक टैंक पर कर दी है, बड़ा सख्त काम है, अब भी साहब को खुश कर सको तो बदली रूक सकती हैं।’

उत्तर में उसने कुछ नहीं कहा। उठ कर कास्टिक टैंक पर चला गया। टैंक पर काम करने वाले मजदूरों ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया। उसे ऐसा लगा कि जैसे वे लोग जान-बूझकर उससे पृथक रहने का प्रयत्न कर रहे हों। पुराने पेंट और जंग लगे हुए सामान को कास्टिक में धोया जा रहा था। आगे बढ़ कर उसने भी उन्हीं की तरह काम शुरू कर दिया। शाम तक काम का यही क्रम चलता रहा। घर लौटकर उसने अनुभव किया—हाथ-पैरों में विचित्र प्रकार की जलन हो रही थी।



घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर गया था। हाथ-मुँह धो कर उसने जल्दी-जल्दी खाना खाया और फिर बच्चे को लेकर आँगन में झिलंगी चारपाई पर आ बैठा। साँझ अत्यधिक उदास हो आयी थी। बच्चे ने कुछ देर तक उससे खेलने का प्रयत्न किया, लेकिन पिता की ओर से विशेष प्रोत्साहन न पाने पर वह कब माँ के पास चला गया, इसका उसे ध्यान न रहा। जिनकी उसे प्रतीक्षा थी उनमें से कोई भी न आया था, केवल हरीराम ने आकर अब तक दो-तीन बीड़ियाँ फूँक ली थीं।

हरीराम की ओर से ही दो-तीन बार बातचीत शुरू करने का प्रयत्न किया जा चुका था, लेकिन उसके अटूट मौन के कारण हर बार वह प्रयत्न विफल सिद्ध हुआ था। इस बार फिर हरीराम ने ही बात छेड़ी-

‘घनश्याम की तो बीवी बीमार हो गयी, लेकिन मोहन, राधे, हनीफ वगैरह किसी को तो आना चाहिये।’

‘शायद उसके बच्चे बीमार हो गये हों’, झुँझला कर उसने उत्तर दिया।

हरीराम ने फिर बात दुहराई, इस बार स्वर में चाटुता की भरमार थी-

‘हम तो तुम्हारे पीछे हैं भाई! जैसा तुम कहोगे वैसा करेंगे। मैं तो ठीक टैम पर आ गया था, देख लो।’

‘तुम ही ठीक टैम पर न आओगे तो चीफ साहब को रिपोर्ट कौन देगा।’ हरीराम की ओर उपेक्षापूर्ण दृष्टि डालकर घृणा से उसने कहा और अपनी साइकिल उठा कर बाहर चल दिया।

उसके विरूद्ध कब कौन-सा षड्यंत्र रच दिया जाये, इसका उसे संदेह रहने लगा था। छुट्टी होने पर उसने शीघ्रता से थैला कंधे पर डाला। दुपहर में उसने सब रोटियाँ खा लीं थीं पर आज थैला अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ भारी था। विस्मय से उसने रोटी के डिब्बे को खोल कर देखा......एक कागज में कुछ पुर्जे लिपटे रखे थे। उसने अनुभव किया कि उसके हृदय की धड़कन तेज हो गयी है। आवेश में उसकी मुठ्ठी भिच गयी, परंतु फिर संयत हो कर उसने वह सामान पास ही अलमारी में डाल दिया।

बाहर पंक्ति के पहले सिरे पर फोरमैन चिल्ला-चिल्ला कर लोगों को अपने डिब्बे-थैले खोल कर दिखाने का आदेश दे रहा था। उसकी बारी आ गयी थी। फोरमैन ने स्वयं डिब्बा थैला हाथों में लेकर देखा, असंतोष के कारण उसका मुँह फीका पड़ गया। सर्चर को सबकी जेंबे टटोलने का उसने आदेश दिया, उसकी जेबें भी स्वयं फोरमैन ने टटोली, परंतु फोरमैन के चेहरे पर फिर निराशा छा गयी। जाते-जाते उसने फोरमैन की ओर देखा। फोरमैन ने आँखें भूमि की ओर झुका ली थीं। गर्व से छाती उठाकर वह बड़े गेट की ओर चल दिया।

प्रात: काल अंतिम साइरन हो जाने पर गेट बंद हो जाना चाहिए, परंतु आधा घंटा उसके खोले जाने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, परंतु व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं होता। साइरन सुनकर दूर से पैदल आने वाले दौड़ लगाना शुरू कर देते हैं। साइकिलों के पैडिल दुगनी गति से चलने लगते हैं। लोग हाँफते-हाँफते दो-तीन मिनट में अंदर पहुँच जाते हैं। पकी उम्र के बड़े-बूढ़े अंदर आ कर घड़ी भर दम लेने के बाद ही हाजिरी पर जा पाते हैं। परंतु उस दिन वर्कर्स मैनेजर ने साइरन के बाद ही गेट बंद करवा दिया। वह गेट से बीस-तीस गज की दूरी पर ही था परंतु वहाँ पहुँचने से पहले ही चौकीदार ने जाली खोल दी।

अभी बीस-पच्चीस आदमी और भी थे जो हाँफते हुए चले आ रहे थे। निकट आकर सभी उदास हो गये। आधा घंटा देर में आने का दंड छ:-आठ आना से कम नहीं होता।

पिछली बार वेतन के दिन घर जाने पर पत्नी ने उससे पूछा था, ‘कितने हैं?’

‘चौवन आठ आने।’

‘अच्छा! मैंने पूरे पचपन का हिसाब लगाया था। बबुआ की टोपी इस महीने भी रह गयी।’

हाँफते हुए लोगों में से कितनों के बबुओं की टोपी इस बार भी रह जायेगी, उसने सोचा। परंतु तभी उसने जो कुछ सुना उसे सुनकर उसे ऐसा लगा जैसे सारा दोष अकेले उसी का हो। वही झुकी कमर वाले बुजुर्ग हाँफते हुए कह रहे थे, ‘घोड़े के पीछे और अफसर के आगे कौन समझदार जायेगा? एक आदमी के कारण इतने लोगों का नुकसान हो गया, ऐसे लड़ने-भिड़ने को ही जवानी बना रखी हो तो आदमी दंगल करे, अखाड़े में जाये। नौकरी में तो नौकर की तरह रहना चाहिए।’

उसका मन हुआ कि बुजुर्ग के पास जाकर कुछ बात करे। पर न जाने क्यों वह ऐसा न कर सका।

दिन-भर वह  यंत्रवत् काम करता रहा। थकान के कारण शरीर चूर-चूर हो रहा था। परंतु बैठकर सुस्ता लेने को भी उसका मन नहीं हुआ। कैन्टीन में जाकर उसने चाय ली और अनुभव किया कि चाय फीकी है। पहले किसी दिन ऐसी बात होती तो वह कैन्टीन मैनेजर से शिकायत करता परंतु आज आधी चाय छोड़ कर चला आया। ग्रीज और तेल लगा हुआ सामान उठाने के कारण हाथ गंदगी से भर गये थे; साइरन की आवाज उसके कानों में पड़ी तो उसने कान बंद किया। ऐसा लगता था कि साइरन यदि किसी कारण से न बजता तो वह उसी प्रकार यंत्रवत् काम करता रहता।

जल्दी-जल्दी में उसने दोनों हाथ केरोसीन तेल में धो डाले। साबुन का डिब्बा टटोलकर देखा तो वह खाली था। भूमि पर से थोड़ी मिट्टी उठाकर वह नल की ओर चल दिया। पिछले तीन-चार महीनों की नौकरी में आज वह पहली बार मिट्टी से हाथ धो रहा था। भुरभुरी मिट्टी को पानी के साथ लगाकर उसने हाथों में मला और फिर दोनों हाथ नल के नीचे लगा दिये। पानी के साथ मिट्टी की पतली पर्त भी बह चली। दूसरी मिट्टी लगाने से पहले उसने हाथों को सूँघा और अनुभव किया कि हाथों की गंध मिट चुकी है। सहसा एक विचित्र आतंक से उसका समूचा शरीर सिहर उठा। उसे लगा जैसे आज वह घासी की तरह इस बदबू का आदी हो गया है। उसने चाहा कि एक बार फिर हाथों को सूँघ ले लेकिन उसका साहस न हुआ। परंतु फिर बड़ी मुश्किल से वह दोनों हाथों को नाक तक ले गया और इस बार उसके हर्ष की सीमा न रही। पहली बार उसे भ्रम हुआ था। हाथों में केरोसीन तेल की बदबू अब भी आ रही थी।

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टिप्पणियाँ

  1. शेखर जोशी की कहानियाँ पढ़ते हुए लगता ही नहीं कि हम कहानी पढ़ रहे हैं. इस सम्बद्धता से वह कहते चले जाते हैं कि लगता है मानो हमारे पड़ोस में घटती कोई घटना सुना रहे हों. प्रतिरोध के लिए उन्हें शोर करने की ज़रुरत नहीं पड़ती बल्कि एक तीखा और सघन गुस्सा अपने आप पाठक के भीतर पैबस्त होता चला जाता है...

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