अमीर चंद वैश्य




वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य पहली बार के लिए हर महीने एक कविता संग्रह पर समीक्षा लिखेंगे।  इस कड़ी की शुरुआत हम पहले ही कर चुके हैं, जिसमें अभी तक आपने सौरव राय और अशोक तिवारी के कविता संग्रहों पर अमीर जी की समीक्षा पढ़ चुके हैं। इसी क्रम में इस महीने के हमारे उल्लेख्य युवा कवि हैं नित्यानन्द गायेन। नित्यानन्द का कल जन्म दिन भी है। नित्यानन्द के जन्म दिन की पूर्व संध्या पर इस समीक्षा को प्रस्तुत करते हुए हम उन्हें 'पहली बार' ब्लॉग परिवार की तरफ से जन्म दिन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं दे रहे हैं।       

युवा कवि  नित्यानन्द गायेन के हालिया प्रकाशित कविता संग्रह 'अपने हिस्से का प्रेम' पर  वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य ने एक समीक्षा लिखी  है। प्रस्तुत है यह समीक्षा।  
 
लोकधर्मी कविता के प्रति निष्ठावान

सम्प्रति हिंदी काव्य जगत में कई पीढ़ियो के कवि अपने –अपने रचनाक्रम में संलग्न हैं। अनेक वरिष्ठ कवि तो ऐसे हैं जो अपने पद –प्रतिष्ठा और पुरस्कार की उपलब्धि के लिए नख-दंत विहीन रचनाएँ रच  रहे हैं। सत्ता को ऐसी कविताओं से रंच मात्र भी भय महसूस नही होता है। ऐसे कवि संत कवि कुम्मन दास के समान ‘सिकरी’ की आलोचना न करके उससे रागात्मकसंबंध जोड़े रखना श्रेयकर समझते हैं। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने कुम्मनदास के प्रति रचित कविता ‘संत कवि’ में लिखा है –

“जानता हूँ ,समाधि से फुटकर
आता नही कोई उत्तर 
फिर भी कविवर जाते –जाते पूछ लूं 
यह कैसी अनबन है 
कविता और सिकरी के बीच 
कि सदियाँ गुजर गईं 
और दोनों में आज तक पटी ही नही।”(शुक्रवार वार्षिकी -२०१३)

उद्धृत अंश यह अर्थ भी ध्वनित कर रहा है कि ‘कविता और सिकरी’ में पटने–पटाने का संबंध होना चाहिए।
लेकिन कुछ वरिष्ठ और कनिष्ठ कवियों के साथ –साथ ऐसे युवा कवि भी हैं, जो अपनी रचनाशीलता को लोक से सम्पृक्त करके उसके संघर्षशील रूप को सामने ला रहे हैं।

‘कृति ओर’ के अंक ६७ में वरिष्ठ लोकधर्मी कवि ने ‘पूर्वकथन’ के अंतर्गत प्रकाशित प्रखर आलेख ‘हिंदी आलोचना का गिरता स्तर’ में अनेक युवा कवियों की कृतियों का उल्लेख किया है, जो अपने आसपास के सक्रिय लोक जीवन के विभिन्न रूपों को कविताओं में रच रहे हैं। इन कवियों की कविताएँ राजनीति –निरपेक्ष न होकर वर्गीय दृष्टि से संयुक्त हैं और समय –समाज की प्रखर आलोचना करके अग्रगामी जीवन –मूल्यों की प्रतिष्ठा कर रहे हैं।

ऐसे युवा कवियों में नित्यानंद गायेन (१९८१ ) का नाम उल्लेखनीय है। २००१ से लेखन प्रारंभ किया है। पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। संकल्प प्रकाशन बागबाहरा से उनका एक संकलन ‘अपने हिस्से का प्रेम’ सन २०११ में प्रकाश में आया है। कई साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। ‘कृति ओर’ के अंक ६७ में अभी उनकी पांच कविताएँ प्रकाशित हुई थीं। संपादक डा. रमाकांत शर्मा ने इस कवि के बारे में ठीक ही लिखा है –“नित्यानंद की कविताओं का आक्रमक राजनैतिक तेवर उन्हें संघर्षशील लोक के साथ खड़ा हुआ दिखता है।” (पृ.३२ )

नित्यानंद की जीवन –दृष्टि वर्ग –चेतना से संयुक्त हैं। अत: उनकी कविताओं में सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों का निरूपण आक्रोशपूर्ण भाषा में हुआ है। ‘आत्मसंघर्ष करता हूँ’ कविता इसका अच्छा सबूत पेश करती है –

“संघर्ष होता है
हर रोज मेरा 
खुद से ....दिल भारी पड़ता है 
दिमाग पर / खुद से 
x    x     x      x     x
संभोग के पुजारी 
बन बैठे हैं संत
नैतिकता और सदाचार का पाठ पढ़ाते हैं टीवी पर 
भोगी का योगी रूप देखकर 
खून खौल उठता है मेरा 
उसे शांत करने को 
संघर्ष करता हूँ 
निरंकुश राजनेता 
लूटते हैं जनता को 
छल –बल और कपट से 
उन्हें देख मान में 
आग सी जलती है 
उस आग को बुझाने के लिए 
संघर्ष करता हूँ खुद से”। (अपने हिस्से का प्रेम,पृ .३०, ३१)

इस कविता के मूल में करुणा है, जिससे सात्विक क्रोध की अभिव्यक्ति आक्रोश के रूप में हुई है। यह आत्म–संघर्ष कवि को अपने समस्थ लोक के जीवन से जोड़ता है।


नित्यानंद के कवि –व्यक्तित्व का विकास लोक –दर्शन का परिणाम है। उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी अधिक है। अतएव वह लोक –पर्यवेक्षण से अपने कवि रूप को और अधिक संवेदनशील बनाने का प्रयास निरंतर करता रहता है | ‘सीखना चाहता हूँ मैं’ कविता इस दृष्टि से पठनीय है –

कुमुदनी पर मचलती तितलियों से
सीखना चाहता हूँ 
प्रेमी बनना 
नन्हे पौधों से सीखना चाहता हूँ 
सर झुकाकर नमन करना 
सीखना चाहता हूँ मित्रता
पालतू पशुओं से 
क्यों कि वे स्वार्थ के लिए कभी धोखा नही देते” (वही ,पृ .०९ )

पूंजीवादी व्यवस्था में प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति दोनों बिकाऊ है। पद –पुरस्कार के लिए व्यक्ति अपना ईमान बेचकर बेईमान होने लगते हैं। साहित्य भी बिकाऊ है और साहित्यकार भी। ऐसे साहित्यकार सत्ता के गीत गाया करते हैं। लेकिन लोकबद्ध सहृदय कवि स्वंय को बेचता नही है। इसीलिए यह कवि कहता है –

“मुझे मालूम है 
मेरी सोच से 
कोई फर्क नही पड़ता उन्हें 
न ही मैं 
उनसे कुछ कहना चाहता हूँ 
किन्तु ,मैं खुद को 
और अपनी भावनाओं को 
बेच नही सकता उनकी तरह 
बाज़ार में।” (वही,पृ. १४)

नित्यानंद बड़ी सादगी से इस क्रूर पूंजीवादी व्यवस्था की विसंगतियों को दिखाते हुए उनकी मरण की कामना करते हैं। बाजारवाद से नफ़रत करते हैं। उन्हें अच्छी तरह ज्ञात है कि

 “साथी अब हाथ नही बढ़ाता 
साथी अब हाथ खींचता है पीछे 
साथी अब जान चुका है 
बाजारवाद ,पूंजीवाद का स्वाद 
तभी तो खुद को बेचकर 
वह सपने खरीदने लगा है।” (वही,पृ .१३ ) 

आज़ादी के बाद देश के नव-निर्माण के लिए लिखा गया था –

“साथी हाथ बढ़ाना 
एक अकेला थक जायेगा 
मिलकर बोझ उठाना।” 

लेकिन आजकल इसका उल्टा हो रहा है। संपन्न व्यक्ति स्वंय को बेचकर विपन्नों के श्रम का शोषण कर रहा है।
पूंजीवादी लाभ –लोभ ने क्षिति, जल, पावक. गगन, समीर सभी को विकृत कर दिया है। जल और जंगलों का क्रूर दोहन हो रहा है। जीवन का आधार नदियाँ गंदली हो रही है। पशु-पक्षियों की संख्या भी कम हो रही है। ‘हाथी का चित्र’ में पूंजीवादी क्रूरता की ओर संकेत किया है।

“दो बच्चों ने तीन हाथियों के चित्र बनाएँ।
 माँ हाथी और उसके दो बच्चे।
 क्यों ? इसलिए जब मेरे बच्चे होंगे
 तब हाथी नही होंगे शायद
क्यों कि तब जंगल नही बचेंगे 
सिर्फ आदमी ही आदमी होंगे 
फिर बनाई उन्होंने 
हरी –हरी घास 
जिस पर हाथी चल रहे थे।” (वही,पृ १०)

आज यह स्पष्ट हो गया कि परिवेश का अंध विदोहन भयंकर दृश्य उपस्थित कर सकता है। फिलहाल उत्तराखण्ड में जो जल प्रलय अचानक आई कि उसने ऐसी विनाश लीला दिखाई कि आपार जन और धन एवं प्राकृतिक परिवेश को ऐसी गहरी क्षति पहुंचाई जिससे उद्धार होना दुष्कर है। कुदरत की क्रूरता से यदि अब सरकारें न चेतीं तो ऐसा और भयंकर तांडव फिर होगा। जीवन की रक्षा के लिए जल, जंगल, पहाड़, पशु-पक्षी सभी अनिवार्य हैं। उत्तराखण्ड के जल –प्रलय के भयंकर परिदृश्य टी.वी. स्क्रीन पर देखकर दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ अनासाय याद आने लगती हैं –“कैसे मंजर सामने आने लगे हैं /गाते –गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। निराला ने भी अपने एक गीत में मानव के निर्जर जीवन के लिए पर्यावरण के सौंदर्य की रक्षा की कामना की है -?

पल्लव में रस, सुरभि सुमन में 
फल में दल , कलरव उपवन में
 लाओ चारु चयन वितवन में 
स्वर्ग धरा के कर तुम धरो।” (नि.र. (२) पृ ३९३ )

धरा के कर में स्वर्ग तभी आएगा जब पर्यावरण अनुकूल और प्रशांत रहेगा। और यह परिस्थिति तभी संभव होगी ,जब इस क्रूर पूंजीवादी व्यवस्था का मूलोच्छेदन होगा। यह दीर्घ परियोजना है। फ़िलहाल तो पूंजी और अंध व्यवस्था को पर्यावरण के प्रति सम्वेदनशील होना ही होगा। जन आन्दोलन दोनों को चेतावनी दे सकते हैं।
नित्यानंद अपनी संवेदनशील वर्गीय दृष्टि से समाज गतिकी देखकर यह मानते हैं कि

‘गरीब इस देश का वीर योद्धा है।’ 
क्यों कि  वह युद्ध करता है 
जन्म से लेकर मृत्यु तक 
और उसके लड़ने में ही 
वीर रस की कविता है।” (वही,पृ-३६ ).

गोदान का नायक किसान होरी आजीवन संघर्ष ही तो करता रहा है। उसकी मृत्यु त्रासदी की सृष्टि करती है। आजकल भी किसान अपने अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। वर्तमान उदारीकरण के दौर में सर्वाधिक शोषण किसानों का ही हो रहा है। असंख्य किसान लाचार होकर आत्महत्या कर रहे हैं।
इस क्रूर व्यवस्था में गरीब माँ का इलाज़ अस्पताल में संभव नही है। तभी तो ‘उसकी माँ ‘ का गरीब के सामने अपनी माँ को / तडपते देखने के अलावा /दूसरा उपाय नही था। (वही पृ .३८ )

‘आज अपने देश में’  क्या हो रहा है  इसके अंतर्विरोध की तस्वीर को नित्यानंद बिना किसी रंग के दिखाते हैं –

“ गली का नल पानी की उम्मीद में 
सूखा खड़ा  है 
और बोतल बंद पानी से 
बाजार अटा पड़ा है 
स्कूल इस देश की 
जैसे शापिंग मॉल में 
बदल रहे हैं 
और शिक्षक दुकानदार में 
और किसान खेतों में मर रहे हैं 
और मंत्री जी क्रिकेट खेल रहे हैं।” (वही,पृ-३९,४०)

भूमंडलीकरण-निजीकरण –उदारीकरण के दौर में हमारे देश में उच्च शिक्षा कैरियर –केंद्रित हो गया है। अंग्रेजी के प्रति अनुराग प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है, इसका दुष्परिणाम सामने हैं। लोग अपनी –अपनी भाषा और संस्कृति के साथ –साथ अपनी भाषा के कवियों को भी भूलते जा रहे हैं। नित्यानंद इस प्रवृति की आलोचना करते हैं –

“अमेरिकी कम्पनियों में
जो नौकरी करते हैं 
उन्हें फुर्सत  कहाँ है 
एक विद्रोही की जीवनी पढ़ने की 
क्या लेना उन्हें नज़रुल से 
निराला से 
शरत चन्द्र से 
सुभाष से 
नागार्जुन से 
क्या इन्हें  पढ़ने से 
मिलेगी उन्हें नौकरियां 
वह भी 
उतने पैसों की 
जितना वह पाता है 
आज अमेरिकी कम्पनियों से।” (वही,पृ-४३)

कविता मनुष्य भाव की रक्षा करती है। वह अपने सहृदय पाठक को ‘इंसान’ बनने को प्रेरित करती है। एतएव नित्यानंद स्वंय को लोक-चेतना के कवियों –त्रिलोचन और नागार्जुन से अपना रागात्मक संबंध जोड़ते हैं। आजकल हिंदी संसार  सामंत जनपदीय कवियों की उपेक्षा कर रहे हैं। कवि ने इस प्रवित्ति पर खेद व्यक्त करते हुए लिखा है –

मेरी नजरें खो गईं हैं 
या कहीं लुप्त करने की किसी साजिश में 
उन्हें कैद कर दिया गया है 
घुन लगी आलमारियों की किताबों में।” (वही,पृ-५८)

किसी भी नए कवि की अलग पहचान रचनाओं से बनती हैं ,जिसमें उसके अपने जनपदीय लोक-जीवन और उसके परिवेश का निरूपण होता है।

नित्यानंद अपने गांव से लौटकर उसे उसी रागात्मकता से कविता रचते हैं –

“गांव से
अभी –अभी 
लौटा हूँ शहर में 
याद आ रही है 
गांव की शामें 
सियार की हुक्का हूँ 
टर्र –टर्र करते मेंढक 
सुलती के नवजात पिल्ले
कुहासा में भीगी हुई सुबह 
घाट की युवतियाँ 
सब्जी का मोठ उठाया किसान 
धान और पुआल 
आंगन में मुर्गियों की हलचल 
डाब का पानी 
खजूर का गुड़
अमरुद का पेड़ 
मासी की हाथ की गरम रोटियाँ 
माछ –भात।” (लेखक मंच से ) 

वास्तविकता यह है कि देश –प्रेम की भावना अपनी जन्मभूमि से आत्मीय लगाव से प्रारंभ होती है।

नित्यानंद ने ‘यह वही बाबा नागार्जुन है’ कविता रचकर अपने वयोवृद्ध कवि की रचनाशीलता से प्रेरणा लेकर स्वंय की सर्जना को धारदार बनाया है। वह अपनी कविता ‘बुद्धिजीवी’ में ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों की ठीक आलोचना की है। उनकी अवसरवादिता के कारण ऐसे व्यक्ति सच्चे बुद्धिजीवी नहीं होते हैं | ये समाज को भ्रमित करते हैं। कवि ठीक कहता है –

“अपने चरित्र से विपरीत 
वे देते हैं सन्देश 
समाज को 
अपने समय के हिसाब से
बदलते हैं पैंतरा 
छिपाते हैं सच को 
गुमराह करते हैं सबको।” (वही,पृ ५५ ) 

वस्तुतः ऐसे लोग ‘पूंजीवादी के ज्वर से ग्रस्त’ होते हैं। अपने समय की शोषक सत्ता के समर्थक ,जिनकी प्रखर आलोचना मुक्तिबोध ‘अंधेरे में’ निर्दंद भाव से की है।

पूंजी के इस ‘बेशर्म दौर’ में अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है? यह ज्वलन्त प्रश्न है। वह अन्याय के विरुद्ध चीख सकता है। संवेदनशील कवि व्यक्तिगत स्तर अपना विरोध दर्ज करते हुए कहता है –

“भूख हड़ताल करता हूँ 
न्यायालय जाता हूँ
आवेदन करता हूँ 
कर्ज के बोझ से आत्महत्या करता हूँ 
विस्फोट करता कभी 
कभी महंगाई से मरता हूँ 
फिर भी चीखता रहता हूँ
मैं और वह दोनों बेशर्म हैं।” (वही,पृ.५७ )



देश की वर्तमान त्रासद परिस्तिथियों पर अमेरिकी प्रभाव भी लक्षित होता है। भारत की नीतियां राष्ट्रपति बराक ओबामा के इंगित पर बनती हैं और लागू होती हैं।

कवि यह भी महसूस करता है कि सच्ची आज़ादी आज तक नही प्राप्त हुई है। वर्ग –विभक्त समाज में क्रूर शासक वर्ग का तंत्र जन-गण को लूटने ,अत्याचार करने, गरीब का लहू पीने के लिए आज़ाद है। देश को बेचने के लिए आज़ाद है। और व्यक्ति के रूप में संतप्त होकर सोचता है –

“मैं 
इस देश का 
आम नागरिक हूँ 
मुझे देखने की 
सुनने की 
और देख-सुनकर 
भूल जाने की आदत है 
इस आदत का 
मैं क्या करूँ।” (पृ.४८ ) 

यह आदत खतरनाक है। आज ऐसी जनवादी राजनैतिक पार्टी की आवश्यकता है, जो उत्पादक वर्गों को एकजुट करें। उन्हें वर्ग चेतना से लैस करें। ऐसा करने के लिए घातक साम्प्रदायिक  सोच को त्यागना होगा।

इस क्रूर व्यवस्था में छोटी –छोटी अस्मिताओं और आतंकवाद के कारण आम आदमी ‘चिंदी –चिंदी ‘ हो गया है। कवि इस त्रासद दर्द को महसूस भी करता है –

“ सभी घटनाओं में 
आम आदमी मरता है 
 सब्जी बेचता हुआ 
 सड़क पर चलते हुए 
उसके चिथड़े –चिथड़े 
उड़ जाते हैं 
हवा में फटा मैं 
कागज के टुकड़ों की तरह।” (पृ.४९ )

कवि की यह आत्म –भत्सर्ना उसे श्रमशील वर्गों से जोड़कर व्यवस्था के प्रति अपना प्रतिरोध व्यक्त कर रही है | यह उसकी कविताओं का प्रमुख वैशिश्य्य है | एतएव वह ‘दलित जन पर करो करुणा’ से प्रेरित होकर रक्त पीनेवाली व्यवस्था की आलोचना के लिए तत्पर रहता है | ‘मैं वह नही था’ कविता इस वैशिश्य्य का सबूत पेश करती है –

‘मंदिरों में उसका प्रवेश निषिद्ध था 
क्यों कि वह दलित था 
उसके चेहरे पर बेबसी का निशान था
काल की सर्द रात में
फूटपाथ पर सोते हुए 
एक अमीरजादे ने 
जिसे कुचल दिया 
वह गरीब मैं नही था।” (पृ.४५)

यह आज के गरीब हिंदुस्तान की मारक वास्तविकता है। महानगरों में ऐसी क्रूर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। ऐसी ही एक घटना पर अभिनेता सलमान खान के विरुद्ध गैरइरादतन हत्या का मुकदमा चल रहा है। यह कैसा भारत निर्माण है कि जो भवन के निर्माण के लिए पसीना बहाते हैं . वही फुटपाथ पर सोते हैं। रहने को घर नही ,सारा जहाँ हमारा।

समकालीन हिंदी कविता राजनीति के जन-विरोधी चरित्र की निर्भीक आलोचना के बिना संभव नही है। नित्यानंद अपनी ज्ञानात्मक संवेदना के बल पर वर्तमान क्रूर शासकों के साथ–साथ अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद के अग्रगण समर्थक अमेरिका के करतूतों की निंदा “लोकतंत्र के नाम पर’ कविता में करते हुए पूछते हैं –

‘कब बुझेगी यह आग 
पूछ रही है बेबस दुनिया
पर तुमने उन्हें सुनकर भी 
अनसुना किया |” (पृ.३३)

सम्प्रति भारत में अमेरिकी पूंजी और उसकी अपसंस्कृति का इतना दूषित प्रभाव परिलक्षित हो रहा है कि भारत दो भागों में बंट गया है। एक है गरीब का विराट भारत। दूसरा है अमेरिका भक्त लघु भारत  जो धनाढ्य जनों के लिए स्वर्ग जैसा लगता है। यह कम दुर्भाग्य नही है कि भारतीय राजनीति का संचालन अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका करता है। लेकिन समझदार बुद्धिजीवी २१वीं शताब्दी में मार्क्सवाद का अध्ययन करके उसे अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। इस दृष्टि से डा. गोपाल प्रधान की पुस्तिका ‘वर्तमान सदी में मार्क्सवाद’ पठनीय है।
इस संकलन की अन्य कविताओं – बकरा , बाजार से लायेंगे सांसे , मेरे शून्य आकाश में , मेरे देश में , शांति पाठ , खाली कैनवास पर , तहकीकात , आदमी जब , बदलाव के इस दौर में एवं  पत्रिकाओं में प्रकशित रचनाएँ अपनी जनप्रतिबद्ध दृष्टि से व्यवस्था की तीखी समीक्षा करती हैं ,जिसके मूल में मानवीय करुणा निहित हैं। एक छोटी सी कविता ‘चुप्पी की भी राजनीति होती है’ इस कविता में कवि कहता है –

“अन्याय, फिर अन्याय
उस पर भी ख़ामोशी
चुप्पी की भी राजनीति होती है 
समझ रहे हैं हम 
 जो खामोश रहें इस दौर में 
 उतर आये अपने बचाव में 
 मैं तोड़ रहा हूँ 
 अपनी ख़ामोशी 
 अब आपकी बारी है।” (कृति ओर , अंक -६७ , पृ.३९)

अन्याय देखकर चुप रहना खतरनाक है। व्यक्ति मनुष्यता के स्तर से गिर जाता है। वस्तुतः अन्याय के विरुद्ध चुप्पी यथा स्तिथि का समर्थन है। ‘वागर्थ’ के अंक २११ में प्रकाशित कविता ‘रेत पर खेलते बच्चे’ –

रेत पर टीले, घरौंदे बनाते हैं,तोड़ते हैं 
फिर बनाते हैं 
नए सपने बुनते हैं।

लेकिन वे जानते हैं कि सपने रेत पर साकार नही होते | फिर भी वे खुश होते हैं। इस छोटी सी कविता की व्यंजना है कि अपने सपने साकार करने के लिए व्यक्ति को निराश नही होना चाहिए। प्रयास करते रहना चाहिए।

‘अपने हिस्से का प्रेम’ में कुछ प्रेम विषयक कविताएँ भी हैं, जिनमें कवि ने प्रेम की दूरी का वर्णन किया है। इन कविताओं में कवि की निराशा व्यक्त हुई है। आर्थिक विषमता ने प्रेम – संबंधों को छिन्न –भिन्न कर दिया है। वह स्वीकारता है कि –

मैं ‘अभ्यास पुस्तिका हूँ’, 
जिसमें प्रेमिका द्वारा बार –बार लिखा और मिटाया गया , 
फिर लिखा गया 
फिर मिटाया गया।
लेकिन अब उस अभ्यास पुस्तिका के पन्ने फट गये हैं 
और पुस्तिका भी मर गई है 
अब तुम्हें एक नई पुस्तिका की जरूरत है। (पृ.६४)

वह स्वंय को रेत की तरह महसूस करता है, कभी खुद को कंकाल समझता है। लेकिन वह आत्मविश्वास भरे मन से कहता है कि

“ भूलने न दूँगा 
तुम्हें 
अपने –आप 
याद आऊंगा
मैं तुम्हें , हर पल 
असर मेरा रहेगा 
तुम्हारे दिलो-दिमाग पर 
 सदा, उम्र भर।” (पृ.७३ )

नित्यानंद गायेन की प्रेम कविताओं में ऐसे नवयुवक की मनोदशा व्यक्त हुई है , जो महानगर में अकेला रहते हुए आजीविका के लिए संघर्ष करता है। लेकिन निष्क्रिय नही रहता है। अपनी काव्य –सर्जना से समाज के दलित–शोषित वर्गों से अपना रागात्मक संबंध जोड़ता है। उनकी काव्य-भाषा पारदर्शी है। वे सहज बोधगम्य हैं और पाठक का रागात्मक संबंध जीवन के यथार्थ से जोड़ते हैं।

नित्यानंद गायेन संभावनाओं के सहृदय कवि हैं। उनसे आशा है कि भविष्य में उनके काव्य क्षितिज विस्तृत होगा। अब तक उन्होंने स्वंय को बिकने से बचाया है। भविष्य में भी उनका यही स्वभाव और अधिक सुदृढ़ होगा।



(अमीर चंद वैश्य अमीर चंद वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।) 


मोब -09897482597


टिप्पणियाँ

  1. नित्यानन्द भाई की कविताएँ पढ़कर महसूस होता है कि अभी लोक धर्म जीवित है। नित्यानंद जी की कविताएँ आमजन के संघर्ष को, उसकी असंतुष्टि के स्वर को बल देती हैं....कविता को समर्पित, यह आवाज गूँजती रहे इस हेतु शुभकामनाएँ...प्रकाशक का पता अवश्य दें जिससे कि पुस्तक खरीदी जा सके...अमीरचंद जी को उनके प्रयास हेतु अनंत कोटी बधाई...।

    पद्मनाभ गौतम...

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  2. आदरणीय अमीर चंद जी के प्रति मैं आभार प्रकट करता हूँ | साथ ही मैं 'पहलीबार' के प्रति भी कृतज्ञ हूँ | बहुत आभार पद्मनाभ जी .
    -नित्यानंद गायेन

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  3. नित्यानन्द के इस कविता संग्रह को संकल्प प्रकाशन ने छापा है. इसे प्राप्त करने के लिए भाई रजत कृष्ण के मोबाईल नंबर- 08959271277 पर संपर्क किया जा सकता है.

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  4. कविता में लोकधर्मिता को बचाए रखने में जितना कवियों का हाथ होता है, उतना ही समीक्षकों का भी । उन्ही की वजह से कवि सामने आता है, पढ़ा जाता है । एक साहित्य प्रेमी, पाठक और प्रशंसक होने के नाते, मैं नित्यानंद भैय्या और अमीरचंद जी, दोनों का आभारी हूँ ।

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  5. आम आदमी के मन का आक्रोश नित्यानंदजी की रचनाओं से झाँकता हैं

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