सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'राजेश जोशी: शब्दों की भीड़ में एक अलग चेहरा'
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| राजेश जोशी |
राजेश जोशी अपनी तरह के नितान्त अकेले कवि हैं। वे अपनी कविता को जीते हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए लगता है कि वे कविताओं के साथ सहज भाव से खेल रहे हैं। यह खेलना उस बच्चे सरीखा है जिसके लिए उसका खिलौना ही सब कुछ है। यानी कुछ भी बनावटी नहीं, सब आत्मीयता से भरा हुआ। वे लकीर के फकीर नहीं हैं। जीवन के कोनों अंतरों को वे अपनी तरह से देखते समझते हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि अरे, इसे तो मैं भी लिख सकता हूं लेकिन कविता के बीच ही अचानक ऐसी कोई ऐसी पंक्ति आती है जिससे समूची कविता के मायने ही बदल जाते हैं और उसकी अपनी अलग 'अर्थ-छवि' पैदा हो जाती है। यही राजेश जी की खूबी है। यही कवि की अपनी पूंजी है जिसे कवि ने अनुभव से अर्जित किया है। यह साधारणता उन्हें असाधारण बना देती है। सेवाराम त्रिपाठी राजेश जोशी के बारे में लिखते हैं : 'बने-बनाए ढर्रे में लिखी कविताएँ मुझे रास नहीं आती। उसके लिए पूरी दुनिया के तमाम कवि हैं ही। मैं तो उसकी निजता में उसके वर्जित इलाक़े में झांक-झांक कर देखना चाहता हूँ उसका असली चेहरा। उसका असली चेहरा गायब होगा तो वह कहीं न कहीं कोई 'ठिल्लमबाज़ी' कर रहा होगा। कुछ न कुछ लूटने में लगा होगा। कितने कवि इस ठिल्लमबाज़ी में फंसे हुए हैं, अपने देश के प्रधान की तरह। कवि तो अनेक हैं और कविता के मंच और तमाम तरह के प्रपंच उद्योग में छीना झपटी करने में मशगूल हैं, देश के अनेक कवि मुखिया की तरह हो गए हैं। न जानें कैसा सर्र-फर्र कर रहे हैं। उनमें कवि की आभा भी नहीं होगी और न उसका अपनापन। कविता के संसार में उसकी लू-लपट ही तो उसकी ऊष्मा है। यहीं कहीं उसका जनपद है। यहीं कहीं उसका निजत्व है। ज़ाहिर सी बात है कि जो कवि अपने समय की छीना-झपटी, लूटपाट, आर्तनाद और विडंबना को अनदेखा करता है वह मेरी नज़र में 'आउटडेटेड’ है।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'राजेश जोशी: शब्दों की भीड़ में एक अलग चेहरा'।
'राजेश जोशी: शब्दों की भीड़ में एक अलग चेहरा'
सेवाराम त्रिपाठी
चार वर्ष पूर्व 18 जुलाई 2021 को राजेश जोशी पचहत्तर वर्ष के हो गए, लेकिन मेरी नज़रों में वे अभी भी युवा है। युवा वो होता है जो प्रायः यूँ ही कभी निराश नहीं होता। उम्र से कुछ नहीं होता। होता है उसकी भूमिका और असलियत से। समय को देखने और अनदेखा करने से। राजेश कभी भी वृद्ध नहीं होंगे। वे हर दिल अज़ीज़ हैं। उनके कई रूप हैं- कवि, कथाकार, नाटककार और आलोचक। कवि वो देखता है जो कोई नहीं देख सकता। उनकी 'ज़िद' कविता स्मरण कर रहा हूँ-
”निराशा मुझे माफ़ करो, आज मैं नहीं निकाल पाऊंगा तुम्हारे लिए समय
आज मुझे एक ज़रूरी मीटिंग में जाना है।”
कवि को फुर्सत नहीं है निराशा के लिए। निराशा जो निषेध से पैदा होती है, वह उसे कोई जगह नहीं देना चाहता है, क्योंकि उसे ज़रूरी मीटिंग में जाना है। वह आशाओं-आकांक्षाओं के साथ है। उसे ज़िंदगी भर ज़रूरी मीटिंग करनी है। समय -समाज, परिवेश के घात-प्रतिघातों से लड़ना है।ये मीटिंग वह सामाजिक-सांस्कृतिक, धार्मिकताओं और राजनीति की हालात ठीक करने के लिए निरंतर जारी रखना चाहता है। उसे समाज का बिगड़ा हुआ पर्यावरण भी तो ठीक करना है।
राजेश जोशी केवल कवि नहीं हैं। अब कविता भर में सब कुछ नहीं अंट पाता और न उसके माध्यम से सब कुछ कहा जा सकता। लेखक का काम कुछ शब्दों से नहीं चल सकता। वे कहानी, नाटक, रम्य, गद्य, संस्मरण, डायरी, आत्मकथा और आलोचना भी लिखते हैं। वे अव्यवस्थित हो कर भी व्यवस्थित हैं, रोज़मर्रा ज़िंदगी के संग्राम में। वे जो भी लिख रहे होते हैं, उसको न जाने कितनी बारीकी से निरीक्षण-परीक्षण कर के सहेजते हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई घाट-घाट का पानी पी कर अनुभव और जीवन को छांट-फटक रहा है और उसमें सामाजिक सांस्कृतिक जीवन की जद्दोजहद, साहस, संकल्प और समर्पण की दुनिया को अल्होर रहा है। उनका कुछ भी औचक नहीं होता। उनकी दृष्टि हमेशा लक्ष्य के प्रति निर्बाध होती है।
राजेश जोशी का लिखना मुझे पसंद है। पता नहीं क्यों? उनकी काफ़ी कविताएँ मुझे पसंद हैं यहाँ तक कि मुझे चुनाव करने में हमेशा दिक्कत आती है कि ये चुनूं कि वो। उसी प्रकार वे आलोचना के लिए जिन सूत्रों का पीछा करते हैं, वो तो और कठिन काम माना जा सकता है, किसी के लिए भी। 'किस्सा कोताह' का एक अंश जो उन्होंने लिखा है- “हर आत्मकथा का कुछ हिस्सा या बहुत बड़ा हिस्सा मनगढंत या कल्पित होता है। और हर कथा या उपन्यास का कुछ हिस्सा या बहुत बड़ा हिस्सा आत्मकथात्मक होता है। बहुत कुछ बताने के अभिनय में बहुत कुछ छिपा जाने की चतुराई हैं जो पूरी की पूरी सही हैं।” यह एकदम सही है। उनका लिखा आकाश मंडल से उतर कर नहीं आता। इसी धरती से उसका जीवंत रिश्ता है। उनके लिखे में जीवन राग भी है और जीवन रस भी। वो मुझे किसी दूसरे गोलार्ध के लेखक जैसे कभी नहीं लगे। इतना तो पक्का है कि वे इसी गोलार्ध के आदमी हैं। राजेश जोशी यथार्थ और सुहाने सपनों के बीच के लेखक हैं। यहीं उनके संघर्ष हैं। छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातें वो बहुत सहजता से रख देते हैं, कि आप चकित हो सकते हैं। अर्थ जो उन्होंने भर दिया है शब्दों में, उसे ज़रूर पढ़ना और गुनना चाहिए। उन शब्दों के भीतर ध्वनियों और अर्थों की छटाएँ हैं। उसमें हमारे ज़माने का बहुत बड़ा सच छिपा है। यही उनका हस्तक्षेप भी है। 'मारे जाएँगे' कविता भर का नहीं है बल्कि हमारे समय का समूचा सच भी है। और तानाशाही मनोविज्ञान का प्रतिकार भी।
राजेश जोशी के बारे में सोचते और पढ़ते हुए एक विशेष अनुभव यह भी है कि उनकी कविताओं की विश्वसनीय आवाज़ें हैं तो गद्य की दुनिया की भी हैं। बहुत ताकतवर गद्य है।कविताओं के बाद उनका आलोचनात्मक लेखन मुझे भरमाता है, पढ़ने को आमंत्रित करता है। क्या आलोचना की सामाजिकता, सामूहिकता की कोई आवाज़ नहीं होती। आदमी को ध्वनियां भी पकड़ती हैं। पानी की आवाज़ होती है और हवा की भी। पानी की आवाज़ें ठोस, तरल और गैस में भी विद्यमान होती हैं। कुछ पंक्तियाँ पढ़ें-
“रात जब नींद से भारी होने लगती थीं आँखें
कहीं दूर से बुलाती थी हमें पानी की आवाज़
फिर धीरे-धीरे
हमारे सपनों में शामिल हो जाती थी
पानी की आवाज़”
इस पानी की आवाज़ को शिद्दत से सुने जाने की ज़रूरत है।
राजेश जी का किया हुआ परीक्षण नई तरह के सूत्र सौंपता है। उनके शब्द हैं- "यूँ तो हर किताब, एक अधूरी किताब होती है लेकिन आलोचना की किताब तो मुझे लगता है कि हमेशा ही एक अधूरी किताब होती है। एक ऐसी किताब जिसमें बीच-बीच के पन्ने अक्सर ही ग़ायब होते हैं। कई बार तो बीच की पंक्तियाँ और पैराग्राफ भी। कितने नामों के बारे में हम सोच कर शुरू करते हैं और पाते हैं कि उसमें से ही कितने ही नाम हर बार विस्मृत हो जाते हैं। हम कई किताबों पर लिखने की योजना बनाते हैं पर वह कभी पूरी नहीं होती। कभी काहिली के चलते और कभी अक्षमता के कारण। जितना हम सोचते हैं उतना लिख नहीं पाते। जितना जानते हैं उतना समेट नहीं पाते। हाथ अक्सर छोटे पड़ जाते हैं।” (एक कवि की दूसरी नोट बुक/ समकालीनता और साहित्य-भूमिका के एवज में- पृष्ठ-8)
याद करता हूँ कि राजेश जोशी से मेरी पहली मुलाकात कब हुई थी? शायद त्रिलोचन जी द्वारा आयोजित मुक्तिबोध सृजन पीठ सागर के कार्यक्रम में। विचार-विमर्श था- ‘कविता अन्य विधाओं की प्रकृति में’। वे एक-एक शब्द चबा-चबा कर और अत्यंत ज़िम्मेदारी के साथ बोलते हैं। उतार चढ़ाव के साथ जैसे कोई ऋषि मंत्र पढ़ रहा हो। उनकी आवाज़ में एक विशेष प्रकार का खिलंदड़ापन और एक अदद भाँख होती है, जो अलग से पहचान में आती है। वे मेरी नज़र में स्वतंत्र सोच वाले और धुनी आदमी हैं। मेरा उनसे अक्सर कमला प्रसाद जी के साथ मिलना होता रहता था। कमला प्रसाद और उनकी बहसें सुनते-सुनते कितने विचार-विमर्श सामने से गुज़रे हैं एक साए की तरह। यह सिलसिला लगातार चला। पहले मुझे एहसास नहीं था कि वे जितने ज्वलंत कवि हैं उतने ही आत्मीय ताप के भरे-पूरे आदमी भी हैं। कितनी बार मिला हूँ चुप्पा आदमी की परछाई की मानिंद। लेकिन उस छाया का घेरा बढ़ता ही जाता है।
कमला प्रसाद जी के इस दुनिया से जाने के बाद उनसे मिलना कम हुआ है लेकिन मेरे दिमाग़ में वे एक महत्वपूर्ण शख्शियत की तरह विद्यमान हैं। भोपाल में जब मैं संचालक, मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के पद पर कर्तव्यरत था, वे कभी-कभी रामप्रकाश त्रिपाठी के साथ आ जाया करते थे और बातों का जब पिटारा खुलता तो न जाने कितनी निष्पत्तियाँ धमा-चौकड़ी करती थीं। इस दफ़्तर में मिलने की कई यादें नदी में उठती हुई लहर की तरह हैं। ये लहरें बनती-बिगड़ती जाती हैं और फिर उपस्थित भी हो जाती हैं। राजेश जोशी से मेरे सम्बन्ध पाने-खोने के या एक-दूसरे के रिझाने के भी कभी नहीं रहे है। आत्मीयता सुरक्षित रहे बस और क्या चाहिए। राजेश जी में एक विशेष प्रकार की उत्फुल्लता है, लेकिन उसमें जीवन जगत का दुःख समाया हुआ है। आम ज़िंदगी का दुःख भी है। 'विलुप्त प्रजातियाँ' कविता का यह अंश पढ़ें-
“कई लोग इसी तरह खो जाते हैं एक दिन
उनके नए पते किसी को पता नहीं होते
कई लोग और कई शहर के शहर
इसी तरह खो गए हमारी धरती से
पेड़ों, पशुओं और परिंदों की न जाने कितनी प्रजातियाँ
विलुप्त हो गई न जाने कब
अब तो उनकी कोई स्मृति भी
बाकी नहीं।”
एक जिक्र करना ज़रुरी है कि मेरे दूसरे कविता संग्रह- 'खुशबू बांटती हवा‘ के लोकार्पण समारोह में वे आए थे 31 जुलाई 2016 को रीवा में। कथाकार काशी नाथ सिंह ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी और राजेंद्र शर्मा भी उसमें शरीक हुए थे। किसी कारणवश अरुण कमल नहीं आ पाए थे। आज कहना चाहता हूँ कि मेरे जाने-पूछे बगैर यह कार्यक्रम हुआ था वजह यह थी कि यही मेरा सेवा से रिटायर होने का समय भी था। राजेश जी ने एक वक्तव्य दिया था। उसकी एक कॉपी भी मुझे दी थी। अभी तक मैंने उसे कहीं प्रकाशित नहीं कराया। यह प्रसंग मेरी भयानक बीमारी यानी ब्रेन स्ट्रोक के बाद का है।
राजेश जी के प्रायः सभी संग्रह मैंने पढ़े हैं शायद अंतिम संग्रह छोड़ कर। उनके गद्य रूप को भी जानता-पहचानता रहा हूँ। कहानियों और नाटकों को भी। मैं अपने जीवन भर बनावटी आदमी नहीं हो पाया। कृत्रिमता मुझे रास नहीं आती। लोग आगे-आगे लुतुर-लुतुर करते हैं और अपना सिर उठा-उठा कर फोटो बनवाते हैं। मैं हमेशा पीछे की पंक्ति में रहता हूँ। मैंने राजेश जोशी पर कभी कुछ लिखा नहीं। सोचा जब इतने सारे लोग लिख रहे हैं तो मेरे लिखे का क्या औचित्य? हाँ, अंदर-अंदर उन्हें सराहता भी रहा हूँ और एक विशेष प्रकार से रीझता भी रहा हूँ। अक्सर उनकी कविताओं को उद्धृत भी करता रहा हूँ और कभी-कभी आलोचना छवियों को बानगी की तरह। उनके आत्मीय, घुलनशील तत्व को अनुभव भी करता रहा हूँ। उन्हें पसंद करने वाले अनेक हैं। उनकी तारीफ़ करने वाले और ईर्ष्या करने वाले भी। कि हाय! वे उन जैसा नहीं लिख पाए। सोचता हूँ कोई एक दूसरे जैसा कैसे लिख सकता है या कैसे लिख पाएगा। हम ब्रेख्त, मायकोवस्की, नाजिम हिकमत जैसा कैसे लिख पाएंगे। वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास, कबीर, तुलसी, निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई जैसा या मीर तकी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब, ताज़ भोपाली या अहमद फ़राज़ जैसा कैसे लिख सकते हैं। राजेश जोशी, राजेश जोशी हैं और अरुण कमल, अरुण कमल। कोई किसी का विकल्प नहीं होता। हमें चीज़ों और व्यक्तियों को गड्ड-मड्ड नहीं करना चाहिए ।
हम सराह सकते हैं, वे हमारे आदर्श हैं। उनको स्पर्श करना चाहते हैं। यूँ सराहना एक तरह से किसी को प्यार करना भी है। उसके होने को प्रमाणित करना भी है। एक तरह से उस पर न्योछावर भी होना है। सबकी प्रकृति अलग है। सबका अपना-अपना चेहरा है, कद-काठी है और घनत्व भी है। उन्हें पढ़ते हुए अपना विस्तार करता हूँ। राजेश जोशी ने अपना विशाल 'कैनवास' भी बनाया है और अपनी हैसियत दर्ज़ की है। राजेश जोशी जितने कल यानी अतीत के साथ हैं उससे कहीं ज़्यादा आज के साथ और भविष्य में उससे और कहीं ज्यादा होंगे। कोई नहीं समझ सकता कि राजेश जोशी का असली 'डिपार्टमेंट' कौन सा है जहाँ वे खुल कर खेलते हैं। किसी को ठीक-ठीक पता नहीं कि उनका मौन कब मुखर होता है और कब प्रवाहित होता है और कब उनका गप्पी तरंगित होता है। यह भी एक दुनिया है। राजेश जोशी जितने बाहर हैं उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर अपने द्वंद्व के साथ। "गप्प बनाने और मारने के लिए अपार फुरसत चाहिए और इस ज़माने में आदमी के पास सब कुछ है जो पहले कभी मध्य वर्ग के लोगों के पास नहीं था बस एक कमबख्त फुरसत नहीं है।” (किस्सा कोताह, पृष्ठ - 14)
हम असमंजस में होते हैं तो कहीं के नहीं रह पाते। असंभव सबसे ख़राब चीज़ है। लेकिन असंभव न हो तो आप संभव कैसे कर सकते हैं? असंभव में ही अनंत संभावनाओं का निवास होता है। उसी के संदर्भों से कुछ बनने की प्रतिज्ञाएँ लगातार दस्तक देती हैं। राजेश जोशी से सैकड़ों से ज़्यादा मुलाकातें हुई हैं। उनमें कई तरह की चीज़ें एक साथ निवास करती हैं। तोड़-फोड़, आवारगी, अपनी तरह का विशेष हुनर, आत्मीयता की ऊष्मा और उसकी अनंत तहें। उनमें अनुशासनहीनता और संगठनबद्धता का अद्भुत मेल है। वे जितने स्वतंत्र हैं उतने ही अराजक और बातों के परम रसिया भी। उनकी उन्मुक्त हँसी बहुत देर तक अनुभव करता हूँ। जितने मासूम उतने ही बुद्धिमान और उतने ही परम गपोड़ी। लेकिन इसे शुद्ध गपोड़ी की शक्ल में न समझें तभी। वो गप्पास्टक वाले गपोड़ी नहीं हैं। वे चुप्पा और समझदारी के साझा रंगमंच के आदमी हैं। विरुद्धों के सामंजस्य से, इसी जीवन की विविधता के रसायन से कोई राजेश जोशी को पा सकता है, अन्यथा ढूंढते ही रह जाओगे। वे विराट जीवनानुभव के साथ खड़े हैं। आक्रोश के लिए उनके पास भरपूर जगह है। जटिलताओं के विन्यासों से वे यथार्थ की तलाश करते हैं। यथार्थ को बेधने के न जाने कितने हुनर उनके पास हैं। राजेश जी में वृत्तांतों में दर्ज़ करने की अपार क्षमता है। वो भी सौ टका टंच। कविता के बारे में उनका विश्वास हमारे लिए बहुत बड़ा आश्वासन है। वे कहते हैं- “कविता संभवतः हमारे समय की वह आख़िरी आवाज़ है जिसे बाज़ार और हिंसा अभी तक मलिन और गुमराह नहीं कर सकी है।”
किसी कवि को पढ़ते हुए मैं अतीत, वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं को भी देखना चाहता हूँ। मेरा यह लक्ष्य नहीं है कि उसने कितने बड़े पैमाने पर और कितनी और कितनी तरह की कविताएँ लिखी हैं। 'घर की याद' कविता का यह अंश देखें।
"न जाने कितने ढाबों का पी चुका हूँ पानी
खा चुका हूँ नमक
फांक चुका हूँ न जानें कितने मन धूल
कोई नहीं सुनता
कोई नहीं सुनता साला पर मेरी बात
हमारे समय का सबसे बड़ा दुःख है निर्वासन
कैसे? कैसे बताऊं उसे अपना दुःख
कहीं दूर देखने का स्वांग करता
बचाता हूँ अपनी आंखें।"
(दो पंक्तियों के बीच, पृष्ठ- 62-63)
कवि अपनी भूमिका पहचानता और निबाहता भी है। कवि कोई रोकड़िया नहीं है। वह कविता में अपने दुःख और सुख दोनों व्यक्त करता है। अपनी बेचैनी को दर्ज़ करता है। वह आपको पेड़ की सबसे ऊँची फुंनगी तक पहुंचा सकता है। वह किसी प्रधान की तरह झूठ लीला में भी नहीं है। बल्कि मुझे यह देखने में ज़्यादा सुकून अनुभव होता है कि उसकी आवाज़ कहां है? वह आख़िर है कहाँ? वह किस ओर खड़ा है। उसकी दस्तक कैसे समय समाज परिवेश के आरपार रेखांकित हो रही है। उसका अपना निजी विशिष्ट कहाँ है। उसकी आत्मीयता की छवियाँ कहाँ हैं। उसकी कहन भंगिमा और वचन भंगिमा कहाँ है? अधूरी कविताएँ शीर्षक का यह अंश पढ़ें-
“यूँ भी दुनिया में सबसे बड़ी तादाद अधूरी कविताओं की है
पूरी कविताओं में भी कहीं न कहीं बचा ही रहता है एक अधूरापन
हर मुकम्मिल कविता को लिखना चाहता है/ दूसरा कवि दूसरी तरह
और मजा यह है कि ऐसा करके न पहला संतुष्ट होता, न दूसरा
हर कवि को हमेशा ही लगता है कि कविता में कहीं कुछ छूट गया है
जो होना था.. हो सकता था..”
राजेश जोशी कविता लिखते हैं तो न जाने कितना डूब कर लिखते हैं। कितने अंदर तक पहुंच जाते हैं और न जाने कितने पार चले जाते हैं। पता नहीं वो क्या खोज लेते हैं। उनकी एक कविता है - 'नेपथ्य में हँसी'-
“कोई गुज़रे हमारे आसमान से
कोई गुज़रे हमारे बगल के समुद्र से, नदी से /लगेगा उसे
बाकी है, बाकी है अभी
हमारे घरों में हँसी
हमारी हँसी ठीक इसी समय
उम्मीद के सबसे कमजोर घोड़े पर सवार
कहीं अंधेरे में
टटोल रही होगी अपना रास्ता”
कवि की संवेदना और सचमुच की बेचैनी किस इलाक़े में आवाजाही कर रही है। मैं कविता में उसकी औकात और आवारगी भी देखना पसंद करता हूँ। आवारगी के बिना कवि कैसा? यही तो उसके जीवन का रसायन है कवि की 'हें हें' मुझे छलनी कर देती है। कवि का बगुला भगत होना बहुत अखरता है। भीतर तक हिला देता है। मात्र बने-बनाए ढर्रे में लिखी कविताएँ मुझे रास नहीं आती। उसके लिए पूरी दुनिया के तमाम कवि हैं ही। मैं तो उसकी निजता में उसके वर्जित इलाक़े में झांक-झांक कर देखना चाहता हूँ उसका असली चेहरा। उसका असली चेहरा गायब होगा तो वह कहीं न कहीं कोई 'ठिल्लमबाज़ी' कर रहा होगा। कुछ न कुछ लूटने में लगा होगा। कितने कवि इस ठिल्लमबाज़ी में फंसे हुए हैं, अपने देश के प्रधान की तरह। कवि तो अनेक हैं और कविता के मंच और तमाम तरह के प्रपंच उद्योग में छीना झपटी करने में मशगूल हैं, देश के अनेक कवि मुखिया की तरह हो गए हैं। न जानें कैसा सर्र-फर्र कर रहे हैं। उनमें कवि की आभा भी नहीं होगी और न उसका अपनापन। कविता के संसार में उसकी लू-लपट ही तो उसकी ऊष्मा है। यहीं कहीं उसका जनपद है। यहीं कहीं उसका निजत्व है। ज़ाहिर सी बात है कि जो कवि अपने समय की छीना-झपटी, लूटपाट, आर्तनाद और विडंबना को अनदेखा करता है वह मेरी नज़र में 'आउटडेटेड’ है। उसके अंदर एक लंपटपना निवास करता है।
कविता की असली पाठशाला हमारा समग्र जीवन है। इसमें कोई कतर-ब्योंत नहीं। राजेश जोशी के बारे में मैंने कभी कुछ नहीं लिखा। उनका शायद उस तरह सम्मान नहीं करता जैसा लोग दिखावे की धुंध में करते हैं बल्कि प्यार करता हूँ और दुलार भी। मैं नहीं जानता उसमें सम्मान समाया है या नहीं। यूँ तो राजेश जोशी के लेखन के इलाक़े बहुत हैं। कविता, कहानी, संस्मरण, नाटक और आलोचना। उनका चेहरा कहीं भी गड्ड-मड्ड नहीं है। वे मूल रूप से एक बेहद संवेदनशील और धाकड़ कवि हैं जिसमें मनुष्यता के आवारगी के और निजता के अनेक संस्मरण भी हैं और संस्करण भी। वे कवि तो हैं ही वे बेहद सावधान आलोचक भी हैं। दोनों एक दूसरे से गुत्थम गुत्था। 'बनास जन' ने उनके रंगकर्म की सोच प्रक्रिया पर एक अंक निकाला था। उनका चीज़ों को सूत्रबद्ध करना या फार्मूलेशन करना मुझे भाता है। वे जितने शांत और संवेदनशील हैं उतने ही गुस्सैल भी। गुस्सा दिखता नहीं है उनमें लेकिन उसकी रूह उनकी रचनाओं में समाई हुई है। यहीं कहीं उनका अपानापा और संजीदा प्यार भी है। उनका एक अदना सा साथी उनसे एकतरफा मोहब्बत करता है लेकिन राजेश जोशी को शायद इसका पता ही नहीं है। यह पचहत्तर सब पर भारी हो।
देखते-देखते उन्होंने 79 बसंत पार कर लिए। बीमारी झेली लेकिन साहस, संकल्प और विश्वास के साथ। उनका एजेंडा चुस्त-दुरुस्त है। अभी भी वो अपने काम में भिड़े हैं। कोई उन्हें उनके लक्ष्य से हिला नहीं सकता। वो इसलिए कि ज़िंदगी का तरीका, शऊर और बाँकपन उन्होंने पा लिया है। इस दौर में मसखरापन बढ़ा है और मिमिक्री करने का चलन भी। धरती के दृश्य और बिंब खलास किए जा रहे हैं। यह भी देखा जा रहा है कि स्वार्थों के रूप में वास्तव में कौन कितने समय तक टिक सकता है। उनकी एक कविता है- 'इतना अंधेरा तो कभी नहीं था’। उसकी पंक्तियाँ हमारे समय, समाज और परिवेश का सच भी है और घोषणा पत्र भी-
“इतना अंधेरा तो तब भी नहीं था जब अग्निकाठ में और पत्थर के गर्भ में छिपी थी
तब इतना धुंधला नहीं था आकाश
नक्षत्रों की रोशनी धरती तक ज़्यादा आती थी/ इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
लगता है कि ये हमारे गोलार्ध पर उतरी रात नहीं
पूरी पृथ्वी पर धीरे-धीरे फैलता जा रहा अंधकार है
अंधेरे में सिर्फ़ उल्लू बोल रहे हैं और उसकी पीठ पर बैठी देवी फिसल कर गिर गई है गर्त में
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था
कि मुँह खोल कर अंधेरे को कोई अंधेरा न कह सके
कि हाथ को हाथ भी न सूझे कि आँख के सामने
घटे अपराध की कोई गवाही न दे सके
इतना अंधेरा तो पहले कभी नहीं था।''
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सम्पर्क
मोबाइल : 7987921206





वरिष्ठ कवि राजेश जोशी जीऔर आलोचक आदरणीय Sevaram Tripathi जी को साधुवाद।
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