यादवेन्द्र का आलेख 'मेरे हाथ खोल दिए जाएँ'
![]() |
यादवेन्द्र |
'मेरे हाथ खोल दिए जाएँ'
यादवेन्द्र
रेख़्ता पब्लिकेशंस द्वारा तसनीफ़ हैदर के संपादन (चयन, लिप्यंतरण और संपादन) में प्रकाशित स्त्री विमर्श की चुनिंदा उर्दू कहानियों के बेहद उद्वेलित करने वाले हिंदी संचयन मसरूफ़ औरत में एक बेहद छोटी सी लेकिन दिल पर सीधा चोट करने वाली कहानी है ख़ारिश है - इसमें सिर्फ़ 564 शब्द हैं। इसकी लेखक हैं अज़रा अब्बास जो उर्दू की मशहूर कथाकार और शायर हैं जिनके कई कविता संकलन, कहानी संकलन और उपन्यास प्रकाशित हैं।
कहानी में सिर्फ़ एक किरदार है अनाम औरत जो क्या करती है इसका खुलासा नहीं पर कहानी का विस्तार इस बात की ओर इशारा करता है वह कोई मेहनतकश औरत ही रही होगी जो काम की बाबत घर से निकली है। उसे जो फ़ासला पार करना है वह दो फर्लांग का (लगभग 400 मीटर) है - एक औरत के लिए लगभग 600 कदम नापना है।
वह जैसे ही घर से निकली दोनों कूल्हों के बीच की हड्डी के पास झुरझुरी/ सरसराहट महसूस हुई। स्वाभाविक तौर पर उसका हाथ पीछे की ओर गया लेकिन वह हाथ हिला कर ही रह गई - इस भरी सड़क पर वह कैसे कूल्हों में छुपी हड्डी को खुजा सकेगी? कोई देखेगा तो कहेगा कैसी बेशरम औरत है।
इस सड़क पर आमतौर पर सन्नाटा रहता है, इक्का दुक्का गाड़ी दिख जाती है। अगर कोई गाड़ी दूर हो या सड़क खाली हो तो वह इरादा कर रही थी कि उसे मौका मिल जाता तो ख़ारिश वाली जगह को उंगलियों से रगड़ देती। लेकिन उसकी किस्मत साथ नहीं दे रही थी - हर बार एक नई गाड़ी सामने से या पीछे से आ जाती।
हर रोज़ जो सड़क सुनसान रहती थी आज जब उसके ऊपर ऐसी कुदरती मुसीबत आन पड़ी थी तो उसे एक छोटा सा काम जो पलों में हो जाने वाला था, वह भी करने की मोहलत दुनिया नहीं दे रही थी।
क्या करे बेचारी, ख़ारिश झुरझुरी, सरसराहट से उग्र होते होते अब तेज़ चुभन में बदल रही थी।
वह तेजी से हाथ पीछे ले गई, शलवार के ढीले झोल के अंदर हाथ घुसाया ही था कि एक राहगीर के कदमों की चाप ने उसे नाटक करने पर मजबूर कर दिया ताकि ऐसा लगे कि वह कुछ और नहीं बल्कि झोल को आगे की तरफ खिसका रही है। समाधान न हो पाने से मामला बर्दाश्त बाहर होता जा रहा था -
इस बार उसके सारे जिस्म में च्यूंटियां सी काटने लगी थीं।
खारिश की ज़द बढ़ कर हड्डी से दोनों कूल्हों तक फैल गई थी।
बेचैन हो कर उसने अपने कदम तेज़ कर दिए कि रास्ता जल्दी कट जाए। कुछ दूर आगे बढ़ते ही इस खारिश ने उसके सारे जिस्म को उछाल सा दिया। उसका हाथ एकदम से उठ गया और कूल्हों के दरमियान पहुंचा ही था कि एक गेंद खट से उसके पाँव पर आकर गिरी। वह चौंक कर ठिठक गई। सामने आ गए दो जवान लड़के उसे वैसे हाल में देख कर शर्मिंदगी से मुस्कुरा रहे थे, मजबूरी थी उसे भी मुस्कुराना पड़ा जबकि असल सूरत रोने चीखने की थी।
उसे लगा कि पार्क के उस हिस्से में उड़ कर पहुंच जाए जो अक्सर खाली रहता था। वह बेताब हो रही थी - दो-चार कदम ही तो बढ़ाने थे। उसे लगा वही खाली कोना ऐसी जगह है जहाँ पहुंच कर वह पल भर को ठहरेगी और इस जानलेवा खारिश से अपनी जान छुड़ाएगी। चलते चलते कूल्हों की हरकत हाथ को हड्डी तक पहुंचने नहीं देती थी।
![]() |
अज़रा अब्बास |
तेज कदम बढ़ाते हुए उस कोने में वह पहुंच तो गई पर उसका हाथ पीछे की तरफ पहुंचता कि सामने की छोटी घनी झाड़ियों के बीच खरखराहट की आवाज सुनाई देने लगी। वह चौंक गई, इन झाड़ियों के बीच भला कौन छुपा हो सकता है। उसके सामने एक कुत्ता निकल कर आ गया जो अपनी थूथनी बार बार पीछे ले जाने की कोशिश कर रहा था। वह भी उसकी तरह ख़ारिश का मारा था। अपने पिछवाड़े की ख़ारिश मिटाने को वह जितना ही पीछे की ओर अपनी थूथनी ले जाने की कोशिश करता अवश होकर उतना ही गोल गोल घूम जाता। क्रोध और लाचारी में वह मुँह से बरबराने की आवाज निकलता और बेबस हो कर और फिर से गोल घूम जाता।
अपनी तरह उस कुत्ते को ख़ारिश की चुभन से निबटने की कोशिश करते हुए देखना उस औरत के लिए निर्णायक क्षण साबित हुआ। उसने आव देखा न ताव यदि कोई आसपास है भी तो रहता रहे, उसकी बला से। सड़क के कुत्ते ने उसे सिखा दिया कि कुदरती अज़ाब से कैसे दो दो हाथ करना है। आगा पीछा देखना एक तरफ़, वह भी पीछे मुड़ी और गोल गोल घूम गई। सामाजिक लोक लाज और बंदिशों की ऐसी तैसी, औरत ने अपना काम कर लिया। सड़क के एक कुत्ते की मार्फ़त लेखक ने दुनिया भर की मेहनतकश औरतों को एक खुला संदेश दिया कि अपनी शारीरिक जरुरतों का हल ढूंढना उनका बुनियादी हक है जो पुरुषवादी नजरिए से चलने वाला समाज नहीं ढूंढेगा, उसे वह ज़रूरत ज़रूरत समझ ही नहीं आएगी। लोक लाज का दमनकारी ढांचा उन्हें ध्वस्त करना ही होगा।
अज़रा अब्बास उर्दू अदब में प्रखर स्त्रीवादी रचनाकार मानी जाती है। उनकी एक मशहूर नज़्म की पंक्तियाँ देखें:
मेरे हाथ खोल दिए जाएँ
तो मैं
इस दुनिया की दीवारों को
अपने ख़्वाबों की लकीरों से
सियाह कर दूँ
और क़हर की बारिश बरसाऊँ
और इस दुनिया को
अपनी हथेली पर रख कर
मसल दूँ
*****
मेरी ज़ंजीर खोल दी जाए
उसका सिरा किस के हाथ में है?
पुरुष प्रधान समझ अपने शौच और पेशाब का तो ख्याल कर लेता है पर औरत कामगारों की जरूरतें उसकी निगाह में अदृश्य होती हैं - कम मजदूरी दे कर उसे औरतें तो चाहिए पर उनकी भी कुछ कुदरती तलब होती है इसकी कोई परवाह उन्हें नहीं होती। यात्रा के दौरान औरतों के निवृत्त होने के संकट पर हाल के दिनों में पढ़ी विनीता परमार की दारुण कहानी "विसर्जन" याद आती है जिसमें बस वाले को ज्यादा से ज्यादा सवारी बिठाने की हड़बड़ी रहती है और प्रमुख किरदार अपना प्रेशर रोक नहीं पाती, सब कुछ गीला गीला।
नागरिक अधिकारों को ले कर अत्यंत सजग केरल की बड़ी बड़ी दुकानों पर 12- 14 घंटे तक खड़े हो कर महंगी साड़ियाँ दिखाने बेचने वाली स्त्री कामगारों ने कोझिकोड की पी विजी के नेतृत्व में करीब पच्चीस साल पहले एक अनूठा आंदोलन शुरू किया था - उन्होंने न सिर्फ़ स्त्रियों के लिए शौचालय के निर्माण की मांग की बल्कि बीच बीच में निवृत्त होने के लिए वहां जाने के हक भी मांगे। इक्कीसवीं सदी में जब उन्होंने इस आंदोलन के माध्यम से बीच बीच में स्टूल पर बैठने का अधिकार भी मांगा तो मुख्य ट्रेड यूनियन समेत विभिन्न मंचों से उनका मखौल भी उड़ाया गया। ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि उनकी सभी मांगें मान ली गईं लेकिन उसका काफी सकारात्मक असर हुआ। केरल की देखा देखी तमिलनाडु में भी स्त्री कामगारों ने ऐसे आंदोलन किए जिन्हें समाचारों में बैठने के अधिकार का आंदोलन (राइट टु सिट) कहा गया।
शेक्सपियर ने अपने मशहूर नाटक जूलियस सीजर में 'इचिंग पॉम' की बात की है जहां हथेली में खुजली हो तो उसे सोने के सिक्कों से खुजलाया जाए, सहलाया जाए। वैसे ही जैसे फ्रांस की क्रांति के समय वहाँ की रानी ने भूख से तड़प तड़प कर मरती गरीब जनता को केक खाने का मशविरा दिया था।
खारिश/ खुजली के संबंध में यदि गूगल सर्च करते हुए उद्धरणों की तलाश की जाए तो बहुतेरे उदाहरण लेखकों कवियों के मिलेंगे जो कहते हैं कि उनके मन में उठाती ख़ारिश/खुजली ही उनसे लिखवा लेती है। यहाँ खुजली को एक रूपक के तौर पर लिया गया है जबकि अजरा अब्बास अपनी कहानी में घर से बाहर निकली लोगों के बीच खुली सड़क पर चलती हुई एक औरत की वास्तविक ख़ारिश/ खुजली की चुभन का पल पल का हाल बयान करती हैं। ऐसा ग्राफिक शब्दांकन मेहनतकश जिंदगी से वाकिफ कोई संवेदनशील स्त्री ही कर सकती है, पुरुष तो बिल्कुल नहीं।
कवि को जनेऊ की याद आती है जिससे पीठ की खुजली कुछ हद तक रगड़ कर शांत की जा सकती है लेकिन वह तो प्रगतिशील क्रांतिकारी कवि है, इसलिए जनेऊ बहुत पहले ही छोड़ चुका है। उसे बैलगाड़ी के विशालकाय पहिए की याद आती है जो होटल के आसपास होती तो उससे टिक कर खुजला सकता था अपनी पीठ। होटल के कमरे में अकेले अब सिवाय उसके अपने खुद के हाथ के कोई ऐसी चीज नहीं है जो मदद को आगे आए ... पर नामुराद खुजली ऐसी है कि उसका हाथ जहां तक पहुंचता है उससे आगे खिसक कर चुनौती देने लगती है। ऐसे स्वतंत्र रूप से पढ़ते हुए यह कविता पाठक को अपनी तरह का अलग निष्कर्ष निकालने को खुला छोड़ देती है पर "ख़ारिश" कहानी के समांतर रख कर पढ़ते हुए पितृसत्ता के पूर्वाग्रह से ग्रस्त दिखाई देती है - प्रिया की हथेली की याद कवि को किन्हीं और परिस्थितियों में नहीं बल्कि पीठ की खुजली मिटाने के लिए आने लगती है। मेरे हिसाब से यह प्रेम के बेहद पुरुषवादी सरलीकरण का उदाहरण बन जाती है।
कोई आश्चर्य नहीं कि इस कहानी को पढ़ाते हुए मुझे राजेश जोशी की कविता 'पीठ की खुजली' की याद आ रही है जो पीठ की खुजली को रोमांटिक अंदाज में बयान करती है -
रह रह कर आ रही है
इस समय तुम्हारी याद।
शरीर की ऐसी कुदरती तलब और उसके तत्काल निदान न किए जाने पर होने वाले दुष्परिणामों के बारे में सोचते हुए अनायास ही दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कथाकार एंटन चेखव की बेहद मशहूर कहानी "क्लर्क की मौत" याद आती है। ख़ारिश की तरह ही छींक पर इसके प्रमुख पात्र एक मामूली क्लर्क इवान चेरव्यकोव का वश नहीं रहता और वह एक नाटक देखते हुए मजबूर हो जाता है:
"यूँ तो हर किसी को जहाँ चाहे छींकने का हक़ है। किसान, थाने के दारोगा, यहाँ तक कि प्रिवी कौंसिल के मेम्बर तक छींकते हैं - हर कोई छींकता है, हर कोई।"
पर होता यह है कि अनजाने में उसकी छींक के कुछ छींटे ठीक सामने बैठे एक बड़े सरकारी ओहदे पर बैठे जनरल ब्रिजालोव की गंजी खोपड़ी पर पड़ गए जिसे उन्होंने बड़बड़ाते हुए रुमाल से पोंछ लिया। नाटक अबाध गति से चलता रहा लेकिन इवान की बेचैनी तीव्र गति से कई गुना बढ़ती चली गई - उसके अंदर बैठा हुआ अपराधबोध तत्कालीन रूसी समाज के पदानुक्रम और शक्ति संरचना का द्योतक है। इवान के लिए नाटक एक यातना बन गया, वह थोड़ी-थोड़ी देर के बाद जनरल से माफी मांगता रहा। यहां तक कि नाटक खत्म होने के बाद भी वह जनरल के दफ्तर जा कर बार-बार माफ़ी मांगने का प्रयास करता है और हर बार जनरल उसे झिड़क कर भगा देता है। जाहिर है बड़े ओहदे पर विराजमान सुविधा संपन्न जनरल के लिए यह भुला दी जाने वाली बेहद मामूली बात थी पर एक छोटे क्लर्क के लिए अनजाने में हो जाने वाला एक अक्षम्य अपराध। जनरल का कद इस घटना से छोटा नहीं हुआ पर बचपन से हीनता बोध के शिकार इवान इस छींक को जीवन का सबसे बड़ा गुनाह समझता है - गैर बराबरी से संचालित समाज इन प्रतीकों को इतना दैत्याकार बना कर हमारी चेतना में प्रत्यारोपित कर देता है कि इवान को सहज ही लगने लगता है कि उसे भरे हॉल में छींकने का कोई अधिकार नहीं... उसी तरह अज़रा अब्बास की नायिका को ख़ारिश सिर चढ़ कर बोलने लगे तब भी कूल्हों के बीच की हड्डी पर उंगलियाँ फिराने का कोई अधिकार नहीं।
सम्पर्क
यादवेन्द्र
मोबाइल : 9411100294
यह बहुत महत्वपूर्ण शुरुआत है।यादवेंद्र एक गंभीर आलोचक है...
जवाब देंहटाएंउनकी नज़र कथा के गहन बिंदुओं
पर होता है....अलग तरह की कहानियों
को चुनना यादवेंद्र की विशेषता है..
यह मैं हूं लीलाधर मंडलोई
हटाएंभाई जी, शुक्रिया
हटाएंबहुत अच्छी रचना है, दुनिया भर की औरतों को देखने का चश्मा बदलने की अपील करती हुई।
जवाब देंहटाएं