यतीश कुमार की कविताएँ
दुःख मानव जीवन का शाश्वत सत्य है।  एक बड़ी आबादी का आज भी यह कडवा सच
है। दुःख ने ही राजकुमार सिद्धार्थ को चिन्तन की तरफ कुछ इस तरह आकृष्ट किया
कि वे घर परिवार और राजपाट छोड़ कर बुद्धत्व की तरफ बढ़ गए और आजीवन एक भिक्षु की
तरह यायावरी करते रहे। मध्य काल के सन्त कवि कबीर दास भी कहते हैं 'दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै।' आज के कवि भी इस दुःख से दो चार
हैं। यतीश कुमार ने इधर अपनी कविताई
से काफी प्रभावित किया है। यतीश के यहाँ भी वह शाश्वत दुःख आता है जिसे कवि अपने शब्दों में बरतते
हुए लिखता है : 'स्थायी दुःख की दवा खोजती/ माँ अब भी वहीं बैठी है/ और
मैं/ दुःख को दुःख की तरह/ प्रेम करने की यात्रा पर हूँ।' यतीश को पता है कि यह यात्रा काँटो भरी राह की यात्रा
है फिर भी उन्हें इससे गुरेज नहीं क्योंकि कवि तो वही होता है जो चुनौतियों से हार
नहीं मानता। आज पहली बार पर प्रस्तुत है यतीश कुमार की कविताएँ।
सबसे प्यारी हँसी 
जब तुम
हँसती हो  
तो तुम्हारी
ठुड्डी 
हौले से छू
लेता हूँ
हथेली में
हरसिंगार भर आता है 
जब तुम
हँसती हो 
तो तुम्हारे
घुंघराले बालों से 
हज़ारों
जुगनुओं के झुंड उड़ते हैं
ज़िंदगी
रोशनी से भर जाती है 
जब तुम
हँसती हो 
तो मकई की
बालियों से 
मोती झाँकने
लगते हैं
जब तुम
हँसती हो 
तो लगता है
कि 
सैकड़ो दाने
कंसार में भूँजा बन 
साथ-साथ फूट
रहे हों
जब तुम
हँसती हो 
फुनगियाँ भी
हवा के संग
डोलना भूल
जाती हैं
पृथ्वी अपनी
धूरी पर 
घूमना भूल जाती
है 
चाँद
चहलक़दमी नहीं करता 
टकटकी लगा
कर ताकता है 
जब तुम
हँसती हो तो 
हजारों कंचे
एक साथ
धरती का
माथा चूमते हैं 
और जब तुम
हँसती हो तो 
पिता का
सीना समंदर हो जाता है 
बनती हुई
तस्वीर 
मुकम्मल हो
जाती है
बनना चाहता हूँ
बनना चाहता
हूँ 
तुम्हारा
चश्मा
बिना जिसके
दुनिया
तुम्हें धुँधली दिखती है 
हेयर क्लिप
बनूँगा
सर्पीली
लटें तुम्हारी 
आँखों में
नहीं चुभेंगी 
बन जाऊँगा
तुम्हारा दुपट्टा
जब चाहे सर
ढक लो 
या जब चाहे
आसमान 
बन जाऊँगा
मिज़राब
रहूँगा
उँगलियों में वैसे ही
न होने के
एहसास सा
संगीत
बिखेरते हुए 
समय की असमय
लहरों के बीच 
तुम्हारी
मुस्कान अकाट्य शकुन है
जिसकी बस एक
नज़र 
सारे
बे-इरादे बुहार देती है 
इंतज़ार 
खोखले अजगर
की तरह
एक तहखाना 
भीतर कुंडली
मारे  बैठा  है
हर्फ़ों का
पुलिंदा 
वहीं नजरबंद
है 
मन बलाओं का
घर बन बैठा है
गर एक को
रफा करता हूँ 
तो दूसरी
चली आती है
खोई हुई
रातों की तलाश में 
दिन भर
भटकता हूँ 
जबकि सुबह
का इंतज़ार 
रात को और
लंबी कर देता है
'नींद' भी तो लफ़्फ़ाज़ी है मेरे लिए
मेरे साथ ही
करवट बदलती है 
इंतज़ार अगर
इतनी सहल होती 
तो इसकी
ऐंठन से मुक्ति मिल जाती 
और मैं
अधजला मशाल
अंधी सुरंग
होने से बच जाता 
विडंबनाएँ
प्यासे हैं  कुएँ 
अब उनमें
किसी का 
प्रतिबिम्ब
नहीं उभरता 
वे भी
आत्महत्या कर रहे हैं!
लोहे में
तब्दील हो रही है साइकिल
पर यह
यात्रा 
घर वापसी की
नहीं है!
घर के अंदर
भी
“लोहा” अपनी जगह खोता जा रहा है 
अयस्क का
निर्यात अनवरत जारी है!
प्लास्टिक
महावर को बदल देगा 
मालूम पड़ता
है 
शक्ल और
सीरत
दोनो बदले
जा सकते हैं?
आलता को भी
बदल देंगे 
जैसे बदला
जा रहा है 
मेहंदी को
रसायन से 
परंतु
ख़ुशबू?
ख़ुशबू तो
मौलिक है।
मौलिकता उस
काग़ज़ की तरह है 
जिस पर निब
चला-चला कर
क़लम की परख
की जाती है।
कट्टम-काटी
अब सिर्फ़ खेल नहीं है
इसने
कविताओं पर भी 
क़लम चलानी
शुरू कर दी है
इन सभी
दृश्यों के बीच 
वर्षों पहले
मर चुके
गज़राज का
सिक्कड़ 
आज भी
उसी पाए से
बँधा है!
अंकुश आज भी
जंग रहित है
और महावत की
पीढ़ियाँ 
प्रतीक्षा
की आँखों से 
ताकती रहती  हैं निर्वात 
अच्छा होना 
कीचड़ अच्छे
हैं
धान के खेत
में
थोड़ी दूरी
अच्छी  है 
घरों के बीच 
मकान का  पीठ  से पीठ सटाना 
अच्छा नहीं
होता 
गिरना अच्छा  है 
पत्तों-सा
अँखुओं को
जगह देते हुए
जलना अच्छा
है 
पानी की तरह
बादल बनते  हुए
खौलते पानी
को बस
एक जगह
मिलने की देरी है।
पहिया
सुन्दर है 
जब तक उस पर 
तोप नहीं
बांधी जाये
मुझे फिर वहीं लौटना है 
सूप फटकते
हुए 
धूल और
ग़ुबार के बीच 
माँ का
चेहरा ताकना 
और फिर  माँ के बालों से 
बाली की
फाँस बीनना
मुझे फिर वहीं
लौटना है 
आटा गूँथते
हुए 
सुगढ़ नाक की
नोक पर 
लटके नमकीन
मोती को 
अपने आस्तीन
से पोंछना
मुझे फिर
वहीं लौटना है 
मुझे लौटना
है 
क्योंकि जब
यह घट रहा था 
मेरी किताब
ने 
मेरा मुँह
ढक रखा था 
दृश्य में
शब्द बेआवाज़ थे 
और
हँसिया और
हथौड़े पर 
जौ की बाली रखते
हुए
पिता हर बार
की तरह नदारद रहे
वो उस समय
भी नहीं थे 
जब माँ के
बालों का श्रृंगार
सिंदूर नहीं 
आटा की
लकीरें कर रही थीं
उस समय भी
मैं 
अपना मुँह
ढाँपे किताब से
अंधकार में
भविष्य के जुगनुओं को बटोर रहा था!
अब आसमान से
सितारे नोच कर 
उसकी सूप के
कोरों को सजाना है 
सच मुझे अभी
लौटना है
दु:ख : सुख 
माँ आई 
बैठी सामने 
मैंने दु:ख
को नहीं 
माँ को देखा 
पिता आए 
गले लगाए 
मैंने सुख
को नहीं 
पिता को
देखा 
क्षण भर में
पिता ने
आगोश से अलग
कर दिया 
जाना कि सुख
क्षणिक है 
स्थायी दु:ख
की दवा खोजती 
माँ अब भी
वहीं बैठी है 
और मैं 
दु:ख को
दु:ख की तरह
प्रेम करने
की यात्रा पर हूँ
किन्नर 
साथ भात
नहीं खा सकता 
पर चावल के
दाने 
तुम पर ही
फेंकता हूँ
नौ महीने के
अविरल प्रेम का 
मैं भी पैग़ाम
था 
गर्भवधी
कटने तक 
मैं भी
इंसान था 
अब मैं
इंसानों की श्रेणी से इतर
इंसानों को
ही आशीषें बाँटता त्रिशंकु हूँ 
सर्पमुखों
के बीच सोता 
अश्वमुखों
का वंशज मंगल मुखी हूँ 
ब्रह्मा की
छाया से निकल 
नीलकंठ के
विष में घुल गया हूँ मैं
सुख मेरी
दहलीज़ में
दाखिल न हो
सका
पर मैं
तुम्हारे हर सुख में शामिल रहा 
मौत मुक्ति
है 
और 
मातम से है
मुझे परहेज़ 
न तो कोई
गाँव 
न तो कोई
शहर
मेरा समूह
ही मेरा देश 
किन्नौर से
संसद का सफ़र 
त्रेतायुग
से कलयुग का था
समानता का
हक़ मिलने पर भी 
अवहेलना की
नसें जुड़ी  रह गईं
और अब भी
मैं 
समाज की
बजाई हुई ताली में 
एक चीख
मात्र हूँ
सम्पर्क 
मोबाईल : 8420637209
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।) 




 
 
 
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जवाब देंहटाएंयतीश कुमार की कविताएँ हमारे कवितासमय का रूपक हैं।
जवाब देंहटाएंबधाई भाई को।
शुक्रिया आप सभी का
जवाब देंहटाएंवाह! बिम्बों की अद्भुत छटा!
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंप्रिय यतीश सर आपकी कविताएँ शानदार है। किसी दिन कोलकत्ता में आकर आपसे रूबरू होकर कविताएँ सुनी जायेगी।
जवाब देंहटाएंस्वागत
हटाएंलाजवाब रचनाएं
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत कविताएं प्यासे कुए की आत्महत्या क्या शानदार चित्रण है प्रकृति के परिवर्तन से उपजे विषाद का
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक
जवाब देंहटाएंमेरे व्हाट्सअप में हरीसिंगर की तरह मिली थी मुझे यह कविताएँ । तब भी यही कहा था अब भी यही कहा रही कि प्रतीक और बिम्ब की सृष्टि भी मन का ऐसा अनिवर्चनीय व्यापार है जिससे जो प्रकट होता है
जवाब देंहटाएंउससे आनंद और सौंदर्य रूपांतरित हो उठते है।
बढ़िया कविताएं बधाई यतीशजी
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