सर्वेन्द्र विक्रम की कविताएँ
सर्वेन्द्र विक्रम |
आज जब परिदृश्य इतना धुंधला हो चुका है कि चुप्पी ही हमारे जीवन का सरोकार बनती जा रही है ऐसे में मार्टिन लूथर किंग की यह पंक्ति याद आती हैं - 'हमारा जीवन उसी दिन अन्त की ओर बढ़ने लगता है जिस दिन हम महत्वपूर्ण विषयों पर चुप्पी साध लेते हैं.' आम आदमी के साथ-साथ साहित्य और संस्कृति से जुड़े लोग भी आज के समय में खुद को निरीह पा रहे हैं. लेकिन यह साहित्य और संस्कृति ही है जो प्रतिरोध की परम्परा को जिन्दा रखे हुए है. इसीलिए साहित्यकार युग युगांतर तक जीवित रहता है. कवि सर्वेन्द्र विक्रम के यहाँ जीवन की गहनतम अनुभूतियाँ हैं. साथ ही उनके यहाँ मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ प्रतिरोध का तेवर भी अपने कबीराना अंदाज में कायम है. आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं ऐसे ही अलहदा अंदाज और स्वर वाले कवि सर्वेन्द्र विक्रम की कविताएँ.
सर्वेन्द्र विक्रम की कविताएँ
आलमारी
उसके ढहाये जाने की पूर्वसंध्या पर एक बार फिर सब इकठ्ठा थे
यह कोई पवित्र
ढांचा नहीं घर था जहां हमारा बचपन बीता
दीवार में बनी उस
आलमारी में मैं जैसे-तैसे खड़ी हो पायी
याद आया जब मैं
छोटी थी उसके दरवाजे हमेशा खुले रखे जाते
छिपने की कोशिश में कहीं उसी में बंद न रह जाऊं
और तमाम चीजों के
साथ मेरा दम घुट जाये
‘हम कैसे रह लेते थे इसमें‘
जो मेरी स्मृति
में था उससे कितना अलग था घर!
किसी चीज को पाने
खरीदने को स्थगित करते रहना
कम पैसों, कम जगह, किसी और वजह से
कोई नयी चीज
खरीदने से पहले चिंता होती रखेंगे कहां
अब हमें सुविधा थी
रोमांटिक हुआ जा
सकता था उन पुराने अभावों की याद में
‘आलमारियों में बंद पड़े कपड़े किसी और के
शरीर पर होने चाहिये ’
जब मैंने पढ़ा तो
मुझे अपना खयाल आ गया
किसी और के शरीर
पर होना चाहिये?
बंट जाना चाहिये?
जो लोग मुझे ले
आये हैं उनकी आदत होगी
इस्तेमाल के बाद
गैरजरूरी हो जाने वाली चीजों को भी
जमा करते जाने की
तमाम दुछत्तियों
तहखानों के भर जाने के बाद बचे सामानों को
कहीं भी डाल देना
और नयी चीजों के लिए जगह बनाना
वे नई से नई चीजें
मुझे हर दिन धकेलती रहती हैं बाहर की ओर
बंद खिड़कियों
दरवाजों के पीछे सामानों के ढेर में मैं भी
कभी कभी सोचती हूं
माथे पर एक चिप्पी चिपका लूं
‘मुझे खेद है मैं आपके रास्ते में रुकावट
डाल रही हूं’
आलमारियां हर
देशकाल में फैली हैं
लोगों को लगता है
आलमारियां होती ही हैं ठसाठस भरी जाने के लिए
बड़े हो चुके
बच्चों के कपड़ों खिलौनों
पुरानी डायरियों
खानदानी स्मृतिचिन्हों से भरी आलमारियों
कोठरियों घरों से
वे मुझे मुक्त भी नहीं करते
मैं किस आलमारी
में बंद पड़ी हूं सामानों के साथ
मुझे किसने बंद
किया हुआ है?
क्या मैंने खुद ने
?
धुनियें
जाड़ा उतरते ही वे प्लेटफार्म पर उतरते हैं
ट्रेन पकड़ने उधर
के लिए
वहां जहां सदियों
के मौसम शुरू हो रहे हैं
वहां से भी उधर
जहां ठंड बढ़ रही है
वे बुद्ध की भूमि
से आते हैं
बुना गया जहां चार
आर्य सत्यों का ताना-बाना
दुःख है दुःख का
कारण है दुःख का निवारण है
लेकिन उपाय? धुनियें समझ नहीं पाते
घूमते रहते हैं
यहाँ वहाँ शहर-शहर
पढ़ा नहीं होगा
लंबी हो रही है खुली आयात सूची
कपास उगाने वाले
किसानों की आत्महत्याएं
ध्यानाकर्षण काम
रोको प्रस्ताव
रूई की जगह
कृत्रिम रेशे का विकल्प
जुलाहों पर तो
बहुत कुछ है
बनारस और बंगाल
ढाका की मलमल
छः सौ बरस के कबीर
हैं
धुनियों के जीवन
में नहीं है उपन्यास की संभावना
धुनियें दिल्ली
जाते हैं या नहीं
पता नहीं
जहाँ बहुत कुछ है
धुनने के लिए
रूई के अलावा भी।
मुर्दे
वे शायद बहुत थके हुए हैं
थोड़ी देर और सोने
देने की प्रार्थना कर रहे हैं औंधे मॅुह
उन्हें लगता है वे प्रेम में हैं
उन्हें प्रेम है
अपने आप से पड़ोसियों से दुनिया से
वे शायद जीवित हैं अपने सपनों में
सभाओं, सभ्य बाजारों, रात के मेलों में
बीबी बच्चों समेत
खाते-पीते दिखते हैं
भाषणों बयानों घोषणाओं पर बहस करते हुए
बात बात पर हाथ
मलते, हथेलियां रगड़ते
सब एक जैसे चेहरे
राख पुते सफेद
जहाँ भी जाता हॅू
वे मिल जाते हैं
जैसे अभी उठ खड़े
होंगे और बोलने लगेंगे
या तो उन्होंने
चुप्पी साध रखी है
या उनकी आवाज खो
गयी है
गाडि़यों पर लद कर
आते हैं
देख कर लगता है वे
हॅस रहे हैं और खुश हैं
अब जब उनमें किसी
बदलाव की गुंजाईश नहीं हैं
उन्हें दफनाया या
जलाया जायेगा
या चील कौवों के
लिए खुला छोड़ दिया जायेगा,
शायद अंतिम न्याय की आशा में
मुर्दों के पास
नहीं है विकल्प
कैमरे
के सामने
कैमरे पर झुकते हुए उसने कहा, हँसो
स्त्री ने आदमी की
ओर देखा वह देखने लगा कैमरे की आँख
बच्चे बीच में थे
अचकचाये ताकने लगे कैसे दिखते हैं हँसते हुए पिता !
बच्चे देख रहे हैं, यह देखकर स्त्री का मन हुआ उन्हें
गुदगुदा दे
यहाँ वहाँ जहाँ
छूने के अभिनय भर से वे हो जाते थे हँसी से दुहरे
आदमी ने गहरी गहरी
साँसें भरीं जैसे करता था दबाव में
डर लगा ऊटपटांग
हरकत न हो जाये धुकधुकी सी लगी रही
बच्चे भाँप रहे थे
फिर भी दिखा रहे थे जैसे कुछ न समझते हों
शायद बचा रहे थे उन्हें
रोशनी की धार सीधे
मुँह पर झर रही थी
दीवार पर मौजूद
डिजाइनर हँसी अपनी उजास भर रही थी
और एक याद के लिए
फोटो खिंचवाते मिलता नहीं था उसका कोई सूत्र
पकड़ में नहीं आ
रही थी हँसी जैसे खो गयी हो अँधेरे में
अभी उसी दिन किस
बात पर हँसते हँसते पड़ गये थे पेट में बल
स्त्री ने उसे
हैरानी से देखा, यह वही है! कहाँ से आती थी हँसी!
उसके बचपन में
इतना फैल नहीं गया था बाजार
वक्त-बेवक्त
पड़ोसियों से चलता था उधार
अंदेशा नहीं था
वरना माँग ही लेती
लौटा देने के
वायदे के साथ
किसी से थोड़ी सी
कल-कल हँसी इस कठिन वक्त में
झुके-झुके उसने
फिर कहा, हँसो
आखिर बात क्या है? समय से है मानसून
मंडियों में आवक
अच्छी रहने की उम्मीद
ब्रांड वाली चीजें
भी मिल रहीं इफरात
अच्छा नहीं महसूस
कर पा रहे हो या भूल गये हो हँसने की कला
क्या सचमुच कोई
दुख है?
उसने पल्लू फिर से
ठीक किया, बेवजह
बच्चों के बालों
में उंगलियाँ फिरायीं करने लगी मन ही मन जप
लगा बस रो ही
पड़ेगी सबके सामने
कैसे कहे इतनी सरल
नहीं रही हँसी
आरोप पत्र
यह कि तुम साजिश में शामिल हो
साक्ष्यः तुम सपने
में बड़बड़ाते हो
किसी को पुकारते
हो
तुम्हारे पास से
जो नक़्शे बरामद हुए हैं
उनमें गुप्त
रास्तेां और संकेतों का जिक्र है
यह कि तुम्हें
परवाह नहीं है
साक्ष्यः तुमने शहर को
विराट शौचालय में बदल दिया है
चलते हो तो सिर
झुकाये हुए
खाते हो तो सिर
झुकाये हुए
रोते हो तो सिर
झुकाये हुए
तुममें धातु की
कमी है
साक्ष्यः काटे गये
मारे गये जलाये गये
तुम कभी खड़े नहीं
हुए
तुम्हारे अलग
विचार हैं
साक्ष्यः तुम
प्रार्थना सभा में शामिल नहीं हुए
पवित्र जल छिड़का
जा रहा था तुम आगे नहीं आये
सब नाच रहे थे तो
घुंघरुओं में एक आवाज कम थी
तुममें पैदाइशी नुक्स है
साक्ष्यः इतना काम
हुआ फिर भी तुम्हारा चेहरा जस का तस!
मरने के दृश्यों में भी जान नहीं डाल सके शर्म की बात है
तुमने हमेशा निराश किया है
मालिक लोग खुश नहीं हैं
स्वाद
उस स्वाद की गूँज
पानी में पकते हुए भात में
बसंत की पुरवा में
जब एक अधेड़ पेड़ फुरफुराया,
अँधेरे से निकल कर
एक बूढ़ी औरत
अपनी तीसरी चैथी
पीढ़ी को समझाने लगी
देश-काल अकिल और
गियान के बारे में,
उसके ध्यान में
बना रहा हर आघात का स्वाद
कुछ लोग किसी
परिचित स्वाद की याद में
बड़बड़ाने
बुदबुदाने लगते
रात बिरात अचानक
उठ कर गाने लगते
उन्हें थपकी देकर
सुलाने की कोशिश होती
वे जहाँ-जहाँ गये,
स्वाद अपने साथ ले गये
गाने में खाने में
तीज त्योहार में
चौखट के
भीतर से उछलकर
निकल आता बोली का
कोई शब्द
मसालों की महक में
वह स्वाद उछाल मारता
झनझनाने लगती
कनपटी धाड़-धाड़ दौड़ने लगता रक्त में
स्वाद जीभ पर ही
नहीं था
कहीं भी कभी भी जग
जाता और जगा देता,
यह मिट्टी का
स्वाद था
कोठरी
एक सपने के साथ वे
रह रहे थे
यहाँ कोई नहीं
जानता वे कौन हैं
उन्हें अनुपात की
समझ नहीं थी,
जलसों जुलूसों
हड़ताल तालाबंदी के बारे में कोई राय नहीं
हिसाब किताब में
हाथ तंग होने के बावजूद
बही खाते का कोई
पन्ना खोले फुसफुसा कर पूछते हैं
’वे क्या कर रहे हैं यहाँ ?‘
जब जमीन से उठती
है पहली बारिश की सुगंध
कोई पेड़
फुरफुराने लगता है अंदर
जब तब गाने लगते
हैं
उछलती कूदती बहने
लगती है
वर्षों पहले अदृश्य
हो गयी वह पतली सी नदी
सोचते हैं जायेंगे, वापस चले जायेंगे एक दिन
पानी के उस स्रोत
और वनस्पति के पास जहां उनका उद्भव हुआ
पता नहीं खुद को
याद दिलाते रहते हैं या देते हैं सुझाव
जप की तरह दुहराते
हैं अपने आप से किया वायदा
उन्होंने नदी से
पुल से सड़कों चौराहों से विदा ले ली है
सिर्फ एक छाता
थोड़े से कपड़े और जूते खरीदना बाकी है
चाँदी की एक
डिबिया और गानों की किताब खरीदना बाकी है
बाजार का एक आखिरी
चक्कर
और बस, एक टिकट निकालना बाकी है
वे चले जायेंगे
छुपमछुपाई खेलते
वे कहीं पहुँच जाते हैं
कभी देखते हैं इस
पेटी में बंद-बंद घुट गया है दम
कोई साक्षी नहीं
है उनकी यातना का
स्वप्न और जागृति
के सीमांत पर
इंजन की तेज सीटी
गूँजती है कानों में
एक स्त्री के नर्म-गर्म हाथों के स्पर्श से खुल जाती है नींद
शव की तरह निष्पन्द
लेटे आँखें बंद किये सुनते रहते हैं
कोठरी के बाहर
आवाजों की आवाजाही
पूरब
के घोड़े
खिड़की के ऊपर लटकते झोले पर
हाथों का सहारा
बना कर औंधे मुंह टिक गया
मैंने सुना भर था, घोड़े सो लेते हैं खड़े-खड़े
वे वापस जा रहे थे
किसी तीज-त्योहार में
तिल धरने भर जगह
सिर्फ मुहावरों में ही नहीं
फिर भी किसी तरह
धंसे हुए थे
जब चले तो पैर
टिकाने, बैठने उठंगने भर जगह के लिए
मारामारी कांव-कांव
के बीच अचानक झलक जाता
दिल्ली और आसपास
की खड़ी बोली में से
मगही, मैथिली,
भोजपुरी, अवधी का कोई फुरफुराता सा शब्द
धीरे धीरे बातचीत
में बढ़ने लगे बोलियों के शब्द
बदलने लगी वाक्य
संरचना
रुक्ष खड़ेपन की
जगह उभरने लगा दूसरी तरह का लोच
जैसे गा रहे हों
छोटी-छोटी चीजों
के विनिमय के साथ लगातार बतियाने लगे
जैसे खानपान के
सूखेपन को रसदार बना रहे हों,
लगा अब आने वाला
है वह इलाका जहां बसती है उनकी आत्मा
घोड़े दिल्ली में
पैदा नहीं हुये,
आते हैं सिर
झुकाये पीठ पर ढोते रहते हैं दिल्ली
उनके सुम नहीं हैं, सूज जाते हैं पैर
भूल कर भी अपशब्द नहीं
बोलते दिल्ली के बारे में
उनके मुंह में
रहती है प्यारी सी लगाम
वे इतने ताकतवर
नहीं हैं कि
दिल्ली उन्हें
प्यार करे
या दिल्ली के
प्यार में वे पागल हों जायें
समझ
कोशिश थी कि जो हैं उससे ज्यादा, या कुछ और दिखें
वह जितना था उससे
कुछ कम ही था
उसे विस्तार से
पता था दुनिया के महान नाटककार के बारे में
कई विचारक जबानी
याद
नायकों
प्रतिनायकों के बारे में तो बिना रुके बोल सकता था
लेकिन इस दौरान
अपने बारे में शायद सब कुछ भूलता गया
उसे बताया गया, सब कुछ उसकी नाप के हिसाब से है
कम हो रही थी उसके
लिए जगह शब्द और भी कई चीजें
कभी कभार धुंधलके
में निकलता
दूध पिलाती कुतिया
के पास ठिठका रहता:
पहचानता हूं, पहचानता हूं मां
इन दिनों उसकी मुश्किल
थोड़ी और बढ़ी हुई थी,
उसे देखा जा सकता
था हर वक्त हाथों को धोते, बुदबुदाते
छूटता ही नही, यह किसका रक्त है
तेजी से बदल रही
थी भाषा और उसकी भूमिका,
उसके देखते-देखते
उसकी दुनिया से
रंगों वाले शब्द भागते
हुए बगल से गुजरे
सब सभी सबके लिए
जैसे सर्वनाम भाषा से ही निकल गये
बातें सिर्फ
प्रतिनिधियों के बारे में होतीं
सही गलत के बारे
में बिना किसी दावे के
उसने चीजों को नाम
देने शुरू किये
मसलन कमीज को कहता
कवच और कविता को कोख
किसी तितली को कह
देता कंचा,
रोटी को पत्ती
कहते हुए उसके हवा में हिलने का इंतजार करता
दुर्घटना, युद्ध और त्रासदी के लिए सिर्फ एक शब्द रखा:
तिजारत
लाशों को कहता
तमगा और इतिहास को हत्या
कई चीजों की शिनाख्त
को लेकर परेशान दिखता,
कहता, कर लूँगा करूंगा करूंगा
और नये नये शब्द निकलते
आते, जैसे नंगे पेड़ों पर पत्ते
वह समझता कि वह
ठीक वहां खड़ा है जहां से सब साफ साफ दिखता है,
दिगदिगंत गुंजाती अदृश्य
भीड़ की आवाज गौर से सुनने की कोशिश करता
अजब थी उसकी अटपटी
बातें
न गद्य में न पद्य
में, न लय में न छंद में
फिर कैसे कर पाता
था संवाद,
पता नहीं इस संकट
के प्रति वह सचेत भी था या नहीं
जो कुछ समझाया जा
रहा था, उस पर शक करता
जेब में छिपाये
फिरता लोहे की मुंगरी
अछूत शब्दों लुप्त
होते बीजों और
सब खुर्द-बुर्द
करने वाली हिकमतों की खोज में
भूरे पड़ते
दस्तावेजों की नकल पर झुका रहता
चिढ़ाती नजरों, फिकरों और फब्तियों से बेपरवाह
वह समझता है कि
लगा है प्रतिसंसार रचने में
और उसके काम में
धार है
बैलेन्स
शीट
अप्रैल से मार्च वाले स्वदेशी
या जनवरी से
दिसंबर वाले विदेशी
किस वित्तीय वर्ष में
दर्शायेंगे हमारा मुनाफा
तिमाही या रबी-खरीफ-जायद
के हिसाब से चौमासा
बनायेंगे हमारी भी
बैलेन्स शीट?
पिछली बाढ़ के बाद
बीज भी नहीं बचा
कर्ज पर खाद-पानी
समर्थन-मूल्य की घोषणा
के बावजूद
तय नहीं है कटेगा
तो किस भाव बिकेगा
खड़ा गन्ना खेत
में जलाना पड़ा
फालतू पैदा हो गया
आलू, सड़ा
उसे दर्ज करेंगे ?
जोतते-हेंगाते,
निराते-गोड़ते रहे
पाले कोहरे में
रात-रात पानी में खड़े रहे
गोरुओं के साथ
गोरू हुए गोबर हुए
अँजुरी भर धान
गेहूँ के लिए आठों पहर का जंजाल
किस रेट जोडेंगे
औरतों और बच्चों की मजूरी ?
हारी बीमारी जूड़ी
ताप जैसे शुद्ध लाभ
आत्महत्याओं को
मानेंगे निवेश?
आप ही बताइये
सरकार हम भी हैं मुनाफे के हकदार।
पोस्टकार्ड
उन्होंने सुना भर था नोआखाली
गांधी, नेहरू, जिन्ना, मगहर और कबीर
पढ़ नहीं सके वह
इतिहास फिर भी
समझते थे उनका भी
है उसमें साझा
गदर के शायद सौ साल बाद, उस रात
चना-चबेना बांध ‘सियाल्दा एक्सप्रेस’ के इन्तजार में
बरकत अली के लिए
रहा हो शायद
विचार से ज्यादा
विकल्प का सवाल
बेगानी सी जगह थी
कभी कहा नहीं
किस जतन सम्भव
किया जीना
भूल गये जंचे हुए
जुमले टिकाना
अपने जैसे दिखते
हर दूसरे आदमी से
अचानक पूछ बैठते
उसका पता ठिकाना
धीरे धीरे समझने
लगे थे उधर क्या चल रहा है
ज्यादतियां, तोड़फोड़, गोलबन्द लोगों की मुहिम और निशाना
हर बार लगता था कि
हो गया, चलो खत्म हुआ
लेकिन फिर हो जाता, यहां वहां होता ही रहता
जान-बूझ कर किसी
टण्टे में नहीं पड़े, हद में रहे
अनहोनी के डर से
कांपते, दुआ पढ़ते
फकत एक शिकायत है
कि भूख मर गयी है
अब कुछ अच्छा नहीं
लगता,
हर जेरो बम¹ से बेजार बुदबुदाते लयबद्ध संगति में हाथ
हिलाते
बैठे ताकते रहते
हैं मलका का मुजस्समा ²,
भिक्षुणियों की
नीले पाड़वाली सफेद साड़ी, हाबड़ा पुल
बड़ा होता जाता
लोहे का फाटक रोज ब रोज
रहते-रहते बोलते
बोलते कितने बदल गये हैं वे
देखकर शक नहीं होगा उनकी भाषा के बारे में
अचानक चली आती है
किसी पत्ती की महक
और चिडि़यों को
पुकारने लगते हैं अवधी में
शायद विनम्रता में
झुक गये हैं वे
कन्धों पर मातम और
ताजिये, फगुआ और कबीर
सहजन का फूला हुआ
पेड़ जली हुई कुनरू की बेल,
एक बकरी जिसे
बच्चों समेत ले गया कोई एक दिन
कौन जाने
स्मृतियां उन्हें थामे रहती हैं या वह जलमभूमि
मद्धिम पड़ जाती
है चीख पुकार
मन्द पड़ जाता है
दिन, ट्रामें मौन
तमाखू की तरह पीते
हैं तब
महुए के पत्ते में
सहेज कर लपेटे, सिझाए हुए दुख
पहले ही कश में छा
जाती है धुन्ध, सब खल्त-मल्त3
दिखता नहीं हँसिया
सा चाँद, तारों भरा आसमान
करवट बदलते हैं, घूम कर ‘फिर सामने आ जाता है
दस्ते शफ़क़त4 और एक पुराना पोस्काट
कहां से चला था
धुंधला गये हैं निशान
नींद में खुल जाता
है एक पुराना पानदान
कांपती रहती है खैर-अन्देश एक बूढ़ी औरत
‘बेइस्मही सुब्हान अल्लाह
अज़ीज़म बरखुरदार सल्लमहू
दिली दुआएं और नेक तमन्नाएं
दीगर अहवाल ये है
कि ....................’
सांस रोके लेटे
रहते हैं
गोया हिलने डुलने
से बिखर जायेंगे रेज़ा रेज़ा
पता नहीं सजा थी
या जज़ा5
न चिट्ठी खत्म
होती है न रात
1. जेरो बम: उतार-चढ़ाव 2. मुजस्समा: मूर्ति 3. खल्त मल्त: गड्ड मड्ड
4. दस्ते शफकत: वात्सल्य भरा हाथ 5. जज़ा: पुरस्कार
इस
सबके पीछे
पूछना है
उसके आँसू क्यों
गिरते रहते हैं?
क्या उसका दुख
पानी है?
क्या उसका दुख नदी
है?
इधर यह बदलाव
अचानक नहीं आया है:
मां क्या खाये
पिये, पहने ओढ़े कैसे बोले उठे बैठे
अपने आपको
प्रस्तुत किये जाने योग्य बनाने के लिए
त्वचा और नाखूनों
पर कौन सा रंगरोगन करे
दखलंदाजी इस कदर
बढ़ गयी है कि
वह जहाँ से चलना
शुरू करती है,
हर बार वापस वहीं
पहुंच जाती है
मैं कहना चाहती
हूं: जब मैं बड़ी हो जाऊंगी
एक दिन, नदी को यहीं ले आऊंगी
मां मुझे देखती
रहती है आंखों में
‘‘बशर्ते बची रहे नदी, उसे भी कोई खरीद न ले’’
और चुप हो जाती है,
सिर्फ इशारा करती
है, जिधर
कपास के रेशों सी
उड़ती जिन्दगियां हैं
वीरानी है बंजर है
जिसमें न गुस्सा
उपजता है न प्रतिरोध
मैं पूछना चाहती हूँ
इस सबके पीछे भी
कंपनी ही तो नहीं है ?
बचे
हुए काम
मुझे कुछ दुखों की सिलवटें निकालनी हैं
लगाने हैं टूटे
हुए हुक संबंधों के
टांकने हैं बटन
बच्चों के कपड़ों में
रफू कराने हैं आपस
के कुछ झगड़े
कुछ मुलाकातें
किसी बक्से में बंद बंद पड़ी रहीं
सीली सी महक आती
है उन्हें धूप दिखानी है
मौसम एकदम ठंढा हो
जाने से पहले
समय कुतर डालेगा
तो ढंकने के लिए कुछ बचेगा नहीं
सिलाने हैं थोड़े
से रूई जैसे बादल
छोटी हो गयी हैं
अपनेपन की आस्तीनें
बातों के कालर फट
गये हैं
दुविधा बनी रहती
है उन्हें बदलूं या नहीं
बिस्तर की चादर
में काढ़ने हैं तारे बादल नाव
फिर से पेन्ट करना
चाहती हूं पर्दों को
पत्तियों को इतना
हरा फूलों को इतना कोमल
तितलियों को उतना
रंगीन जितनी बचपन में
इन पर्दों के पीछे
एक खिड़की खुलती है
जिसके उस पार
अधूरा से पूरा होने की कोशिश में चंद्रमा है
पर्दो को खींच कर
उदासी पर
सो जाना चाहती हूं
सर्दी की एक बारिश में
भले ही सो कर उठने
पर घेर लेगी डूबने डूबने जैसी छाया
बचपन से सुनती आयी
हूं
खोयी हुई चीजें
दुबारा नहीं मिलतीं
तो जितनी देर इस
देखभाल में लगी रहूंगी
उसे लगा सकती हूं
किसी और काम में
शायद अपने बारे
में सोचने में
एक नयी भाषा और
उससे भी पहले
एक नये संगीत के
आविष्कार में
हमारा
शहर
जब दिल्ली के हालात बिगड़ने शुरू हुए तो
शिल्पियों, कलाकारों और शायरों ने इस शहर का रुख
किया
और शहर ने उन्हें
पनाह दी शोहरत भी
जब देहातों के
हालात बिगड़ने लगे
तब भी इस शहर ने
लोगों को आसरा दिया
याचकों को चुनने
की स्वतंत्रता नहीं थी
यह उन गिने चुने
शहरों में था
जहां सन् 47 में बचा रहा जातीय भाईचारा
नवाब के
मटियाबुर्ज चले जाने
यानि 1857 के लगभग डेढ़ सौ साल बाद शहर के कई चेहरे
दिखाई देते
शहर और देहात, अवधी और उर्दू , रैयत और तालुकदार
शुद्धि और संगठन, तबलीक और तंजीम,
मर्सिया और
कव्वाली, टप्पा और खयाल, वेश्याएँ और दलाल और बीच के लोग
धातु, सीमेंट और पत्थर में बदलता हुआ शहर
सामने से चमचमा
रहा था
और पिछवाड़ा उतना
ही बजबजाता हुआ
फिर भी लगता कि
रहने लायक सिर्फ यही जगह है
यहीं है जिन्दगी
का असली मजा यहीं है संभावनायें
जितने सपने देखने
वाले शहर की उतनी ही व्याख्यायें
स्त्रियों को लगता
था उनका भी योगदान है
शहर के अर्थशास्त्र
में
लेकिन दिन के अंत
में वे बन जाती थी निरी स्त्रियां
एक हत्या के बाद शहर
की छवि
अचानक जिस तरह टूटी सन् 84 में
तब लगा कि इस जगह
को जितना जानता हूं
उतनी ही अपरिचित
है
हम शायद सिर्फ
ढोंग ही कर रहे थे कि हम इसे जानते हैं
अलग अलग आदतें अलग
अलग विश्वास और आबसेशन
धमाकों हादसों और
मौतों के अलावा जहां ज्यादातर
बाहर की दुनिया से
अनजान बने रहते हैं हम
उस दुनिया को
समझने का दावा नहीं बहाना ही कर सकते थे
काली पड़ती नदी को
अब कोई पूछता नहीं मुर्दों के सिवा
अब भी कहीं कहीं
दिख जाते हैं घोड़े कबूतर गौरैया और पेड़
शहर की भलाई और
कमाई से दूर लाखों लोग
हर रोज पार करना
चाहते हैं इसे
कितनी बार रौंदे
जाने के बाद भी हर बार
कैसे खड़ा हो जाता
है यह शहर
जैसे जिन्दगी की
बेहद कठिन परिस्थिति में पड़ा हुआ कोई चरित्र हो
जो इस बात को
समझना चाह रहा हो
कि मानवीय होने का
क्या अर्थ है
यह भी कभी पूरा
नहीं होता
और शहरों की ही
तरह
मुक्ति
वे बुझी बुझी आंखों से देख रहे हैं नई नकोर किताबें
जो खास उन्हीें के
लिए बनवाई गयी हैं
किताब के पन्नों
पर रंग बिरंगी तितलियां हैं
पतंगें खेल खिलौने
फल और सब्जियां
ताजमहल लालकिला
चारमीनार और बनारस के घाट
किस्सों और
कहानियों वाला साफ सुथरा जीवन
जगर मगर सपने खुश
रहने के नुस्खे
सब कुछ सही और
संतुलित अनुपात में
वे पढ़ पाते तो
कुछ जोड़ घटा सकते थे जीवन में
कैसे कुछ के पास
सब कुछ है अधिकांश के पास कुछ भी नहीं,
और उनके बीच एक
खास रिश्ते के बारे में
और ऐसा है तो ऐसा
क्यों है, के बारे में
जान सकते थे दयालु
और परोपकारियों के किस्से
साजिशों के बारे
में
नेक आदमियों और
बदचलन औरतों के बारे में
लिपियों को डिकोड
कर शब्दों के पीछे छिपे अर्थ
समझ सकते थे
घटनाओं और कारणों के बीच संबंध
चाहे उन्हें जितना
भी छिपाया जाये,
वे पढ़ सकते थे
इतिहास के कई पाठ
जिन्हें कक्षा में
नहीं पढ़ाया जा सकता था
वे देख रहे हैं
किताबें
उन्हें पढ़ना नहीं
आया इसके लिए पुरखों को जिम्मेदार ठहराया गया
कि इसकी जड़ें
उनके घर की आबो-हवा मिट्टी में ही है
उन्हें सिखाया
नहीं गया, यह किसी साजिश का हिस्सा है
या यह किसकी साजिश है ओझल हो गया है सवाल
उनके इर्द गिर्द
फैला है धूसर मटमैलापन
जैसे जीवन से निकल
गये हों रंग
वे बैठे मुँह जोह
रहे हैं
जटाओं में से
ज्ञान की पतली धार ही सही कब उनकी ओर बहे
वे किस देवता को हवि दें तप करें प्रसन्न करें और तरें
बुरे
विचारों से बचने का उपाय
इतना शोर कि ठीक सुनाई नहीं देता था फिर भी
हर आवाज में शिकायत
कि उसका संदेश
जानबूझकर डुबोया
जा रहा है लुगदी के अथाह सागर में
लेकिन कइयों की
चुप्पी के पीछे सिर्फ डर ही नहीं था
खतरनाक भी हो सकता
है बोलना
धीरे धीरे आदत भी
पड़ जाती है कई चीजों की
कौन बोलता है ताकत
के सामने
न वाम न दक्षिण न
पूर्व न पश्चिम में
कठपुतलियों का
तमाशा चल रहा था
जिसमें कुछ
लोगजनतंत्र को नपुंसक बता रहे थे
बड़े विचारक आंखें
मूंदे मुंह उठाये ऊपर की ओर ताक रहे थे
या बहाना कर रहे
थे उधर न देखने का
विचारकों की कई प्रजातियां
थीं
एक जो किसी
महामारी के विशेषज्ञ थे
एक जिनका किसानों
की यातना के बारे में बड़ा शोध
एक जिन्होंने
हाशिये पर लोगों के अधिकारों के बारे में पढ़ा लिखा
एक स्त्रियों और
बच्चों के जानकार
सबका दावा था उनके
पास थीं दुर्लभ कहानियां
उनकी खूबी थी
राजनीतिक रूप से सही होना और अतिविशेषज्ञता
इससे साफ साफ कहने
से बचा जा सकता था
इस तरह सबकी अपनी
अपनी सूचियां
सबके अपने अपने
पसंदीदा विचारक
जिनकी आवाज एक ओर
ध्यान से सुनी जाती थी
दूसरी ओर उस पर
नजर भी रखी जाती थी
निरंतर कहा जाता
था कि विचारों को दबाया न जाय
लेकिन कुछ ऐसा
इंतजाम हो जाय कि लोग सुनें तो,
लेकिन पूजा न करने
लग जायें
विचारक को सुना तो
जाय गुलाम न हुआ जाय
मन बहलाने के लिए
कोई खेल या फैशन चैनल चुना जाय
फिर भी
बुरे विचारों से
बचने का नहीं था कोई निष्चित उपाय
वे अचानक उग आते
और डराने लगते
मठाधीश और मजाकिया
उसने कहा
अगले कुछ सालों
में
सारे बहुरूपिये
मठों द्वारा भाड़े पर उठा लिये जायेंगे
यह पवित्र महीना
था
छोटी सी भीड़ के
सामने एक मजाकिया प्रोग्राम में
पता नही किस धुन
में उसने कहा जैसे चेतावनी के लहजे में
लेकिन तब मठाधीश कहां होंगे?
जहां उनकी सही जगह
है, उसने यह भी कहा,
नर्क में भयानक
दैत्यों से चीरे फाड़े जाते हुए
भीड़ के सवाल का
जवाब देते हुए
वह कितना गंभीर थी
पता नहीं लेकिन
यह मजाक उस संधि
के खिलाफ था जिसमें लिखा गया था कि
मठाधीश के अपमान
की वही सजा जो राष्ट्राध्यक्ष के अपमान की
लोगों का ध्यान
नहीं गया था इधर
उसके मजाक का
केन्द्र राष्ट्राध्यक्ष भी थे
पहली बार चुने गये
नौसिखुआ
हर मामले में
जाहिर था उनका अनाड़ीपन
उस पर अभियोग
लगाया गया कि उसने अपराध किया
पवित्र पुरुष के
सम्मान पर हमला करने का
अगले पांच साल उसे
जेल में बिताने पड़ सकते हैं
उसके पिता से पूछा
गया
उन्होंने आंखें
आसमान की ओर उठायीं:
ये आरोप तो
मध्ययुग की ओर लौटने जैसे हैं
मेरी बच्ची को
ईश्वर पर छोड़ दिया जाये
भले ही वह गर्म
अंगारों पर चले
जैसाकि होता आया
है
मठाधीष के शिष्य इसे मुद्दा बना कर हवा दे रहे हैं
यह किसी ऐरे गैरे
का मजाक उड़ाने भर का मामला नहीं रह गया था
बेचारी औरत वाली
छवि के उलट उसकी हिम्मत कैसे हुई
सबसे बड़े मठाधीश का मजाक उड़ाने की
इससे तो अव्यवस्था
फैल जायेगी
देखा देखी कोई कुछ
भी कहने लगेगा
लगाम ही नहीं रह
जायेगी सिरफिरों पर
और औरतें तो होती
ही हैं आधे दिमाग की
उसके समर्थन में
कूद पड़े थे भांड़ विदूषक कहे जाने वाले संगठन
जो बराबरी और
अधिकारों की मांग के लिए चिल्लाते रहते थेे
ऊपर से देखने में
यह सब गड़बड़
परिहास बोध की कमी
हो जाने के कारण हुआ लगता है
बहरहाल यह न्याय
व्यवस्था के लिए एक तगड़ा मामला पेश था
हो सकता है कल आप
सुनें मठाधीश ने क्षमा कर दिया है उसे
और उससे अगले दिन
उसका खंडन,
बुद्धिजीवी का
बयान
बयान पर कुछ और
बयान
नुमाइंदे
उनके पास न ढब था न ढंग
और उनमें भी, ज्यादातर औरतें
वे इकठ्ठा थे
उनमें पीड़ा थी गुस्सा था
ले ली गयी थीं
उनकी जमीनें
धकेल कर किनारे कर
दिया गया था उन्हें
एकदम जीवन से बाहर
एक अत्यंत प्राचीन
कही जाने वाली सभ्यता
जिसके अपने बीज
बचा कर रखे स्त्रियों ने ,
अगली ऋतुओं में
बोये जाने के लिए
ताकि अपना बोया
उगाया खा सकें अपने
बची रह सके अपनी
प्रतिरोध क्षमता
नई नई बीमारियों से
लड़ने की ताकत
बदले जा रहे थे
नियम कानून बदल रहा था चलन
देश कंपनियों जैसी
हरकतें कर रहे थे
कोशिशें चल रही थी
बीजों पर कब्जा जमाने की
लगभग तय हो गया था, मसौदे लिखे जा रहे थे
जो नहीं चुका
पायेगा बीजों का दाम
उसे कीमत अदा करनी
होगी देकर अपनी जान
जिन्दा रहने के
लिए खाना भी जरूरी था
और खाने के लिए
उगाना और उगाने के लिए बीज,
वे इस सबसे निरंतर
जूझ रहे थे
उन्हें हक था पर
सुना नहीं गया
उन पर बरसने लगीं
गोलियां
फैसला लेने वालों
की क्या मजबूरी थी
अपनी बात कहने आये
निहत्थे अपने लोगों को
इस तरह मार रहे थे,
पता नहीं कौन से
बीज बोये गये थे
कि ऐसा काटना पड़
रहा था ।
नुमाइंदे पता नहीं
किसकी तरफ थे
क
के बारे में
क को जब किसी तरह आराम नहीं हुआ
तो उसे परीक्षणों
से गुजरना पड़ा
उसका खून उतना लाल
नहीं निकला
जितना जरूरी समझा
जाता था गर्म होने के लिए
इससे हांलांकि यह
खतरा नहीं था कि वह मौके बेमौके
कई चीजों के खिलाफ
लोहे जैसा सख्त रवैया अपना लेगा
मसलन् यही कि उसके
बच्चों की मां के दूध में
एक तरह का रसायन
विष क्यों पाया जा रहा है
कि नदी को नाली की
तरह बजबजाने
क्रमशः मरने के
लिए किसने मजबूर किया है
फेफड़ों में उतनी
हवा नहीं समा रही है
हड्डियों में इतना
भी फास्फोरस नहीं बचा
एक तीली बना सके
गांधी प्रतिमा पर दीपक जलाने के लिए
नसें सिकुड़ गयी
हैं और उनसे गुजर नहीं पा रहा है ट्रैफिक
जरा सा भी हिलने
डुलने से खुल जाते हैं घाव
अंदर रिसता रहता
है
उसे न भूलने की एक
जो बीमारी है
बताया गया बीमारी
नहीं लक्षण है
उसके दिमाग का एक
हिस्सा सूखने के उलट फैल रहा है
और विस्फोट का
खतरा है
उसके सीटी स्कैन
से पता नहीं चलता
क्यों हर वक्त बारिश जैसी
टिपटिप होती रहती है
उसे सलाह दी गयी
हदों में रहने के बारे में
उसे दिखता नहीं, निगाह कमजोर है
तो अपने आसपास की
चिन्ता करने की क्या जरूरत है?
दूर तक सोचना
चाहिये कि वहां पहुंचने पर क्या क्या मिलेगा
उसे बचकर रहना
चाहिए उबाल और छान कर पीना चाहिए
बेहतर हो शामिल
करे वह अपने खानपान में डिब्बाबंद विचार
उसे चिल्ला कर नहीं
बोलना चाहिये
हमेशा के लिए चली जायेगी आवाज
उसने सोचा आवाज? किसकी आवाज?
उसे याद नहीं आया
कितने दिन हुए
अपनी सी आवाज सुने हुए
उसकी आवाज है भी?
वह हंसा, अपरिचितों के बीच सी हंसी
जिसका आशय यह भी
था कि
उसके कथन में
मौलिक कुछ भी नहीं है
उसकी रिपोर्ट में
भी कोई नयापन नहीं है
सन् 47 के बाद यह उसकी शायद चौंसठवीं रिपोर्ट है
और उसके पहले के
सारे दस्तावेज
उसने जला दिये उस
दिन आधी रात की ख़ुशी में
सब पुराना समझ कर
उसके अंदर जो
गिनती के लोग बसे हुए हैं
अब उन्हें बेदखल
करने की तैयारी है।
जो दोनों के लिए
समान रूप से हों
फिर हैरान हो जाता
हूं कि दोनों वृत्तों के बीच कोई स्पर्श-विन्दु नहीं है
मैं वापस अपने काम
की ओर मुड़ना चाहता हूं
मेरे सामने एक
सवाल है
जो अपनी बनावट में
नैतिक किस्म का दिखता है
क्या मैं सिर्फ
यही कर सकता हूं
या ऐसी मेरी धारणा
है
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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