सुरेन्द्र कुमार की ग़ज़लें
सुरेन्द्र कुमार |
गज़ल वह
विधा है जो आज भी अपने आधारभूत विशेषताओं को सहेजे हुए आगे बढ़ी है। अरबी शब्द ग़ज़ल का शब्दार्थ है औरतों
से या औरतों के बारे में बातें करना। इसलिए ग़ज़ल में इस प्रेम की प्रमुखता
दिखाई पड़ती है। अरबी से फारसी में आ कर ग़ज़ल ‘इश्के मजाज़ी’ से ‘इश्के हकीकी’ हो गयी। सूफी साधकों ने इसमें प्रमुख
भूमिका निभाई। फारसी से उर्दू में आ कर ग़ज़लों का कथ्य भारतीय हो गया। हिन्दी में अनेक रचनाकारों ने
ग़ज़ल विधा में हाथ आज़माया। हिन्दी ग़ज़लों में दुष्यन्त कुमार
को काफी ख्याति मिली। दुष्यन्त कुमार की परम्परा को
आगे के ग़ज़लकारों ने आगे बढाया। सुरेन्द्र कुमार हिन्दी ग़ज़ल के
क्षेत्र में बेहतर काम कर रहे हैं। उनकी ग़ज़लों में जमीन से जुड़ाव और
मानवीय संवेदनशीलता सहज ही देखी जा सकती है। अपने समय के मुद्दों से भी वे
रूबरू हैं और उस पर बात भी करते हैं। एक ग़ज़ल में सुरेन्द्र कुमार
लिखते हैं – ‘बरसों से कर्ज नहीं लौटा पाया।/ किसान
हूँ फर्ज नहीं निभा पाया।/ खाद बीज महंगा हो गया तभी तो।/ अबकी बार धान लगा नहीं
पाया।’ किसानों की समस्या को जिस साफगोई
से सुरेन्द्र उठाते हैं वह उन्हें औरों से अलग करता है। हालाँकि सुरेन्द्र कुमार को ‘मुसल्सल’ और ‘ग़ैर मुसल्सल’ ग़ज़लों में निबाह
करने की परम्परा को पुख्तगी के साथ और बेहतर करना होगा। आज पहली बार पर प्रस्तुत
है सुरेन्द्र कुमार की कुछ नयी ग़ज़लें।
सुरेन्द्र कुमार की ग़ज़लें
1
रिक्शा चलाते हुए मियां रहमान से मिले।
चौंक पर जाना था, बड़े अरमान से मिले।
सोचा था गमों को भुला कर ही मिलेंगे।
मगर एक दूसरे से परेशान से मिले।
जिनको हम आखिर बरसों से जानते थे।
लेकिन जब भी मिले उनसे अनजान से मिले।
हमारे मन के पेड़ सारे ही ढह गये।
उनसे मिल कर लगा तूफान से मिले।
ऑख में ऑख डाल कर बात करते रहे।
मगर जुदाई में हाथ परेशान से मिले।
2
सूरज से कहॉ डरा हूँ मैं
खुद की गर्दिश में घिरा हूँ मैं
वक्त ने फल समझ कर तोड़ लिया।
वरना पेड़ से कब गिरा हूँ मैं।
लिखते हुए स्याही छूट गयी।
बस उसी पन्ने का सिरा हूँ मैं।
माली की बे परवाही है।
पर फिर भी कितना हरा हूँ मैं।
सोना हूँ खदान से निकला।
सोलह आने खरा हूँ मैं।
3
कुछ तो रास्ता निकलेगा ।
जब तू घर से निकलेगा।
फिर भी बादल निकलेंगे।
फिर भी सूरज निकलेगा।
मैं पानी पर चलूंगा।
तू धरती पर संभलेगा।
4
वो एक कोने में दुबकी पड़ी थी।
जो हाथ पर बांधने वाली घड़ी थी।
उसको देख कर हल्का सा मुस्कुरा दिया।
कैसे बताता परेशानी बड़ी थी।
आज वह दो बच्चों की मां हो गई।
जिससे लड़कपन में अंखियां लड़ी थी।
जो भी आता उसी का हो जाता।
उसी के पास जादू की छड़ी थी।
सब भाग रहे थे मंजिल की ओर।
भला यहॉ किसको किसकी पड़ी थी
5
बरसों से कर्ज नहीं लौटा पाया।
किसान हूँ फर्ज नहीं निभा पाया।
खाद बीज महंगा हो गया तभी तो।
अबकी बार धान लगा नहीं पाया।
यों भी बादल अपनी अकड़ में था।
सूखा दरिया कुछ सुना नहीं पाया।
मैं इंद्र की सभा में जा नहीं पाया।
तेज़ जहाज़ को उड़ा नहीं पाया।
लाख कोशिशें करने के बावजूद ।
मैं उसको ढंग से हँसा नहीं पाया।
कल जो हाथ से हाथ मिला करते थे।
आज आँख से आँख मिला नहीं पाया।
टिकट खरीदने को पैसे कम थे।
यों उसको पिक्चर दिखा नहीं पाया।
6
अगर कोई सूरत हो जाती ।
मैं उसकी जरूरत हो जाती।
कहीं बैठ कर हम चाय पीते।
हमें अगर फुरसत हो जाती।
बे रोजगारी दूर हो जाती।
मैं अगर शुभ मुहूर्त हो जाती।
फिर मुझ में दिल कैसै धड़कता।
गर माटी की मूरत हो जाती।
7
वो अजीब किस्म का मिजाज रखता है।
बनिया है पल पल का हिसाब रखता है।
तनहाई का तिलिस्म टूट जाता है।
जब वो मेरे कन्धे पर हाथ रखता है।
पीते हुए कभी कभी ये लगता है।
गॉव का दोस्त मीठी शराब रखता है।
वो अन्धेरे में बुझता चिराग रखता है।
मेरा वजूद उजाला साथ रखता है।
8
मोहब्बत किए बगैर दीवानी नहीं लिखती।
जिंदगी कभी झूठी कहानी नहीं लिखती।
जलते दिलों की बस्ती में आग को देख कर।
जिंदगी कभी आग को पानी नहीं लिखती।
बहुत तजुर्बा है उसे रास्तों पर चलने का।
जिंदगी किसी के नाम जवानी नहीं लिखती।
जिसकी हो अंगूठी उसको पहना देती है।
जिंदगी अपने नाम निशानी नहीं लिखती।
जो लिखती है एकदम ताजा लिखती है।
जिंदगी कोई चिट्ठी पुरानी नहीं लिखती।
कठिनाई को कठिनाई से मात देती है।
जिंदगी कठिनाई को आसानी नहीं लिखती।
बादल को परे हटा कर सूरज निकल गया।
जिंदगी इस कोशिश को हैरानी नहीं लिखती।
9
आखिर पत्तों की सरसराहट थी वो।
आखिर फिजूल की घबराहट थी वो।
दिल की पटरी पर दौड़ने वाले।
जज्बाती इंजन की आवाज़ थी वो।
जब मैंने पिंजरा खोल कर देखा।
उड़ते पंछी की फड़फड़ाहट थी वो।
दरवाजे को लगा कोई आहट थी वो।
फैलती हुई तेरी चाहत थी वो।
पसीना पोंछ कर लम्बी सॉस थी वो।
घर में आ जाने की राहत थी वो।
गमला ढ़लना नहीं चाहता था चाक पर।
कुम्हार की बेवजह शिकायत थी वो।
10
मैं तो उससे दिल की बात करता रहा।
वो बिजली के बिल की बात करता रहा।
सड़क पर चलते हुए वो तो गुम रहा।
मैं उससे पल-पल की बात करता रहा।
शराब शबाब के सिवा कुछ भी नहीं था।
वह किस महफिल की बात करता रहा।
मैं उससे गंगाजल की बात करता रहा।
ओर वो सूखे नल की बात करता रहा।
सम्पर्क
गॉव-पोस्ट : अहमदपुर,
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
ग़ज़ल (उर्दू/हिंदी) कवि-सम्मेलनों/मुशायरों में खूब पसंद की जाती है। दुष्यंत जी को हिंदी ग़ज़ल का सशक्त हस्ताक्षर माना जाता है।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल को आम आदमी तक पहुंचाने की कोशिश सुरेंद्र कुमार जी की भी है, इनकी ज़ुबान में एक मध्यम-वर्गीय सहजता दिखाई देती है।
छोटे-छोटे शे`रों में अपनी बात कहती-सुनती सुरेंद कुमार जी की ग़ज़ल उर्दू-हिन्दी के सांप्रदायिक झमेले में नहीं उलझती सुरेंद्र जी की ग़ज़लों में 'गंगा -जमुनी' तेहज़ीब देखने को मिलती है।
इन अच्छी ग़ज़लों के लिये बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17-07-2018) को "हरेला उत्तराखण्ड का प्रमुख त्यौहार" (चर्चा अंक-3035) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'