स्वप्निल श्रीवास्तव का श्रद्धांजलि आलेख ‘लोकप्रिय कवि नीरज का जाना’


गोपाल दास नीरज

 
विगत 19 जुलाई 2018 को हिन्दी के मशहूर गीतकार गोपाल दास नीरज का निधन हो गया नीरज मंच के बेताज बादशाह थे गीतों की बदौलत उनकी लोकप्रियता जन-जन में थी तमाम मशहूर फ़िल्मी गीत जो प्रायः लोगों की जुबान पर रहते हैं, नीरज जी की कलम से ही निकले थे कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने नीरज जी को याद करते हुए एक श्रद्धांजलि आलेख लिखा है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं  तो आइए पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का यह आलेख ‘लोकप्रिय कवि नीरज का जाना’    
   



स्वप्निल श्रीवास्तव


हिन्दी के कवि देवेन्द्र कुमार ने कभी यह स्वीकार किया था कि नीरज उनके रोल-मॉडल थे। उनके गीतों को पढ़  कर  उन्होने गीत लिखने की कला सीखी। देवेन्द्र कुमार ने हिन्दी को अदभुत गीत दिये है। लेकिन वे मंच की जीनत नहीं बन सके। गीतों के बाद वे कविताओं की दुनियां में गये। नीरज की दुनियां अलग थी। उन्हें मंच और तालियां पसन्द थीं। बाद में उन्होने जो करिश्मे किये हम उनसे वाकिफ हैं।



हमारे जैसे उन दिनों के युवा उनके गीतों के मुरीद थे। नीरज मूलत: रोमानी कवि थे। उनकी कविता के भीतर श्रृंगार,  प्रेम, विरह के अलग अलग रंग थे। उन्होने गीतों की रूढ़ि को तोड़ा है और नयी शब्दावली ईजाद की है। एक खास उम्र में उनके गीत बहुत अच्छे लगते हैं। हमारे कुछ मित्र अपनी प्रेमिकाओं को लिखे खत में उनकी पंक्तियां कोट करते थे। असफल प्रेमी–प्रेमिकाओं को उनके गीत रास आते थे। इस मर्म को सनझने के लिये गालिब का शेर याद करते हैं .....


  कोई मेरे दिल से पूछे तो तेरे तीर-ए–नीमकश को
  ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।


तीर-ए–नीमकश यानी दिल में आधा विंधा हुआ तीर। पूरे तीर से तो मामला आर पार का हो जाता है। यही तीर-ए–नीमकश ही खलिश की असली वजह है। बस इस सूत्र के सहारे नीरज के गीतों को समझा जा सकता है। यही शायरों का प्राण-तत्व है। उर्दू शायरी इसी बुनियाद पर टिकी है। हिन्दी के रोमांटिक कवियों ने इसे अपनाया है। नीरज उसमें से प्रमुख कवि हैं। निष्फल प्रेम के किस्सों से बहुत से लोग कवि बन गये हैं। ये किस्से खूब अमर होते हैं। याद कीजिये, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद और हीर-रांझा को। यदि वे दाम्पत्य की देहरी पर पहुँच जाते तो उनका प्रेम अमर नहीं हो पाता। इसी अमरता की खोज कतिपय कवि करते हैं। नीरज के जीवन में ऐसी कई कहानियां है। कानपुर का प्रेम–प्रसंग तो जगजाहिर है। गाहे–बगाहे वे अपने इंटरव्यू में वे अक्सर अपने किस्से सुनाते रहते थे।



  
देखने में वे सुदर्शन थे। उनके पढ़ने का अंदाज दिलफरेब था। वे तरन्नुम से गाते थे। बीच में रूक कर आलाप लेते थे फिर शिखर तक पहुँचते थे। उनका यह अंदाज नया था। उनके पढ़ने में आंगिक मुद्रा भी शामिल थे। बच्चन उनके प्रिय कवि थे। उनके साथ महादेवी, पंत, दिनकर, शिव मंगल सिंह सुमन थे। इस मंडली में शम्भू नाथ सिंह का नाम लिया जा सकता है। उन दिनों गीतों की धूम थी। कविताएँ कम पढ़ी जाती थीं। अधिकांश कवि गायक भी थे। उनके गीतों में संगीत शामिल रहता था। बच्चन के पास मधुशाला’, निशा निमंत्रणजैसी सम्पत्ति थी। दिनकर ओजस्वी थे। महादेवी के पास करूणा थी। इन सबके बीच उन्होने अपनी अलग जगह बनायी। यह सब सहज सम्भव नहीं हुआ। उनकी भाषा और शैली अलग थी। उनके गीत लोगो को याद रहते थे। वे सहज और सरल जुबान में लिखते थे। जैसे वे मंच पर पहुँचते लोगो की फरमाइश शुरू हो जाती थी। यह उनकी लोकप्रियता का आलम था। वे मंच के लिये अनिवार्य हो गये थे। कवि-सम्मेलन उनके नाम से हिट होते थे। उनकी कुछ पंक्तियां देखें ...


अगर प्यार नहीं थामता ऊंगुली इस बीमार उम्र की
हर पीड़ा वेश्या बन जाती हर आंसूं आवारा होता 

या

देखती ही रहो प्राण दर्पन न तुम
प्यार का यह मुहूर्त निकल जायेगा। 



युवा वर्ग को यह पंक्तियां बहुत अच्छी लगती थीं, जैसे यह उनकी ही स्वीकारोक्ति हो। उनके गीत कुबूलनामें की तरह थे। यहाँ थोड़ा ठहर कर पंत को याद कर लें


वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान
निकल कर नैनों से चुपचाप वही होगी कविता अनजान।


नीरज की कविता इन पंक्तियों का आधुनिक संस्करण प्रस्तुत कर रही थी। वे गीतों का मूल दृश्य बदल रहे थे। वे युवा वर्ग की धड़कनों के करीब थे और चोट खाये दिल को स्वर दे रहे थे।




कवि सम्मेलनों का शिखर छूने के बाद वे अन्य शायरों की तरह अपना भाग्य आजमाने फिल्मी दुनियां में पहुँचे। यह महत्वाकांक्षाओं की लम्बी छलांग थी। हिन्दी उर्दू के अनेक अदीबों का फिल्मी प्रेम नया नहीं था। शकील दायूनीं, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवीं, शलेंद्र जैसे शायर, कवि फिल्मी दुनियां में अपना मुकाम बना चुके थे और कामयाब भी हुए। लेकिन वह दौर अलग था, जब शायर और संगीतकार का रिश्ता बहुत आत्मीय था। शायरों के पास गहरी समझ थी। संगीतकार को संगीत के शास्त्रीय पक्ष की जानकारी थी। दोनों की जुगलबंदी थी। लेकिन जैसे-जैसे व्यवसायिकता का हमला हुआ, पूरा शीराजा बिखर गया। लेकिंन कुछ लोग बचे हुए थे और पुरानी रवायत पर कायम थे। नीरज को सबसे पहले, नयी उम्र की नयी फसल फिल्म में मशहूर गीत मिला


कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
स्वप्न झरे फूल से/ गीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग से बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुजर गया, बहार देखते रहे


यह गीत 1965 में लिखा गया था। यह भारतीय समाज में मोहभंग का समय था। आजादी के बाद देखे गये सपने टूट रहे थे। गहरी उदासी के इस गीत को रफी ने दिल से गाया था। उदासी इतनी खूबसूरत हो सकती है, यह इस गीत को सुन कर जाना जा सकता है। यह उस युवा वर्ग की आवाज थी जो अपने जिंदगी का रास्ता खोज रहा था। इस फिल्म के बाद वे देवानंद की टीम से जुड़े। उनकी फिल्म प्रेम–पुजारी में गीत लिखे। इस फिल्म कें गीतों में उन्होने साहित्यिकता को बरकरार रखा। इस फिल्म में उन्होने प्रेम का जो आसव तैयार किया, वह देखते ही बनता है।


शोखियों में घोला जाय फूलों का शबाब
फिर उसमे मिलायी जाय थोड़ी सी शराब
फिर नशा होगा जो तैयार, वह प्यार है  


उन्होंने देवानंद की फिल्म – तेरे मेरे सपने, गैम्बलर जैसी फिल्मों में गीत लिखे– जो बहुत मकबूल हुए। इसके अलावा चंदा और बिजली, पहचान, कन्यादान में उन्होने गीत लिखे। राजकपूर की फिल्म – मेरा नाम जोकर में उनका प्रसिद्ध दार्शनिक गीत – हे भाई जरा देख कर चलो किसे नहीं याद होगा। यह उस फिल्म की मुख्य थीम थी। यह गीत उन्मुक्त छंद में था लेकिन उसके भीतर लय थी। यह गीत जीवन के कई सोपानों की व्याख्या करता है। वे बिम्ब और प्रतीकों के जरिये जीवन की कथा कहते हैं। जहाँ उनके गीतों में शोखी थी, वही एक दार्शनिक अंदाज भी था। उन्होने लिखा –


बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ
आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ। 



फिल्म शर्मीली का वह गीत याद करिएमेघा छाये सारी रात बैरन बन गयी निदियां या तेरे मेरे सपने का वह गीत – हे मैंने कसम ली फिल्म कन्यादान का यह गीत तो बहुत मकबूल हुआ था।


लिक्खे जो खत तुझे, वे तेरी याद में,  हजारों रंग के नजारे बन गये
सुबह जो उठा तो फूल बन गये रात जब हुई तो सितारे बन गये। 


उनके गीत चलताऊ नहीं थे,  उसमें गीतों के मुहावरों को नजरंदाज नहीं किया गया था।


चंदा और बिजुली, पहचान और मेरा नाम जोकर – के लिये उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार मिले। लेकिन कुछ दिनों बाद उन्हें इस दुनियां से मोहभंग हो गया था। फिल्मी दुनियां का पर्यावरण बदल चुका था। संगीतकारों और गीतकारों का पतन हो चुका था। कुछ गिने–चुने लोग थे जिनके भरोसे फिल्मों की मूल आत्मा को नहीं बचाया जा सकता था। फिल्मों में माफियों की आमद हो चुकी थी। उनके हिसाब से फिल्में बन रही थी। ऐसे माहौल में नीरज जैसे सम्वेदनशील कवि के लिये जगह नहीं बची थी। अपना सामान बांध कर वे अपनी पुरानी दुनियां में पहुँचे और मंच पर अपनी दुकान फिर शुरू कर दी। गीतों के साथ वे गज़लें और रूबाइयां लिखने लगे। वे नये सिरे से मंच पर सक्रिय हो गये।



उनके कवि जीवन का तीसरा दौर उतार और चढ़ाव का दौर था। वे सत्ता से जुड़े। उन्हें पदमश्री और पद्मभूषण के रूतबे से अलंकृत किये गया। साथ ही साथ यशभारती हुए। कई सरकारी संस्थाओं के प्रभारी बने। उन्हे कैबिनेट का दर्जा दिया गया। एक राजनीतिक परिवार के कुलगुरू के रूप में उन्हें ख्याति मिली। जब कोई कवि लेखक सत्ता से जुड़ता है तो उसे संदेह की नजर से देखा जाता है। कवि मूल रूप से सता का विपक्ष होता है। यही नीरज के कवि जीवन की बिचलन थी – जिसे उनके प्रशंसक नहीं पचा पाये थे। नीरज जैसे मंचीय कवियों की यह बिड्म्बना भी है कि उन्हें हिन्दी कविता की मुख्य धारा में जगह नहीं मिलती। लेकिन हिन्दी का कोई प्रतिष्ठित कवि उनकी लोकप्रियता को नहीं छू सकता। भले ही आलोचक उन्हें खारिज कर दे लेकिन यह बहस तो अपनी जगह है कि लोकप्रियता के मापदंड क्या हो?



जिस समय वे फिल्मी दुनियां से लौट कर आये– उस समय  मंचों की संस्कृति बदल चुकी थी। मंचों पर विदूषक, लतीफेबाज और कविता के नाम पर जोकरई करनेवाले कवि बहुसंख्यक हो चुके थे। गलेबाजों ने कविता की दुर्गति बना कर रख दी थी। उनकी उपस्थिति में यह ढोंग कम होने लगे थे। उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ने लगा था। नब्बे के बाद मंच व्यवसायिक होने शुरू हो गये थे। यह पांचवे और छठे दशक का समय नहीं था। मंच और मुख्यधारा की कविता में फांक होने लग गयी थी। यह बड़ी दुर्घटना थी। हिन्दी के गम्भीर कवियों का मंच से मोहभंग हो गया था। दोनों धारायें विपरीत दिशा में बहने लग गयी थीं । मंच पर अपने आप को बनाये रखने के लिये नीरज ने अपने गीतों के मिजाज को बदलना शुरू कर दिया था। वे मांग और पूर्ति के गणित में उलझ गये। उनके शुरूती गीत को सामने रख कर इस अंतर को समझा जा सकता है। भले ही उनके प्रशंसक इस तथ्य को न स्वीकार करे लेकिन इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता। लोकप्रियतायें साहित्यिक श्रेष्ठताओं पर निर्भर नहीं होतीं, उनका शास्त्र अलग होता है। सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास लाखों में बिकते है लेकिन भीष्म साहनी से श्रेष्ठ लेखक नहीं हो सकते। बहरहाल इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि उन्होंने लोकप्रियता का जो मापदंड स्थापित किया है वह अटूट है।

लिक्खे जो ख़त तुम्हें गीत पर फिल्माया गया दृश्य


उनकी मृत्यु के बाद कुछ लोग उनकी तुलना अमेरिकी गीत गायक बाब डिलन से करने लग गये हैं। डिलन की छबि एक कवि नहीं गीतकार के रूप में निर्मित हुई है। उनके यहाँ साहित्य के तत्व नहीं है लेकिन उनकी लोकप्रियता बेमिशाल है। उन्हें नोबल पुरस्कार की रूढ़ियों को तोड़ कर 2016 का नोबल सम्मान दिया गया है। नीरज के जाने के बाद यह बहस शुरू हो सकती है। यह अच्छा भी है कि इसी बहानें हम कुछ नया सोचे। वाद विवाद सम्वाद की परम्परा हमारे यहाँ नई नहीं है। हाँ स्थगित जरूर हो गयी है। हिन्दी के महामना आलोचकों, कवियों, लेखकों को कभी–कभी अपने गिरेबान में जरूर झांक लेना चाहिए कि वे क्यों कम पढ़े जा रहे हैं। ऐसे कौन से सामाजिक और सांस्कृतिक कारण, जिसमें साहित्य की जगह सिकुड़ती जा रही है। यथार्थ – विमुखता और आत्ममुग्धता से कैसे छुटकारा पाया जाय। कवि-सम्मेलनों के कवियों में सत्ता का विरोध नहीं दिखाई देता। वे हट कर कविताएँ पढ़ते हैं,  सत्ता से जुड़ने का अवसर बचा कर रखते हैं। वे जानते है कि कभी न कभी उन्हें बादशाह की महफिल और कारपोरेट घरानों में बुलाया जा सकता है। हम ऐसे कई कवियों को जानते है जिनकी दिल्ली दरबार में आवाजाही है। बेकल उत्साही को इसी दम पर राज्यसभा का सदस्य बनाया गया था। यह राजदरबारों की पुरानी परम्परा है। वे अपने दरबार की सजावट के लिये नवरत्नों को रखते हैं



यह बिडम्बना है कि किसी कवि का मूल्यांकन उसके जीवन काल में नहीं हो पाता। इसके सबसे बड़े उदाहरण मुक्तिबोध हैं। जीते जी उन्होने अपनी किसी किताब का मुँह नहीं देखा लेकिन वे आज हमारे सबसे जरूरी कवि हैं। इतिहास ही तय करेगा कि नीरज जैसे कवि की जगह, इतिहास के किस पन्ने पर होगी। नीरज पर लिखते और सोचते समय उनके इंटरव्यू की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं...



... ...अगर आपके रूखसती के वक्त आपके गीत और कविताएँ लोगों की जुबां और दिल में हों, तो यही आपकी सबसे बड़ी पहचान होगी...
नीरज इस वाक्य पर खरे उतरते हैं।

स्वप्निल श्रीवास्तव





सम्पर्क

स्वप्निल श्रीवास्तव
510 – अवधपुरी कालोनी, अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001

मोबाइल – 09415332326

  

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आचार्य परशुराम चतुर्वेदी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढ़िया लिखा है , यूं भी जो ऊर्दू के बरक्‍स हिंदी कविता को गायिकी में ढालने की सफल कोशिश कर गया, उसी को ''नीरज'' कहते हैं

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं