प्रेम नन्दन की कविताएँ
परिचय
जन्म - 25 दिसम्बर
1980, को फतेहपुर (उ.
प्र.) के
एक
छोटे
से
गाँव
फरीदपुर
में।
शिक्षा - एम0ए0(हिन्दी), बी0एड0। पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
लेखन - कविता, लघुकथा, कहानी, आलोचना।
परिचय - लेखन
और
आजीविका
की
शुरुआत
पत्रकारिता से। दो-तीन वर्षों
तक
पत्रकारिता करने
तथा
तीन-चार वर्षों
तक
भारतीय
रेलवे
में
स्टेशन
मास्टरी
के
पश्चात
सम्प्रति
सिर्फ
मास्टरी।
प्रकाशन-
1- सपने
जिंदा
हैं
अभी
(कविता
संग्रह)
2-
यही तो
चाहते
हैं
वे
(कविता
संग्रह)
3- कविताएँ, कहानियां लघुकथाएँ एवं आलोचना
विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉगों में प्रकाशित।
वैसे तो उपरी तौर पर समाज के कई विभाजन दिखायी पड़ सकते हैं लेकिन कार्ल मार्क्स दुनिया भर के समाज को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित करते हैं - बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि समाज मूलतः दो वर्गों शोषक और शोषित में बंटा है। शोषक वर्ग येन-केन-प्रकारेण अपना हित साधना चाहता है और इसके लिए शोषित वर्ग को बाँटे रखना चाहता है। इस क्रम में उनके काम आती हैं ऐसी बातें जो प्रायः अमूर्त होती हैं और जिनका सीधे तौर पर लोगों से कुछ भी लेना देना नहीं होता। धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, बोली ऐसे कुछ हथियार हैं जिनका इस्तेमाल शोषक वर्ग जनता को गुमराह करने के लिए करता रहता है। जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी जैसे मूलभूत विषय अछूते रह जाते हैं। कवि प्रेम नन्दन इस चालाकी को उजागर करते हुए लिखते हैं - 'वे मुस्कुरा रहे हैं दूर खड़े हो कर/ और हम लड़ रहे हैं लगातार/ एक दूसरे से/ बिना यह समझे/ कि यही तो चाहते हैं वे!' एक कवि का दायित्व भी यही होता है कि वह सच को उजागर करे और उसे बेबाकी से सामने रखे। प्रेम नन्दन की कविताओं में एक क्रमिक विकास स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। प्रेम नन्दन का हाल ही में एक नया कविता संग्रह आया है 'यही तो चाहते हैं वे'। उन्हें शुभकामनाएँ और बधाई देते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं है प्रेम नन्दन के इसी कविता संग्रह में शामिल कुछ कविताएँ।
प्रेम नन्दन की कविताएँ
यही तो चाहते हैं वे
लड़ना था हमें
भय,
भूख, और भ्रष्टाचार के खिलाफ!
हम हो रहे थे एकजुट
आम आदमी के पक्ष में
पर कुछ लोगों को
नहीं था मंजूर यह!
उन्होंने फेंके
कुछ ऐंठे हुए शब्द
हमारे आसपास
और लड़ने लगे हम
आपस मे ही!
वे मुस्कुरा रहे हैं दूर खड़े हो कर
और हम लड़ रहे हैं लगातार
एक दूसरे से
बिना यह समझे
कि यही तो चाहते हैं वे!
निर्जीव होते गाँव
रो रहे हैं हँसिए
चिल्ला रही हैं खुरपियाँ
फावड़े चीख रहे हैं।
कुचले जा रहे हैं
हल,
जुआ, पाटा,
ट्रैक्टरों के नीचे।
धकेले जा रहे हैं गाय-बैल,
भैंस-भैसे कसाई-घरों में।
धनिया,
गाजर, मूली, टमाटर
आलू,
लहसुन, प्याज, गोभी,
दूध, दही, मक्खन, घी,
भागे जा रहे हैं
मुँह-अँधेरे ही शहर की ओर
और किसानों के बच्चे
ताक रहे हैं इन्हें ललचाई नजरों से!
गाँव में-
जीने की ख़त्म होती
संभावनाओं से त्रस्त
पूरी खेतिहर नौजवान पीढ़ी
खच्चरों की तरह पिसती है
रात-दिन शहरों में
गालियों की चाबुक सहते हुए।
गाँव की जिंदगी
नीलाम होती जा रही है
शहर के हाथों;
और धीरे- धीरे...
निर्जीव होते जा रहे हैं गाँव!
अफवाहें बनती बातें
सच यही है
कि बातें वहीं से शुरू हुईं
जहाँ से होनी चाहिए थीं
लेकिन खत्म हुईं वहाँ
जहाँ नहीं होनी चाहिए थीं
बातों के शुरू और खत्म होने के बीच
तमाम नदियाँ, पहाड़, जंगल और रेगिस्तान आए
और अपनी उॅचाइयाँ, गहराइयाँ, हरापन और
नंगापन थोपते गए।
इन सबका संतुलन न साध पाने वाली बातें
ठीक तरह से शुरू होते हुए भी
सही जगह नहीं पहुँच पातीं -
अफवाहें बन जाती हैं।
ऐसे कठिन समय में साथी
बातों का अफवाहें बनना ठीक नहीं!
दूषित होती ताजी साँसें
अभी-अभी किशोर हुईं
मेरे गाँव की ताजी साँसे
हो रही हैं दूषित
सूरत,
मुम्बई, लुधियाना में...
लौट रहीं हैं वे
लथपथ,
बीमारियों से ग्रस्त
दूषित,
दुर्गन्धित।
उनके संपर्क से
दूषित हो रही हैं
साफ,
ताजी हवाएँ
मेरे गाँव की!
धान रोपती औरतें
बादलों को ओढ़ कर
कीचड़ में धंसी हुई
देह को मोड़े कमान-सी
उल्लसित तन-मन से
लोकगीत गाते हुए
रोप रहीं धान
खेतों में औरतें,
अपना श्रम-सी कर
मिला रहीं धरती में
जो कुछ दिन बाद
सोने-सा चमकेगा
धान की बालियों में
सुखमय भविष्य का
सुदृढ़ आधार है
इनका यह वर्तमान पूजनीय श्रम!
प्रेम नन्दन |
संपर्क –
उत्तरी शकुन नगर,
सिविल लाइन्स, फतेहपुर, (उ०प्र० )
मोबाइल – 09336453835
ईमेल - premnandan10@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसीधी ,सच्ची और अच्छी कविताएं
जवाब देंहटाएंसरल भाषा में गंभीर बात कहती कवितायें
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