कैलाश बनवासी की कहानी 'उस घर में एक दिन'
कहानी
बाल मनोविज्ञान को ले कर लिखी गयी कहानियाँ अक्सर दिल को छू लेती हैं. इस तरह की कहानियाँ लिखना आसान भी नहीं है. कैलाश बनवासी ने इस चुनौती को न केवल स्वीकार किया है बल्कि अपने लेखन से खुद को साबित भी किया है. कैलाश की ऐसी ही एक बेजोड़ कहानी है - 'उस घर में एक दिन.' कैलाश बनवासी इस कहानी को अपनी पसंदीदा कहानी स्वीकार करते हैं. अपने एक पत्र में वे लिखते हैं -
प्रिय सन्तोष भाई,
'अपनी 1987 में लिखी एक कहानी जो 1989 में वर्तमान साहित्य में छपी थी, की साफ्ट कॉपी मामूली संशोधन (व्याकरण सम्बन्धी) के बाद इधर तैयार की. इसलिए कि यह मेरी प्रिय कहानी है. मेरे यहीं के कथाकार मित्र गजपाल की तो यह सर्वाधिक पसंदीदा कहानी रही है जिसे उसने 80 से भी ज्यादा बार पढ़ा है.
यह कहानी बचपन की सहजता और पब्लिक स्कूलों की रुढ़िबद्धता के तनाव को सामने लाती है. मैं खुद एक शिक्षक हूँ और हमारी रटने-रटाने वाली शिक्षा पद्धति का घोर विरोधी हूँ. जो बचपन की शरारत, छेड़, खेल-कूद को लगभग तिलांजलि दे कर सिर्फ मेरिट का कदर करती है. जिसके चपेट में आज हमारी समूची शिक्षा-पद्धति आ चुकी है. साथ ही मध्य-वर्ग अपनी उन्नति का एकमात्र रास्ता मानता है. मैं पढाई का नहीं, पढाई के नाम पर बच्चों से उनका बचपन छीन लेने का विरोधी हूँ. उस शिक्षा पद्धति की काली छाया आप इस कहानी में देखेंगे जो किस तरह नैसर्गिकता को बाड़ लगाती है. साथ ही उस सहज स्नेह को जो दुर्भाग्यवश बच्चों से छिनती जा रही है.
तो आइए आज पहली बार पढ़ते हैं कैलाश बनवासी की कहानी - 'उस घर में एक दिन.'
उस घर में एक दिन
प्रिय सन्तोष भाई,
'अपनी 1987 में लिखी एक कहानी जो 1989 में वर्तमान साहित्य में छपी थी, की साफ्ट कॉपी मामूली संशोधन (व्याकरण सम्बन्धी) के बाद इधर तैयार की. इसलिए कि यह मेरी प्रिय कहानी है. मेरे यहीं के कथाकार मित्र गजपाल की तो यह सर्वाधिक पसंदीदा कहानी रही है जिसे उसने 80 से भी ज्यादा बार पढ़ा है.
यह कहानी बचपन की सहजता और पब्लिक स्कूलों की रुढ़िबद्धता के तनाव को सामने लाती है. मैं खुद एक शिक्षक हूँ और हमारी रटने-रटाने वाली शिक्षा पद्धति का घोर विरोधी हूँ. जो बचपन की शरारत, छेड़, खेल-कूद को लगभग तिलांजलि दे कर सिर्फ मेरिट का कदर करती है. जिसके चपेट में आज हमारी समूची शिक्षा-पद्धति आ चुकी है. साथ ही मध्य-वर्ग अपनी उन्नति का एकमात्र रास्ता मानता है. मैं पढाई का नहीं, पढाई के नाम पर बच्चों से उनका बचपन छीन लेने का विरोधी हूँ. उस शिक्षा पद्धति की काली छाया आप इस कहानी में देखेंगे जो किस तरह नैसर्गिकता को बाड़ लगाती है. साथ ही उस सहज स्नेह को जो दुर्भाग्यवश बच्चों से छिनती जा रही है.
तो आइए आज पहली बार पढ़ते हैं कैलाश बनवासी की कहानी - 'उस घर में एक दिन.'
उस घर में एक दिन
कैलाश बनवासी
पहली बार! सचमुच पहली बार इतना बड़ा और इतना नामी शहर देख रहा था मैं. मेरी दीदी भी पहली दफे देख रही थी. शायद हर बड़े शहर का अपना एक अलग आकर्षण होता है! उसकी विशिष्टताओं की सूची किसी चुम्बक की तरह मन को खींचती है. हमारी तरह कस्बों में रहने वालों के लिए यह और भी बढ़ जाता है.
काला-कलूटा रिक्शे वाला अपनी
हंडियल जिस्म की सारी ताकत लगा कर हमें
खींच रहा था. सामने सड़क की चढ़ाई थी. डेविड
चाचा –
जो टीचर हैं और जिसकी अगुवाई में हम यहाँ आये हैं- इस
शहर के बारे में बता रहे थे. वे ठीक मेरी बाजू में बैठे थे. लेकिन
मैं उन्हें सुन नहीं रहा था. मैं अपने चारों ओर देख रहा था--बहुत
गहरी उत्सुकता से. इस पहाड़ी किन्तु आधुनिक शहर को अपनी आँखों में भर
रहा था, अपनी
स्मृति में स्थायी बनाने की पूरी कोशिश करते हुए कि पता नहीं फिर कभी आना हो कि
नहीं...
तब सड़क पर ज्यादा भीड़ नहीं थी. दूर-दूर
तक ऊंची बिल्डिंगों की कतारें थीं. हल्की फुहार पड़ रही थी और लोग
बेपरवाह घूम रहे थे. एक बेअसर बारिश. आसमान
में काले-सफ़ेद बादलों के फाहे मस्ती में तैर रहे थे. आसपास
खड़े पेड़ों में भरपूर ताजा हरापन था—सुबह के सफेदी में में धुला हुआ
कोमल ताजापन.
यहाँ आना अचानक ही हुआ. बिलकुल
अप्रत्याशित. तीन दिन पहले दीदी को इन्टरव्यू का कॉल-लेटर
मिला था कि सोमवार को इन्टरव्यू है. यानी कल. हमारे
घर में उस समय किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था. इतनी दूर का शहर ! फिर
कोई जान-पहचान का भी नहीं! अरे,
जान-पहचान
तो दूर,हमारे
घर से किसी ने देखा भी नहीं है इस शहर को. फिर लड़की को भेजना है! बाबूजी
परेशान हो गए थे,कोई रास्ता दिखाई नहीं देता था. तभी
बाबूजी को चाचा की याद आई- मोहल्ले में ही रहने वाले डेविड चाचा.
बाबूजी को यह मालूम था कि डेविड चाचा अपनी नौकरी के दौरान यहाँ कुछ बरस रहे हैं, और
उनके कुछ रिश्तेदार भी यहाँ हैं. सो उनसे कहा गया. और
वे कुछ ना-नुकुर के बाद आखिर मान गए.
चाचा के तैयार हो जाने पर बाबूजी मुझसे बोले—‘जाता
है तो तू भी चला जा. घूम-घाम कर आ जाना’. और
मैं भला मना करता? जिसे कभी-कभी ही यहाँ-वहाँ
जाने का मौका मिलता हो, वह इसे
कैसे मना करता? इसी बात को लेकर मैं अक्सर कितना कुढ़ा करता हूँ. नवमीं
तक पहुँच गया और मैं यह नहीं देख पाया कि पचास किलोमीटर के आगे क्या है. जबकि
मेरे सहपाठी तो पता नहीं कितने कश्मीर, कितने शिमला और कन्याकुमारी देख
चुके हैं! तो मैं भी चला आया. काफी
खुश!
सफ़र के दौरान चाचा बहुत बातें करते रहे. वे
हैं भी जरा बातूनी किस्म के जीव. जहाँ बोलना शुरू किया फिर कहाँ
रुकेंगे, बता पाना मुश्किल है.और
सचमुच ऐसे आदमी के साथ सफ़र का अलग मजा होता है. वह
उबाऊ और थकानदायी नहीं रह जाता. उन्होंने बताया था कि उनका यहाँ
एक रिश्तेदार है --दोस्त जैसे. इंजिनियर हैं. बढ़िया
तनख्वाह है. अच्छे सरकारी क्वार्टर में रहते हैं. उनकी
मिसेज भी गवर्नमेंट हास्पिटल में स्टाफ नर्स हैं.
वह भी वेतन के आलावा खासी रकम पीट लेती हैं. तीन सुन्दर बच्चियां हैं जो महंगे
पब्लिक स्कूलों में पढ़ रही हैं. यह भी कहा कि हम होटल में रुकने
के बजाय उनके घर में रुकेंगे. सुन कर मुझे अटपटा लगा था. हम
बिलकुल अपिरिचित ठहरे. और किसी ऐसे व्यक्ति के घर पर रुकना.... लेकिन
इधर होटल के बिल की महँगी और भयावनी शक्ल भी थी. हम
लोगों के लिए होटल में ठहरना एक दिन अचानक ‘बड़े आदमी’ हो
जाने के अहसास से कम रोमांचक नहीं है. एक मासूम अहसास.! चाचा
ने हालांकि इस बात को जोर देकर कहा था कि अपन को तार कर देना था, वे
हमें लेने स्टेशन पहुँच जाते. लेकिन उनके ऐसा कहने के बावजूद, जाने
क्यों मुझे इसकी सच्चाई पर यकीन नहीं आया था. लगा, चाचा
अपनी फुटानी मार रहे हैं. जैसे जताना चाह रहे हों कि वह उनका बहुत अच्छा
दोस्त है. और दोस्ती इस तरह जतायी नहीं जाती.
जैसा मैंने सोचा था, वह
कालोनी नयी थी,शहर के व्यस्त इलाकों से जरा हट कर... साफ़-सुथरी
और शहरी शोरगुल से काफी हद तक बची हुई.
हम साढ़े नौ बजे सुबह उनके क्वार्टर के सामने थे. आसपास
एकदम शांति थी,केवल पेड़ों पर चिड़ियाएँ चहचहा रही थी, दरवाजा
चाचा ने ही खटखटाया...और मुझे उस वक्त बिलकुल अजीब लग रहा था...एक
हल्का अजनबी भय.जैसे दरवाजा खुलते ही कुछ हो जाएगा.कुछ
भी.
लेकिन जवाब में किसी बच्ची की गाती-सी आवाज भीतर से आई - कोओЅЅЅन
...?
दरवाजा खुला.सामने
दो नन्हीं बच्चियां. हमें अचकचाई आँखों से देखती हुईं,जैसे
परिचय का कोई सूत्र ढूंढती हों.एक लगभग सात साल की दूसरी छह साल की.दुधिया
और सुन्दर बच्चे—जैसा होना चाहिए सब बच्चों को.
“क्यों री,नहीं
पहचाना मोना?” चाचा ने पूरे अपनेपन से कहा और हम भीतर
आ गए. अपना
सामान एक कोने में रख दिया. छोटी बच्ची गहरे आश्चर्य से मोना को देख
रही थी, कुछ
पूछती-
सी.
और
मोना पहचान का सिरा पकड़ने की कोशिश कर रही थी—आप
नांदगांव वाले अंकल ...?
सुनकर चाचा ख़ुशी से चहक उठे--अरे! तुम
तो पहचान गई! मैंने सोचा था तुम नहीं पहचानोगी. पिछले
साल मिले थे. एक साल में इत्ती बड़ी हो गयी! फिर
कुछ रुक कर पूछा—तुम्हारे मम्मी -डैडी
कहाँ हैं? घर पर नहीं हैं?
अबकी बार छोटी बच्ची पूरा उत्साह समेटकर बोली, ”डैडी
तो दोस्त के घर गए हैं. और मम्मी हास्पिटल.”
“अच्छा!” दीदी
हंस कर बोली, ”और तुम बड़े लोगों को घर देखने के लिए छोड़ गए हैं,क्यों
?”
उनके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी—उजली
चांदनी-सी.
“तो तुम्हारा नाम मोना है.और
तुम्हारा छोटी ?”
कुछ शरमा कर उसने बताया—पूजा.
“क्यों,पूजा-वूजा
खूब करती होगी तुम!” चाचा के कहने पर दोनों एकदम खिलखिला उठीं. छोटी-छोटी
मोतियों की सफ़ेद कतारें झलक गयीं.
मेरे
भीतर का वह अनजाना डर, बिलकुल अपरिचित होने का अजीब-सा
भय अब सिमटता जा रहा था, परिचय की ऊष्मा बढ़ने के साथ-साथ. जैसे
भय भी कोई परछाईं हो जो सहजता की धूप बढ़ने के साथ-साथ
सिकुड़ती जाती है...
अब तक कमरा कुछ परिचित हो
गया था. सोफे
में धंसे-धंसे चाचा ने पूछा—“अच्छा
भई, तुम्हारे
डैडी कब आयेंगे ?”
“मैं
बुला लती हूँ. यहीं पास में तो गए हैं. ”मोना
बोली.
“अच्छा
ठीक है. तुम
इनको पहचानती हो?” चाचा ने मेरी और दीदी की तरफ इशारा किया. क्षण
भर उनके सफेद मुलायम चेहरे पर अपरिचित होने का सवाल काँप गया. वे
हमें उसी तरह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से ताकते रहे. चुपचाप.
“नहीं ना.”चाचा
वैसे ही खुलकर बोले, ”ये तुम्हारे सुनील भइया हैं और ये निर्मला दीदी.”
मैंने बातचीत से मालूम किया, पूजा
क्लास वन में है और मोना क्लास थ्री में. दोनों यहाँ के एक पब्लिक स्कूल
में पढ़ती हैं. सहसा मोना बोली, पूजा, ’मैं
डैडी के पास जा री हूँ . जाएगी तू भी?’ तो पूजा झट अपने नन्हें पैरों से
सोफे से कूद पड़ी. चाचा ने कहा—“कहना,राजनांदगाँव
वाले अंकल आए हैं... क्या कहोगी ?”
“राजनांदगाँव वाले अंकल आए हैं.” दोनों
खिलखिला कर हँस पड़ीं. और हँसती-हँसती
बाहर चली गयीं.
उनके जाते ही कमरा फिर जैसे अजनबी हो गया. कुछ
कठोर और भारी. और ठहरा हुआ.
कुछ बातें बिलकुल अचानक हो जाया करती हैं,अनायास. किसी
को इसका पता नहीं चल पाता, कुछ भी. जिस्म
में खून की तरह बहता हुआ गतिशील और गुनगुना अहसास. जिसे
सिर्फ महसूस किया जा सकता है. एक धीमी आँच होती है सम्बन्धों
अथवा रिश्तों में, हल्की प्यारी आँच, जो
बराबर उसके जीवित होने का अहसास दिलाती रहती है.
...पूजा
और मोना मुझसे अब तक खुल गए थे— बहुत ज्यादा. शायद
बच्चे ही सबसे जल्दी दोस्त बन जाते हैं..और इसमें वक्त बिलकुल नहीं लगा था, मुझे
पता ही नहीं चला कब और कैसे?
इस समय हम तीनों एक कमरे में थे.
--भैया, पिट्ठी-घोडा
!
और मुझसे पूछे बगैर मेरी पीठ पर सवार हो गए. पहले
मोना फिर पूजा. चल मेरे घोड़े टिक-टिक-टिक-टिक.चल
मेरे घोड़े...
थोड़ी देर पहले दोनों अपने डैडी को बुला लाए थे. उन्हें देख कर मैं एकबारगी काँप-सा
गया था. लम्बा-चौड़ा, भारी
शरीर-किसी
पुलिस-ऑफिसर
की तरह. और
सूरत भी किसी सूरत में अच्छी नहीं कह सकते. और इसी वजन की भारी गूँजती आवाज... जैसे
आसपास की सारी चीजों से ऊपर... और लगभग बुलडोजर की तरह रौंदती
हुई...
उनको
सुन लेने के बाद लगता,आस-पास एक गहरी खामोशी पसर गई है. मैंने
जब उनको नमस्ते में हाथ जोड़े थे, उनके चिपके से मोटे होठों की
लम्बाई बढ़ गई थी मुस्कान में... मानो रबर को जबरदस्ती खींचकर
लम्बा किया गया हो!
इस वक्त चाचा उनसे दूसरे कमरे में बात कर रहे
थे.
और दोनों मेरे साथ खेल रहे थे. मोना
ने कस कर घोड़े की कान उमेठ दी— ए! रुक
क्यों गया? चल! मैं जोर से हिनहिनाया—ईं-हीं-हीं-हीं
ई-ई-ई! दोनों
एकदम खिलखिला उठीं., एक दुधिया झरना फूट पड़ा. और चारों तरफ उजली और शीतल चांदनी बिखर गयी.
तभी उनके पापा की आवाज गूंजी—“पूजा! मोना
!”
चट्टान की तरह कठोर आवाज.
और खिलखिला कर इतराती हुई बहती नदी के आगे सहसा
एक दीवार कड़ी हो गयी, ऊंची और मजबूत दीवार.
--“अपनी
पढ़ाई करो !” फिर वही आवाज उभरी.
सब चुप हो गए.सब
कुछ खामोश हो गया. मैंने कहा,... चुपचाप पढाई करो... शीЅЅЅ
ई-ई-ई! लेकिन
वे अपनी इस आजादी को इतनी जल्दी खोना नहीं चाहती थीं. उल्टा
वे भींची-भींची
हँसी हँसे, मुझे चिढाते हुए-- क्या शीЅЅЅ
ई-ई-?
पूजा अपने स्कूल बैग से कापियां निकाल कर मेरे
सामने बेतरतीबी से फैलाती जा रही थी—ये देख मेरी कॉपी! मिस
ने साइंस में गुड दिया है. और मालूम, मुझे
क्लास में फर्स्ट रैंक मिला है....दिखाऊँ उसका मैडल?... और
ये मेरी इंग्लिश कॉपी देखा...?
और उसकी देखा-देखी
में मोना भी इस होड़ में शामिल हो गयी— भइया मेरी कापी देखो पहले! जाग्रोफी
में दस में दस मिला है! अब मोना पूरे उत्साह से अपनी कापियां
दिखा रही थी. लेकिन पूजा को यह दखलंदाजी पसंद नहीं आई. उसने
अपनी कापी ऊपर रख दी—‘भैया, मेरी
कापी देखो पहले!’ मोना एकदम भड़क गयी. उसने
गुस्से से पूजा की कापी उठा कर एक ओर फेंक दी. कापी
फड़फड़ाती हुई फर्श पर जा गिरी.
मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा.—अरे
तुम लोग लड़ते क्यों हो? मैंने तनिक दबे स्वर में डपटा-पहली
बार.
और
खुद उसकी कापी उठा कर ले आया. बड़े जतन से उसे पूजा के बैग में रखा. मुझे
याद है, बचपन
में पढाई के समय मैं घर में किसी बात की जिद कर रहा था... और
उसी जिद में मैंने गुस्से से अपनी पुस्तक दूर उछाल दी थी— बिना
यह सोचे कि बाबूजी की क्या प्रतिक्रिया रहेगी. बाबू
ने फिर बमक कर मेरी पतली बेंत से सोंटाई की थी— स्साले! रहीस
के औलाद! पढ़ाई नहीं करेगा, बे? आंय
? विद्या
को लात मारता है ! तू तो क्या, तेरा
छाँह भी पढ़ेगा, साले !
--भैया... ये
देखो ट्रीज...! पूजा ने मेरा हाथ पकड़ कर खींचा. मैं
अभी तक घर की याद में खोया था जैसे. वह अपनी ड्राइंग कापी के पन्ने उलटती जा
रही थी और उस पर उंगलियाँ रख कर बताती जा रही थी--- भैया... ये
ट्रीज... इधर
देखो... ये
फ्लावर... और
ये गर्ल डांस कर रही है... और ये डॉग...
उसकी कापी पर अनगढ़ हाथों से बने चित्र थे, ऊबड़-खाबड़
और बेतरतीब. वाटर कलर्स और रंगीन पेंसिलों से बने
हुए.
--“वाह ! इसे
तुमने बनाया है?” मैंने झूठी तारीफ़ की.
वह खुश होकर जरा फूल गयी— “नइ
तो क्या तुमने?”
--“बहुत अच्छा बनाया है! लेकिन
मैं भी बना सकता हूँ और इससे बहुत बढ़िया!”
-- “तुमको आती है ड्राइंग?” वह
अपनी आँखें फैला कर मुझे देखने लगी, थोड़े आश्चर्य से.
--हाँ! मैंने
मजाक के मूड में कहा, और पूरे दावे के साथ— “अरे, मैं
तो तुम्हारी फोटो बना सकता हूँ!”
-- “ अएं--! मेरी
फोटो?
तू
सच्ची मेरी फोटो बना लेगा ?”उसके स्वर में मासूम हैरानी थी.फिर
वह लाड भरी आवाज में मनुहार करने लगी, लगातार.— “भैया,मेरी
फोटो बना दे ना... प्लीज भैया .. चलो
ना!
मेरी
फोटो बना दे...?”
कुछ जिद के बाद मैं मान गया— अच्छा
ठीक है. चल
उधर बैठ आराम से. और वह सचमुच किसी सयानी की तरह बड़े यत्न
और सावधानीपूर्वक बैठ गयी, मानो उसका फोटो खींचा जा रहा हो. मैं
उसकी ड्राइंग कापी के एक सादे पन्ने पर उसका चित्र बनाने लगा. मैं
ध्यान से उसके चेहरे को देखता और पेन्सिल घुमाता. इसमें
कुछ समय लगना ही था, इसलिए मैं उसे बहलाता रहा—पूजा... सीधे
बैठ.. ओ.के..., अरे
नाक से हाथ हटाओ... नाउ स्माइल... अरे
इतना ज्यादा नहीं...
उसके गाल किसी गुब्बारे
की भाँति फूले हुए थे.मैं चित्र बनाते हुए ही उससे बोला—तुम्हारा
नाम पूजा नहीं, गुब्बा होना चाहिए !
“क्या ? क्या?” मोना
हंसने लगी.
गुब्बा! मैंने दोहराया. अब
मोना को एक नया नाम मिल गया पूजा को चिढाने के लिए-- गुब्बा! गुब्बा!. वह
उसे चिढ़ाने लगी.
थोड़ी देर में कागज पर पूजा की मुखाकृति उभर आई. एक
स्केच.
पेंटिंग
में मेरी शुरू से रूचि रही है. घर में ही अपनी कपियों पर ना जाने क्या-क्या
बना लिया करता हूँ. पिछले साल, जब
मैं आठवीं में पढता था, जिला स्तरीय एक चित्रकला प्रतियोगिता
में पुरस्कृत हुआ था. ड्राइंग टीचर चौबे सर ने मेरी पीठ ठोंकी
थी—‘शाब्बाश! अगर
तू इसी तरह मेहनत करता रहा तो एक दिन बड़ा चित्रकार बनेगा! माँ-बाप
का नाम रोशन करेगा. शाबाश!’
लेकिन बाबूजी अभी भी भड़क उठते हैं. मेरी
पेंटरी उन्हें कभी पसंद नहीं आई. अक्सर कहते हैं – ‘पढ़ाई-वढ़ाई
में ध्यान दे. आदमी पढ़ाई से ही गुन सीखता है. ये
पेंटरी-
सेंटरी
का धंधा छोड़!’ लेकिन मैं मानता कहाँ हूँ. समय
मिले तो यह शौक पूरा कर लेता हूँ. लेकिन इधर समय निकल पाना मुश्किल हो गया
है. ऊपर
से रंगों का खर्चा. मुझे लगता है किसी दिन सचमुच छूट जाएगा
यह सब, अपने
आप.
और
भूल जाऊँगा सब कुछ.
दीवार घडी ने अपनी घंटी टुनटुना कर बारह
बजाए तो मोना उठ कड़ी हुई और उकताए स्वर में बोली—ओ
गॉड!
बारा
बज गए!
अपन
तो टीवी देखेंगे बाबा.. और उठ कर ड्राइंग रूम में चली गयी. पूजा
बैठी रही अपना चित्र बनवाते.
मैंने उसकी तरफ देखा
तो किलक कर पूछी—“बन गया मोटू?”
मैं हँस पड़ा,”मोटू
? मोटू
कौन?”
--“तू-ऊ-ऊ
...ओर
कोन!”
मैं मुस्कुराया. यह
लड़की क्या सोच कर मुझे मोटू कह रही है! जबकि मैं अपनी दुबली काया को ले कर
परेशान रहता हूँ. बल्कि दूसरे लड़कों को मुटाते देखकर
कुढ़ता भी हूँ. यह शायद यों ही कह रही है मुझे चिढाने
के लिए.
इस बीच उसके डैडी कहीं बाहर चले गए कुछ काम से. चाचा
उस करे में सो रहे थे. रात भर लगभग जागरण में किए सफ़र की थकान
ने उन्हें नींद के हवाले कर दिया था. थकी-मांदी
दीदी भी सो गयी थी. बड़े-से
ड्राइंग रूम से टीवी चलने की आवाज आ रही थी. मोना ने किसी पल
मुझसे पूछा था, भैया, तुम्हारे
घर टीवी है?
मैंने कहा—नहीं.उसे
आश्चर्य हुआ था. बोली थी, ’क्यों
नइ खरीद लेते एक ठो? हमारे घर तो कलर टीवी है. आ
देख ना ! ‘मैंने कुछ नहीं कहा.
“अच्छा! और
कौन-कौन
है तुम्हारे घर में ?” मैंने पूजा से पूछा.
“
घर
में... सोनिया
दीदी है... वो न फिफ्थ में पढ़ती है. ”पूजा
बता रही है, वो न दादी के साथ चर्च गयी है. चार
बजे आएगी.”
सहसा कुछ याद आया हो उसे जैसे, पूजा
ने पूछा— “तू मेरी मम्मी को देखा है ?”
और मेरा उत्तर सुने बिना ही वह अलमारी में रखी
एक फ्रेम को काफी उचक-उचक कर उठा आई. फिर तस्वीर दिखाते हुए बोली—“देख... मेरी
मम्मी!
सुन्दर
है ना ?”
फ्रेम के भीतर उसकी मम्मी मुस्कुरा रही थी, धीमे-से. मैंने
हाँ में मुंडी हिला दी. वह खुश हो गयी. इतनी
ज्यादा कि उसका चेहरा रौशनी से भर उठा.
पूजा का स्केच बन गया तो वह टीवी देखने चल दी.
मैं आस-पास
घूमने निकल गया.यों ही. पैदल. इस
अपरिचित शहर को जरा पहचानने की कोशिश. बड़े शहर की हर बात यहाँ मौजूद है. सबसे
पहली बात जो दिल-दिमाग को कंपाती है वह है भीड़. और
शोर.
दोपहर
तक आसमान साफ हो चूका था. हल्की धूप निकल आई थी,आगे पहाड़ियों पर चमकती हुई. रविवार
का दिन. चौड़ी
सड़कों पर आते-जाते लोग...
कोई घंटे भर में घर पंहुचा तब उनकी मम्मी
अस्पताल से आ गयी थीं. सोनिया और उसकी दादी भी चर्च से आ चुके
थे.
दीदी
उन सब से बात कर रही थी. और दीदी उनकी मम्मी से ऐसे जल्दी घुल-मिल
गयी थी, इस
पर थोडा आश्चर्य भी हुआ और ख़ुशी भी.
दोपहर में खाना खाने के बाद भी मुझे
सोना नसीब नहीं हुआ. पूजा और मोना ने फिर आ घेरा. मैं
उनके साथ खेलता रहा. खिलाता रहा—बचपन
में खेले गए खेल... जिसे मेरे दादा–दादी
मुझको खिलाते थे.... और कुछ उनके खेल. फिर
खेल तो खेल होते हैं, बच्चे जो खेलने लगे वही खेल बन जाता है.
चाचा ड्राइंग रूम के सोफे पर फिर सो गए. दीदी
वहीं बैठकर कुछ पढने लगी थी, कल
के इन्टरव्यू की तैयारी के लिए. मैं बच्चों के पढने वाले वाले कमरे में.
कुछ देर बाद उनकी मम्मी की अलसाई आवाज आई— ‘मोना...पूजा... कम
हिअर टू स्लीप...’
--‘नो मम्मी ! हम
यहाँ सो रे हैं... भैया के पास!’ मोना
ने चिल्ला कर जवाब दिया. कुछ क्षणों तक उनकी मम्मी की बडबडाहट
सुनाई देती रही...थकान से लिथड़ी, पस्त
बडबडाहट.
अब हम तीनों ने सोने की तैयारी की.फर्श
पर चादर डाल कर. क्योंकि नींद मुझ पर भी अपने जले बुनने
लगी थी. पूजा
बेडरूम से अपना नन्हा-सा तकिया उठा लाई. सोने के लिए अब दोनों ने लड़ना शुरू कर दिया— ‘मैं इस तरफ सोऊँगी. तू
नहीं,मैं
सोऊँगी !...मैं हमेशा इधर सोती हूँ! ’कुछ
देर की झिकझिक के बदाखिर वे शांत हुए, ठीक से अपनी पोजीशन बना कर लेट गए मेरे
आजू-बाजू.
सहसा पूजा ने मुझसे पूछा—“ए
मोटू !
तुमको
‘कानी’ आती
है?
सुनाना!”
मैं उनको एक कहानी सुनाने लगा, यों
ही शेर-भालू
की मनगढ़ंत कहानी. कहानी बीच में थी कि पूजा उठ खड़ी हुई. मैंने पूछा,’कहाँ
जा रही है ?’
-- शिश्शी ई-ई-ई
! और
हँसती हुई भाग गयी.
मोना इस पर बड़बड़ाने लगी—‘इसका
तो ऐसाच्च! घड़ी-घड़ी
शिश्शी !’
उसके आने के बाद रुकी हुई कहानी फिर आगे बढ़ी. मेरी
कहानी ख़त्म हुई. अब पूजा ने अपनी कहानी शुरू की— एक
जंगल था, हाँ. खूЅЅब
बड़ा !
एक
आदमी था. ओर भूत भी था. भूत
जोर-जोर
से चिल्लाता—हू! हू! हू! हू! आदमी
बिचारा डर जाता. फिर राजा ने अपनी तलवार निकाली...
मैं मन-ही-मन
हँसता रहा.उसकी कहानी भी ठीक उसके सामान थी—पवित्र
और अबोध. वह पूरे मनोयोग से किसी बुढ़िया नानी की
तरह अपनी आँखें मटका-मटका कर
कहानी सुना रही थी. उसकी कहानी शुरुआत और अंत से परे थी.
बस एक बहती हुई कहानी थी, जिसमें पता नहीं कब जंगल में राजा आ गया. घोड़ा
आ गया.
फिर
एक घोड़े वाला राजा आ गया. और दोनों कुएँ में
गिर गए. घोड़ा
कुएँ से निकल कर भाग गया. राजा कुएँ में मर गया. फिर
कमरे के पंखे से जेसस उतरा और राजा को जिन्दा कर दिया. फिर...
शाम को चाचा के साथ मैं घूमने निकल गया. चाचा
कोई फिल्म देखने का इरादा कर चुके थे. लेकिन बीच में तेज बारिश शुरू हो गयी. ऐसी
तेज बौछार कि सामने का सारा दृश्य बिलकुल धुंधला गया. हम
एक दुकान में फंसे खड़े रहे. जब तक बारिश ख़त्म हो,फिल्म
का समय बीत चुका था. हम अधभीगे घर पहुँचे. तीनों
बहनें ड्राइंग रूम में पढ़ाई कर रही थीं. मोना और सोनिया
डाइनिंग टेबल के सामने रखी कुर्सियों पर बैठी थीं, कुछ
लिख रही थीं. लेकिन पूजा खड़ी-खड़ी
लिख रही थी. शायद कुर्सी में बैठने पर उसके नन्हें
हाथ वहां तक पहुँचते नहीं थे.
पूजा मुझे देखते ही एकदम किलक उठी—ए
मोटू, तू
आ गया !
मोना और सोनिया भी मुझे देख कर मुस्कुरा
पड़ीं.
कोने
में रखे एक सोफे पर क्रीम कलर की साड़ी में उनकी दादी विराजमान थीं, किसी
पहरेदार की भांति पूरी मुस्तैदी और सतर्कता के साथ उनकी पढ़ाई का कठोर निरिक्षण
करती हुईं.
पूजा एक कापी उठा कर दौड़ी-दौड़ी
मेरे पास आयी— ‘भैया देखो ! मिस
ने हमको दस में दस दिया है!’ वह कापी खोल कर मुझे दिखा रही थी.
“और
न...
मोना... मोना..., ”वह
शरारत से मून की तरफ देख-देख कर हँसने लगी, जैसे
मोना का कोई राज बताना चाह रही हो. और
मोना उसे गुस्से से घूरने लगी. लेकिन पूजा पर यह बेअसर रहा, वह
रोक नहीं पाई— “मोना को न साइंस में जीरो मिला है.”
और हँसने लगी.
“पूजा
!”
मोना चिल्ला कर उसे पीटने दौड़ी. लेकिन दादी ने जोर से दोनों को डांटा— “चुपचाप
अपनी पढ़ाई करो !”और दादी मुझे कुछ अजीब, शंकालु
नजर से मुझे गुस्से से घूरने लगी—कथ्थई फ्रेम के पीछे से झांकती उनकी सख्त
आँखें कमरे के तेज उजाले में पत्थर-सी चमक रही थीं. साफ़
था, मेरा
यहाँ होना उनको ठीक नहीं लग रहा था. जैसे मैं निहायत घटिया और तुच्छ होऊँ! और
वे अपने बच्चों को मेरी निकटता से बचाना चाहती हैं.
इस अछूतपन का घिनौना और अपमानित अहसास मुझे
बिच्छू के डंक-सा चुभने लगा... बहुत
तेज जलन के साथ. मैं उठ कर उस कमरे में चला आया जहां पूरी
दोपहर था. मेरी कमीज आधे से ज्यादा भीग चुकी थी. उतारकर
वहीं लटकते तार पर लापरवाही से फैला दिया. कोने में रखी कुर्सी
पर बैठ गया. कोई किताब निकलकर पढने की कोशिश करने
लगा. पर
दिमाग में अभी-भी उनकी तीव्र उपेक्षा की नजरें चुभ रही
थीं .दिल-दिमाग
में एक सन्नाटा भाँय-भाँय करते गूँज रहा था.
खिड़की से भीतर आती बरसात से भीगी ठंडी हवा मुझे
कुछ राहत दे रही थी. बाहर फुहियाँ पड़ रही थीं. यह
कमरा किचन से लगा हुआ था, जहां से मसाले की गंध के साथ साथ उनकी मम्मी
और दीदी के हंसने-बोलने की आवाज आ रही थी.
थोड़ी देर बाद पूजा की धीमी आवाज सरसराई—डैडी
आ गए.
कुछ
ख़ट-पिट
के बाद वहाँ फिर एक गहरी खामोशी छा गयी.
--“पढ़ रहे हो तुम लोग...!”
उनके डैडी की वही भारी गूंजती आवाज, “सोनिया, तुम्हारी
मैथ बुक ले आया हूँ. ये है. अब
इसे गुमाओगी तो ठीक नहीं होगा. सम्हाल कर रखना.”
..... शायद सोनिया के होठों
पर हलकी थिरकन हुई होगी...
फिर चाचा
और उनके डैडी बेडरूम में चले गए.
कुछ ही देर बाद कमरे की नम बरसाती हवा
में बेड रूम से आती एक और गंध चुपके से घुल गयी थी. और
उनके डैडी खुल गए थे. यह पहला मौका था जब उन्हें इतनी बातें
करते मैं सुन रहा था. पता नहीं, कहाँ-कहाँ
भटकती रहीं उनकी बातें... क्लब, राजनीति, उनका
अपना समाज..,. बातें शराब की खाली और आकर्षक बोतलों की
तरह लुढ़क रही थीं...
पूजा से शायद बिलकुल नहीं रहा गया होगा, वह
मुझसे और देर तक दूरी सहन नहीं कर सकी होगी, तब अपना स्कूल बैग
उठा कर मेरे कमरे में आ गयी, खूब किलकी हुई और जोर से मम्मी को बताती
हुई, ’मम्मी, मैं
भैया के पास पढूंगी!’ पढना कहाँ था, बैग
एक ओर फेंक कर
पास आ गयी और बोली—“चल, वोई
खेलेंगे...चोर पुलिस..! ओर
क्या...?”
अबकी मैंने कहा—कुछ
नहीं.चुपचाप
पढ़ाई करो!
“ ऊँЅЅ,अभी
नइ. इत्ता
तो पढ़ा. तू
भी नइ पढ़!” और अपने हाथ से मेरी किताब छीन ली.
--“पूजा ,तुम
समझती नहीं हो. अरे नहीं पढूंगा तो फेल हो जाऊँगा !”
--तो हो जा! पूजा
ने कहा तो मैंने बनावटी मायूसी ओढ़ ली. तो पूजा एकदम ममता से पिघल गयी— “अरे
नइ-नइ... मैं
तो ऐसेइ बोल रही थी. तो पास हो जा, हाँ. मोटू... तू
कित्ता पढ़ता है?” वह मुझे किसी नन्हीं चिड़िया की तरह लगी
जो बहुत मीठी आवाज में टिंव-टिंव कर रही हो.
मैंने मजाक किया—“क्लास
वन !”
वह खिलखिला पड़ी खुल कर---‘ नइ-नइ...तू
झूट बोल्ता है!’ तभी जाने कैसे, उसी
कमरे में मोना और सोनिया आ गयी. और वे यहीं पढ़ाई करने लगे. सोनिया
भी सुन्दर थी- अपनी मम्मी की तरह. पर
इन दोनों से शांत. बीच-बीच
में कोई कसन होता जिसमें तीनों हँस पड़ती उन्मुक्त. लहरों
की तरह खिलखिलातीं. मैं देख रहा था, और
अनुभव कर रहा था, तीनों बेहद खुश हैं, जैसे
काफी दिनों के बाद किसी गहरे दोस्त से मुलाकात हुई हो.
सोनिया दो मुसम्बियाँ ले आई. अच्छे
बड़े मुसम्बी. बोली—भैया, इसे
छील दो. हमसे
नइ छिलता.
मेरे मुसम्बी छिलते तक पूजा रटती रही—भैया
हमको बड़ा देना.. हमको बड़ा देना. और
मैं उसे बाकायदा विश्वास दिलाता रहा कि यही होगा. जब
छिलके उतर गए, मैंने जोर-शोर
से घोषणा की— ‘जो बड़ा है उसे बड़ा मिलेगा और जो छोटा है
उसे छोटा...’
सबसे छोटी पूजा. मचलकर
रोने लगी. लेकिन जब मैंने बड़ा हिस्सा दिया तो खुश! आंसू
उसकी आँखों में चमक रहे थे.
पढ़ते-पढ़ते तीनों बीच-बीच
में मम्मी से एक दूसरे की शिकायत करती थीं— मम्मी... देखो,
मोना नइ पढ़ रही है.!
वे क्षण थे—एक
साफ़,उजली
धूप से चमकती सुबह के समान. या एक छलछलाती नदी, जिसमें
मैं बहे जा रहा था, आत्ममुग्ध-सा, अभिभूत. पूरी
तरह खोया हुआ. दुनिया-जहान
की सारी परेशानियों से दूर. वहाँ सब कुछ सुखी था. बहुत
मीठी अनुभूति और अनुपम! एक अद्भुत कोमल संसार!
किचन से उसकी मम्मी की लम्बी गुहार आई, ’पूजा,पढ़
रही है तू?’
“येस मम्मी !”शरारत
से मुस्कुरायी और जोर-जोर से पढने लगी— ‘आई
वाक् विद माई लेग... आई सी विद माई आई...’. फिर
अचानक चुप हो कर धीरे-से बोली, ’देख, मैं
मिस तू स्टूडेंट..हाँ? और
अपनी कापी के सवाल मुझसे पूछने लगी, अपनी टीचर मिस थामस के अंदाज में.
तभी अचानक बेडरूम से उनके डैडी की आवाज आई—“पूजा!”
“जी
डैडी !”
एकदम हडबडा कर भागी...भयभीत हो कर..
डैडी की आवाज—“दिनों
के नाम याद हो गए...?”
--“जी...सन्डे...मंडे...”
उसकी आवाज लड़खड़ा रही थी.
--“विद
स्पेलिंग ?”
..............
---“याद करके आओ! अब्भी!”
लौटी तो चेहरा सफ़ेद हो गया था. आ कर
एक और धीरे से बैठ गयी चुपचाप. वह याद करने लगी, सहमी-सहमी-सी. मुझे
समझ नहीं आया कि क्या करूँ. एक अजीब परायेपन के बोध ने मुझे खामोश
कर दिया था. भीतर तक सी दिया था. पराया. अधिकारहीन. मुझे
अच्छा नहीं लगा था. सोनिया और मोना भी चुपचाप पढ़ाई करने
लगी थीं. कमरे
की हवा एकाएक भारी हो गयी थी.
थोड़ी देर में ही मन इस बोझिल वातावरण से ऊब गया. कुछ
नहीं सूझा तो पूजा को प्यार से गोद में बिठा लिया— “गुब्बा, डैडी
से डर लगता है? अरे हमको तो तुम्हारी दादी से डर लगता
है...बाप
रे !!”
उसकी मुस्कराहट लौटी. मुझे
अब वैसी रिक्तता और बेचैनी महसूस नहीं हो रही थी.
मैं अभी खाना खा कर उसी कमरे में लेटा था- अकेला. जाने
क्या कुछ सोचता हुआ.
...खाना खाते वक्त उसके डैडी ने मुझसे कहा
था— ‘बहुत
शैतान है. तुम्हारे साथ बहुत खेलती है.’ उनकी
आँखों में जैसे शराब की मुस्कुराती तरलता थी.
मैं लेटा-लेटा
सोच रहा था दीदी के इन्टरव्यू के बारे में. सलेक्शन होगा या नहीं...? हाँ...या
नहीं...?
--“ए मोटू, तू
सो रा है?” मैं चौंक पड़ा सुनकर. पूजा
आ गयी थी, वैसी ही मुस्कुराती... पवित्र
और ठंडी चांदनी-सी उजली मुस्कराहट. मुझे
इस समय उसका आना ठीक नहीं लगा. वह मेरे बाजू में पेट के बल लेट गयी और
अपने नन्हें-नन्हें सफेद पैर उछाल कर खेलने लगी.
“मैंने
वो फोटो डैडी को दिखाई थी..”
“पूरी पागल है तू तो !,” मैंने
कहा,
“अच्छा क्या बोले...?”
“कुछ
नइ...
दादी
भी कुछ नइ बोली.”
“फिर...?” मेरी
धड़कन अनायास बढ़ गयी, मानो मेरा परीक्षाफल अब घोषित ही होने
वाला है.
“ मम्मी
को दिखाया तो बोली अच्छा है.”
मैंने शायद सुना नहीं. मेरे भीतर एक शून्यता फ़ैल रही थी धीरे-धीरे. जैसे
मेरी चेतना गायब होने लगी थी. उस क्षण मैं कुछ भी नहीं सोच पा रहा था. चाह कर
भी नहीं. लगा, सहसा
अँधेरा मुझे लीलता जा रहा है. जाने क्यों मुझे घर की याद आ रही थी... माँ-बाबूजी
की याद आ रही थी, अपना मोहल्ला, पास-पड़ोस
याद आ रहा था... सब कुछ बहुत तेजी से याद आ रहा था...
तभी मुझे देखते हुए पूजा ने आहिस्ता से पूछा— “मोटू
भैया,हाँ, तू
कल चला जाएगा...?”
“ हाँ,जाना
तो पड़ेगा पूजा... तुमको किसने बताया ?” मैं
उसे बहुत ध्यान से देखने लगा.
“मम्मी ने....तू
ओर नइ रुकता...?”
उसके मासूम सवाल पर मैं धीरे-से मुस्कुरा पड़ा.
“ फिर कब आएगा...?” पूजा
का पैर उछालना बन्द हो चुका था. सफ़ेद तरल आँखों में काली गोटियाँ डबडबा
रही थीं.
“क्या
मालूम. ”मैंने
अनिश्चिंतता से कहा.
“कब्भी
नईЅЅ?” उसने सीधे मेरी आँखों में देखा.
“अरे
आऊँगा!
बुलाएगी
तो क्यों नहीं आऊंगा?” मैंने झूठ कहा. उसके
मायूस चेहरे को देख कर मैं घबरा-सा गया था.
“हाँ,फिर
आना.”
कुछ
क्षण चुप रहने के बाद पूछी, ”कल कित्ते बजे जाएगा ?”
“बारा
बजे.”
“फिर
तो मैं स्कूल में रहूंगी.कैसे मिलूंगी?” फिर
कुछ सोचती हुई बोली, ”अच्छा, कल
मैं स्कूल नइ जाऊंगी.”
“नहीं तुम स्कूल जाना.”
“नइ
जाऊंगी... कल
तो गेम्स होता है, नइ जाऊंगी एक दिन तो क्या हो जाएगा? आँ... लेकिन
डैडी...?”
वह सिमट कर मुझसे सट गयी. मैं उसकी नन्हीं देह की गंध और गरमाहट
से भर उठा. मैं स्नेह से उसके मुलायम सुनहरे बालों
को सहलाता रहा. चुपचाप.
अचानक पूजा बोली,भैया...तू
मेरे साथ सोना हाँ? मोना को अंकल के पास सुला देंगे. उसे
तो ठीक से सोना नइ आता.”
मैं हलके-से मुस्कुराया.
--पूजाЅЅЅआ
! बेडरूम
से उसके डैडी की पथरीली पटकी हुई खीजी आवाज आई.
--आईЅЅЅ ! वह
उठ कर चली गयी. बेडरूम से उसके आख़िरी शब्द तैरते हुए आए—मोटू
भैया...
गु-ड-ना-इ-ट !....
मुझे नींद नहीं आ रही थी. ग्यारह बजने की सूचना अभी-अभी
दीवार घड़ी ने दी थी. यहाँ गजब की ठण्ड पड़ रही थी. शायद
पहाड़ी इलाका होने से ठण्ड कुछ ज्यादा ही थी. चाचा ने ठण्ड की मार
से बचने के लिए जब रजाई माँगा था, तब उनकी मम्मी देर तक हँसती रही थीं —‘इतनी
गर्मी चढाने के बाद भी आपको ठण्ड लग रही है! कमाल है भैय्या !’
नाइट बल्ब की धुंधली हरी रोशनी में दीवारों पर टंगे पेंटिग्स अस्पष्ट चमक
रहे थे. जाने
क्यों, मैं
बार-बार
सोच रहा था, पूजा कल स्कूल जाएगी ? स्कूल...?
...और
थोड़ी देर पहले का गुडनाइट अभी-भी जैसे कानों में गूँज रहा था.
(रचना
वर्ष 1987
)
सम्पर्क -
सम्पर्क -
41, मुखर्जी
नगर,
सिकोलाभाठा, दुर्ग (छ.ग.)
सिकोलाभाठा, दुर्ग (छ.ग.)
पिन- 491001
मोबाईल - 9827993920
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 100वां जन्म दिवस - नेल्सन मंडेला और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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