संदीप तिवारी की कविताएँ



संदीप तिवारी

रचनाकार जब केवल इस बिना पर अपने को विशिष्ट समझने लगता है कि वह लिखता है तो अपने को गलतफहमी में डाल रहा होता है. अपने को विशिष्ट समझना हमको सामान्य से बिल्कुल अलग कर देता है. और जब इतने विशिष्ट हो जाएँ कि आम लोगों, आम जनजीवन को हिकारत की नजर से देखने लगें तब रचना भी आपसे उतनी ही दूरी बना लेती है. किताबों से अलग हट कर भी एक बड़ी दुनिया है. वह दुनिया जिससे हमें अपने लेखन का खाद-पानी अबाध रूप से मिलता रहता है. संदीप तिवारी युवा कवि हैं. इनकी कविताओं में किताबों के बाहर जिन्दगी से टकरा कर कविताओं को पाने की जद्दोजहद स्पष्ट तौर पर दिखायी पड़ती है. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं युवा कवि संदीप तिवारी की कविताएँ

          
संदीप तिवारी की कविताएँ


बुरा मत मानना


बुरा मत मानना,
कि लाखों के तादाद में
पैदा कर रही हैं
बेरोजगार, किताबें...
बुरा मत मानना

बुरा मत मानना,
कि ख़यालों की दुनिया में पहुंचा कर 
एक जीती-जागती दुनिया से 
हमें अलग कर रही हैं, किताबें....
बुरा मत मानना

बुरा मत मानना,
कि दो कमजोर आँखें
चश्में का सहारा ले कर
देखती हैं कई सपने,
जिन्हें बेरहमी से तोड़ देती हैं, किताबें...
बुरा मत मानना

बुरा मत मानना,
कि शक़्ल कीड़े की तरह हो जाती है
और आदमी को आदमी
नहीं रहने देती हैं, किताबें....
बुरा मत मानना

बुरा मत मानना,
कि एक होशियार पाठक
जिसे अब भी मुहब्बत है तुम से
वह चला रहा है रिक्शा
कर रहा है मज़दूरी
उसके हालात का ज़िम्मेदार कौन है?
गुनाह किसका है और गुनहगार कौन है?
उसे चैन से सोने नहीं देती हैं, किताबें.....
बुरा मत मानना

बुरा मत मानना,
कि जो सजा कर रख लेते हैं तुम्हें
वह तुम्हें देखते हैं, परखते हैं
पढ़ते कम है
ग़लत क्या करते हैं?
सही तो करते हैं, किताबें...
बुरा मत मानना
अब हम भी चलते हैं
बुरा मत मानना!



बुद्धिजीवी लोगों के लिए 

किसी बंद जगह में
दिन भर बैठ कर छींकने वाले लोगों..
बाहर निकलो,
किसी रेल की खिड़की से
दुनिया को झाँको,
बड़ी खूबसूरत दिखेगी यह....
शीतल हवाओं में मुस्कराती
और नाचती हुई यह दुनिया
बहुत ही ताजी लगेगी तुम्हें!!
तुम्हारे बंद बदबूदार कमरे से बहुत साफ़...


यही तो जीवन है


बरसात जा चुकी है
और आ गयी है ठंड..
सिरहाने लटक रहा छाता
अब बेकार हो चुका है
ठीक वैसे ही,
जैसे किताबें हो चुकी हैं बेकार...
और रैक में पड़े-पड़े
फांक रही हैं धूल,
कुर्सी महीनों से मेरे 
बैठने का इंतज़ार कर रही है..
इतना ही नहीं,
आजकल अँधेरे से दोस्ती 
इस कदर बढ़ गयी है 
कि लाइट का बिल भी कम आ रहा है....
निरर्थक लगती हुई
इन तमाम चीज़ों के बीच
सोना मज़बूरी है कि ज़रूरी 
कह नहीं सकता...!
हाँ इतना कह सकता हूँ कि
सुबह जब सूरज उगने को होगा
चिड़िया चहचहायेगी,
और बोलेंगे मुर्गे,
तो खुल जाएगी मेरी नींद,
और हड़बड़ाकर भागूँगा
ओस पड़ी हुई सड़कों पर....
क्योंकि चौराहे पर कर रहा होगा
कोई मेरा इंतज़ार,
बड़ी देर से...
इन तमाम निरर्थक चीजों को भूलते हुए,
दिन ऐसे ही गुज़र जाएगा
हँसते-खिलखिलाते......
और फ़िर शाम को
अपने ही कान में धीरे से कहूँगा
कि, यही तो जीवन है दोस्त!
अधूरा, अधकचरा और अधखिला,
जो कभी पूरा ही नहीं होता..!



लिबास

मेरी नज़र में
ये लिबास....
कुछ भी नहीं,
जो भी है
बस एक समझौता है..
सुई-धागे
और दो पनीली व नंगी आँखों में...!


ये सब भी इसी देश के वासी हैं


उन्हें नहीं पता कि
कहाँ हो रहे हैं युद्ध,
कहाँ चल रही है गोली
और कहाँ से आ रही है बोली
शाम को खेतों की और जा रही महिलाएं
मगन थीं अपनी-अपनी दिनचर्या में,
बाज़ार से लौट रहे काका के झोले में
भरी थी सिर्फ़ एक किलो मूली
जिसका साग भी बनेगा और सलाद भी।
भाई अभी लौटे थे 
धान का खेत देख कर,
कुछ उदास से थे!
शायद फसल इस बार मन की नहीं है
पिता जी बाज़ार गये हैं
लौटेंगे देर रात तक.......
और माँ भुनभुनायेगी 
कि कहाँ थे??
भला ये भी कोई घूमने का 'बख़त' है....
ये सब भी इसी देश के वासी हैं
अपने फटेहाल औ उबाऊ ज़िन्दगी के मालिक,
गोलियों की आवाज़ 
यहाँ तक नहीं पहुंचती होगी शायद!!


अकेला आदमी


अकेला आदमी
ढोता है
कई आदमियों के दुःख,

अकेला आदमी 
रोता है
कई आदमियों के आँसू,

पर कई आदमी मिल कर भी
नहीं समझ पाते 
अकेले आदमी का दर्द!
   
बात

जिसे पढ़ना था 
पढ़ लिया होगा....
उदास आँखों के कोरों से
कई बात थी
टपकी...!
 

हक़दार

रूप-रंग में अलग होते हुए भी
कुत्ते,
एक ही स्वर में भौंकते हैं,
चाहे वह इलाहाबाद के हों
दिल्ली के हों
नैनीताल के हों,
या फ़िर हैदराबाद के हों...।

नाक-नक्श में अलग होते हुए भी
आदमी,
'भूखा आदमी'
चाहे वह इलाहाबाद का हो
दिल्ली का हो 
नैनीताल का हो
या फ़िर हैदराबाद आदि का हो,
एक ही तरह 'ठगता' है...।

इन अलग-अलग जगहों पर
जब मैं पहली बार गया
तो मुझे रिक्शे वाले
होटल वाले
ऑटो वाले
एक जितने चालाक दिखे,
जैसे वह सूंघ के जान गए हों
आदमी नया है....

फ़िर मैं सोचता हूँ
कि कितना बड़ा काम है यह .....
किसी बड़े संस्थान का मुंह देखे बगैर
इन भूखे पेटों ने,
देश की विभिन्नताओं को मिटा दिया।
भाषा की दूरियाँ और मजबूरियां
पेट के आगे 
सिमट के बौनी हो गयीं।
इसलिए मुझे लगता है
कि भारत रत्न का हक़दार
न नेता है
न अभिनेता है
न खिलाड़ी है
न कलाकार 
हक़दार है, तो केवल पेट
'भूखा पेट......


सम्पर्क-

संदीप तिवारी, शोध छात्र

कुमाऊँ विश्वविद्याल, नैनीताल


मो. 9026107672

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. This is really heart touching poetry Sandeep. Wishing you many more creativity. Ati uttam :-)

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही उम्दा कविताएं सर। आम जनजीवनसे जुड़ी हुई ये कवितायें मानो इस आधुनिक चकाचौंध दुनिया से दूर फिर किसी गाँव और धान के खेतों में ले जाती हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. सभी कविताएं बहुत अच्छी लगीं, किताबों के बारे में सच ही लिखा है। अकेला आदमी, ये सब इसी देश के... आदि कविताएं ध्यान खीचतीं हैं।
    कुल मिलाकर अच्छी कविताएं हैं। कवि को बधाई ��

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'