बसन्त त्रिपाठी पत्र : एक अज्ञात मित्र को पत्र (संदर्भ : मुक्तिबोध)


मुक्तिबोध


यह वर्ष मुक्तिबोध का जन्म शताब्दी वर्ष है. मुक्तिबोध को ले कर तमाम बहस-मुबाहिसे हो रहे हैं. कुछ पक्ष में तो कुछ विपक्ष में. तमाम पत्र-पत्रिकाओं के अंक प्रकाशित हो रहे हैं. ऐसा होना सुखद है. मुक्तिबोध ने संघर्ष भरा जैसा जीवन जिया और जिसे अपने शब्दों में ढाला, कभी नहीं चाहा होगा कि उनकी आलोचना न हो. उन्हें यह पता था कि मठों और गढ़ों को तोड़ने का आह्वान जोखिम भरा है और उस क्रम में भी उन पर तमाम प्रहार होने हैं. इस लेखे से उनकी आलोचना भी एक तरह से उनकी विजय है. मुझे बुद्ध का कथन याद आता है जिसमें अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए वे कहते हैं – ‘मेरे उपदेशों को तर्क की कसौटी पर कसो. और अगर वे उस कसौटी पर खरे उतरें तभी उन्हें मानो. अन्यथा की स्थिति में समय के अनुसार उनमें संशोधन कर के स्वीकार करो.’ कवि बसंत त्रिपाठी ने ‘एक अज्ञात मित्र के पत्र’ के माध्यम से मुक्तिबोध के सन्दर्भ में कुछ महत्वपूर्ण बातें उठाईं हैं. आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं बसन्त त्रिपाठी का यह पत्र.

             

एक अज्ञात मित्र को पत्र
(संदर्भ : मुक्तिबोध)

बसंत त्रिपाठी



प्रिय मित्र,


अब जब कि मैं तुम्हें पत्र लिखने बैठा हूँ और तय किया है कि पिछले कुछ महिनों से जैसे मुक्तिबोध को पढ़ता रहा हूँ उसी पर केंद्रित रहूँगा, अजीब मुश्किल में हूँ. मेरी मुश्किल दो तरह की है. पहली तो यह है कि उनका लिखा मुझे जिस तरह से बेचैन करता है क्या मैं उसे तुम तक ठीक-ठीक पहुँचा सकूँगा? इसी से लगा एक और सवाल सिर उठाने लगता है कि उनका लिखा मुझे बेचैन क्यों करता है? और दूसरी मुश्किल यह है कि आखिर मुक्तिबोध ही अकेले ऐसे रचनाकार क्यों हैं जिनकी स्वीकार्यता और नकार, दोनों ही तरह के तर्क बहुत जेनुविन लगते हैं? तुम अन्य लेखकों को देखो, या तो तुम उनकी रचनात्मकता के साथ रहोगे या उसके विरोधी. लेकिन मुक्तिबोध को पसंदगी और नापसंदगी के ऐसे काले-सफेद भागों में बाँटा नहीं जा सकता. और ऐसा विभाजन जन्म-शताब्दी वर्ष में उन्हें याद करते हुए भी नहीं हो पा रहा है. दूसरे लेखकों के जन्म-शताब्दी वर्ष के उत्सव या तो श्रद्धा से भरे हुए थे, विरोधी प्रायः चुप रहे. कुछेक लोगों की दर्ज़ असहमतियाँ कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनी. उस पर कान नहीं दिया गया. लेकिन मुक्तिबोध के पक्ष और विपक्ष दोनों के ही बीच तीखी बहसें हुई और हो रही है. फेसबुक में तो कुछ लोगों ने मोर्चा ही खोल रखा है. इसमें ऐसे कई लोग हैं जिन्हें मैं पसंद भी करता हूँ.


तो क्या इसे मुक्तिबोध की जीत नहीं माना जाएगा? मैं तो इसे मुक्तिबोध की रचनात्मकता की जीत ही मानता हूँ. क्योंकि वे ऐसे रचनाकार हैं जो अपने पाठकों - जिनमें उनके मुरीद और विरोधी दोनों ही शामिल हैं - को चुनौती देते हैं. कारण यह है कि मनुष्य का जो सभ्यतागत स्वभाव होता है, श्रेष्ठता का प्रदर्शन और निम्नता का गोपन, मुक्तिबोध उसे नहीं मानते. वे अपनी हर साँस को दर्ज करने को व्याकुल रहते थे. याद करो कला के तीन क्षण की संकल्पना. क्या उनके अलावा कोई दूसरा तुम्हें दिखाई पड़ता है जो पहले क्षण के हर अनुभूत सत्य को जिद के साथ, निर्ममता के साथ, डाँट-डपट कर या जबर्दस्ती तीसरे क्षण के पाले में घसीट कर ले जाने की कोशिश करे? मुझे तो नहीं दिखता. तुम्हें दिखे तो बताना. इसलिए शुरू में ही मैंने कहा कि मुझे मुक्तिबोध बेचैन करते हैं.


इधर कई महीनों से मैं मुक्तिबोध को केवल रचनात्मकता का आस्वाद लेने के लिए ही नहीं बल्कि यह जानने के लिए भी पढ़ता रहा कि दुनियावी तकलीफों-समस्याओं से लिथड़े व्यक्ति को अपनी बेहतरी को पाने के लिए, जो कि उसका स्वप्न है, किन दुर्गम रास्तों से हो कर गुजरना पड़ता है? उसे कौन-से मठ और दुर्ग तोड़ने पड़ते हैं? कोई कैसे अपनी आत्मा पर रंदा और बसूला चला कर खुद को लहूलुहान करता रहता है और वह भी किस लिए? अपने एक वादे को निभाने के लिए कि – 


ऐ हिंदुस्तानी फटेहाल ज़िंदादिल ज़िंदगी
                  तेरे साथ तेरा यह बंदा नित रहेगा. 

प्रिय मित्र, यह मुक्तिबोध की एक भूली-बिसरी कविता ‘गुलामी की जंजीर कब टूटेगी’ की पंक्तियाँ हैं. आज़ादी मिलने के लगभग दो वर्ष पहले लिखी हुई. क्या ज़रूरत थी इन पंक्तियों को ताउम्र जीने की? लेकिन बेमानी है यह सवाल. मुक्तिबोध अपने कहे को ही नहीं अपने अनकहे को भी जीते रहे. जीते रहे और सपने देखते रहे. सपने देखते रहे और टूटते रहे. जब ज्यादा टूटे तो बीड़ी के ज्यादा लंबे कश खींचे. और एक दिन अपने शरीर को राख की तरह झाड़ कर हमेशा के लिए चले गए. 


यकीन जानो, मुक्तिबोध की इस बेचैनी को वह व्यक्ति कतई नहीं समझ सकता जो यह मान कर चल रहा हो कि वह स्वभावतः प्रगतिशील है कि अब उसने हर तरह के द्वंद्वों को जीत लिया है कि उसने सारे मठ और दुर्ग ढहा दिए हैं कि अब वह विचार के चरम पर पहुँच चुका है. लेकिन इस ऊँचाई से भला कोई रचना या रचयिता को पकड़ पाता है? मुक्तिबोध को वह भी नहीं समझ पाएगा जो उनकी आड़ में प्रगतिशीलता पर आक्रमण करना चाहता है. मुक्तिबोध की एक बात शायद तुमने गौर की होगी कि वे प्रगतिवाद और प्रगति-विरोधी दोनों से ही जिरह करते हैं. इसलिए उनका कोई गुट नहीं बन पाया. इसका मतलब यह नहीं कि उनके संगी-साथी नहीं थे. इस मामले में वे हिंदी के दुर्लभ रचनाकार हैं कि जिन्हें अपने स्नेही जनों का इतना प्यार मिला. मुक्तिबोध का उनसे सतत संवाद चलता था. और यदि तुम गौर करोगे तो पाओगे कि उनकी बहुत-सी रचनाओं में संवादानुकूलता की तीव्र आकांक्षा दिखाई पड़ती है. 


मुझे केदार नाथ अग्रवाल और नागार्जुन ताकत देते हैं, निराला प्रेरणा देते हैं, शमशेर को पढ़ कर अभिभूत हो जाता हूँ. प्रेमचंद दुनिया को समझने की नज़र देते हैं. त्रिलोचन पांडित्य से मुक्त होने की राह सुझाते हैं. अज्ञेय से मितव्ययता सीखता हूँ. रघुवीर सहाय से एक नागरिक की छटपटाहट को जानता हूँ. और भी बहुत से रचनाकार हैं जिनसे मैं बहुत कुछ सीखता हूँ. जो मुझे बहुत कुछ देते हैं. अब चाहे तुम इसे मेरी कम-अक्ली कह लो या काबिलियत की सीमा कि इतने बड़े रचनाकारों से मैं कितना कम सीख पाता हूँ. लेकिन मुक्तिबोध हाथ में रंदा और बसूला दे कर कहते हैं कि अपने व्यक्तित्व की चीर-फाड़ करो और यदि यह नहीं कर सकते तो तुम्हें दूसरों की चीर-फाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है. 


मुक्तिबोध का रचनात्मक लेखन अपने ही व्यक्तित्व के अंतर्निहित-छिपे-उघड़े कोनों की जासूसी है. इसी जासूसी में कुछ लोग उनकी कमज़ोरी की परतें तलाशते हैं. वे लोग इस पर जरा भी गौर नहीं करते कि खुद मुक्तिबोध ने उन्हें यह सुविधा दी है. उन्होंने खुद ही अपने व्यक्तित्व की सीमाओं से उन्हें परिचित कराया है. यह कमजोरी नहीं मज़बूती है. क्योंकि दुनिया के बारे में निर्मम होना आसान है लेकिन अपने बारे में निर्मम होने के लिए साहस चाहिए. क्या तुम्हें उनके अलावा कोई दूसरा ऐसा दिखता है जो खुद को ऊँचाई से नहीं निर्मम तटस्थता के साथ देखता है? इसे मैं व्यक्ति और सार्वजनीनता के स्वाभाविक संघर्ष के रूप में देखता हूँ. जो ऐन आज़ादी के समय बुद्धिजीवियों के भीतर भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए जन्म ले रही थी. और इसका केंद्र केवल अवसरवाद नहीं था भविष्य का स्वप्न भी था. मुक्तिबोध ने इसे अपनी रचना में केवल जिया नहीं, आलोचना में इसके प्रतिमान भी विकसित किए. ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ में उन्होंने जीवन को त्रिकोणात्मक कहा है. इस त्रिभुज की पहली भुजा मनुष्य का बाह्य-जगत है. दूसरी भुजा उसका आंतरिक जगत है. और इस त्रिभुज की आधार रेखा है व्यक्ति की चेतना. यही कलाकार का भी जीवन है. यदि मुक्तिबोध के इस त्रिभुज को तनिक और विस्तार दें तो पहली भुजा का संबंध इतिहास, दर्शन और संस्कृति से है. दूसरी भुजा उसका मनोविज्ञान है और तीसरी भुजा है – विचारधारा. समूचा कला-व्यापार इन तीनों भुजाओं के आपसी घर्षण और तनाव का परिणाम है. प्यारे मित्र, तुम खुद देखो कि कला और कलाकार को इतनी समग्रता में देखने की अंतर्दृष्टि उस समय और किसके पास थी? ऐसा नहीं है कि मुक्तिबोध की सीमाएँ नहीं थी और सीमाएँ किसकी नहीं होती? लेकिन वही ऐसे अकेले रचनाकार हैं जो अपनी सीमाओं की निर्मम आलोचना करते हैं. कई बार सीधे-सीधे और कई बार खुद को एक पात्र के रूप में रख कर. 


यदि मैं मुक्तिबोध के रचनात्मक जीवन को उनका त्रिकोणात्मक त्रिभुज कहूँ तो उसकी पहली भुजा उनकी कविता होगी. इसमें बाह्य संसार की प्रबलता है उनके बाह्य संसार के वस्तुगत अनुभव आंतरिक संसार की खामियों को जीतने के लिए प्रेरित करते हैं. दूसरी भुजा उनकी कथात्मक कृतियाँ हैं. कुछ गिनी-चुनी कहानियाँ जैसे ‘खालिद काका’, वह या ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ छोड़ दें तो उनकी अधूरी कहानियाँ उनके निहायत निजी जीवन की कथाएँ हैं. और तीसरी भुजा है उनकी आलोचनात्मक कृतियाँ-खासकर ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’, ‘कामायनी : एक पुनर्विवेचन’ और कुछ अन्य निबंध. ‘वस्तु और रूप’ शीर्षक से लिखे निबंधों और ‘एक साहित्यिक की डायरी’ को मैं उनके रचनात्मक तनाव की प्रक्रिया जानने का उपक्रम कहूँगा. 


मुक्तिबोध ‘कामायनी’ का भाष्य करते हुए बड़ी बात कहते हैं – रचनाकार या उसके पात्र खुद के बारे में जो कहते हैं उस पर अधिक यकीन मत करो. इस बात पर नज़र गड़ाओ कि उनकी जीवन-स्थितियाँ और रुचियाँ क्या हैं? तुम समझ रहे होगे कि यह ‘कामायनी’ ही नहीं समूची कला के भाष्य का एक महत्वपूर्ण प्रतिमान है. इसे मुक्तिबोध की कविता या कहानियों पर भी लागू किया जा सकता है. क्या मुक्तिबोध का कवि, कथाकार या उनके पात्र किसी हीनतर मूल्यों के पक्षधर दिखाई पड़ते हैं? क्या वे मनुष्य की सीमाओं के प्रति सचेत करते हुए दिखाई नहीं पड़ते? यदि मुक्तिबोध के जीवन की आधार-रेखा यानी उनकी विचारधारा वैज्ञानिक न होती तो शेष दोनों भुजाओं के बीच के तनाव को वे महसूस ही न कर पाते. अन्य रचनाकारों की दूसरी भुजा या तो गायब है या चुप. मुक्तिबोध की दूसरी भुजा पहली से टकराव की स्थिति में है. इसलिए उनका तनाव मुझे जेनुविन लगता है और सोचने के लिए बाध्य भी करता है. मैं औरों की नहीं जानता कि उन्होंने अपने तनावों से कैसे निजात पाई या वे इस पर कभी विचार भी करते हैं या नहीं, लेकिन मेरे लिए मुक्तिबोध ही अकेले ऐसे हैं जो मुझे परिशोधन और स्व-अर्जन की प्रेरणा देते हैं.


मित्रवर, अपने समय के कई आत्म-मुग्ध लोगों के भीतर छिपी काली करतूतों को मैंने ‘ऑफ द रिकार्ड’ सुना है. कइयों के बारे में मैंने औरों से भी सुना है. लेकिन सार्वजनिक रूप में वे महानता के उच्चतर शिखर पर स्वयं-प्रतिष्ठित हैं. इसमें कवि-कथाकार-आलोचक-चिंतक-पत्रकार-संपादक-विद्वान हर तरह के लोग हैं. राजनीतिज्ञों का तो खैर ये सामान्य गुण है. ऐसे लोगों की स्व-निंदा मुझे आडंबर लगती है. ऐसे लोगों को मैं अक्सर बहुत बोलते हुए पाता हूँ. ऐसे लोगों को मैं प्रशंसित और चर्चित भी पाता हूँ. तब मुझे मुक्तिबोध के होने का मतलब और ज्यादा अच्छे तरीके से समझ में आता है. मुक्तिबोध जब दुख और रोष के साथ कहते हैं कि 


‘इस सल्तनत में
हर आदमी उचक कर चढ़ जाना चाहता है
धक्का देते हुए बढ़ जाना चाहता है
हर एक को अपने-अपनी
पड़ी हुई है’

तो जैसे निर्माणाधीन भारत की सबसे निर्मम आलोचना करते हैं. वे मुझे ऊर्जा ही नहीं देते बल्कि अपने अस्तित्व पर चढ़ी मुग्धता की परत को छीलने का हौसला भी देते हैं. 


मुक्तिबोध मुझे इसलिए भी महत्वपूर्ण लगते हैं कि वे यह बताते हैं कि एक कलाकार का स्वभाव कैसा होना चाहिए. हमारा आज का लेखन, और अध्ययन भी, अक्सर एक-पक्षीय होता जा रहा है. अनुशासनों का अतिक्रमण तो छोड़िए, विधाओं का अतिक्रमण भी टाला जाने लगा है. यहाँ मैं क्लासिकीय रचनाओं या सिद्धांतों के अध्ययन की बात नहीं कर रहा हूँ, समकालीन अध्ययन की बात कर रहा हूँ. मुक्तिबोध का अध्ययन मुझे अभिभूत करता है. इतिहास, दर्शन और मनोविज्ञान तो उनके अध्ययन के विषय थे ही, उनका लेखन का फलक भी विस्तृत था. तुम उनके किताबों की विषय-वस्तु की सूची पर एक सरसरी निगाह डाल कर भी इसे जान सकते हो. इन विषयों पर उन्हें काम नहीं करना था. जिन्हें काम करना होता है उन्हें तो अध्ययन करना ही पड़ता है. ये उनकी जिज्ञासा के विषय थे. 


मैं जानता हूँ कि दुनिया महत्तर मूल्यों के संयोजन और विकास से बनती और सँवरती है. हमारा राष्ट्रवादी आंदोलन इसका प्रमाण है. गाँधी जी इतने सफल इसलिए हो पाए कि उन्होंने व्यक्ति और समाज की हीनतर रुचियों की राजनैतिक अनदेखी कर के उसे आज़ादी के महत्तर आदर्श से जोड़ा. लेकिन गाँधीजी ने कभी भी व्यक्ति की हीनतर रुचियों पर बात करना नहीं छोड़ा. कभी-कभी मुझे लगता है कि मुक्तिबोध वैचारिक तौर पर मार्क्सवादी थे लेकिन व्यक्ति की निजता को गाँधीवादी नजरिए से देखते थे. और उसे सतत माँजते रहने का समर्थन करते थे. 


मैंने इधर उनकी प्रसिद्ध रचनाओं को पढ़ने की अपेक्षा कम प्रसिद्ध, अचर्चित और अधूरी रचनाओं को पढ़ने में ज्यादा समय बिताया है. ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष’ की पांडुलिपि पढ़ते हुए इस पर ध्यान केंद्रित किया कि उन्होंने कौन-सी चीजें हटा दीं. यह भी सोचने की कोशिश की कि उनकी इतनी सारी रचनाएं अधूरी क्यों रह गईं. यद्यपि उनकी असमय मृत्यु हो गई लेकिन वे और ज्यादा जीते तो भी इन रचनाओं को शायद ही पूरा करते. इन सब पर विचार करते हुए पाया कि उनका रचनात्मक-स्वभाव एक-रेखीय नहीं वर्तुलाकार है. चीजें बेहद उलझी हुई हैं. व्यवस्था की सूझ-बूझ और चतुराई की बजाय उन्होंने ईमानदारात्मक संयोजन को तलाशने की लगातार कोशिश की. और जहाँ संयोजन नहीं कर पाए उसे वैसे ही अधूरा छोड़ कर नए सिरे से नए निर्माण में लग गए. लेकिन उनकी अधूरी रचनाएँ भूत की तरह उनका पीछा करती रही. मुझे नहीं लगता कि मुक्तिबोध अपनी अधूरी रचनाओं की टीस से कभी मुक्त हो पाए होंगे.


मित्रवर, मैं जानता हूँ कि तुम मेरी बहुत सारी बातों से असहमत होगे क्योंकि तुमने भी मुक्तिबोध को बहुत शिद्दत से और अपनी ही तरह से पढ़ा है. हालाँकि असहमत होने के साहस और विवेक का नाम ही मुक्तिबोध है. चूँकि उनमें कलात्मक ईमानदारी थी इसलिए उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि हम खुद को उलट-पुलट रहे हैं. मुक्तिबोध ने मध्य वर्ग की चूँकि सबसे ज्यादा बात की है इसलिए लोग उन्हें मध्यवर्गीय जीवन-संघर्षों और तनावों का रचनाकार मान लेते हैं जो कि ठीक नहीं है. वे कलात्मक संघर्ष की ईमानदारी को दर्ज करने वाले रचनाकार हैं. इसलिए ईमानदारी का जो भी कायल होगा वह मुक्तिबोध को पढ़ते हुए अपने भीतर भी तनाव को महसूस करेगा. जबकि लोग आत्मकथा तक में अपनी जय-यात्रा को दर्ज करते हैं मुक्तिबोध को पढ़ते हुए अपने ही भुरभुरे पन्नों को पलटना यदि तनाव पैदा करे तो क्या आश्चर्य! 


उम्मीद करता हूँ कि इधर जैसे मैं मुक्तिबोध को पढ़ता रहा हूँ उसकी रूपरेखा तुमको बता पाया. तुम्हारी असहमति का मैं स्वागत करूँगा. और यह उम्मीद भी कि तुम अपनी ईमादार पढ़त से मुझे अवगत कराओगे.


तुम्हारा
बसंत  

बसंत त्रिपाठी








सम्पर्क -   

 
मो. 09850313062

टिप्पणियाँ

  1. नमस्ते, आपकी यह प्रस्तुति "पाँच लिंकों का आनंद" ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में गुरूवार 21 -09 -2017 को प्रकाशनार्थ 797 वें अंक में सम्मिलित की गयी है। चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर। सधन्यवाद।

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