रजत कृष्ण की कविताएँ
रजत कृष्ण |
जन्म - 26 अगस्त 1968
शिक्षा - एम.ए. हिन्दी साहित्य, पी-एच.डी.
साहित्यिक त्रैमासिक ‘सर्वनाम’ का संपादन
विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में कविता एवं लेख विगत
पच्चीस वर्षों से प्रकाशित
पं.रविशंकर शुक्ल विश्व विद्यालय रायपुर में ‘रजत कृष्ण: जीवन की रचनात्मकता एवं रचनात्मकता का जीवन’ विषय पर शोध कार्य
काव्य संग्रह – छत्तीस जनों वाला घर
शोध ग्रंथ - विष्णुचंद्र शर्मा और उनका रचना संसार
शोध पुस्तिका - समय के शब्द (छत्तीसगढ़ की युवा कविता
पर केन्द्रित)
संप्रति - शासकीय महाविद्यालय बागबाहरा में अध्यापन
आमतौर पर हमारी धारणा यही होती है कि ‘अकेला चना भांड नहीं
फोड़ता’। लेकिन कवि तो वही होता है जो मुहावरों/लोकोक्तियों को भी अपनी रचनाओं के
माध्यम से झूठा साबित कर दे। बकौल रजत कृष्ण ‘प्रतिरोध का स्वर/ चाहे एक ही कण्ठ
से/ क्यों न फूटा हो/ पूरा हवा में गुम नहीं होता।’ रजत कृष्ण ऐसे ही जीवट वाले युवा
कवि हैं जो बनी बनायी लीक से इतर अपनी लीक खुद ही बना कर चलने के पक्षधर हैं। उनकी
यह पक्षधरता जीवन के प्रति है। रजत इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि जीवन का शब्द-बिरवा
सारे हथियारों से अधिक तीखा होता है। इसे वे अपनी इन काव्य-पंक्तियों में स्पष्ट
भी करते हैं. ‘जीवन के पक्ष में बोले गए शब्द/ चुभते हैं/ धारदार खंजर को भी।’ और
इसीलिए रजत ने ‘जीवन की वह राह’ चुनी है। जिस पर चलना हमेशा दुष्कर रहा है. लेकिन
यह जीवन भी तो जीवन इसीलिए है कि तमाम खतरों और संघर्षों के बावजूद अपने हरेपन में
हमेशा इस जमीन पर बना रहता है और आगे बढ़ता रहता है। इस पोस्ट को हम ‘पहली बार’ ब्लॉग पर वर्ष 2016 की पहली
पोस्ट के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं. तो आइए पढ़ते हैं अदम्य जिजीविषा के कवि रजत
कृष्ण की कविताएँ।
रजत कृष्ण की कविताएँ
तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना
बुझे मुर्झाए
मेरी हँसी के पेड़ में
टिमटिमा उठी हैं
जो पत्तियाँ आज
उनकी जड़ें
तुम्हारे सीने में टहल रही
मेरे नाम की
मिट्टी-पानी में है।
मेरी आँखों के
डूबते आकाश में
गुनगुनाने लगी हैं
जो तितलियाँ
उनकी साँसें
तुम्हारी हथेलियों में
बह रही
मेरे हिस्से की हवा में है।
ओ जलधार मेरी
हार-हताशा
टूटन और तड़कन के
बीहड़ में बिलमे
जो मुकाम और रास्ते
खटखटा रहे हैं कुण्डियाँ
मेरे पाँवों की
मेरी खातिर बुनी हुई
वह तुम्हारी प्रार्थना है।।
कुछ और चम्मच दुख
जीवन की मेरी प्याली में
दुःख की चीनी
क्या कम थी
जो तुमने उड़ेल दिये
कुछ और चम्मच दुःख!
खैर
कोई बात नहीं
पियूंगा इसे भी...
पीता आया हूँ जैसे गरल
फेनिल काली रातों का।
जीता आया हूँ
लड़-भिड़ कर
साक्षात यम से जैसे
मैं जीऊँगा...।
चिथड़े साँसों की
फिर-फिर सिऊँगा।।
चुप्पी के विरूद्ध
बहुत चुभते हैं तुम्हारे शब्द
जब तुम डाँट रही होती हो।
लगता कि अब तक मुझे
छोटे बच्चे से ज्यादा तुम
कुछ नहीं समझती हो।
बहुत बार सोचता हूँ मैं
बस अब और नही...
ज्यादा छूट की हकदार नहीं तुम
न ही मैं तुम्हारा गुलाम कोई।
पर यह क्या...!
जब तुम कई दफे
मेरी बड़ी-बड़ी गलतियों पर भी
कुछ नहीं कहती
और चुप रहती हो प्रायः
जान-बूझ कर की गई
मेरी मूर्खताओं पर भी
तब लगता है... काश एक बार
डाँट लेती तुम मुझे
और कान उमेठ कर कहतीं
आखिर कब जाएगा बचपना?
कब आएगी अक्ल तुम्हे?
बहुत चुभती है तुम्हारी चुप्पी
हाँ बहुत चुभती
जब तुम्हारे तन बदन में
आग सुलगाते मेरे गुस्से को भी
चुपचाप तुम ठंडे जल सा पी लेती !!
रोटी और आँगन
रोटी बँट कर के खुश होती है?
आँगन खुश होता है
एक रह कर के।
इस बखत
कुछ लोग
इसे फिर उलटना चाहते हैं।
सावधान रहें साथियों,
सावधान ओ देश!
चेहरा नया
लक्ष्य पुराना है।
पक्षधर
खंजर हो
नागरिक के हाथों में
और नागरिक की पीठ ही
हो एक मात्र लक्ष्य
ऐसे वक्त क्या करेंगे आप?
पहचानेंगे हम
खंजर लिए हाथ
और खड़े होंगे
जीवन के पक्ष में।
जीवन के पक्ष में बोले गए शब्द
चुभते हैं
धारदार खंजर को भी।
खंजर चाहे काट ले
जुबान हमारी
हम होंगे पक्षधर
जीवन के ही
हाँ....... जी....व.....न.... के ही।।
गवाही
तालाब में फेंका गया कंकड़
कितना ही छोटा हो
हलचल मचाए बिना
नहीं रहता।
प्रतिरोध का स्वर
चाहे एक ही कण्ठ से
क्यों न फूटा हो
पूरा हवा में गुम नहीं होता।
पीड़ा दबाए कुचले गए लोगों की पीड़ा
कभी पोते को कहानी सुना रहे
दादा की आँखों में उतरता है
तो कभी उन कण्ठों से
फूट पड़ती
जो जमींदार के खेतों में
कटाई करने आई बनिहारिनों की
होती है।
कितने ही जतन कर लिए जाएँ छुपाने के
खून रंगे हाथों की गवाही
कई बार
कटे हुए नाखून ही देते हैं।।
सन्नाटा
भारी होता है सन्नाटा वह
जो फसल कटने के बाद
खेतों में पसरा करता।
सन्नाटा वह भारी होता
उससे भी ज्यादा
बेटी की विदाई के बाद
बाप के सीने में
जो उतरता है।
कम भारी नहीं होता
उत्सव के बाद का सन्नाटा
यों सबसे भयावह होता
सन्नाटा वह
जो उस माँ के सीने में
हर सांझ सचरा करता
जिसके दोनों के दोनों बच्चे
भरी दीवाली में भी
घर से दूर होते।।
व्रत
तुमने आज व्रत रखा
पति के लिए
कुछ दिनों पहले
व्रत रखा था
पुत्र-पुत्रियों के लिए।
तुम व्रत रखती हो
शिव-शंकर को याद करते हुए
राम-कृष्ण और उनके
अन्य अवतारों के नाम भी।
धरती तो धरती
तुम्हारे हिस्से मढ़ा है
व्रत चाँद का, सूरज का
और अमावस्या का भी
वट, पीपल, आँवला
तुलसी सहित रखती हो
व्रत तुम
जानें कितनी ही
वनस्पतियों का!
स्त्री एक बात तो बताओ
क्या कोई व्रत है ऐसा
जिसमें वह पुरूष
तुम्हारा साथ देता
जिसके लिए तुम
रहती हो निर्जला
पुजती हो समझ कर उसे
खाली आदमी
खाली आदमी के पास
शब्द बहुत होते
पर उन्हें सुनने वाले कान कम।
उनके पाँवों के हिस्से में
यात्रा बहुत होती
पर न सुस्ताने को ठौर कोई
ना ही होता कोई अता पता
उनके मुकाम का।
खाली आदमी का
जीना क्या, मरना
क्या?
सौ साल की ठोकर
वह पल-पल जीता है...
हर सुबह
एक और अंधेरी सुरंग में
पाँव धरता है।
यों खाली आदमी
भीतर से पूरा खाली
कभी नहीं होता...
खालीपन की सलाइयों से
भविष्य के नाप का स्वेटर बुनना
वह बुन रहा होता है।।
आज के समय में ईश्वर
आपका ईश्वर कौन है
कहाँ रहता और क्या करता है
कुछ नहीं कहना मुझे आपसे।
हों,
पूछा
मेरे ईश्वर के बारे में
यदि आपने
तो मैं उससे
अपने साथ दफ्तर में
काम करते हुए मिलना पसंद करूंगा।।
देखना चाहूँगा उसे
उस पिता की आँखों में
जो अपनी पाँच साल की बच्ची को
पड़ोस के बूढ़े वहशी को
चंगुल से छुड़ा कर
अभी-अभी हास्पीटल लाया है
सुनना चाहूँगा
लीला वृत्तान्त उसका
उस हरियाणवी माँ के मुख से
जिसके जिगर के टुकड़े दंबगों के हाथों
महज इसलिए भून डाले गए
कि वे जन्मे थे उस दलित कोख से
जिनके लिए हत्यारों के पुरखों के मन में
जगह न थी
और ना ही कभी पसंद आये वे
उन्हें।
आपका ईश्वर कौन है
कहाँ रहता और क्या करता है
नहीं कहना मुझे आपसे कुछ भी
सिवा यह पूछने के
कि कितना कठिन होगा आज के समय में
ईश्वर के लिए भी।
अपने, ईश्वरत्व को बचाना।।
पत्थर के सीने पर घास
कभी दो ईंटो बीच
किलकते-उमगते
दिख जाते हो तुम
कभी खपरैलों पर जमी रह गई
धूल की परतों पर पसरते हुए।
छोटा था जब
एक उम्रदराज पेड़ की खोह में
तुम्हारा हरियाना देखा था
और एक बार घर पिछवाड़े
टूटहे जूतों की तली में
अँखुआना भी,
पर आज तो
कॉलेज के रास्ते बाजू
बड़े से पत्थर के सीने पर
जी भरकर हुलसता देखा तुम्हें !
दुःख से काठ हुआ जाता मन मेरा
तुमसे हिल-मिल कर
हरियल हुआ
पथराते सपनों की तलहटी को मेरे
तुमने मन-प्राण से छुआ !!
(पंजाबी कवि पाश से क्षमा याचना सहित, जिनकी ‘घास’
कविता
कभी पढ़ी थी और उसका प्रभाव मन में बना हुआ है।)
संपर्क -
संपादक-सर्वनाम, बागबाहरा,
जिला-महासमुंद (छ.ग.) पिन-493449
संपादक-सर्वनाम, बागबाहरा,
जिला-महासमुंद (छ.ग.) पिन-493449
फोन: 07707-242578,
फैक्स - 07707-242678
मोबाईल - 9755392532
ई-मेल –
rajatkrishna.68@gmail.com
sarvanam_patrika@yahoo.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
Excellent poetry . Thanks to pahlibar.
जवाब देंहटाएंबधाई, सभी कविताएं शानदार
जवाब देंहटाएंरोटी और आंगन कविता (रोटी बँट कर के खुश होती है/आँगन खुश होता है/एक रह कर के।)... उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं है
प्रभावित करती कविताएँ...बधाई!
जवाब देंहटाएंAgraj Rajat ji Ka pahla kavita Sangrh padha hai. Ye kavitain usse bahut aage ki hain. Bhasha aur kavitai mein vistaar saaf dikhta hai. Sabhi kavitain bahut achchhi lgi. Sarokaaron ke kavi ko is paathk ka Salaam!!
जवाब देंहटाएं- Kamal Jeet Choudhary
क्या बात राजू भैया।बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएं'छत्तीस जनों वाला घर' से लेकर यहाँ तक एक लम्बा सफ़र तय किया है रजत कृष्ण ने लेकिन बेहद कम अवधि में। उस संग्रह में जिन क़दमों की आहट सुनाई दे रही थी वे यहाँ आस्वस्ति में बदल गए हैं। उम्दा कविताएँ। इन सुन्दर और सार्थक कविताओं के लिए उन्हें हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कविता है सर जी
जवाब देंहटाएंआपका जवाब नहीं .....।
आप मेरे प्रेरणा स्रोत हो
आपको ही देखकर सुनकर मेरे मन में भी कविता लिखने की जिज्ञासा का उदय हुआ है ।