बांदा कार्यशाला (2-4 अक्टूबर, 2015 ) की रपट
बाँदा के बड़ोखर खुर्द गाँव में बीते 2 से 4 अक्टूबर, 2015 के बीच 'आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद :
पारस्परिकता के धरातल' विषय पर तीन दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन किया गया था। इस कार्यशाला में देश भर
से आये प्रतिभागियों ने भाग लिया था। इस कार्यशाला की रपट का पहला भाग आप पिछले
महीने पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत है रपट का दूसरा और अंतिम भाग। इसे भी तैयार किया है
युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने। तो आइए पढ़ते हैं यह रपट।
आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद : पारस्परिकता के धरातल
बांदा कार्यशाला (2-4 अक्टूबर, 2015) की रपट
(दूसरा और अंतिम भाग)
बजरंग बिहारी तिवारी
3 अक्टूबर 2015 को
दोपहर बाद सत्र का विषय था- ‘प्रगतिवादी लेखन और आंदोलन में जाति के सवाल’। सत्र की प्रस्तावना करते हुए संयोजक ने कहा कि
प्रगतिशील लेखक संघ के बिलकुल शुरूआती वर्षों में हुई बहसें इस बात की गवाही देती
हैं कि जाति से जुड़े प्रश्न प्रगतिवादी आंदोलन के लिए कितने जरूरी थे। तुलसीदास पर तमाम प्रगतिवादी आलोचकों का हमला यह
साबित करता है कि वे वर्ण-जाति व्यवस्था का उन्मूलन करना चाहते थे। प्रगतिशील आंदोलन के उस दौर में लिखी रचनाओं में
वर्ग से कहीं अधिक जाति की समस्या दिखती है। इस सत्र के पहले वक्ता फैजाबाद से आए रघुवंश मणि
ने कहा आंबेडकर के चिंतन पर हिंदी में ज्यादा चर्चा नहीं हुई है। अब यह चर्चा हो रही है तो इसके कुछ ऐतिहासिक
कारण हैं। उन्होंने सवाल किया कि आंबेडकर के योगदान को
समझे बगैर प्रगतिशील आंदोलन और दलित आंदोलन की पारस्परिकता को कैसे समझा जा सकता
है? दलित लेखन पर असाहित्यिकता का आरोप लगाया जा रहा है। कभी प्रगतिवादी साहित्य पर भी ऐसे ही सवाल खड़े
किए गए थे। बिडंबना यह कि दलित साहित्य पर सवाल उठाने वालों
में बहुत से वे लोग हैं जो प्रगतिवादी धारा से सम्बद्ध हैं। दलित साहित्यकारों की तरफ से इसकी प्रतिक्रिया
होनी स्वाभाविक थी, जो हुई भी। प्रेमचंद, निराला
पर सवाल उठाए गए। आज स्थिति बहुत बदल गई है। अब शुरूआती कटुता में कमी दिखाई दे रही है। बसपा की सरकार और दलित लेखकों के संबंध सहज नहीं
हैं। लेखक दलित राजनीति की नीतियों और कार्यप्रणाली
से सहमत नहीं। उन्होंने बसपा सरकार की आलोचना करने में कोई
गुरेज नहीं किया। प्रगतिवादी लेखकों ने भी राजनीतिक सत्ता को चुनौती
देने का काम किया और अभी कर रहे हैं। रघुवंश मणि ने प्रगतिशील चेतना का मुद्दा उठाते
हुए बेलछी कांड पर नागार्जुन की कविता ‘हरिजन गाथा’ का उल्लेख किया। केदारनाथ अग्रवाल की कुछ कविताओं के संदर्भ से
उन्होंने उनकी प्रगतिशीलता का जाति विरोधी पहलू रेखांकित किया। अदम गोंडवी की मशहूर रचना ‘मैं चमारों की गली
में ले चलूंगा आपको’ उद्धृत करते हुए रघुवंश ने इस कविता के नायक मंगल को
प्रतिरोधी चेतना वाला बताया।
सत्र के दूसरे वक्ता शकील सिद्दीकी ने कहा
कि जैसी यातना दलितों की है वैसी ही मुसलमानों की भी है। इस समानता को याद रखना जरूरी है। साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल सिर्फ मुस्लिमों को
पीछे रखने के लिए नहीं, दलितों को भी पीछे धकेलने के लिए किया जाता है। शकील जी ने ध्यान दिलाया कि बीसवीं सदी लुप्त
अस्मिताओं के खोज की सदी है। यह सदी अस्मिताओं
के उभार की सदी के रूप में याद की जाएगी। इसका चौथा दशक बहुत महत्वपूर्ण है। प्रगतिशील आंदोलन की स्थापना इससे ही हुई। नए सिरे से संस्कृतियों के बीच आवाजाही का दौर
शुरू हुआ। यह आवाजाही बनी रहनी चाहिए। प्रलेस के उस दौर को याद करते हुए उन्होंने कहा
कि लखनऊ प्रलेस के अध्यक्ष गोपाल उपाध्याय थे। उनका ‘एक टुकड़ा इतिहास’ पठनीय है। वे कांग्रेस से इधर आए थे। उर्दू साहित्य की चर्चा करते हुए शकील जी ने
बताया कि इसमें दलित दर्द नहीं आया है। यहाँ दलित होते ही नहीं। राही मासूम रजा के ‘आधा गाँव’ और अब्दुल
बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ को उन्होंने दलित दृष्टि से
विचारणीय माना। ‘आधा गाँव’ में वर्चस्वशाली तबका नए बदलावों को
सहन नहीं कर पा रहा है। उसमें एक पंक्ति
है- ‘इन कुर्सियों को जला दो क्योंकि इन पर अब कमीने ही बैठेंगे। प्रेमचंद ने वर्ण व्यवस्था के ध्वंस की बात की
है। कामतानाथ और रसीद जहां की रचनाओं के हवाले से
शकील सिद्दीकी ने सामाजिक हिंसा का मुद्दा उठाया।
सत्र के अध्यक्ष दूधनाथ सिंह ने कार्यशाला
के आयोजन के मकसद से ही अपनी असहमति तीखे शब्दों में जाहिर की। उन्होंने कल से चल रहे विचार सत्र को अनर्गल और
निरर्थक करार दिया। उनका कहना था कि
प्रगतिशील आंदोलन में जाति-वर्ण का प्रश्न ही शामिल नहीं है। उस पर चर्चा कैसे की जा सकती है? हिंदी के दलित
साहित्य आंदोलन का प्रसंग छेड़ते हुए उन्होंने कहा कि यह मौलिक कल्पना नहीं है। यहाँ का दलित आंदोलन ‘सेकंडरी इमैनिजेशन’ –द्वितीयक
कल्पना है। समाज में समता लाने के लिए उन्होंने उत्पादन के
संसाधनों मसलन जमीन के पुनर्वितरण की आवश्यकता बताई।
देर शाम को चले आज के अंतिम विचार सत्र
‘जाति और वर्ण का प्रश्न : आंबेडकर और मार्क्स का परिप्रेक्ष्य’ में मुंबई से आए
मराठी पत्रिका के संपादक राहुल कोसंबी ने कहा कि समाज व्यक्तियों से नहीं, वर्गों
से बनता है। जाति कभी एकल नहीं होती। हमेशा जातियों का पुंज होता है। डॉ. आंबेडकर ने जाति को ‘ग्रेडेड इनइक्वलिटी’
कहा| एम.एन. श्रीनिवास की अवधारणा ‘संस्कृतीकरण’ से बहुत पहले आंबेडकर इसके सूत्र
दे चुके थे। अकादमिक चर्चा में डॉ. आंबेडकर की उपेक्षा ही की
जाती रही है। ‘पारस्परिकता के धरातल’ पर उनका कहना था कि जाति
का उन्मूलन ही साझा प्लेटफार्म हो सकता है। डॉ. आंबेडकर रिवोल्यूशनरी सोशलिज्म से प्रभावित
रहे। उनके मार्क्सवादी अध्यापक आर. सेलिग्मन का उन पर
गहरा असर था। उनकी वैचारिकी की अभिव्यक्ति में यह दिखता है। इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी को भारत की पहली
कम्युनिस्ट राजनीतिक पार्टी माना जा सकता है। उन पर क्रिप्स मिशन ने दबाव बनाया कि वे अपनी
सामाजिक/जातिगत पहचान निश्चित करें। दलित समुदाय के हितों की चिंता के कारण उन्हें
मजबूरन ‘शिड्यूल कास्ट फेडरेशन’ बनाना पड़ा। आंबेडकर ने हमेशा क्लास की परिभाषा सामने रखकर बात
की। जाति की चर्चा करते हुए भी उसे क्लास की अवधारणा
से जोड़ कर देखा। 1944 तक वे ‘डिप्रेस्ड क्लासेज’ का प्रयोग करते
रहे। उनके द्वारा प्रयुक्त ‘ब्रोकेन मैन’ का अनुवाद
है दलित। राहुल कोसंबी ने कहा कि ‘बेस और सुपरस्ट्रक्चर’
के ढाँचे में सोचना मकेनिकल अंडरस्टैंडिंग है। उससे मुक्त होना पड़ेगा। पिछले 50 वर्षों में जो बदलाव हुए हैं, जाति
व्यवस्था उन्मूलन के संदर्भ में उसका संज्ञान लेना पड़ेगा। आंबेडकर का और बाद में पैंथर का आंदोलन
आइडेंटिटी पॉलिटिक्स नहीं हैं। राजनीतिक आंदोलन
में जाने से सामाजिक आंदोलन की धार कम हो जाती है। जाति जब वर्ग में तब्दील हो रही थी, कामरेड शरद
पाटील ने तब उसे उलट दिया। अभी दलित पॉलिटिक्स
दलालों की पॉलिटिक्स हो गई है। हम वास्तविक दलित
समाज को देखें। उनसे संवाद करें। अस्मितावादी दलालों से पारस्परिकता का रिश्ता न
जोड़ें। असली दलितों ने इन दलालों के पीछे चलने से इनकार कर दिया है। यह देखना
चाहिए। अभी मनुस्मृति लागू नहीं की जा सकती। हेजेमनी को यांत्रिक तरीके से नहीं
समझा जा सकता। शूद्रों और अछूतों में जातियों की भरमार है। जातियों ने ही अपने
भीतर से नई जातियां बनाई हैं। शहरी इलाकों में जाति राजनीति में सक्रिय है। समान
धरातल दलित उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होने से बनेगा। दलित अभी जैविक सर्वहारा के रूप
में बने हुए हैं। उन्होंने मजबूरी में ही बीजेपी या शिवसेना को चुना है। कोई दूसरा
विकल्प न होने से ही वे उस तरफ गए। बाबासाहेब ने बुद्ध के बाद कार्ल मार्क्स को
रखा। यह उनकी प्राथमिकता थी। अभी धरातल तैयार है। ईमानदारी से पहल करने की जरूरत
है।
रात्रिकालीन भोजन के बाद काव्य गोष्ठी का
आयोजन हुआ। इसकी अध्यक्षता प्रेमसिंह ने की। खुले आकाश में देर रात तक चले काव्य
पाठ में बाहर के और स्थानीय तकरीबन 20 कवियों ने अपनी रचनाएं पढ़ीं।
4 अक्टूबर सुबह वाले सत्र का विषय था- ‘जाति
उन्मूलन और जाति आधारित राजनीति’। इस सत्र के वक्ता थे वरिष्ठ विचारक विलास सोनवणे।
विलास जी ने अपने वक्तव्य की शुरुआत भारतीय इतिहास के बारे में मार्क्सवादी
विद्वानों की समझ पर सवाल उठाते हुए की। उन्होंने कहा कि जाति को समझने के बाद ही
उसके उन्मूलन के बारे में सार्थक ढंग से सोचा जा सकता है। कॉमरेड डांगे की पहली
किताब ‘फ्रॉम प्रिमिटिव कम्युनिज्म टू स्लेवरी’ से ही भ्रांति की बुनियाद पड़ती है।
इसमें जाति को अधिरचना (सुपरस्ट्रक्चर) के रूप में देखा गया है। वामपंथ के सभी
घटकों और दलों- सीपीएम, सीपीआइ, एमएल, माओवादी में इस मुद्दे पर मतैक्य है। तथ्य
यह है कि भारत में अंग्रेजों के आने से पहले भूमि पर स्थाई स्वामित्व था ही नहीं।
परमानेंट लैंड सेटलमेंट अंग्रेजों की देन है। मराठी और फारसी दस्तावेजों के आधार
पर लिखी गई फूको जोआ की किताब ‘मेडिवल डक्कन’ देखनी चाहिए। यह डांगे के फ्रेम के
अंदर की किताब नहीं है। असली बात यह है कि जब तक आप भू संबंधों को नहीं समझते तब
तक जाति व्यवस्था को नहीं समझ सकते। महाराष्ट्र में वतनदारी प्रथा थी। जमीन
वतनदारों को मिली। दक्कन में नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी आदि नदियों के मैदान हैं।
उत्तर भारत में गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, सतलज आदि नदियों के। अब गंगा
ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के बड़े मैदान हैं तो यहाँ बड़े जानवर चर सकते हैं, पाले जा
सकते हैं। दक्कन में छोटे मैदान हैं तो वहां भेड़ें ही चर सकती हैं। लंबी घास वाले
इलाके में यादव हैं तो छोटी घास में गड़ेरिया। यह जातियों का भौतिक आधार है।
कम्युनिस्ट पार्टियों को मैटेरियल बेस की समझ नहीं है। उनकी उत्पादन व्यवस्था की
समझ यूरोसेंट्रिक है। यूरोप-उन्मुखी दृष्टि से भारतीय वास्तविकता नहीं समझी जा
सकती।
विनय पिटक में ‘वेतन’ शब्द आता है। सुत्त
पिटक में भी वेतन शब्द है। दिघ्घ निकाय में भी यह शब्द मिलता है। अगर यहाँ ढाई
हज़ार साल पहले वेतन की संकल्पना थी और उसे जाने बगैर यदि सिद्धांत गढ़ा जाएगा तो
उसमें खोट होगा ही। समझ में यह खोट खीझ पैदा करती है। यह कार्यशाला इसी खीझ के
कारण है। इसके पीछे एक अपराध बोध है। ‘काव्यात्मक न्याय’ –पोयटिक जस्टिस देखिए कि
जाति का सवाल उठाने के कारण मुझे सीपीएम से निकाला गया था। कामरेड शरद पाटील को भी।
वे ‘सोशल साइंटिस्ट’ में इस विषय पर लेखमाला दे रहे थे। उनका चौथा लेख नहीं छपा।
सवाल उठाने का दंड मिला। प्रकाश करात और सुभाषिनी अली इसके साक्षी हैं।
किसानी की प्रक्रिया समझिए। जातियों की एक श्रृंखला
है- लोहार, सुतार, चमार, जाटव, मातंग। इसमें छठी जाति किसान है। चमड़ा कमाने
(प्रोसेस करने) वाले एक चमार होते हैं, उससे वस्तु बनाने वाले दूसरे, अर्थात् जाटव।
जब तक चमड़ा कसा नहीं जाएगा तब तक हल बनेगा नहीं। किर्लोस्कर ने लोहे के हल (फाल)
बनाए। उससे पहले लकड़ी के हल चलते थे। पानी की उपलब्धता या स्रोत के हिसाब से किसान
भी अलग-अलग हैं। माली, कुर्मी को पानी की प्राप्ति सुनिश्चित है। गढ़वी बरसाती पानी
पर निर्भर होते हैं। रजनी पामदत्त की किताब ‘इंडिया टुडे’ पॉलिटिकल इकॉनमी, इतिहास
की विवेचना करती है। यह डांगे की किताब का आधार है। इस किताब में खेती की उक्त
प्रक्रिया का जिक्र तक नहीं है। ‘डिवीज़न ऑफ़ लेबर’ पर कार्ल मार्क्स ने ‘दास
कैपिटल’ में 3-4 पन्ने खर्च किए हैं। वे बताते हैं कि यूरोप और एशिया के उत्पादन
संबंध भिन्न-भिन्न हैं। इसे मार्क्सवादियों ने नकार दिया। यह मान कर कि यह सेकंडरी
इमैजिनेशन है। रजनी पामदत्त, जो कभी भारत आए ही नहीं, उनका लिखा फर्स्ट हैंड है।
भारत की मार्क्सवादी पार्टियों पर किसका
कब्ज़ा रहता आया है? ब्राह्मण, कायस्थ, सारस्वत का। महाराष्ट्र की स्टेट कमेटी में
50 लोग थे। इनमें 24 इसी जाति के थे। स्टडी क्लास लेने का अधिकार सिर्फ उनका होता
था। मनुष्य के ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया प्रकृति के नियमों से जूझते हुए आगे
बढ़ती है। पुष्यमित्र शुंग के समय जब बौद्धों को भगा दिया गया तो ब्राह्मणों को लगा
कि उन्होंने अंतिम ज्ञान अर्जित कर लिया है। सातवीं सदी के बाद रटने की परंपरा बनी।
यह अब तक चल रही है। जिन्होंने वेद रटे उन्होंने मार्क्स को भी रट लिया।
अनुभवसिद्ध ज्ञान पर रट्टू ज्ञान भारी पड़ा। ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया रुक गई।
अगर प्रकाश करात को अंग्रेजी नहीं आती तो क्या वे सीपीएम के महासचिव बन सकते थे?
सभी कम्युनिस्ट खेमों पर यह बात लागू होती है। ब्राह्मणवादी मार्क्सवादियों के साथ
दलित कैसे जुड़ सकेंगे? क्या आप कठोर आत्मालोचना के लिए तैयार हैं? सनातनी हिंदू और
उदार मतवादी हिंदू- हिन्दुओं के ये दो प्रकार हैं| सारा प्रोग्रेसिव खेमा लिबरल
हिंदू खेमा है।
यह कहना कि जाति हिंदू व्यवस्था की देन है,
एक मुस्लिम विरोधी बात है। जाति सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संरचना है। उसका धर्म से
क्या लेना-देना? जाति प्रथा को हिंदू धर्म की देन बताना बड़ी भूल है। आंबेडकर ने भी
यही भूल की। इस भूल-गलती के साथ आप पारस्परिक धरातल बनाने चले हैं। यह धरातल कैसे
बनेगा? मुसलमान सिद्धांत में जाति भले न मानते हों, व्यवहार में जाति है। भरपूर।
सर सैयद अहमद ने कहा मैं यह (अलीगढ़ मुस्लिम) विश्वविद्यालय छोटी जातियों के लिए
नहीं, राजा जाति के लिए बनवा रहा हूँ। कम्युनिस्ट फोल्ड में आने वाले प्रायः सभी
ब्राह्मण-मुस्लिम थे।
बाबरी मस्जिद के गिरने तक यू.पी. बिहार के
मुस्लिम इलाकों से कम्युनिस्ट जीतते थे। बाद में क्या हुआ आप जानते हैं। टेक्सटाइल
इंडस्ट्री थी। कई शहरों में। वहां यूनियनें थीं। इंडस्ट्री टूटी। कम्युनिस्ट
अंसारी, कम्युनिस्ट यादव, कम्युनिस्ट कुर्मी अलग हो गए। ‘मुझे क्या दिया?’ ऐसा
प्रश्न करने लगे। यह चिंता का और चिंतन का विषय है कि कम्युनिस्ट होने के बाद कोई
यादव, कोई कुर्मी कैसे बन जाता है। जाति प्रथा हिंदू धर्म का हिस्सा है, यह समझ
एंटी मुस्लिम है। 1991 में जब मैंने मुस्लिम मराठी लेखकों को इकट्ठा करना शुरू
किया तो पाया कि वहां भीतरी जातिवाद कितना है। उनमें इंटरकास्ट मैरिज नहीं होती।
इसी तरह केरल के थंगल ईसाई और सीरियन ईसाई अपने को ब्राह्मण मानते हैं और दूसरी
जातियों से दूरी बना कर रखते हैं।
कम्युनिस्ट धर्म को क्या मानते हैं?
विचारधारा या सामाजिक संरचना? अभी इसे ले कर भ्रम की स्थिति है। धर्म एक विचारधारा
है। पूंजीवाद के उदय से पहले। पूंजीवाद ने इसका इस्तेमाल किया। तेल की खोज के बाद
एशिया में जो बदलाव हुए हैं, उसे ध्यान में रखना चाहिए। जाति व्यवस्था को पहला
धक्का प्लासी के युद्ध (1757) से लगा। 1818 तक अंग्रेजों का सारे भारत पर कब्ज़ा हो
चुका था। उत्पादन के केंद्र में अब तक मनुष्य था। अंग्रेजों ने प्रकृति-मानव
केंद्रित व्यवस्था तोड़ी और बाजार को केंद्र में लाने का काम किया। परस्पर संबंधों
के आधार पर बनी व्यवस्था टूटनी प्रारंभ हो गई। जहाँ पूँजी पहुंची वहां बाजार
केंद्रित व्यवस्था आ गई। इससे मनुष्य के अंदर बेगानेपन की भावना आ गई। मार्क्स ने
इसे सिद्धांत का रूप दिया। भारत में इस बेगानेपन को समझने वाला पहला व्यक्ति
ज्योतिबा फुले था। ‘किसान का कोड़ा’ और ‘गुलामगिरी’ में यह दर्ज है। बेगानेपन और
वर्ग निर्माण में गहरा रिश्ता है। अब तक जो वतनदार थे वे वेतनदार होने शुरू हो गए।
साहूकार नाम का वर्ग पैदा हुआ। परमानेंट सेटलमेंट एक्ट से पहली बार जमीन निजी
संपत्ति हो गई। फुले ने जाति प्रथा के खिलाफ लड़ाई की। डेक्कन लॉर्ड्स के नाम से
नया विद्रोह हुआ। इसमें साहूकारों के बही खाते जलाने का अभियान छेड़ा गया। इस वर्ग
संघर्ष को नेतृत्व देने का काम फुले ने किया। इस बात को कोई कम्युनिस्ट याद नहीं
करता। फुले ने फार्मूला दिया- त्रिवर्ण विरुद्ध स्त्री शूद्रातिशूद्र। आंबेडकर ने
इसे बदल दिया और सवर्ण विरुद्ध अवर्ण कहा। यह सही फार्मुलेशन नहीं है। वास्तव में
मार्क्स और फुले को मिलाना आसान है। आंबेडकर को कैसे मिलाएंगे? आंबेडकर का सारा
जोर वेलफेयर स्टेट पर है। एक बार कल्याणकारी राज्य ख़त्म तो आंबेडकर भी अप्रासंगिक।
आप लोगों का मकसद वेलफेयर स्टेट है क्या?
खेती का संकट और जाति का विद्रोह आपस में
जुड़े हुए हैं। हार्दिक पटेल का पाटीदार आंदोलन देख लीजिए। अभी खेती पर जो संकट आया
है यह उसी का परिणाम है। हार्दिक का दावा है कि पाटीदारों की संख्या सत्ताईस करोड़
है। इतनी संख्या तो गुजरात राज्य की ही नहीं है। सब पाटीदारों को मिला कर हार्दिक
बोल रहे हैं। इनमें गुजरात, मालवा के पटेल हैं, महाराष्ट्र के कुणबी हैं, यूपी,
हरियाणा, पंजाब के जाट-गुज्जर हैं। गन्ना-दूध-कपास यानि नगदी फसल उत्पादक जातियां
हैं ये। इन पर संकट है। खेती पर ऐसा ही संकट बारहवीं सदी में आया था। भक्ति आंदोलन
के समय आया था। फुले के समय आया था। बुद्ध के समय भी आया यह जब रोहिणी नदी के पानी
के बंटवारे को लेकर शाक्य कोलिय गणों के बीच लड़ाई छिड़ी थी। बुद्ध को अपना घर छोड़ना
पड़ा था। फुले के बाद गांधी ने इस संकट को समझा। उन्होंने पहली बार किसानों को इतने
बड़े पैमाने पर संगठित किया। फुले ने जिस बेगानेपन पर हाथ रखा था उसे गांधी ने
मुद्दा बनाया। पूँजीवाद से आए बेगानेपन से मुठभेड़ की। कम्युनिस्ट उस समय क्या कर
रहे थे? वे तब ‘थ्योरी ऑफ़ एलियनेशन’ पढ़ रहे थे। मार्क्सवादी चूक गए। गांधी उनसे
आगे निकल गए। गांधी टेक्सटाइल से जुड़ी सारी जातियों को समेटते हैं। आप वेतन पाने
वालों को समेटते हैं। बेगानेपन से तो आपको लड़ना था। विकसित पूंजीवाद ने नारा दिया
कि खेती में भविष्य नहीं है। 2013 में भूमि अधिग्रहण बिल बना| जो जमीन पहले
आजीविका थी वह अब कमोडिटी हो गई। कमोडिटी होते ही सारी जमीन गुजरात से चली गई।
धनंजय राव गाडगिल की किताब ‘बिजनेस कम्युनिटीज इन इंडिया’ देखिए। यह किताब भारत की
बनिया जाति पर है। यह संदेश लोगों तक गया कि जब तक आप अपनी जाति को संगठित नहीं
करते तब तक सौदा नहीं कर सकते। 1991 के बाद जाति आधारित पार्टियां बनीं। इनका
संबंध वैश्वीकरण से है, ‘विकास’ से है। जब तक आप इन जातियों को संगठित नहीं
करेंगे, इस स्थिति से नहीं टकराएंगे तब तक कोई रास्ता नहीं मिलेगा।
‘मार्क्स, आंबेडकर और हमारा वर्तमान’ नामक
अंतिम सत्र में बोलते हुए मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने कहा कि अभी देश को अमरीका का
बाज़ार बनाया जा रहा है। यह काम मोदी सरकार ने अपने जिम्मे लिया हुआ है। इसी
जिम्मेदारी का एक सिरा हत्याओं से जुड़ा हुआ है। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के
नरेंद्र दाभोलकर की हत्या इन्हें जरूरी लगती है। विवेक की आवाजों को चुप करा देने
के बाद इनका खेल निर्बाध रूप से चल सकता है। जनवादी लेखक संघ अपने स्तर से उत्पीड़क
सत्ताधारी वर्ग के विरुद्ध सक्रिय है। सृजन कर्म में हम पहलकदमी कर रहे हैं।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद बताता है कि कुछ भी स्थिर नहीं है। गतिशीलता की निरंतर
पहचान आवश्यक है। हर चीज के अपने अंतर्विरोध हैं। हर चीज कारण-कार्य संबंध की श्रृंखला
में आबद्ध है। कुछ भी निरपेक्ष नहीं है। एक दूसरे से जुड़ी हुई है हर चीज। जाति प्रथा
उत्पादन के अधिशेष को हड़पने का हथियार है। जाति आधार (बेस) नहीं है, मगर वह आधार
के बहुत करीब है। गलत काम करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों की आलोचना होनी ही चाहिए।
विचार सत्र के अंतिम दौर में कार्यशाला के
आयोजन को लेकर प्रतिभागियों ने अभिमत दिए। दलित उत्पीड़न विरोधी मोर्चा के विनोद
कुमार ने कहा कि संवाद बहुत सार्थक रहा। कई विरोधाभासी मत भी सामने आए। मगर यहीं
से गुजर कर आगे की यात्रा तय होगी। केरल के कालडी से आए वी.जी. गोपालकृष्णन ने कहा
कि इस कार्यशाला से कोई परिणाम निकले या न निकले, कम से कम एक मंच तो खुला। केरल
में कम्युनिस्टों ने रात्रिकालीन कक्षाएं चलाईं, जाति-वर्ण के विरुद्ध लड़ाई की।
उसी का परिणाम है वहां कम्युनिस्ट सरकार बनी। शिक्षा ही वह माध्यम है जिससे हम
दलितों-आदिवासियों के बीच जा सकते हैं। चर्चित दलित कथाकार टेकचंद ने बांदा की
मेहमान-नवाजी को अद्भुत बताया। उन्होंने कहा कि इस कार्यशाला से ज्ञान की खिड़कियाँ
खुली हैं। ऐसी और कार्यशालाएं होनी जरूरी हैं। जामिया मिलिया के शोधार्थी ऋषिकेश सिंह
ने कहा कि यहाँ का परिवेश बहुत मोहक रहा। बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण बातें हुईं। कई
गुत्थियां सुलझीं। युवा आदिवासी कवि मुन्ना शाह ने कहा कि पूरी व्यवस्था सर्वोत्तम
थी। महाराष्ट्र के औरंगाबाद से आए आदिनाथ इंगोले का कहना था कि इस कार्यशाला से नए
प्रश्न मिले हैं। लखनऊ के प्राध्यापक ओमराज के लिए इस कार्यशाला की सार्थकता जाति
से जुड़े तमाम पहलुओं को सामने लाने में दिखी। जामिया के शोध छात्र विपिन कुमार ने
कहा कि कार्यशाला में शामिल होकर उन्हें बहुत लाभ हुआ है। आयोजकों ने अच्छी
व्यवस्था की। आलोचक और भारती कॉलेज, दिल्ली के शिक्षक डॉ. कवितेंद्र इंदु ने कहा
कि यह आवेग पैदा करने वाली कार्यशाला थी।
सांगठनिक मार्क्सवाद
की ओर से यह पहला आयोजन था। ट्रेडीशनल मार्क्सवाद के भीतर ही नहीं, बाहर भी कितना
मौलिक चिंतन हो रहा है, इस कार्यशाला ने खुलासा किया। शोषण के विभिन्न रूपों की पहचान
और उनके अंतर्संबंध की समझदारी आवश्यक है। एटा से आए डॉ. उमाकांत चौबे ने तंज किया
कि भाजपा और कांग्रेस के चिंतन शिविर चल रहे हैं। ऐसे में जलेस की यह कार्यशाला
महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जड़ता से मुक्ति में सहायक है यह कार्यशाला। दिल्ली
विश्वविद्यालय के शोधार्थी अतुल कुमार ने इस नवाचार को काबिले तारीफ बताया। उन्होंने
कार्यक्रम के शिल्प पक्ष और अंतर्वस्तु दोनों की विवेचना की। इसी विश्वविद्यालय के
रिसर्च स्कालर सुखजीत ने कार्यशाला को विचारोत्तेजक बताते हुए कहा कि पहले उन्हें
कम्युनिज्म के बारे में ज्यादा मालूम नहीं था लेकिन इस कार्यशाला से प्रेरणा लेकर
वे अच्छा कम्युनिस्ट बनना चाहेंगे। कवि शंभू यादव के लिए यहाँ का समूचा अनुभव
शानदार रहा। बहुत से मुद्दे पकड़ में आए तो कई काम्प्लेक्स भी पैदा हुए। तेज तर्रार
दलित स्त्री रचनाकार प्रियंका सोनकर ने सवाल उठाया कि कार्यशाला में महिलाओं की
भागीदारी इतनी कम क्यों है? उन्होंने कहा कि हमें पुरुष से नहीं, पुरुषवाद से लड़ना
है। मार्क्स और आंबेडकर दोनों मुक्ति की बात करते हैं। अब गुटों में बंटने की बजाए
मुक्ति पथ पर साथ-साथ चलने का समय है। इस कार्यशाला से बहुत-कुछ सीखने को मिला।
अभिमत के उपरांत कार्यशाला में प्रस्ताव
प्रस्तुत किए गए। पहला प्रस्ताव संजीव कुमार ने पढ़ा| इसमें लेखकों, चिंतकों की
लगातार की जा रही हत्याओं पर चिंता व्यक्त की गई और इस बर्बरता के विरुद्ध विवेक
और जनतंत्र के पक्षधरों से एकजुट होकर आगे आने की अपील की गई। दूसरा प्रस्ताव
विनोद कुमार और बजरंग बिहारी का था। इसमें दलितों पर होने वाले जानलेवा हमलों,
दलित बस्तियों में लूट और आगजनी, दलित स्त्रियों के सामूहिक बलात्कार और वैश्वीकरण
के कारण दलितों में बढ़ रहे कंगालीकरण को तत्काल रोकने की मांग की गई|
कार्यशाला का समापन स्थानीय संयोजक सुधीर
सिंह के धन्यवाद ज्ञापन से हुआ।
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