चैतन्य नागर का आलेख 'दुःख का डी एन ए'
चैतन्य नागर |
दुःख मानव जीवन एक ऐसा सत्य है जिस पर समय-समय पर अनेक महान विभूतियों ने चिन्तन-मनन किया है। इस क्रम में बुद्ध का चार आर्य सत्य काफी ख्यात है। इस क्रम में दुःख पर विपुल मात्रा में लेखन किया गया है। चित्र हों या मूर्ति-कला; कहानी हो या कविता सबमें दुःख मानव जीवन की भाँती ही पर्याप्त मात्रा में व्याप्त है। कवि निराला अपनी एक कविता में कहते हैं - 'दुःख ही जीवन की कथा रही।' कवि चैतन्य नागर ने भी दुःख की इस कथा को अपनी तरह से समझने की कोशिश किया है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं चैतन्य नागर का यह सुचिन्तित आलेख 'दुःख का डी. एन. ए.'।
दुःख
का डी. एन. ए.
चैतन्य
नागर
ईसाइयत
मानती है कि ईश्वर का एक ही पुत्र हुआ जो पाप से मुक्त था, पर
दुःख से मुक्त तो कभी कोई नहीं हुआ। इस बात को इसके धार्मिक अर्थ से अलग करके देखा
जाए तो भी इसमें एक गहरी सच्चाई है। दुःख तो हर इंसान की शिराओं में बहता है, रग-रेशे में सुलगता रहता है, पर इसकी आँखों में
झाँकने से भी डर लगता है। जितना मुमकिन हो सके इससे दूर भागने में ही कल्याण है, ऐसा ही हमने सीखा है; यही हम दूसरों को सिखाते
हैं। पर दुःख को समझना है, तो उसे सहेज कर रखना पड़ेगा.
दुष्यंत कुमार ने इसे बखूबी व्यक्त किया है:
दुख
को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें,
सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया।
सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया।
हमेशा
रहने वाले इस दुःख को अपनी मेज पर रखें और जरा मिल-जुल कर निहारें कि क्या है
इसमें ऐसा कि दिल में तो आता है, समझ में नहीं आता। दुःख बस व्यक्तिगत
नहीं। पेशावर से पैरिस तक, कश्मीर से कैलिफ़ॉर्निया तक, परिंदों का दुःख और पेड़ों का, नदियों का और
बर्फ से ढंके ग्लेशियर्स का—कई तरह के, कई स्तर, रंग, रूप
और महक वाले दुःख को हमने देखा है। कोई सम्बन्ध है हमारे खुद के दिल में रिसते
दुःख, और दुनिया में धधक रहे दुःख के बीच? दर्द तो दैहिक है, और इसकी दवा है पर दुःख का निवारण
संभवतः किसी गहरी प्रज्ञा की मांग करता है। ग्रीक पौराणिक पात्र प्रोटियस की तरह
यह इधर डूबता है तो उधर उबरता है। लगातार जीवन के दरवाजे पर इसकी दस्तक सुनी जा
सकती है। आम तौर पर तो मन इससे भाग लेने में ही अपनी भलाई समझता है। इसके विराट
ढांचे के भीतर प्रवेश करने का साहस विरलों में ही होता है। गौर से देखें, किसी का पता-ठिकाना भर जान लेना, दूर से
ही उसकी आवाज़ पहचान लेना, उसकी एक-एक आदत से वाकिफ होना
ही उसे जानना नहीं। अपने रंग-ढंग, चेहरे-मोहरे, बातों-आदतों के अलावा एक इंसान और भी बहुत कुछ होता है। ऐसे ही ‘दुःख को जानना’ और ‘दुःख
के बारे में जानना’ एक ही बात नहीं।
जो
सोचता है कि दुःख के बारे में चर्चा एक निराशावादी, सिनिकल और रुग्ण मनोदशा
की ओर इशारा करती है उसे बस एक बार रोज़ की ख़बरें गौर से देखने-पढ़ने की जरूरत है।
अख़बारों में तो जैसे बस तारीख, जगहें और पात्र बदलते
हैं, ख़बरें वही की वही होती हैं। इस देश में हर बीस
मिनट में एक स्त्री के साथ बलात्कार होता है, दुनिया
में करोड़ों की संख्या में लोग भूख से मरते हैं और न जाने कितने लोग बेघर-बेरोजगार
हैं। जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की 250 प्रजातियाँ
रोज़ धरती से गायब हो रही हैं। जिस धर्म का आविष्कार हमने अपने सुख और शांति के लिए
किया, वह हमारा सबसे बड़ा शत्रु बना हुआ है। इसीलिए
बुद्ध ने तो किसी रहस्यवादी, आत्मविषयक प्रश्नों का
उत्तर देने से ही इनकार कर दिया और बार-बार यह स्पष्ट किया कि उनका सरोकार सिर्फ
मानव के दुःख और उसके निरोध से ही है। यहाँ तक कि सम्बोधि का अर्थ भी उन्होंने ‘दुःख-ध्वंस’ ही बताया। बुद्ध ने दुःख की संरचना
को बड़ी बारीकी के साथ जांचा-परखा था। उन्होंने दुःख को सिर्फ देह या मन को होने
वाली तकलीफों और असुविधाओं तक सीमित नहीं रखा और इसकी कई स्थूल और सूक्ष्म
अभिव्यक्तियों का उल्लेख किया—-परिवर्तन के कारण होने वाला
दुःख, वस्तुओं और स्थितियों के परिवर्तनशील होने का
दुःख, परिवर्तन का दुःख, परिवर्तन
के कारण होने वाले तनाव का दुःख, बदलती वाह्य
परिस्थितयों का दुःख, अनित्य का दुःख, परिवर्तनशील वस्तुओं के साथ लगाव का दुःख। इसके अलावा उन्होंने जन्म, जरा और मृत्यु के दुःख की भी बार-बार बात की।
हमारा
व्यक्तिगत जीवन हो सकता है बड़ा सुरक्षित हो, हमारे पास मजबूत घर हो, अच्छी नौकरियाँ हों और हमारे कारोबार फायदे में चल रहे हों, संबंधों में सुरक्षा का एहसास हो, पर क्या हम
चारों ओर जलती हुई आग से बेपरवाह अपने ‘सुख’ से संतुष्ट रह सकते हैं? सिर्फ भयंकर रूप से
आत्मकेंद्रित और स्वार्थी व्यक्ति ही अपने सीमित सुख के छोटे से द्वीप पर चैन से
रह सकता है। आप जितने अधिक संवेदनशील होंगें, दुःख की
कील आपके कलेजे में उतनी ही अधिक चुभेगी।
सौ
में से निन्यानबे मामलों में अपने दुःख का कारण हम खुद ही होते हैं। फिर से स्पष्ट
करूँ कि यहाँ चर्चा सिर्फ उस दुःख की हो रही है जिसका एक प्रबल मनोवैज्ञानिक अवयव
होता है। देह को होने वाली पीड़ा की नहीं। बगैर हमारी चेतन और अचेतन सहमति और सहयोग
के हमें कोई दुखी नहीं कर सकता. कर सकता है क्या? दुःख प्रत्यक्ष रूप से
जुड़ा है उन रिश्तों के साथ जिन्हें हम बनाते-तोड़ते हैं। लोगों के साथ, चीज़ों के साथ, विचारों के साथ। कई तरह के
संबंधों के संजाल के बीच सबसे महत्वपूर्ण होता है अपना सम्बन्ध, खुद के साथ। हम अपने विचारों, अपनी भावनाओं के
साथ क्या करते हैं? हम खुद के साथ खुश हैं, या फिर अकेले होते ही परेशान हो कर किसी न किसी चीज़, गैजेट, किताब या यार-दोस्त की खोज में लग जाते
हैं? जो खुद के साथ ही खुश नहीं, खुद
से ही उकता गया है, वह चाहे किसी के साथ भी रह ले, देर-सवेर उसे भी दुखी कर डालेगा। एक बात और, सुख
की छाछ को पहले से ही फूँक-फूँक कर पिया जाए तो दुःख का उबलता दूध कलेजे को थोड़ा
कम ही जलाएगा।
दुःख
के बारे में दो बड़े लोकप्रिय मिथक हैं: एक तो यह कि समय बड़े से बड़े दुःख का इलाज
है। होता वास्तव में यह है कि दुःख देने वाली घटना और उसकी स्मृति पर कई नए
विचारों और स्मृतियों की परतें चढ़ जाती हैं पर उसके भीतर दुःख ठीक अपनी जगह पर ही
बैठा रहता है। समय बीतने के साथ वह हमारे अवचेतन का हिस्सा बन जाता है और उसके बाद
वहां से कई अप्रत्याशित, विचित्र और कभी कभी विकृत अभिव्यक्तियों के रूप में बाहर आता है। दूसरा
झूठ यह है कि दुःख बांटने से कम होता है। ऐसा होता नहीं. दो-चार, या दस-बीस दुखी लोग मिल कर किसी एक को सुखी नहीं बना सकते। दुःख सिर्फ
छितरा जाता है। इधर-उधर फैल जाता है। बांटने पर उसके कम होने का बस भ्रम होता है।
दुःख बांटने की आदत जारी रही तो आगे चलकर आत्मदया का भाव भी इससे ही उपजता है।
दुःख सिर्फ इसके कारण की समझ और उसके अंत से ही समाप्त हो सकता है।
दुःख
का हर अनुभव या तो हमें कोमल और समझदार बनाता है, या फिर नए पूर्वग्रहों
के लिए, नई कड़वाहट के लिए जगह बना देता है। पहली बात
बहुत दुर्लभ है, और बहुत अधिक समझ और धैर्य की मांग
करती है; दूसरी बात बड़ी सामान्य है। दुःख के अनुभव के
बाद कठोर, सीमित हो जाना, सिकुड़
कर अपनी खोल में बंद हो जाना, ये सामान्य बातें हैं।
कोई कवि या शायर दुःख को लेकर रूमानी हो जाए, उसका
महिमामंडन करने लगे, या फिर उसे नियति भी मान ले—ऐसा कुछ कहे कि “मौत से पहले आदमी गम से निजात
पाए क्यूँ”, तो उसे संदेह के साथ देखना ही ठीक है। दुःख
में ऐसा कुछ भी नहीं जो खूबसूरत हो। तनाव, ईर्ष्या, डाह, क्रोध, कलह, लोभ, अनावश्यक
महत्वाकांक्षा की शक्ल में यह मन को लगातार कुतरता रहता है। मस्तिष्क की कोशिकाओं
को तो यह भौतिक रूप से नष्ट ही कर डालता है। इसमें एक बात ध्यान देने लायक है कि
दुःख की भर्त्सना दुःख से मुक्त नहीं करती; ठीक वैसे ही, जैसे इसका महिमामंडन मुक्त नहीं करता। अब चुनौती है इसकी निंदा और स्तुति
के बीच का कोई रास्ता ढूँढने की। यह कहाँ और कैसे मिले, यह है एक बुनियादी सवाल।
दुःख
से मुक्ति को कई लोग निपट व्यक्तिगत मामला मानते हैं। व्यक्तिगत तौर पर दुःख से
मुक्त होने क्या कोई अर्थ है भी, जब आपके इर्द गिर्द दुनिया में आग लगी
हो, जैसा कि बुद्ध ने ‘आदित्त्परियाय
सुत्त’ में कहा? जे
कृष्णमूर्ति इसका जवाब इस तरह देते हैं: “जब आप खुद के
दुःख को ख़त्म करने का प्रयास करते हैं, तो वास्तव में
समूची दुनिया का दुःख समाप्त करने का प्रयास कर रहे होते हैं; और जब आप अपने खुद के दुःख पर काम नहीं करते, तो
आप समूची दुनिया का दुःख बढ़ा रहे होते हैं, क्योंकि
वस्तुत आप ही यह विश्व हैं।” पर हकीकत तो यह भी है कि बुद्ध उन जैसे कुछ और आए और चले गए, पर दुनिया पहले की तरह ही धधक रही है; कई अर्थ
में तो पहले से कई गुना बदतर हो चुकी है। तो कुछ गिने चुने लोग अगर इस दुःख के
दरिया को पार कर भी लें, तो क्या मानव जाति की पीर का
पर्वत थोड़ा भी पिघलता है? इसी प्रश्न के साथ थोड़ा
ठहरते हैं।
सम्पर्क -
ई-मेल : chaitanyanagar@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग मोसेस स्टेल की है जिसे हमने गूगल से साभार लिया है.)
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