अशरफ अली बेग
अभी हाल ही में इनकी एक पुस्तक ‘नयी कविता में काव्यानुभूति’ सदानीरा प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुई है.
१९८९ से इन्होने आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिशासी पद पर कार्य शुरू किया. और वर्तमान में आकाशवाणी इलाहाबाद में कार्यरत हैं.
अशरफ अली बेग की लघु कहानियां पढ़ते हुए मुझे बहुत कुछ कविताओं का एहसास हुआ। पहली कहानी 'आँखें' बड़े करीने से हमारे अंतर के द्वन्द और सामाजिक विसंगतियों पर दृष्टिपात करती है। एक तरफ जहां हम अनचाहे में बहुत सी चाहतें उस भूखे से भी रखने लगते हैं जिसके लिए उस समय केवल खाना ही महत्वपूर्ण है, वहीं दूसरी तरफ समाज सेवा का दंभ भी पाल लेते हैं। काव्यात्मक अंदाज वाली अशरफ अली बेग की तीन लघु कहानियां पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
लघु कहानी
आँखें
मैं प्लेटफ़ॉर्म पर खाली पडी बेंच पर बैठा अपनी औकात का टिफ़िन ख़ाली करता रहा और वह अपनी वहशी आँखों से मुझे और मेरे टिफ़िन को घूरता रहा. नहीं, उसकी आँखों में कोई वितृष्णा भी नहीं थी. न ही कुछ ऐसा लग रहा था कि वह मेरे आगे के खाने को छीन सकता है.- भूखा आदमी कुछ भी कर सकता है न? इसीलिए मैंने कहा. लेकिन ऐसा ज़रूर लग रहा था कि एक उम्र से आँखों से फटी पड़ती सी लालच एक हो कर मुझे और मेरे टिफ़िन को घूरने लगे थे. लेकिन शायद मैं इन ताकतों से डरना नहीं चाहता था. तभी तो मैंने सोचा कि आखिर माँग क्यों नहीं लेता? उसके न माँगने की हिमाकत पर मुझे क्रोध भी आया था. फ़िर भी आदतन मैंने पूछ ही लिया था—लेगा? शायद खाने पर नज़र लग जाने के ख़याल से डर गया था.
वह फ़िर भी कुछ नहीं बोला था. हाँ उसकी आँखों की तमाम ताकतें एकाएक कुछ कमज़ोर पड़ गयीं थीं. पता नहीं यह मेरी रहमदिली की वजह से हुआ था या उन तमाम ताकतों को मेरी बुजदिली पर रहम आ गया था.
बहरहाल मैंने उसे दो पराठे और थोड़ी सी सब्जी दे दी थी. और वह अपनी आँखों समेत वहां से टल गया था.
सिद्धार्थ
हाँ, इतना जरूर है कि इधर वह अपने को बुद्ध कहने लगा है. इसी से महसूस होता है कि वह नामों की निरर्थक सार्थकता को पहचानता है. हम नहीं पहचानते जैसे वह पहचानता है. कहता है जब तक आदमी की कोइ पहचान नहीं होती, तब तक उसका कोई नाम नहीं होता. नाम तब होता है जब वह आदमी से फलनवां अफ़सर, सेठ, मन्त्री, स्वामी जी आदि जैसा कुछ हो जाता है. वह बुद्ध हो गया है.
होने को वह कुछ भी हो सकता था. सवाल होने के इस प्रभाव का है. बुद्ध हो कर वह सचमुच अपना प्रभाव रखता है. हाँ, मैं भी उसके उपदेश तो क्या, उसे सुनने चला जाता हूँ. वह शिष्यों के बीच उनके लाये गांजे-भांग में मस्त रहता है. कहता है- अस्तित्व बोध बदलने लगा है. अब यही हमें शून्य को समझा सकता है. और फिर भक्त जो भी दे, ग्राह्य होता है. जैसे नेता को पब्लिसिटी, साहेब को घूस, फलनवां को ग़ाली—ये सब भक्ति भाव से दिए ही जाते हैं.
वैसे सवाल यह है कि सिद्धार्थ बुद्ध हुआ कैसे, जबकि वह न तो सिद्धार्थ है और न ही बुद्ध. कहता है उसे पत्नी और आधा दर्जन बच्चों से एकाएक एलर्जी हो गयी. होनी भी थी—आखिर कुछ भी तो स्थायी नहीं था. न नौकरी, न मकान, न पत्नी ही, जो अक्सर बीमार रहती. उस पर तुर्रा यह कि कहती रहती कि वह एक दिन छोड़ जाएगी. यह बात और थी कि न उसे कोइ मायके में पूछने वाला था. और न ही उसे देख कर कोई दूसरी संभावना नजर आती थी. पर कुछ तो होना ही था. चाहें छोड़ जाती या दवाओं के अभाव में ऊपर जाती. और बच्चे? अरे जाने दीजिए साहब. उससे तो गली के कुत्ते बेहतर होते हैं. पर फिर भी वह निर्लिप्त हुआ तब जब मकान मालिक ने उसे कोठरी से भी निकाल दिया. वह बस नाक की सीध में अकेला चलता-चला गया जब तक कि थक कर गिर न गया.
मजमा लगा तो उसने ही उसमें दिव्य तेज ढूंढ लिया. उसने बस इतना ही तो कहा था—क्या है जो अपना है? कुछ भी नहीं. कौन है जो अपना है? कहाँ जाना है? पता नहीं. और स्वयं तुम्हीं कौन हो? (अभिप्राय कोई नहीं).
उसमें कोई हीन ग्रन्थि नहीं है—साफ़-साफ़ कुछ भी स्वीकार कर लेता है. सारे अस्थायित्व, सारे अनस्तित्व के समक्ष अपने सवालों के साथ वह ऐसे ही एक मजमें के बीच है. दोनों के बस ये ही काम हैं.
लोग तमाम बुराईयों का ठीकरा उसके सर फोड़ते हैं. पर कहते हैं – ये ही क्या कम है कि उसने स्वयं को भगवान नहीं कहा.
एकांत
पत्नी बार-बार अपने अधिकार का दावा कर हिस्सेदार बन जाती है. माता-पिता को मैंने अधिकारच्युत करके उनकी उतरोत्तर धीमी पड़ती आवाज को एक कोठरी में सीमित कर दिया है. बच्चों की आँखों में खुद को शैतान जैसा पाटा हूँ. और झुंझला कर झापडो से उन्हें यह बताना चाहता हूँ कि उनका बाप हूँ. मिलने वालों के बीच सवालिया निशान की तरह खड़ा-खडा थक जाता हूँ. ... यह रेतीला तट कोई विरोध नहीं करता. कोई सवाल नहीं करता. धीरे-धीरे मेरे अनुरूप तब्दील हो जाता है. इसी से मैं नहीं चाहता कि तब कोई सम्मोहन के इस तिलिस्म को तोड़ दे.
वह कौन था मैं नहीं जानता.शायद मेरी ही तरह इस अभिव्यंजनापूर्ण तट के सम्मोहन में बंधने आ गया था. काफी देर तक मुझ से सट कर चलने के बाद उसने कहा था- ‘बड़ी शान्ति है यहाँ.’
मैं चुप रहा. मेरे भीतर कुछ स्थिर होने लगा था जो अब विलोडित हो गया था. वह फिर भी मेरे साथ-साथ चलता रहा. धारा सांवली हो गयी थी. मैं एक जगह बैठ गया था. वह भी मेरे बगल में बैठ गया. कुछ देर बाद बोला ‘शायद आप कुछ सुनना नहीं चाहते.’
मैंने उसकी ओर घूम कर देखा. वह रिक्त हो जाने को आतुर था. बेवशी थी. मैं सुनने को तैयार हो गया. वह यहाँ से शुरू हुआ कि आदमी को आज समझा नहीं जाता. हम एक दूसरे का आदर नहीं करते. दोस्ती करते हैं लेकिन शायद कुछ साझा बातों तक. एक आदमी को मुकम्मल तौर पर समझाने की किसी को फुरसत नहीं. ‘अब देखिए’, इसके बाद उसने वही कुछ बताया जैसा कि मैं अपने परिवेश के बारे में लिख चुका हूँ. उसके चहरे पर बेचारगी की मोटी जिल्द झूल गयी थी. सब कुछ बता देने के बाद वह कुछ नर्वस हो गया था और साथ ही उसकी भी व्यग्रता बढ़ गयी थी. वह रिक्त हो चूका था और भहराया सा जा रहा था. और जैसे सहारे की तलाश में ही बार-बार अपनी सफाई देकर मुझसे अपनी ताईद कराना चाहता था. वह अपनी तस्वीर मेरे हाथ में सौप देने के बाद उसके नंगेपन को मुझसे छुपा लेना चाहता था. मैं हंस पडा तो उसने अपने दाहिने पाँव पर बनाए गए बालू के घरौंदे में से झटके से पाँव खींच लिया. घरौंदा ढह गया. मैं फिर हँस दिया. वह बोला, ‘आपको हँसी आती है.’
बेहद किफ़ायती था वह. यह शायद उसकी नियति ही थी. उसकी बातचीत में भी कई बार यह शब्द आया था. मैंने कहा, दरअसल आप पर नहीं. मैंने कई बार चाहा है कि मेरी हँसी मुझ तक न लौटे. लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं.’ और मैं उदास हो गया.
वह चुप रहा. एक लम्बे समय तक मेरी उदासी में खोया रहा. फिर चला गया. कुछ कहा नहीं. मैंने चैन की सांस ली. ठीक वहां जा कर बैठक गया जहा से लहरें मेरे पांवों को छू सकें.
मैं कह सकता हूँ कि अब शान्ति थी. इस खामोशी के तिलिस्म को मैं तोड़ना नहीं चाहता था. खुद के टूट जाने का डर था. वह जो मेरे पास से चला गया था, शायद इस डर से वाकिफ़ नहीं था.
संपर्क-
बी-८, पत्रकार कोलोनी, अशोक नगर,
इलाहाबाद
मोबाईल- 09450635688
ई-मेल: ashrafalibeg786@gmail.com
(लघु कहानियों में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स राम कुमार जी की हैं जिन्हें हमने गूगल से साभार लिया है।)
"Aankhen" aur "ekaant" donon laghu kathaatye samaaj ke do pahaluon pr ek safal chitran kaetin hain .
जवाब देंहटाएंaur lekhak ka prichay karane ka aabhaar
katha-saahitya aur katha-bhaasha dono ko samriddh karti kahaaniyan..
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