विश्व के लोकधर्मी कवियों की परम्परा-4: नाजिम हिकमत
विश्व के लोकधर्मी कवियों की परम्परा पर हमने जनवरी 2013 में एक श्रृंखला आरम्भ की थी। इस क्रम में आप वाल्ट व्हिटमैन, बाई जुई और मायकोवस्की पर आलेख पहले ही पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत है वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी का तुर्की के प्रख्यात लोकधर्मी कवि नाजिम हिकमत पर यह आलेख।
नाजि़म हिकमत: सहज -सरल लोकधर्मी जातीय कवि
1951 के बर्लिन समारोह में नाजि़म ने भारत के बारे कहा है, हिंदुस्तान, बे-जोड़ हिन्दुस्तान को, तुर्की का, बेजोड़ तुर्की का सलाम और उसकी मोहब्बत’। इससे लगता है नाजिम अपने देश की तरह ही उन देशों को सम्मान देते थे जो औपनिवेशिक साम्राज्य से या तो मुक्त हो चुके हैं या उससे मुक्त होने को संघर्षरत हैं। अपने देश तुर्की के बारे में उनकी एक सुविख्यात कविता है, ‘मेरे देश’। इसमें उन्होंने अपने और देश के एकात्म होने के रिश्ते बताये हैं। यह रिश्ते ऐसे हैं कि आदमी और देश को परस्पर एक दूसरे का पूरक बनाते है। कितने रूपों में कितनी तरह से कितनी भंगिमाओं में ये रिश्ते साकार होते हैं नाजि़म इस कविता में बताते हैं -
तुम कोई खेत हो
और मै ट्रेक्टर हूँ -
खेत आधार है पर बिना जुताई गुड़ाई उसमें कोई फसल नहीं लहलहा सकती। देश के लिये खेत की तरह ही कमाना पड़ता है। उसके खरपतवार मारने पड़ते हैं। उसे जहरीली वन घासों से मुक्त कराना जरूरी है। इसके लिये जानलेवा संघर्ष का पथ ही एक विकल्प है। कवि फिर कहते हैं -
तुम मेरी पत्नी हो
मेरे पुत्र की जननी
तुम कोई गीत हो
मैं गिटार हूँ
इससे लगता है कि नाजिम के लिये देश से अलग उनका कोई सवायत्त अस्तित्व नहीं है। न देश का उनके बिना। ऐसा देश प्रेम सिर्फ लोकधर्मी कवि में ही हो सकता है। क्योंकि सच्चा लोकधर्मी कवि देश को प्यार करके ही अपनी जनता के लिये जीता मरता है। नाजि़म कहते हैं -
तुम जैसे चीन हो
और मैं माओ की सेना का सिपाही हूँ
यहाँ देश के प्रति अटूट प्रेम तथा जनता के मुक्तिसंग्राम में शिरकत करने की बात बिल्कुल साफ होती है। चीन जैसे महान देश को माओ की लाल सेना ने ही साम्राज्यवादी क्रूर शासन से मुक्त कराके समतामूलक समाज की स्थापना की थी। नाजिम नये -नये सार्थक रूपकों की वर्षा करते रुकते नहीं। कहते हैं -
तुम फिलीपीन की चौदह बरस की कुमारी हो
और मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ
अमरीका के नौ सैनिकों के हाथों से
संकेत है कि जिस तरह अमरीकी सैनिकों की अनैतिक क्रूरता से मैं उस कुमारी को मुक्त कराता हूँ ठीक उसी तरह अपने देश को क्रूर शासकों से मुक्त कराने के लिये संघर्ष करूँगा। जोखिम उठाऊँगा। कोई भी लोकधर्मी कवि अपने देश की जनता के संघर्ष में शरीक होकर ही जोखिम उठाता है। लोकधर्मी कवि को जनता और देश अलग अलग न होकर परस्पर एक दूसरे का पर्याय होते हैं। इसीलिये नाजि़म कहते हैं -
तुम मेरे सुंदरतम, भव्यतम नगर हो
तुम सहायता की पुकार हो
तुम मेरे देश हो
और तुम्हारी ओर दौड़ते चरण मेरे हैं।
हिंदी में निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार बाबू, मुक्तिबोध तथा उनकी परंपरा के आज तक के सभी कवि अपनी जनता से एकात्म होकर अपने देश से एकात्म होते हैं। जो अपनी जनता को प्यार नहीं करता वह अपने देश को क्या प्यार करेगा! देश प्रेम तथा जनता के प्रति प्रेम एक दूसरे के पर्याय हैं। रूपवादी - कलावादी कवि को जनता के संघर्ष में कोई सौंदर्य नहीं दिखाई देता। उन्हें आदमकद शीशे में सिर्फ अपना ही रूप निहारना अच्छा लगता है। चाहे वे अज्ञेय या कुँवरनारायण हों या फिर केदार नाथ सिंह अथवा विनोद कुमार शुक्ल। इन कवियों में वह सब गायब है जो हमें मुक्तिसंग्राम के लोकसंघर्ष की याद दिलाता है।
नाजि़म का जन्म हुआ 15 जनवरी,1902 में। औटोमन साम्राज्य के पश्चिमी महानगर में। उनका परिवार खूब ख्याति प्राप्त था। उनके पिता हिकमत वे मोहम्मद निज़ाम पाशा के पुत्र थे। उनकी माँ हनीफ मौहम्मद अली पाशा की पोती थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि नाजि़म पाब्लो नेरूदा की तरह गरीब पिता की संतान न थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अपने यहाँ के विभिन्न स्कूलों मे प्राप्त की थी। उन्हीं दिनो राजनीतिक उथल -पुथल प्रारंभ हो गयी थी। औटोमन सरकार ने प्रथम युद्ध में जर्मनी का साथ दिया। कुछ समय के लिये नाजि़म को औटोमन के समुद्री जहाज़ हमीदिया में नाविक का काम सपुर्द किया गया। लेकिन 1919 में वह गंभीर रूप से बीमार हो गये। स्वास्थ्य लाभ न कर पाने की वजह से 1920 में उन्हें इस भार से मुक्त किया गया। 1921 में नाजिम अपने मित्र के साथ तुर्की के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के लिये अनातोलिया चले गये। उसके बाद वे अंकारा पहुँचे जहाँ से तुर्की स्वतंत्रता संग्राम को नियंत्रित किया जा रहा था। वहाँ उनका परिचय मुस्तफा कमाल पाशा से कराया गया। पाशा चाहते थे कि नाजि़म और उनके मित्र ऐसी कवितायें लिखें जो तुर्की के स्वयं सेवकों को कुस्तुनतुनिया तथा अन्य स्थानों पर प्रेरित कर सकें। नाजि़म ने जो कविता लिखी उसे लोगों ने बहुत पसंद किया। अतः नाजि़म को बोलू के सुल्तानी कालेज में एक शिक्षक का काम सौंप दिया गया। अब वह सैनिक कार्य से पूरी तरह मुक्त थे। लेकिन नाजि़म तथा उनके दोस्त के कम्युनिस्ट विचार वहाँ के रूढि़ग्रस्त अफसरों को रास नहीं आये अतः दानों ने सोवियत संघ में जाने का इरादा बनाया। वे 1917 की अक्टूबर रूसी क्रांति का प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहते थे। 30 सितम्बर ,1921 को दोनों वहाँ जा पहुँचे। जुलाई , 1922 को दोनों मित्र मास्को पहुँच गये । Communist University of The Toilers में नाजि़म हिकमत ने अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र का अध्ययन प्रारंभ किया। यहाँ कवि माइकोव्स्की के काव्य कौशल तथा शिल्प सौष्ठव से नाजि़म बहुत प्रभावित हुये। यही नहीं लेनिन की मार्क्सवादी विश्वदृष्टि ने भी उन्हें बहुत प्रेरित किया।
नाजिम ने पहले छंद में कविता रचना शुरू की। इसके बावजूद उनकी कविता का रंग ढंग कुछ ऐसा था कि वे अलग से पहचाने जाने लगे। उन्होंने कविता, काव्य मुहावरा तथा भाषा के बारे में अपनी अलग धारणायें विकसित की है। हिकमत का मानना है कि 'वही कला असली है जो जीवन को प्रतिबिंबित करे। उसमें सारे अंतर्द्वंद, संघर्ष, प्रेरणायें, विजय पराजय और जीवन के प्रति प्यार और मानव के व्यक्तित्व के कुल पहलू मिलते हैं। वही असली कला है जो जीवन के बारे में गलत धारणायें न दें’। इसी प्रकार नाजिम काव्य भाषा के बारे में बिल्कुल अलग ढंग से सोचते विचारते हैं। उनका मत है कि, ‘नया कवि कविता, गद्य, और बातचीत के लिये अलग से भाषा का चयन नहीं करता। वह ऐसी सहज सामान्य भाषा में लिखता है जो गढ़ी हुई, झूठी, कृत्रिम नहीं होती। बल्कि सहज स्वाभाविक, जीवंत, सुंदर, सार्थक, गहन रूप से संश्लिष्ट -यानि सरल भाषा होती है। इस भाषा में जीवन के सारे तत्व मौजूद रहते हैं। लिखते समय कवि का उससे भिन्न कोई व्यक्तित्व नहीं रहता। जो बातचीत करते या लड़ते समय रहता है। कवि कोई महाप्राण व्यक्ति नहीं है जो स्वप्न देखता रहता है या कल्पना की दुनिया में विचरण करे। जैसे बादलों में वह उड़ा जा रहा हो। वह जीवन में रत, जीवन को संगठित करने वाला नागरिक होता है’। इससे लगता है नाजि़म कविता का मुहावरा प्रचलन से एकदम अलग तथा भिन्न रचने को यत्नशील हैं। वे भाषा को संप्रेषण का बुनियादी उपकरण मानते हैं पर साध्य नहीं। जैसा कि रूपवादी - कलावादी कहते हैं कि भाषा समाज-निरपेक्ष है। वह सर्वस्वायत्त है। उन्होंने कविता के नये रूप भी तलाशे हैं। लगता है परंपरित छंद की संकीर्णता उन्हें वैसी ही खटक रही थी जैसे हमारे यहाँ निराला को। इसीलिये उन्होंने छंद को तोड़ कर नया छंद आविष्कृत किया। नाजिम उन सोवियत कवियों से भी प्रभावित थे जो Futurism (भविष्यवाद) के पक्के पक्षधर थे। जब वह तुर्की वापस आये तो तुर्की में अग्रसर काव्य नायक बने। उन्होंने लगातार नये रूपों में धडाधड़ कवितायें लिखीं। नाजि़म तुर्की की कविता को एक नई दिशा -नया विज़न -दे रहे थे। उन्होंने नाटक भी लिखे। फिल्म के लिये पाण्डुलिपियाँ तैयार कीं। परंपरित छंद की अवरोधक सीमाओं को तोड़कर उन्होंने मुक्त छंद अपनाया। इस छंद को वह तुर्की भाषा में बातचीत के लहज़े तक ले आये हैं। अंग्रेज़ी में जैसे महाकवि वर्डस्वर्थ कविता को आम आदमी की भाषा में लिखने के लिये यत्नशील थे। एक ऐसी सरल सहज पर रागपूर्ण भाषा जो हमारे सामान्य जीवन की संक्रियाओं से प्रस्फुटित होकर ही जीवंत होती है।
तुर्की तथा गैर तुर्की गंभीर समीक्षकों ने नाजि़म की तुलना विश्व के अन्य महान कवियों जैसे लोर्का, लुई अरागाँ, मायकोव्स्की तथा पाब्लो नेरूदा आदि कवियों से की है। इसमें संदेह नहीं कि नाजि़म उक्त कवियों से प्रेरित तथा प्रभावित थे। फिर भी मूर्तिभंजन शिल्प सौष्ठव तथा अपने काव्य मुहावरे की दृष्टि से वह इन सबसे भिन्न तथा अप्रतिम हैं। उन की कविता प्रगीत की आत्मपरकता तथा मार्क्सवादी विचारधारा का अत्यंत समूर्त कलात्मक संश्लेषण है। उनकी प्रेम कवितायें भी विचारधारा का संग नहीं त्यागती। उनको उनके समीक्षकों ने ‘रोमेंटिक कम्युनिस्ट’ तथा ‘रोमेंटिक क्रांतिकारी’ कहा है। लगता है उनका निजी प्रेम भी सर्वहारा तथा देश के प्रति प्रेम में रूपांतरित होता रहता है -कहते हैं
हम एक सेव का आधा हिस्सा है
बाकी का आधा है यह पूरी दुनिया
हम एक सेवे का आधा हिस्सा हैं
बाकी आधा हैं हमारे जन।
वे अपनी प्रिया को संबोधित करते हुये अपने वर्ग-शत्रुओं के विनाश तथा अपने खूबसूरत देश की आज़ादी की बात करते हैं -
मेरी प्रिया
वे शत्रु हैं आशा के
बहते पानी के
पके फलदार वृक्षों के
अग्रसर फेलते जीवन के
उन्हें मृत्यु चिन्हित कर चुकी है
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अरे हाँ मेरी प्रिया
चारों तरफ आज़ादी जश्न मनायेगी
अपनी श्रेष्ठतम पहरन में
मजूर की झौंपड़ी में
बिल्कुल ... इस खूबसूरत देश की आजादी -
इसी तरह नाजि़म अपने वर्ग शत्रुओं को अपनी प्रिया तथा सर्वहारा के शत्रु में विभेद नहीं करते -
वे शत्रु हैं हमारे शहर के उस बुनकर के
कारखाने में काम करने वाले कराबुक मिस्त्री के
गरीब किसान के
हाजिते स्त्री के
रोजाना काम पै जाने वाले श्रमिक सुलेमान के
वे मेरे और तुम्हारे भी शत्रु हैं
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ओ प्रिया वे शत्रु हैं हमारे इस देश के -संकेत है सामंतों और साम्राज्यवादी उत्पीड़कों की तरफ। जो जनता को उत्पीडि़त करता है वह नाजि़म का भी वर्गशत्रु है। उसके विरुद्ध कविता को खड़ी करना है। उनके लिये कविता एक अस़्त्र है। वह उससे शिवेतर का क्षरण तथा विनाश चाहते हैं।
ध्यान देने की बात है कि एक लोकधर्मी कवि का प्रेम बिल्कुल निजी तथा आत्मपरक होकर भी वैश्विक सर्वहारा के लिये भी उतना ही गहन बनता है। नाजि़म की बहुत सारी कवितायें संगीतज्ञों ने गीतों में ढाल ली हैं। कहते हैं कि उनकी कविताओं का अनुवाद विश्व की बहुत सारी भाषाओं में हो चुका है। यहाँ तक कि ग्रीक भाषा में भी।
1940 में नाजि़म की कैद ने विश्व के लेखकों को आंदोलित किया। लेखकों तथा कलाकारों की एक समिति गठित हुई। उसमें पाब्लो पिकासो, पाल रौब्सन तथा ज्याँ पाल सात्र सदस्य थे। इस समिति ने नाजि़म को जेल से रिहा कराने का शक्तिशाली अभियान चलाया। 8 अप्रैल, 1950 को हिकमत ने जेल में भूख हड़ताल की। वह चाहते थे कि सर्वक्षमा का विधान संसद की कार्य सूची में जोड़ा जाये, देश में चुनाव होने से पहले। जेल में ही नाजि़म गंभीर रूप से बीमार हो गये। बाद में उन्होंने भूख हड़ताल खत्म कर दी। डाक्टरों ने उनका इलाज अस्पताल में कराने की सलाह दी। पर संवेदनहीन अधिकारियों ने स्वीकार नहीं किया। बाद में नाजि़म ने फिर भूख हड़ताल शुरू की। उनकी भूख हड़ताल से तुर्की में क्षोभपूर्ण प्रतिक्रिया शुरू हुई। देश में हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। नाजि़म के नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। नाजि़म की माता ने भी भूख हड़ताल शुरू कर दी। तुर्की के अनेक लेखक भी हड़ताल करने लगे। बाद में भूख हड़ताल खत्म हुई। सर्वक्षमा का संशोधित नियम पारित हुआ। नाजि़म को उसके तहत छोड़ा गया। 20 नवम्बर 1950 में नाजि़म को विश्व परिषद शांति पुरस्कार के लिये नामित किया गया। इस पुरस्कार को पाने वाली अन्य विभूतियाँ थी -पाब्लो पिकासो, पाल रौब्सन तथा पाब्लो नेरूदा आदि। बाद मे नाजिम तुर्की से पानी के जहाज द्वारा रोमानिया खिसक गये। वहाँ से सोवियत संघ पहुँचे। जब साइप्रस में आंदेालन खड़ा हुआ तो नाजि़म ने तुर्की के अल्पसंख्यकों से कहा कि वे ग्रीक में ब्रिटिश शासन समाप्त करने के लिये वहाँ की जनता का समर्थन करें। दशकों की यातनाओं के बाद नाजि़म का 3 जून 1963 को हृदयाघात की वजह से मास्को में निधन हो गया। शासन की क्रूरता के बावजूद नाजि़म को उनके देश की जनता बराबर प्यार, सम्मान तथा आदर देती रही।
नाजि़म को उनके देश के समीक्षकों ने प्रथम तथा अत्यंत महत्वपूर्ण सच्चे अर्थ में आधुनिक कवि की संज्ञा दी है। हमारे विचार से वह प्रथम लोकधर्मी कवि भी हैं। पूरे विश्व में उन्हें बीसवी सदी के महान कवि का दर्जा दिया है। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन प्रारंभ हुआ। 1965 और 1966 के बीच उनकी बीस पुस्तकें प्रकाशित हुईं। कुछ उनमें से पुनः मुद्रित थी। कुछ पहली बार ही छपी थी। उसके बाद लगातार उनकी चयनित कविताओं की आठ जिल्दें सामने आई। उनमें उनके नाटक, उपन्यास, पत्र तथा बच्चों के लिये कहानियाँ आदि भी थीं। इसके साथ ही उनके काव्य पर गंभीर समीक्षा भी सामने आई। 1965 और 1980 के बीच को छोड़ कर उनकी कृतियों को उन्हीं के देश में आधी सदी के लिये दबा दिया गया। उनकी मृत्यु के बाद से ही उनकी कविताओं के अनुवाद फ्रेंच, जर्मन, रूसी, ग्रीक, पोलिश, स्पानी तथा अमरीकी आदि देशों में होने लगे थे।
वाल्ट ह्विटमैन, शैले, निराला तथा त्रिलोचन की तरह नाजिम ‘मै’ शैली में संवाद करते हैं। पर इस ‘मैं’ शैली में उनके देश का तीव्रतम अंतर्विरोधी यथार्थ तथा बाहरी दुनिया की संपूर्ण हलचलें गुंथी बिंधी रहती हैं। उनका ‘मैं’ वैश्विक सर्वहारा का आंदोलित हुआ सघर्षपूर्ण पूरा विश्व है। उनकी कविता में आत्मपरकता के साथ जनसंघर्षों की आंदोलित दुनिया भी बोलती है। उनका ‘मैं’ कलावादियों - रूपवादियों का ‘नारसिसिज्म’ या आत्ममुग्धता जैसा नहीं है। सर्वहारा की गहन पीड़ा घनीभूत होकर उनका ‘मैं’ वजूद में आया है। उनमें अंग्रेजी के Stream Of Consciousnes जैसी निरी व्यक्तिनिष्ठ आत्म सजगता भी नहीं है। उनकी कविता में एक प्रतिबद्ध कवि की आशाएँ अभिलाषाएँ व्यक्त हैं। बच्चों जैसी उल्लसित स्फूर्ति। उनमें आसमान जैसा खुलापन है। सार्वजनिकता का प्रचुर भ्रातृत्व है। सामूहिकता का प्रतिबद्ध गान है। इन सबमें नाजि़म समाज तथा कला के जड़ ढाँचे और कुलीन सौंदर्यबोध को कठोरता से तोड़ते हैं। उनका व्यक्तित्व नेरूदा और लोर्का या निराला के व्यक्तित्व की तरह महानायक का एहसास कराता है। उनकी शुरू की कविताओं में संघर्षपूर्ण जीवन से एकान्विति का विश्वास है। उनके लिये कविता एक जीवन की सार्थक घटना ही है। समाज में या साहित्यिक इतिहास में उसका रूप परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है। उनकी कविता इस बात की रुचिर साक्षी है कि कवि का व्यवहार तथा आचरण उसकी कविता से अलग नहीं किया जा सकता। उनके समीक्षकों का मानना है कि नाजि़म की विश्वदृष्टि में मार्क्सवाद उनकी काव्य प्रेरणा के केंद्र में है। इसकी वजह से उनकी कविता को एक बिल्कुल अलग तथा अप्रतिम मुहावरा संभव हुआ है। नाजिम अपनी कविता तथा जीवन में जनविरोधी प्रवृत्तियों तथा शक्तियों का भरपूर विरोध करते हैं। उनके काव्य कथ्य में वह लोकधर्मी शक्ति छिपी है, अमरीकी कवि जिसकी कभी कल्पना तक नहीं कर सकते। नाजिम को क्रूर शासकों द्वारा जो यातनायें दी गई हैं वे एक प्रकार से उनकी उस काव्य साधाना का सम्मान ही है जिनकी प्रेरणा से सेना तक ने सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया। कविता और उनके विचार के लिये उन्हें यातनायें सहनी पड़ी हैं। यह उनके सुदृढ़ विचार की विश्वसनीयता को और अधिक प्रदीप्त करता है। उन्होंने अपनी कविता तथा लोकधर्मी दृष्टि के लिये कभी कोई समझौता नहीं किया। वह अपनी विश्वदृष्टि के प्रति सदा आश्वस्त रहे। अपनी कविता को उन्होंने लोक के लिये पूरी तरह समर्पित किया। सात्र ने उनके बारे में टिप्पणी करते हुये कहा है कि ‘नाजिम हिकमत ने एक ऐसे मनुष्य की कल्पना की थी जिसका सृजन अभी होना है’। न सिर्फ कविता में बल्कि जीवन में वह इस प्रकार के नये मनुष्य की छबियाँ, बिंब तथा संक्रियायें रचते रहे हैं। अर्थात् वह एक नायक इसलिये भी है कि वह अपनी जनता - अपने लोक के लिये - अपनी कविता को समर्पित मानते है। इस धारणा से नाजि़म की कविता ने अपने को तुच्छताओं से अलग रखा है। यह बहुत बड़ी बात है कि एक कवि नायक भी हो और जनता के संघर्ष में शरीक एक योद्धा भी। तुच्छताओं के पीछे भागती आज की दुनिया में नाजिम हमें कविता तथा जीवन को वह सम्मान देते लगते है जिसके वे सदा हकदार रहे हैं। रहेंगे। यह बात उनसे सीखने की है कि तुच्छताओं के पीछे दौड़ कर न तो कविता बड़ी होगी। न कवि व्यक्तित्व। कविता को ऊचाइयों तक ले लजाने के लिये हमें बहुत कुछ छोड़ देना होता है।
नाजि़म की एक कविता है , ‘आत्म कथा’। बड़ी दिलचस्प कविता है। उन्होंने बताया है कि वह कब किन हालात में पैदा हुये। उनकी शिक्षा दीक्षा कैसे हुई। कविता रचना कब शुरू की। कहते हैं -
मैं पैदा हुआ 1902 में
एक बार भी वापस नहीं लौटा अपनी जन्मस्थली
लौटना मुझे पसंद नहीं -
वह बताते हैं कि तीन साल का था तब वह अलेप्पो में एक पाशा के नाती थे। उन्नीस साल की उम्र में मास्को कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय के विद्यार्थी बने। 49 वें साल में वह फिर मास्को चेका पार्टी के अतिथि के नाते वहाँ थे। बताते हैं -
और मैं कवि हूँ चौदह की आयु से ही
कैसी विडम्बनापूर्ण त्रासदी है कि नाजि़म को कैद हुई क्योंकि उनकी कविताओं को सैनिक पढ़ते थे। खासकर ‘शेख बेदरेतिन’ महाकाव्य को। यह 1936 में छपा था। यह एक प्रदीर्घ कविता है। इसमें 15 वी सदी में ओटोमन के विरुद्ध किसानों के विद्रोह को व्यक्त किया है। कवि के जीवन काल की शायद उनके देश तुर्की में यह अंतिम कृति है। विश्व कवि नेरुदा ने नाजिम के गिरफ्तार होने के बाद उनके प्रति अमानवीय व्यवहार के बारे में बताया है। नाविकों को भड़काने के अभियोग में उन्हें कठोर तथा नारकीय दण्ड दिया गया। उनके इस अभियोग की सुनवाई जल युद्धपोत पर ही हुई। कहा जाता है कि उन्हें आदेश मिला कि वह युद्धपोत के सेतु पर ही घूमते रहेंगे जब तक वह थक कर रुक जाने को विवश न हो जायें। उसके बाद उन्हें शौचालय के एक ऐसे हिस्से में बंद कर दिया गया जहाँ फर्श पर करीब करीब आधा मीटर मैला जमा हो जाता है। वह बहुत शिथिल होने लगे। उत्पीड़क उन पर निगाह रखे हुये थे। उन्हें नाजि़म को दिये गये नारकीय दण्ड को देखकर आनंद का अनुभव हो रहा था। ऐसी नारकीय स्थिति में नाजि़म ने शुरु में मंद-मंद गाना प्रारंभ किया। उसके बाद उच्च स्वर में गाने लगे। फिर और तीखे स्वर में। यहाँ तक कि वह जितनी जोर से गा सकते थे गाते रहे। उन्हें जितने अपने प्रेम गीत तथा कवितायें याद थी उन्हें जोर से गाया। किसानों की गीत - गाथायें भी गाई। उन्होंने किसानों को लिखे संघर्ष - भजन भी गाये। जो कुछ भी उन्हें याद था उसे गाते रहे। इस प्रकार उन्होंने इस नरक पर विजय पाई। जेल में उन्होंने भविष्यवाद से आंदोलित होकर समसामयिक कथ्यपरक कविताये रचीं। वे सीधे सीधे जनता से संवाद हैं। पर उनकी ध्वनि बहुत अर्थवान तथा गंभीर है।
इन कविताओं को लिफाफे में बंद करके उन्होंने अपने परिवार वालों तथा मित्रों के लिये प्रेषित कर दिया । इरादा था कि इन्हे जनता के बीच वितरित कर दिया जाये। अपनी कैद के समय नाजि़म ने बहुत ही बेहतरीन प्रगीत कवितायें रची हैं। 1941 -1945 के बीच उन्होंने अपना उत्कृष्ट महाकाव्य भी रचा था। उनकी कवितायें मानवीय भूदृश्यों से भरी पड़ी हैं। अपने परिवार के लिये आजीविका हेतु उन्होंने जेल मे बुनने तथा लकड़ी के शिल्प के भी हुनर अर्जित किये। 40 वे दशक के अंतिम दिनों में वह जेल में ही थे। इसी दौरान उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी से तलाक लेकर तीसरी बार विवाह किया। यह बात मुझे सामाजिक नैतिक आचरण की दृष्टि से अजब लगती है कि नेरूदा तथा नाजिम आदि जैसे महान कवि अपनी पत्नियों को क्यों त्यागते रहे! एक कवि का क्या इतना बड़ा हृदय नहीं होना चाहिये कि वह अपनी एक पत्नी के साथ जीवन व्यतीत कर सके! जिस पत्नी को हम त्याग रहे हैं उसके प्रति रची प्रेम कवितायें क्या हमारे प्रेम को छद्म में नहीं बदलती। कितना ही बड़ा कोई कवि है उसका आचरण हमें प्रेरित करता है। नाजिम हो या नरूदा मुझे यह उनकी ऐसी मानवीय दुर्बलता प्रतीत होती है जिसको किसी भी तरह न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। जब हम कविता या देश को इतना बड़ा त्याग कर सकते हैं तो पत्नी के लिये क्यों नहीं! इन महान कवियों के लिये ऐसी क्या विवशता रही होगी कि ये कवि अपनी पत्नियों से तलाक लेते रहे! दूसरे विवाह रचाते रहे। हिंदी में भी ऐसे लेखक हैं जो अपनी पत्नियों का परित्याग कर अन्य से वैवाहिक या अवैध रिश्त बनाते रहे हैं। ऐसे लेखकों के रचना कर्म का हमारे ऊपर अच्छा असर नहीं होता। भारतीय मन इसे नहीं स्वीकारता। यदि स्वीकारता भी है तो अपराध बोध के साथ। खैर .......
1950 में नाजि़म को विश्व शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया। कहा जाता है कि लेखकों के अभियान चलाने पर नाजि़म को जेल से रिहा तो कर दिया गया। पर उन की हत्या के प्रयत्न इस्तम्बूल की सकरी गलियों में बराबर होते रहे। इसके बाद उन्हें रूसी सीमांत पर सेना की सेवा में लिया गया। एक डाक्टर ने उनसे कहा कि वह इतने कमज़ोर हैं कि यदि वह एक घंटे धूप में खड़े रहें तो उनका काम तमाम हो सकता है। पर फिर भी डाक्टर उन्हें बिल्कुल फिट होने का ही प्रमाण पत्र देगा जिससे उन्हें सेना में काम करने को विवश होना पड़े। यह जान कर नाजि़म बोसफोरस से एक मोटर बोट के द्वारा चुपचाप खिसक लिये। लेकिन जलडमरूमध्य चारो तरफ से संरक्षित था। यह एक तूफानी रात थी। नाजि़म बुल्गेरिया जाना चाहते थे। पर तूफानी समुद्र होने की वजह से यह कठिन था। रूमानिया के एक मालवाहक जहाज़ के उन्होंने चक्कर लगाये। समुद्र में भायानक तूफान बराबर उठ रहा था। नाजिम अपना नाम लेकर खूब चीखे चिल्लाये। जहाज़ वालों ने उन्हें अभिवादन किया। रूमाल हिलाये। पर रुके नहीं। नाजिम उसी भयानक तूफान में उस मालवाहक जहाज़ को घेरे रहे। उसके चक्कर लगाते रहे। दो घंटे बाद जहाज़ उन्होंने रोका। फिर भी उन्होंने नाजि़म को अपने जहाज़ पर बैठाया नहीं। उनकी मोटरबोट घिसटने लगी। उन्होंने सोचा अब सब कुछ खत्म होने को है। आखिर में उन्होंने नाजिम को घसीट कर मालवाहक जहाज़ पर खींच लिया। यद्यपि जहाज़ वाले बुखारेस्ट से आदेश पाने के लिये बराबर फोन पर संपर्क किये हुये थे। नाजिम अशक्त होकर थक चुके थे। एक तरह अधमरे से थे। किसी तरह खिचड़ खिचड़ा कर वह जहाज के अफसर के केबिन में पहुँचे। वहाँ केपटिन के साथ उनके अनेक चित्र लगे थे जिनपर लिखा था, ‘नाजि़म की रक्षा करो’। कैसी क्रूर विडम्बना थी कि वह एक साल से बिल्कुल मुक्त घोषित किये जा चुके थे। किसी तरह वह मास्को पहुँचे। उन्हें लेखकों की कालौनी में घर दिया गया। लेकिन तुर्की सरकार ने उनकी पत्नी तथा उनके बच्चे को उनके पास जाने की अनुमति नहीं दी। 1952 में उन्हें दोबा रा दिल का दौरा पड़ा। फिर भी नाजिम अपने निर्वासित काल में खूब भ्रमण करते रहे। पूर्व योरुप के साथ साथ उन्होंने रोम, पेरिस, हवाना, पीकिंग आदि स्थानों को देखा परखा। पर अमरीकियों ने उन्हें अपने देश आने की अनुमति नहीं दी। 1959 में अपने देश तुर्की की नागरिकता त्याग कर उन्होंने पोलेण्ड की नागरिकता हासिल की। उन्होने तर्क दिया कि यहाँ उन्होंने 17 वी सदी के एक अपने पूर्वज क्रांतिकारी की नीली आँखें और लाल केश उत्तराधिकार में अर्जित कर लिये हैं। 1959 में उन्होंने फिर विवाह किया। उनकी बाद की कविताओं की लय कुछ बेदम है। उनमें युवा जीवन की कविताओं जैसी स्फूर्त जीवंतता नहीं दिखाई पड़ता। इन कविताओं में वर्तनी पर भी ध्यान नहीं दिया गया है। शिल्प सौष्ठव भी शिथिल है। कविताओं में कछ अजब सी उदासी है। नाजिम जिस कविता को जीवन में इतने समर्पित रहे वह उन्हें छोड़ने की भंगिमाओं व्यक्त कर रही है। एक समर्पित कवि के लिये इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है! अपनी ‘आत्म कथा’, कविता (1961) में ऐसे भावों की ध्वनि सुनी जा सकती है। कवि अपने जीवन का पुनारवलोकन सिंहावलोकन शैली में करते दिखते है -
कुछ समझते हैं वनस्पतियों के बारे में
मैं समझता हूँ विछोह का दर्द
कुछ को पता है सारे नक्षत्रों के नाम
मैं गाता हूँ अनुपस्थित चीज़ों के बारे में
रातें गुज़ारी है
जेलों में
भव्य होटलों में
मैं समझता हूँ
भूख और भूख हड़ताल का दर्द
कवि बताते हैं कि उन्होंने दुनिया में सभी तरह के व्यंजन चखे हैं। तीसवें साल में जल्लाद उन्हें फाँसी पर लटकाना चाहते थे। 48 वे साल उन्हें दिया गया शांति पुरस्कार। 52 वे साल में अस्वस्थ होने की वजह से कवि चित्त लेटे रहे -मृत्यु का इंतजार किया।
कवि कहते हैं कि उन्होंने चार्ली चैप्लिन से कभी कोई ईर्ष्या नहीं की। क्योंकि उन्हें वैसी सस्ती लोकप्रियता की जरूरत न थी। कवि यह भी स्वीकार करते कि उन्होंने अपनी पत्नियों के साथ विश्वासघात किया -
मैंने अपनी स्त्रियों के साथ विश्वासघात किया -
यह उन्होंने स्वीकारा तो है। पर क्या ऐसा करके उन्होंने अपने कवि नैतिक आचरण और कविता को भी क्या कमजोर और छोटा नहीं किया! कवि स्वीकारते हैं कि उन्होंने मदिरा भी पी। पर कभी-कभी। यहाँ गालिब याद आते हैं -
गालिब छुटी शराब, पर अब भी, कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब- ए-माहताब में
पर नाजिम ने किसी दोस्त की पीठ पीछे चुगली नहीं की। कवि बड़े गर्व से कहते हैं कि उन्होंने रेलों, वायुयानों, कारों से यात्रायें की जबकि अधिकतर लोगों को ऐसे अवसर नहीं मिलते। यह भी बताते हैं कि वह बहुत सारे काफी घरों में बैठे हैं। वहाँ बैठ कर बहसें की हैं। उनकी रचनायें अनूदित हुई चालीस पचास जवानों में। वह साठ साल की उम्र में भी प्रेम करते रहे। उन्होंने गीतिनाट्य देखे। आम आदमी तो उसका नाम तक नहीं जानता। कवि ने बताया है कि उन्हें प्रधानमंत्री बनने की कभी इच्छा नहीं हुई। बाद में कविता का समापन करते हुये कहते हैं कि -
अपने साथियों से
संक्षेप में कहना चाहता हूँ
यदि मैं बर्लिन में गहन दुख से
बेचैन हूँ
इस पर भी मैं कहता हूँ
एक आम आदमी की तरह मैं जिया
कौन जाने
आगे अभी कितना जीना है
हो सकता है
कुछ और घटे मेरे जीवन में।
ध्यान देने की बात है कि ‘आत्मकथा’ लिखी गई 1961 के आस पास। हृदयाघात से नाजि़म की मृत्यु हुई सोवियत रूस में 1963 में। ‘आत्म कथा’ कविता पढ़ कर लगता है कि अब नाजि़म कविता से उछट रहे हैं। यहाँ सूचनायें और अपने बारे में ब्यौरे अधिक हैं। कविता कम। उनकी मृत्यु वर्ष के आस पास लिखी उनकी एक और कविता है, ‘मैं वृद्ध होने का अभ्यस्त होता जाता हूँ’। यानि एक ऐसा एहसास जो हमे जीवन, प्रकृति तथा कविता से विमुख करने को है। उन्हें जैसे एहसास हो रहा है अपनी मृत्यु का! उन्हें लगता है अब वह ‘अंतहीन बिछोह’ के करीब आ चुके है। कविता में एक अजब किस्म का गहन अवसाद और निराशा सी झलकती है। अब उन्हें समय का उबाऊपन उसके घंटे दर घंटे गुज़रते से महसूस होते है। ऐसे समय उन्हें संसार का स्वाद पौ फटी सुबह की सिगरेट जैसा लगने लगा है। कवि अपने को बिल्कुल अकेला महसूस करता है। वह जानता है कि जो हर समय संक्रियाओं में लगे हैं उन्हें अपने बूढ़े होने का एहसास होता ही नहीं -
दरवाज़े पर अंतिम दस्तक छोड़ता हुआ
अनंत विछोह
समय गुज़रता है
वह गुज़रता जाता है
जिसे मैं समझना चाहता हूँ
आशा का मूल्य दे कर भी
मैं चाहता रहा हूँ
तुम से कहना
पर लगा कुछ कह नहीं पाया
इस दुनिया का स्वाद अब लगता है
पौ फटने पर सिगरेट पीने जैसा
मौत आने से पहले
भेजती आदमी के पास
उसका अकेलापन
मुझे ईर्ष्या है उन कर्मनिष्ठ लोगों से
जो बुढापे का
एहसास ही नहीं करते
इन कविताओं में जो गहन अवसाद की गहरी छाया दिखाई देती है वह कवि की आंतरिक पीड़ा को व्यक्त करती है। इन कविताओं की ध्वनि उनकी पहली कविताओं से कतई भिन्न है जहाँ वह संघर्ष और कठिनाइयों का सामना प्रेम प्रगीतों के माध्यम से उल्लास की मनःस्थिति में करते हैं। अपनी एक कविता ‘कैदी के पत्र’ में वह कहते हैं -
मेरी अनन्य प्रिये
तुमने अपने पहले खत में लिखा था
‘अगर वे तुम्हें सूली पर चढ़ा देंगे
अगर मैं तुम्हें खो दूँगी
तो मैं कैसे रहूँगी जीवित
तुम जिंदा रहोगी, रहोगी, रहोगी
मेरी प्रिये- तुम रहोगी जिंदा
मेरी स्मृति हवा में काले धुँये की तरह
मिट जायेगी
तुम जिंदा रहोगी
मेरे हृदय की रुचिरकेशी
मेरी प्रिये
मेरा हृदय कभी नहीं स्वीकारेगा
ऐसी मृत्यु
अभी तो मुकद्दमा शुरू ही हुआ है
उन्हें एक आदमी को मृत्युदण्ड देना है
यह कोई आसान काम नहीं
यह कोई शलजम को उखाड़ना नहीं है
इस बात की चिन्ता त्यागो
यह अभी दूर की बात है -
यहाँ मृत्यु सामने दिखाई दे रही है। पर कवि उसे अपनी प्रबल जिजीविषा से नकारते है। जीने की इतनी अदम्य इच्छा विरल है। नाजि़म को यह दुनिया ही जैसे स्वर्ग है। इस दुनिया में उत्पन्न होना उनके लिये जैसे वरदान हो। इसी दुनिया से ही उन्हें जीवन की हर चीज़ उपलब्ध होती है। वैज्ञानिकों, भूगोलवेत्ताओं, भूगर्भशास्त्रियों तथा खगोल विद्वानों ने इसके रहस्य जान कर इसे सीमित तथा किंचित् काबू में कर लिया हो। पर नाजि़म के लिये यह विशाल, कल्पनातीत जथा आश्चर्यचकित करने वाली है। उनकी कविता है, ‘मैं कितना प्रसन्न हूँ’
मैं कितना खुश हूँ
दुनिया मैं पैदा हुआ
मुझे उसकी रोशनी से
रोटी से
उसकी मिट्टी से प्यार है
माना कि लोगों ने उसका व्यास नाप डाला
निकटतम इंचों तक
माना कि यह सूरज का खिलौना है
पर मेरे लिये यह विशाल है -कल्पनातीत है!
नाजि़म अकेले होकर भी अपने को अकेला नहीं मानते। यह दुनिया उन्हें एहसास कराती है कि वह अकेले नहीं हैं। वही उनकी शक्ति है। जिन व्यक्तियों को उन्होंने कभी नहीं देखा। न उनसे मिले। फिर भी वह उन्हें अपने से जुड़ा महसूस करते हैं। वे सब जैसे उनके संघर्ष में शरीक हैं। यही नहीं बल्कि नाजि़म साफ करते हैं कि इस वर्ग विभाजित दुनिया में उनके मित्र ही नहीं शत्रु भी है -
हमारे दोस्त और दुश्मन हैं
दोस्त -
जिन्हें मैं ने कभी देखा नहीं
फिर भी हम सब एक साथ
जीने मरने को प्रस्तुत हैं
एक तरह की स्वतंत्रता पर
एक ही तरह की आजीविका पर
एक ही तरह की आशा पर
दुश्मन -
इस विशाल विस्तृत दुनिया में
मेरी ताकत यह है
मैं अकेला नहीं हूँ ।
नाजि़म नेरूदा की तरह श्रम के सौंदर्य का बार बार संकेत देते हैं। मनुष्य के ‘हाथ’ ही हैं जो दुनिया में हर प्रकार का उत्पादन करते हैं। हाथ ही सर्वहारा की वैश्विक शक्ति के प्रतीक हैं। उनमें पत्थरों की कठोरता है। अवसाद में गाये गीतो की उदासी है। भार ढोने वाले पशुओं की तरह वे विशाल हैं। उनमें भूख से मरते बच्चों की क्रुद्ध शक्ले, मधुमक्खियों का श्रम’ दुधाते थनों का गद्दरपन, तथा पृथ्वी को साधने की शक्ति निहित हैं -
पत्थरों की तरह कठोर हैं तुम्हारे हाथ
जेल में गाये गये गीतों की तरह
विषाद भरे उदास
बोझा ढोने वाले पशुओं की तरह
बड़े और विशाल
भूख से मरते शिशुओं की तरह
क्रुद्ध शक्लों वाले हाथ
तुम्हारे हाथ -
मौहार की तरह श्रमशील
और हुनरमंद
दुधाते थनों की तरह भरा गद्दर
इस पूरे निसर्ग की भांति बलवान
यह धरती गाय के सींग पर नहीं
तुम्हारे बलिष्ठ हाथों पर टिकी है।
नाजि़म का मानना है कि चाहे दुनिया के आविष्कार, छापेखाने, पुस्तकें, दिवारों पर चिपकाये गये विज्ञापन, अखबार, रजतपट पर प्रदर्शित किशोरियों की नंगी टाँगें, प्रार्थानायें, स्वप्न, लोरियाँ, शब्द, चाँदनी, रंग, हमारी बोली वानी, श्रम को हड़पने वाला- ये सब झूठ बोलते हैं -बोलते रहें
अगर तुम्हारे हाथों के श्रम को लूटने वाला है झूठ
अगर हर चीज़ और हर आदमी बोलता हैझूठ
और झूठ नहीं बोलते हैं सिर्फ तुम्हारे हाथ
आखिर ये सब झूठ क्यों बोलते हैं! क्योंकि वे चाहते हैं कि श्रमशील हाथ अपनी श्रमदृष्टि और बलिष्ठ ऊर्जा खो दें। वे चाहते हैं कि तुम्हारे सचेत हाथ विवेकहीन हो जायें। क्यों कि कहीं ये विद्रोही हाथ उन क्रूर निष्करुण
उत्पीड़को के विरुद्ध खड़े न हो पायें -
तो यह सारा कुछ है इस वजह से
कि गीली मिट्टी की तरह तुम्हारे जीवंत हाथ
मूर्ख हो जायें चरवाहें के कुत्ते की तरह
इसलिये भी
तुम्हारे हाथ दूर रहें विद्रोही बनने से
इसलिये भी कि समाप्त न हो
धनलोलुप की सत्ता
उसका उत्पीड़न.......
नाजि़म एक सिद्ध कवि हैं। उनका प्रत्यक्ष परोक्ष अनुभव विविध और विशाल है। तुर्की भाषा पर उनका अप्रतिम अधिकार है। सामान्य से सामान्य बात को कविता में कहने की अपूर्व दक्षता तथा शिल्प उनके पास है। वह कलाविहीन कला के अप्रतिम सहज कवि हैं। उनका शिल्प उनकी कविता में से ही जनमता है। वे काव्य रूपों को कथ्य पर कभी आरोपित न कर उसे सहज रूप से कथ्य के विकास के साथ ही विकसित होने देते हैं। बोलचाल की भाषा तथा काव्य में जितना अंतर नाजिम मिटा पाये हैं उतना न तो नेरूदा न लोर्का। ब्रेख्त तथा मायकोव्स्की की भाषा भी बहुत सहज होकर उस लोक की धरती पर नहीं आ पाती जितनी नाजि़म की। मेरे विचार से चीनी कवि वाइ जुई की भाषा नाजिम की भाषा के बहुत करीब से निहारती है। नाजि़म आकार में बहुत छोटे देश तुर्की के होकर भी अपनी दृष्टि पूरी दुनिया के आंदोलित जन पर रखते हैं।-
ओह, मित्रो, मेरे सहचरो
सबसे अधिक एशिया के लोगो
अफ्रीकी लोगो
मध्यपूर्व
निकट पूर्व
प्रशांत द्वीप श्रृंखला के लोगो
मेरे अपने देश के जन
कहूँ तो पूरी मनुष्यता के
सत्तर प्रतिशत से भी अधिक जन
$ $ $
मेरे मित्रो
ओ मेरे सहचरो
योरुप या अमरीका के मेरे सहोदरो
तुम जाग्रत हो
साहसी भी
फिर भी तुम इतनी आसानी से
हाथों की तरह ही
विवेकहीन क्यो बन जाते हो
धोखा खाना ही तुम्हारी नियति है क्या
नाजि़म की कविताओं मे पूँजीवाद की क्रूरता तथा साम्राज्यवाद की अमानवीयता पर तीखे व्यंग्य हैं। करारे प्रहार भी। वे जानते हैं कि सर्वहारा के पक्ष में बुनियादी बदलाव हुये बिना न तो स्थाई शांति मुमकिन है। और न सुंदर दुनिया का निर्माण। नाजि़म अपने देश -अपनी जनता को कभी नहीं भूलते। उनकी कविता की जातीय पहचान आज के कवियो तथा कविता के लिये विशेष प्रेरणास्रोत है। आज की 80 प्रतिशत हिंदी कविता विजातीय क्यों लगती है! आखिर जातीय कविता की क्या पहचान हो! उसमें हमारे व्यापक लोक की मार्मिक छबियाँ क्यो नहीं व्यक्त हों! यह तभी संभव है जब हम अपनी जनता, अपनी धरती तथा अपनी प्रकृति से प्यार करें। उन सबसे एकात्म हों। सर्वहारा के संघर्ष में शरीक हो सकें। हमें अपने परिवेश का गहरा अनुभव हो। अपने देश की जनता, जमीन, जड़ों से जुड़ना जातीय होने की पूर्व शर्त है। नाजि़म इन सबको पूरा करते हैं। निराला ने एक जगह कहा है कि, ‘जनता जातीय वेश की हो’। यहाँ वे भारतीय लोगों पर चढ़े पाश्चात्य के गहरे रंग पर टिप्पणी कर रहे हैं। मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि ‘हमारी कविता भी जातीय वेश’ की हो। यह बात हम अपने अग्रज महान कवियों निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल आदि से सीख सकते हैं। आज की कविता अपने अधिकांश किंदी कविता से श्रमिक, छोटे किसानों, बनती बिगड़ती प्रकृति तथा परिवेश के चित्र और छबियाँ क्यों गायब हैं! कवि के सरोकार बड़े सामाजिक राजनीतिक सरोकार क्यों नहीं हो पाते! नाजिम के हर शब्द में उनकी जातीयता और बड़े राजनीतिक -सामाजिक सरोकारों के चित्र मुखर होते हैं -
देश -जिसकी शक्ल
घोड़ी के सिर जैसी है
ऐसी घोड़ी जो
पूरी तरह दौड़ कर
सुदूर एशिया से चली आती है
बाद में लगता है
वह भूमध्यसागर में विलीन गई है
यह देश हमारा है रक्ताभ कलाइयाँ है
दांत भिंचे हुये
पैर नंगे
रेशम के कीमती कालीन की तरह
नरक और स्वर्ग जो भी है
यह हमारा अपना है
नाजि़म चाहे जैसी कवितायें लिखें उनमें जातीयता, अटूट देश प्रेम, उत्पीडि़त जन की मुक्ति के लिये बेचैनी तथा उत्कट अभिलाषा जरूर व्यक्त होते हैं -
वे दरवाज़े बंद हों
जिन पर दूसरों का हक है
समाप्त हो जन को दास बनाने की प्रथा
विनम्र संकेत है यही हमारा
जीते रहे जैसे
जिंदा रहता है एक पेड़
बिना किसी सहारे के
बिल्कुल मुक्त
भाई चारे के सघन वन में
हम जियें
हमारी है यही प्रबल इच्छा
नाजि़म समझते हैं उत्पीड़क वर्ग बहुत शक्तिशाली है। निराला ने जैसे कहा है -
अन्याय जिधर, है उधर शक्ति।
अन्यायी की क्रूरता पूरी विश्व मानवता को ही अभिशाप है। उत्पीड़क न तो हमें मुक्त होकर बोलने देता है। न रचने देता है। न गाने देता है । पर वह जाग्रत सर्वहारा के अस्तित्व से भयभीत भी रहता हैं। नाजि़म की एक कविता है अश्वेत संगीतज्ञ पाल रोबसन को संबोधित -
वे हमें अपने गीत नहीं गाने देते
पालरोबसन
गायगों के गरुण
ओ अश्वेत नीग्रो संगीतज्ञ
वे यही तो चाहते हैं
हम अपने गीत न गा सकें
वे भयभीत हैं हम से
वे अरुणोदय से डरते हैं
हमें देखने, सुनने, छूने से
डरते हैं......
उन्हें डर है बीज से
पृथ्वी से
पानी से
और वे मित्रों की स्मृति से भी
डरते हैं
ऐसा हाथ
जो कोई कमीशन नहीं चाहता
सूद नहीं माँगता
वे हमारे प्रगीतों से भयभीत है
केवल इसलिये
कि तुमने आशायें नहीं त्यागी
संसार को
अपने देश को
आदमी को बेहतर बनते देखने की
उन्हे उम्मीद है प्रकाश से नहाये दिन देखने की। फिलहाल स्थिति हांलाकि ठीक नहीं है -
सच है हमारी थालियों में अभी
सप्ताह में एक दिन ही गोश्त मिलता है
और हमारे बच्चे काम के बाद
इस तरह लौटते हैं
जैसे पीली पीली ठठरियाँ हों
यह तो सत्य है फिलहाल
पर यकीन करो
बच्चो, हम खूबसूरत दिन जरूर देखेंगे
उन्हें देखेंगे
सूर्य प्रकाश में नहाये दिन
जरूर देखेंगे।
संपर्क
मोबाईल- 09928242515
email- kritioar @gmail.com
blog- poetvijendra.wordpress.com
Priya Vijendra jee aapka aalekh Naajim ke sarokaaron ko vistaarpoorvk darshataa hai . Kedaarnath singh par lagaaye aakshep se meri bilkul sahmatee nahi hai. khair...Vishav kavita par kucch zaroori aalekhon ki apeksha karate hue haardik dhanyavaad . Santosh jee aapka Abhaar.
जवाब देंहटाएंआदरणीय विजेन्द्र जी ने लोकधर्मी कविता और कवियों पर गहन शोध किया है सराहनीय है , हिंदी साहित्य जगत उन्हें सदा इस योगदान के लिए याद करगा . युवा पीढ़ी को विजेन्द्र जी ने ज्ञान का अनमोल धरोहर दिया है . हम उनके प्रति कृतज्ञ हैं . सादर
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन
कमाल का लेख है यह ..ब्लागों की दुनिया में यह श्रृंखला का विशेष महत्व की साबित हो रही है |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लेख
जवाब देंहटाएंआप भयानक निराशोंमाद से पीड़ित हैं. इलाज करवाइए, ठीक हो जायेंगे. और वाहवाही करने वाले आपकी व्याधि बढ़ा रहे हैं. मैं उनमें से कुछ को जानता हूँ. या तो उन्होंने इस लेख को पढ़ा नहीं, या फिर वे आपको रसातल में पहुँचाने के लिए टिप्पणी कर दिये हैं. कविता समझने की तमीज सीखिये. बुरा मत मानियेगा, अगर आप से सहानुभूति नहीं होती तो मैं यह जहमत नहीं लेता.
जवाब देंहटाएंदिगंबर जी ...आपकी टिप्पड़ी बड़ी अशोभनीय है | आपने किस सन्दर्भ में ऐसा कहा , बिलकुल समझ में नहीं आया | मुझे तो ऐसा लगता है , कि लोकधर्मी कवियों की यह पूरी श्रृंखला ही बड़ी महत्वपूर्ण है | ब्लागों की दुनिया में इसे मैं एक बड़ा काम भी मानता हूँ | लेकिन आपके लगाए गए आरोपों से मैं बहुत निराश हूँ | जाहिर है अगर आपसे सहानुभूति नहीं होती , तो मैं भी यह जहमत नहीं उठाता |
जवाब देंहटाएंदिगंबर जी, मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आया कि आप आलेख की किस बात से असहमत हो कर इस तरह की पूर्वाग्रह से ग्रस्त टिप्पणी कर रहे हैं. क्या अब हम विजेन्द्र जी जैसे वरिष्ठ कवि को कविता समझने की तमीज सिखायेंगे. अगर आपकी उनकी किसी व्याख्या से असहमति है तो आप उसे व्याख्यायित करिए. हम आपका स्वागत करेंगे. आज भी विजेंद्र जी में जो युवकोचित उत्साह है, काम करने की जो ऊर्जा है और इस उम्र में जब लोग या तो थक-हार कर बैठ जाते हैं, या अपने को दुहराने लगते हैं, विजेंद्र जी में जो नैरन्तर्य है वह हममें से कितने युवाओं में है. इस पूरी श्रृंखला को आप ध्यान से पढ़िए और तब टिप्पणी करिए कि यह मूल्यवान है या कुछ और. आपकी रचनात्मक टिप्पणियों का हम स्वागत करेंगे.
जवाब देंहटाएंसंतोष चतुर्वेदी
दिगंबर जी , आपको मैं एक गंभीर अध्येता के रूप में जनता हूँ . आपकी प्रतिबद्धता का सम्मान भी करता हूँ . लेकिन यहाँ आपने जो टिपण्णी की है उसको पढ़कर मैं सन्न रह गया कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ कि आपने इस आलेख में निराशोंमाद कहाँ देख लिया और आपको विजेंद्र जी की कविता की समझ में कौनसी दिक्कत लगती है? इन पर कुछ विस्तार से कहें तो हमें भी विजेंद्र जी और उनकी कविता को अच्छी तरह समझने में मदद मिलेगी .अन्यथा यह लगेगा कि आपने यह टिपण्णी अपनी कोई खुन्नस निकालने के लिए की है .
जवाब देंहटाएंमैं तो विजेन्द्र जी जनता भी नहीं.साथियों ने अभी-अभी जो कुछ बताया, उससे मालूम हुआ कि वे प्रतिबद्ध कवि और समर्पित व्यक्ति है. उन्हें मेरा सादर प्रणाम.
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है, मुझे ब्लॉग-श्लोग नहीं पढ़ना चाहिए. वहाँ तत्काल प्रतिक्रिया देने की गुंजाइश मेरे मिजाज से मेल नहीं खाती. मैंने खुन्नस में कुछ नहीं कहा. तल्ख़ तात्कालिक प्रतिक्रिया के लिये मैं क्षमा चाहता हूँ.
लेकिन मैंने विजेन्द्र जी की कविताओं पर तो कुछ नहीं कहा. नाजिम के प्रति कुत्सित आक्षेप मैं सह नहीं पाया.
आप आलेख पढ़िए. नाजिम की कविताओं से मनमाने अर्थ निकले गये है. खास कर उनकी कविता 'आत्मकथा' की व्याख्या इतना भ्रष्ट है कि पूछिए मत. और सबसे ज्यादा क्षोभ पैदा हुआ यह जान कर कि आलोचक ने नाजिम की दूसरी शादी को अनैतिक करार दिया. एकनिष्ठता और एकल विवाह को उलझा दिया और अपनी सामंती ढोंगी नैतिकता के आधार पर उन्हें सनद पकड़ा दिया.
नाजिम की कविता के उत्तरार्र्ध के बारे में यह कहना कि उसमे कोई दम नहीं, चंद अनूदित कवितायेँ पढ़ के ऐसे फैसले देना....
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंविजेंद्र
जवाब देंहटाएंबी- 1 / 801,
महेन्द्रा क्लेारिस,
सै0 19 डी0पी0एस0 के पास
फरीदाबाद,
19 अप्रैल,13
प्रिय संतोष ,
नाजिम की एक पंक्ति इसी लेख में है -
मैंने अपनी पत्नियों के साथ विश्वासघात किया’ यह पंक्ति उनकी कविता ‘आत्मकथा’ में आती है । मेरे पास फिलहाल कविता नहीं है। अन्यथा उस कविता में व्यक्त नाजिम का अवसाद बेहतर याख्यायित हो सकता था। मैंने इसी कविता पर अपनी टिप्पणी की थी। इस कविता में नाज़िम वह नहीं हैं जो अपनी युवा वय में रची कविताओं में हैं। उन्हें अवसाद घेर रहा है। उन्हें लगता है अब जीवन अधिक नहीं रह गया है। अन्यथा वह यह न कहते-
मौत आने से पहले भेजती है
आदमी के पास
उसका अकेलापन
ध्यान रहे कविता,‘आत्मकथा’ लिखी गई 1961 में। नाजिम की मृत्यु हुई 1963 में। यदि उन्हें निष्क्रियता, थकान तथा अवसाद का एहसास न होता तो वह कभी न लिखते-
मुझे ईर्ष्या हैं उन कर्मठ लोगों से
जो बुढ़ापे का एहसास ही नहीं करते
इस पंक्ति की ध्वनि है कि उन्हें अपने निष्क्रिय बुढ़ापे का अवसादपूर्ण एहसास हो रहा है। वह अकेला महसूस कर रहे हैं। जब नाज़िम जेल में अपनी फाँसी का इंतजार करते हैं तो वह प्रेम तथा उल्लास की कविता लिखते हैं। पर आत्मकथा कविता में वह स्वतः स्फूर्त उत्साह तथा प्रेमोल्लास नहीं रह गया है। बस समय गुज़र रहा है।
दूसरे, यदि उन्हें अपनी पत्नियों के त्यागने का अफसोस न होता तो वह क्यों कहते -
मैंने अपनी पत्नियों से विश्वासघात किया
विश्वासघात शब्द अपने आप में अनैतिक आचरण का पर्याय है। हमारे यहाँ कहावत है -
‘विष दे विश्वास न दे’ अर्थात् विश्वासघात किसी व्यक्ति के मार देने से अधिक आपराधिक माना गया है। मैंने इसी संदर्भ में कवि आचरण का प्रश्न उठाया था। नाज़िम अपने नैतिक अपराध को स्वीकार करते हुये ही शायद कह रहे हैं-
मैंने अपनी पत्नियों के साथ विश्वासघात किया
यदि ‘आत्मकथा’ कविता होती तो मैं उसकी व्याख्या से शयद टिप्पणीकार के सवालों का उत्तर और बेहतर तरीके से दे सकता था। मैंने नाजिम स्वयं की भावनाओं को ही अपने शब्दों में ढाला है। काश इन बातों को टिप्पणीकार ध्यान से पढ़ पाते! खैर
प्रसन्न होगे,
सस्नेह,
विजेंद्र
आत्मकथा कविता यहाँ है-
जवाब देंहटाएंhttp://vikalpmanch.blogspot.in/2012/10/blog-post_25.html
आत्मकथा
जवाब देंहटाएं-नाजिम हिकमत
मेरा जन्म हुआ 1902 में
और जहाँ पैदा हुआ वहाँ एक मर्तबा भी वापस नहीं गया
मुझे पीछे लौटना पसंद नहीं
तीन साल का हुआ तो अलेप्पो में पाशा के पोते की खिदमत की
उन्नीस की उम्र में दाखिल हुआ मास्को कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय में
उन्चास की उम्र में चेका पार्टी का मेहमान बन कर दुबारा मास्को गया
और चौदह साल की उम्र से ही शायर हूँ मैं
कुछ लोगों को पेड़-पौधों और कुछ को मछलियों के बारे में मालूम है सब कुछ
मुझे पता है जुदाई के बारे में
कुछ लोगों को जबानी याद हैं सितारों के नाम
मैं सुनाता हूँ अभाव के बारे में कविता
मैंने जेलखानों में और आलिशान होटलों में रातें गुजारीं
मैंने भूख और यहाँ तक कि भूख हड़ताल के बारे में भी जाना
मगर शायद ही कोई खाने की चीज हो
जिसका जायका न लिया हो
तीस की उम्र में वे मुझे फाँसी पर लटकाना चाहते थे
बयालीस की उम्र में वे देना चाहते थे शान्ति पुरस्कार
और दिया भी
छत्तीस की उम्र में चार वर्ग मीटर कंक्रीट तले आधा साल गुजारा
उनसठ साल कि उम्र में प्राग से भागा और हवाना पहुँचा अठारह घंटे में
लेनिन को कभी देखा नहीं मगर उनकी ताबूत के करीब था 1924 में
1961 में मैंने जिस समाधी का दौरा किया वह थी उनकी किताबें
उन्होंने मेरी पार्टी से काट कर अलग करने की कोशिश की
मगर कामयाब नहीं हुए
और न ही मैं कुचला जा सका ढहते हुए बुतों के नीचे
1951 में एक नौजवान दोस्त के साथ खतरनाक समुद्री यात्रा की
1952 में अपना टूटा हुआ दिल लिए चार महीने चित लेटा रहा
मौत का इंतजार करते हुए
मुझे रश्क था उस औरत से जिसे मैं प्यार करता था
चार्ली चैप्लिन से मैं बिलकुल नहीं जलता था
मैंने अपनी औरत को धोखा दिया
अपने दोस्तों के पीठ पीछे मैंने कभी बात नहीं की
पी मगर हर रोज नहीं
खुशी की बात यह कि मैंने अपनी रोटी ईमानदारी से हासिल की
झूठ बोला इस तरह कि किसी और को शर्मिंदा न होना पड़े
इस तरह झूठ बोला कि दूसरों को चोट न पहुँचे
लेकिन बेवजह भी झूठ बोला
मैंने रेलों, हवाईजहाजों और मोटरगाड़ियों में सफर किया
जो मयस्सर नहीं ज्यादातर लोगों को
मैं ओपेरा देखने गया
ज्यादातर लोग तो जानते भी नहीं ओपेरा के बारे में
और 1921 के बाद मैं वैसी जगह नहीं गया जहाँ ज्यादातर लोग जाते हैं
मस्जिदों चर्चों मंदिरों सिनागॉग जादूघरों में
मगर कहवा घरों में अड्डेबाजी जरुर की
मेरी रचनाएँ छप चुकी हैं तीस या चालीस भाषाओँ में
हमारे देश तुर्की में तुर्की भाषा में उन पर रोक है
मुझे कैंसर नहीं हुआ अभी तक
और कोई वजह नहीं कि आगे भी हो
मैं प्रधान मंत्री या उसके जैसा कुछ भी नहीं बनूँगा कभी
और मैं नहीं चाहूँगा वैसी जिन्दगी जीना
अब तक शामिल नहीं हुआ किसी जंग में
या बमबारी से बचने के लिए रात के पिछले पहर किसी बिल में नहीं दुबका
और कभी भी गोते लगाते हवाई जहाजों को देख कर सड़क पर नहीं लेटा
मगर मुझे प्यार हो गया था लगभग सोलह की उम्र में
मुख़्तसर बात ये दोस्तो
कि भले ही आज के दिन बर्लिन शहर में बडबडा रहा हूँ गमगीन
मगर ये कह सकता हूँ कि मैं इंसान की तरह जिया
और किसे पता कि कब तक जिऊंगा
और मुझ पर क्या गुजरेगी.
(यह आत्मकथा 11 सितम्बर 1961 को बर्लिन में लिखी गयी थी. अंग्रेजी से अनुवाद- दिगम्बर)