वरिष्ठ कवि–आलोचक शैलेन्द्र चौहान से युवा कवि नित्यानंद गायेन की बातचीत





वरिष्ठ कवि और आलोचक शैलेन्द्र चौहान सितम्बर 2012 में हैदराबाद पधारे हुए थे। हमारे युवा मित्र कवि नित्यानंद गायेन ने इस मौके पर उनसे एक लंबी बातचीत की जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।

इस बातचीत को हमने अलाव के नवम्बर-दिसम्बर 2012 अंक से साभार लिया है।





वरिष्ठ कवि–आलोचक शैलेन्द्र चौहान से युवा कवि नित्यानंद गायेन की बातचीत

नित्यानंद गायेन - शैलेन्द्र जी नमस्कार. अच्छा लगा आप हैदराबाद आये, आपका स्वागत है.
शैलेन्द्र चौहान – मुझे भी अच्छा लगा गायेन  जी, कि आप में इतनी उत्सुकता है, मुझे उम्मीद है कि आप साहित्य को अपनी कविताओं से आगे बढा पाएंगे .


नित्यानंद गायेन:- आज के युवा कवियों पर आप क्या सोचते हैं ?
शैलेन्द्र जी – देखिये आज जो कविता लिखी जा रही है निश्चित रूप से उसमें कुछ युवा बहुत अच्छी कवितायेँ लिख रहे हैं. उनकी जो आब्जर्वेशन है, उनकी जो सेंसटीविटी है और उनकी जो चीजों को पकड़ने की डिटेल्स है, वो आब्जर्वेशन में ही आ जाते हैं, बहुत अच्छे हैं पर परेशानी ये है कि उनके पास में कोई विशेष चिंतन-दिशा नहीं है. हमेशा जो अच्छी कविता लिखी गयी है, उसके पीछे कोई-न-कोई चिंतन-दर्शन अवश्य रहा है. चाहे भक्ति का दर्शन हो, आप भक्तिकाल से शुरू कर सकते हैं, वो भक्तिकाल, रीतिकाल हो, छायावाद का युग हो, १८५७ के बाद का युग हो, वो भारतेंदु का युग हो, द्विवेदी युग हो, आधुनिक काल हो, समकालीन जनवादी प्रगतिशील कविता हो, या समकालीन कविता हो, उनके पीछे कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई एक चिंतन दिशा रही है जिसे हम दर्शन कहते हैं, तो बिना दर्शन के और बिना लोक के अगर कोई कविता लिखी जायेगी, तो उनके पास में जो अनुभव होने, वो उतने समृद्ध नहीं होंगे इसलिए कुछ दिनों में चुक जायेंगें. पर मुझे अच्छा लग रहा है कि इन दिनों कई युवा कवि हैं जो बहुत अच्छी कवितायें लिख रहे हैं और मैं उम्मीद करता हूँ कि वो आगे अपने आपको और समृद्ध करेंगें और बहुत अच्छी कविताएँ लिख पायेंगें.

नित्यानंद गायेन :- आपकी इस बात से कहीं-न-कहीं कि अभी जो बहस चली थी चिंतन दिशा में ही विजय बहादुर सिंह वरिष्ठ कवि-आलोचक ने जो बात छेड़ी थी कि युवा भटके हुए हैं, उनके पास कोई चिंतन दिशा नहीं है, तो आप उस बात का समर्थन कर रहे हैं?
शैलेन्द्र चौहान :- नहीं मैं उस बात का समर्थन नहीं कर रहा हूँ. दरअसल जो बहस चल रही थी 'चिंतन दिशा' में उसके बारे में भी मैं ये सोचता हूँ कि जो लोग बहस में शामिल थे, उनकी भी खुद की कोई चिंतन दिशा नहीं है, जो वरिष्ठ आलोचक हैं उनके पास में एक स्टैगनेशन आ गया है,एक स्च्यूरेशन आ गया है और उनकी अपनी रचनात्मकता,उनकी अपनी सृजनात्मकता, उनकी समझने की शक्ति,उनकी रिसेप्शन, उनकी संवेदनशीलता कहीं-न-कहीं चुक गयी है, इसलिए वो उस चीज़ को नहीं समझ सकते, दरअसल आज युवा जो अपनी कविताओं में दे रहे हैं. मेरे कहने का तात्पर्य नहीं है कि कहीं भटके हुए हैं पर जो आज का समय है उसमे भटकने की प्रबल संभावनाएँ हैं इसलिए उन्हें सचेत रहने की आवश्यकता है.

नित्यानंद गायेन:- अभी हाल ही में इसी पर केशव तिवारी की कविता को लेकर जिसमें उनकी कविता के लोक को लेकर काफी लंबी बहस हुई थी. कुछ लोगों ने उनके पक्ष में बात की, कुछ बड़े लोगों ने उनके विपक्ष में बात की.
शैलेन्द्र चौहान:- देखिये लोक, मैं समझता हूँ कोई ऐसी चीज़ नहीं कि जिसे बौंड बना सके, भुना सके. यह एक ठीक वैसा ही अप्रोच है जैसा कि हमारे यहाँ कुछ एन.जी.ओ. कर रहे हैं. बीच में कुछ विदेशी संस्थाओं ने क्षेत्रीयता, क्षेत्रीय संस्कृति, फोक आदि पर काफी बड़े काम किए और उन्हें कॉमर्सलायिज़ कर दिया, तो फोक अपने आप को स्थापित करने के लिए, मैं उसको कोई ऐसी चीज़ लोक को नहीं मानता. लोक हमारे जनजीवन में शिद्दत से व्याप्त है.खासतौर से हमारे जो पिछड़े ग्रामीण इलाके हैं, शहरों का जो पिछड़ा वर्ग है,जो दलित वर्ग है,दमित वर्ग है और मजदूर वर्ग है उसमें भी वही चेतना पायी जाए जाती है और जो निम्नमध्यवर्गीय या मध्यवर्गी गाँव से निकलकर शहरों की तरफ आये हैं या शहरों में ही रह रहे हैं ३-४ पीढ़ियों से उनमें भी वही चेतना पायी जाती है. लोक शब्द को छोटा करके देखना या उसे विघटित करना मुझे लगता है कि ये एक अच्छी चीज़ नहीं है, लोक अपने आप में सम्पूर्ण है. अब देखिये स्थानीयता का उसमें जरुर पुट होता है, कि जो बड़े रचनाकार हुए हैं, या जो बड़े एक्टिविस्ट हुए हैं, या बड़े क्रांतिकारी ही हुए हैं वो अपने ज़मीन से ही शुरू होते हैं. अगर आप अपने घर में, अपने मोहल्ले में, अपने नगर में उस चीज़ को नहीं समझते हैं, उस लोक को नहीं समझते हैं,उस वातावरण को नहीं समझते हैं, उन संवेदनाओं को नहीं समझते हैं,तो आप निश्चित रूप से सुपरफिशियल बातें करेंगें, तो ‘मेरा दागिस्तान’ के जो लेखक हैं, देखिये उनकी अपनी भाषा थी, वो बहुत अच्छे कवि थे रसूल हम्ज़ातोव और उन्होंने इतना अच्छा प्रेज़ेन्टेशन किया कि पूरे रूस ही में वो महान माने गाये और विदेशों में उनकी रचना ‘मेरे दागिस्तान’ बहुत प्रचलित हुई इसलिए ये लोक को विघटित करना बहुत अच्छी बात नहीं है, हाँ,लोक तो पूरी जनता है, उस जनमानस की भावनाओं को समझना और उनकी दशा को बदलने के लिए अगर कोई कार्यरत है,तो वो निश्चित रूप से स्वागत योग्य है.


नित्यानंद गायेन :- मैं घूमकर दोबारा आता हूँ विजय बहादुर सिंह की बात पर कि उन्होंने कहा कि आज की युवाओं के पास ना वो भाषा है, ना कोई ऐसी कविता है जैसी नागार्जुन की कविता लोगों को याद हो जाते थी नागार्जुन के बाद, उसके बाद मुक्तिबोध या दूसरे जो बड़े कवि हुए हैं, किसी की ऐसी कविता नहीं आई कि वो याद हो जाए.
शैलेन्द्र चौहान:- देखिये विजय बहादुर सिंहजी बहुत वरिष्ठ हैं लेकिन मैं ये मानता हूँ कि विजय बहादुर सिंहजी की समझ बहुत सीमित किस्म की समझ है. उनके पास ना तो कोई दर्शन है, ना कोई विचारधारा है. उनके पास जो भी कवि आ जाता है या वो जिस कवि के माध्यम से अपने आप को प्रचारित कर सकते हैं, उनकी प्रशंसा में लाग जाते हैं. भवानीप्रसाद मिश्र के लिए उन्होंने बड़ा काम किया. भवानीप्रसाद मिश्र जैसे पॉपलिस्ट और जनमानस के करीब के कवि अवश्य थे उनकी अपनी गाँधीवादी दिशा थी, तो उन्होंने उनके लिए काम किया. नागार्जुन विदिशा जब आते, तो उनके यहाँ ठहर जाते थे, उन्होंने सोचा नागार्जुन पर बात करके, उस ज़माने में जनवादी चेतना का बड़ा भारी दौर चल रहा था, तो उससे फायदा उठाने के लिए उन्होंने नागार्जुन पे बात करनी शुरू कर दी. इस तरह से शलभ जी वहाँ आये, तो उन्होंने शलभ श्रीराम सिंह के ऊपर बात करनी शुरू कर दी, मैं भी विदिशा में रहा हूँ और विजय बहादुर सिंहजी से मेरा बड़ा करीब सम्पर्क है विजय बहादुर सिंहजी के बारे मैं तो जितना जानता वह यह है कि वो किसी भी बात पर कभी स्थिर नहीं रहते हैं, अवसरानुकूल अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए, दूसरों पर थोपने के लिए, अपनी बातें तंज सहित कहते हैं कि जिससे ये पता चलता रहे कि डॉ विजय बहादुर सिंहजी साहित्य में कहीं हैं यद्यपि ना तो उन्होंने आज तक कोई ऐसी महत्वपूर्ण प्रति दी है, ना तो आलोचना के क्षेत्र में कोई ऐसा बहुत बड़ा काम किया है और ना हिंदी क्षेत्र में विजय बहादुर सिंहजी एक सामान्य, एक औसत आलोचक के रूप में भी नहीं जाने जाते इसलिए उनकी बातों को मैं बहुत महत्व नहीं मानता.
 
नित्यानंद गायेन :- चलिए ठीक है! मैं घूमके आऊँगा आजकल जो दौर चल रहा है एक बात बार-बार आती है ‘दिल्ली में साहित्य का गढ़’ अभी इस पर किसी ने लिखा भी था और मैं एक पुराना अंक भी पढ़ रहा था, उसमें भी ये था कि जो दिल्ली करेगा और नामवर और अनामवर के ऊपर बहुत सारी बातें हुईं. उस पर आपकी टिपण्णी चाहता हूँ.
शैलेन्द्र चौहान :- दरअसल ये हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि हम गढों और मठों के चक्कर में पड़े रहते हैं. हिंदी कविता का क्षेत्र बहुत विस्तृत है. आप देखें ध्रुव कश्मीर से लेकर ध्रुव केरल तक या जहाँ हिंदी का विरोध हुआ था ऐसे तमिलनाडु तक हिंदी के कवि पाए जाते हैं. आपके हैदराबाद में भी हिंदी के बहुत सारे कवि थे. आंध्र में वेणुगोपाल यहाँ के प्रमुख कवियों में से थे और भी बहुत सारे कवि आकर रहे. बंगाल में अच्छे हिंदी कवि पाए गाये, गुजरात में अच्छे हिंदी कवि हैं, महराष्ट्र में अच्छे कवि हैं, तो उन अच्छे कवियों की बातें न करने,उनकी अच्छी कविताओं की बातें ना करके, सत्ताकेंद्र की बातें हिंदी साहित्य जगत में अक्सर होतीं हैं. पहले कभी इलाहाबाद और बनारस सत्ता के केंद्र में हुआ करते थे,कवि-लेखक वहाँ जाकर रहते थे. दूर से जिसको प्रतिष्ठा पानी होती थी,जो तमाम तरह के आन्दोलनों में शामिल होना चाहता था वो इलाहबाद चला जाता था, परिमल ग्रुप था वहाँ,नयी कविता वहाँ पैदा हुई, प्रगतिशीलता की चेतना वहाँ पैदा हुई, नयी कहानी वहाँ पैदा हुई और बड़े-बड़े लेखक वहाँ पर थे, तो लोग वहाँ चले जाते थे.फिर धीरे-धीरे ऐसा हुआ कि भोपाल,मध्य प्रदेश की राजधानी, वहाँ गढ़ बन गया. वहाँ गढ़ बनाने में कुछ सरकारी अफसर बहुत सक्रिय थे,उन्होंने अपना एक गढ़ बना दिया साथ में प्रगतिशील लेखक संघ के लोग भी वहाँ सक्रिय थे उन्होंने भी साथ-साथ अपना गढ़ बनाया और दोनों हाथ-में-हाथ देकर चलने लगे. हुआ यही कि जीत उसी की हुई जो सत्ता में था.सत्ताधारियों ने सारे प्रगतिशीलों को वहाँ बुलाया,जनवादियों को वहाँ बुलाया और उनका स्वागत-सत्कार सब तरह से किया, जितना भी कर सकते थे और उन्हें नष्ट करने में अपनी कोई कसर नहीं बाकी रखी, अंततः आप देख रहे हैं क्या स्थिति है प्रगतिशील लेखक संघ की.

 
नित्यानंद गायेन :- मैं घूमके इसी पर आ रहा हूँ कि आजकल पुरस्कारों पे बड़ा विवाद होता है और पुरस्कार उसी को मिलता है जिसकी पैठ होती है या जिसकी सिफारिश हो जाती है. ये बातें सामने आयीं हैं,हर जगह कहीं-न-कहीं पढ़ने को मिलती है. जब पुरस्कार से पहले कोई बात नहीं होती, देने के बाद विवाद खड़ा हो जाता है.
शैलेन्द्र चौहान :- गायेनजी इसमें आप देखेंगें तो पायेंगें कि हमारे देश में पुरस्कार हमेशा मठाधीशों, सत्ता के राजाओं द्वारा दिए जाते रहे हैं, सामंतों द्वारा दिए जाते रहे हैं या बड़े सेठों द्वारा दिए जाते रहे हैं, तो ये जो पुरस्कार की लालसा है, यह अपने आप में व्यक्ति की, साहित्यकार की कमजोरी को दर्शाता है. कोई भी सत्ता में रहनेवाला व्यक्ति आपको पुरस्कृत क्यों करेगा? वो इसलिए पुस्कृत करेगा कि आप सत्ता के साथ रहें, आप उनका जो वर्ग है के साथ सहयोग करें.

नित्यानंद गायेन :- राजा के दरबार में नवरत्न रखते थे!
शैलेन्द्र चौहान :- बिलकुल, राजाओं के दरबार में ये सब हुआ करता था. राजा उन्हें हार दे दिया करते थे, मोती दे दिया करते थे, माणिक दे दिया करते थे और जो भी उनके पास में होता थे दे दिया करते थे, अँगुठियाँ दे दिया करते थे. उसी तरह से आज पुरस्कार है, तो आज के पुरस्कारों में सरकार से सम्बंधित जितने पुरस्कार हैं उन सारे पुरस्कार में सरकार के साथ सहयोग करनेवाले और प्रगतिशीलता का मुखौटा लगानेवाले, आधुनिकता का मुखौटा लगानेवाले या अपने आप को महानता या प्रतिष्ठित होने का जो मुखौटा है उसके साथ जो लोग हैं वो सब शामिल होते हैं उसकी ज्यूरी में. अब नामवर जी उसमें शामिल है और इसमें नामवरजी का कसूर इतना है कि उनकी जो वर्गचेतना है, उन्होंने अपनी वर्गचेतना को वर्गसह्योग में बदल दिया. बहुत लंबे समय तक, नामवरजी प्रतिभावान है, उन्होंने बहुत अच्छा काम किया लेकिन धीरे-धीरे साथ भी वही हुआ कि उनमें एक रेजिमेंटशन आ गया और वो लिखने से सदैव कतराने लगे और सिर्फ बोलते थे, उनके शिष्यगण उनके बोलने को  नोट कर लेते थे. धीरे-धीरे उन्होंने प्रैग्मेटिज्म को अपनाने के बाद में सीधा-सीधा अवसरवाद को अपना लिया, जहाँ जैसा अवसर मिले, वहाँ वैसा लाभ उठाइये, इसलिए आप नामवरजी को देखते हैं कि उन्होंने जो पहली पुस्तक ‘कविता के प्रतिमान’ लिखी थी, वह भी, उनकी अपनी मौलिक अवधारणाएँ नहीं थी उसमें. उस पुस्तक में विजयदेव नारायण साही की प्रेरणा से उन्होंने वो सब चीज़ें लिखीं जो विजयदेव नारायण साही का अपना दर्शन था और साहीजी समाजवादी लोहिया के दर्शन से प्रभावित थे. साही जी अंग्रेजी के आदमी थे,तो जो आधुनिकता वाला कॉन्सेप्ट था वो उन्होंने प्रगतिशीलता-मार्क्ससिज्म के साथ नामवर जी ने वहाँ पर जोड़ दिया. उसमें उन्हीं लोगों की चर्चा की जो नयी कविता के प्रतिमानों पर फिट होते थे, उसमें उन्होंने उन कवियों की चर्चा नहीं कि जो बहुत जनवादी किस्म के, प्रगतिशील किस्म के, मार्क्ससिस्ट किस्म के लोग हुआ करते थे, तो नामवरजी शनैः-शनैः बिलकुल सत्ता के पालने में बैठ गए. अब ज़ाहिर है कि वो ज्युरियों में होंगे, ज़ाहिर है कि नामवरजी ना होंगे तो अशोक वाजपेयी होंगे, अशोक वाजपेयी ना होंगे तो राजेंद्र यादव होंगे और जो हमारे क्षेत्रीय साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने-अपने प्रदेशों में इस तरह की प्रतिष्ठा प्राप्त की है, सरकार-सहयोग से प्रतिष्ठा प्राप्त की है, तो वो ज्यूरी में होंगे तो पुरस्कार किन्हें मिलेगा.


नित्यानंद गायेन :- ठीक है, पुरस्कारों पर आपने बहुत अच्छा जबाव दिया. आपने दो लोगों का नाम प्रमुखता से लिया, एक राजेन्द्र जी का जिनकी उम्र भी काफ़ी हो गई है और हमारे लिए बहुत आदरणीय भी है क्यों कि हम युवा हैं, उनके ऊपर जिस तरह के आरोप लगते रहे विशेषकर स्त्री-विमर्श को लेकर और अभद्र साहित्य या दूसरे शब्दों में कहे तो नग्न साहित्य को लेकर जो आरोप इन पर लगते रहे, उस पर आप क्या कहना चाहते हैं?

शैलेन्द्र चौहान :- देखिये जहाँ तक आपने सम्मान की बात कही, ये निश्चित रूप से सभी सम्मानीय हैं और उनके सम्मान में मैं कोई कमी नही महसूस करता, मैं खुद उनका बहुत सम्मान करता हूँ. नामवरजी का, राजेन्द्र जी का, वाजपेयी जी का और निश्चित रूप से इन सभी में प्रतिभा है और उस प्रतिभा का इन सभी ने किस तरह का उपयोग किया है यह अलग बात है. तो हर व्यक्ति कुछ अलग करके दिखाना चाहता है ताकि उसकी पहचान बन सके .अंग्रेजी में इसके लिए जैसे पहचान की संकट आ गई identity crisis एक शब्द है, तो कहीं न कहीं ये लोग अपनी रचनात्मकता में चुके और इन्हें आगे बढ़ने के अवसर नही मिल पाये क्यों कि एक स्तर तक पहुँचने के बाद उस स्तर को बनाये रखना उसको मेन्टेन करना बहुत ही मुश्किल होता है. तो जब वहाँ पर ये चुक गये और उस चीज को बनाये न रख सके तब इन्होने इस तरीके के, इसको बोलेंगे कि तमाशे टाइप की चीज खड़ी की .और राजेन्द्र जी ने ये शुरू कर दी, उन्हें यह चीज समझ में आ गई कि दलित विमर्श, स्त्री विमर्श जो है ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें बड़े अच्छी तरह भुनाए जा सकते हैं. इसलिए उन्होंने ये सब कारोबार शुरू किया. यह एक तरह का कारोबार ही था जो उन्होंने पत्रिका निकली ‘हंस’ उसके लिए पैसे जुटाना. आप जानते हैं कि कोई भी पत्रिका निकलना बड़ा कठिन कार्य है, तो उसके लिए पैसा कैसे जुटे,लोग कैसे जुड़े उससे ? तो उन्होंने उस चीज को समझा, हमारी कमजोरी को समझा, समझ के अंतर्विरोध को समझा और दलित और स्त्री पर अपना पूरा का पूरा फोकस कर दिया. अब उसमें दिक्कत यह है कि राजेन्द्र जी ने जो कुछ किया, वह एक तरह से बहुत बुरा नही किया, लेकिन उसके पीछे भी कोई दर्शन नही था. आज भी आप राजेन्द्र जी से पूछे कि वे किस दर्शन के फालोयर हैं तो शायद स्पस्ट रूप से ऐसी कोई चीज़ उनके मुह से नही निकलेगी जिससे वे कह सके कि वे फलां दर्शन के फालोयर हैं. वो बौद्धधर्म, आंबेडकर, महात्माफुले या मार्क्सवाद इन तीनों में किसी के बहुत अच्छे तरीके से उसके न तो प्रशंसक हैं न ही उसके दिशा पर चलने वाले व्यक्ति हैं. तो उन्होंने जो कुछ दिया वह एक सुपरफिसियल चिंतन को उन्होंने दिशा दी साथ में उन्होंने उसमें सनसनी फैलाई, जैसे नग्नता है या देह है स्त्री की देह पर उन्होंने अपने आपको बहुत केंद्रित किया, अपने आप को चार्वाक  पर बहुत केंद्रित किया अपने आप को पश्चिमी या अधुनातम समझ कर ये सारी चीजे उन्होंने की ताकि बहुत सारे लोग उनकी ओर आकर्षित हो सके, तो it is a kind of gimmick.  यह एक तरीके का तमाशा है और उस तमाशे से बहुत कुछ हासिल नही हुआ. उन्होंने जो साहित्य समाज में प्रचलित था उसकी व्याप्ति को कहीं न कहीं संकीर्ण बना दिया. कुछ कम कर दिया. अब देखिये ‘हंस’ बहुत बिकती है पत्रिका काफ़ी चलती है लेकिन उसमें जो कुछ कंटेंट होता है वह क्या होता है? वह कंटेंट बहुत समय तक किसी व्यक्ति को प्रभावित नही कर सकता. जैसे हम लोग नही देखते एक फौरी तौर पर एक तरफ जो एंटरटेनिंग हैं, एक्साइटिंग है, stimulating है. अब जैसे सड़क छाप पत्रिकाएं होती थी पोर्नो की पत्रिकाएं उस जमाने में होती थीं या मनोरंजन के लिए जो फिल्में होती हैं सीरियल होते हैं उस तरीके के चीज में वो शामिल हो गया तो उसकी गंभीरता कहीं नही रही|

नित्यानंद गायेन :- मतलब आप यह कहना चाहते है कि ‘हंस’ उस तरह की पत्रिका हो गई है जो सड़कों पर या रेलवे स्टेशनों पर जो साहित्य /पत्रिकाएं बिकता है उस तरह का है ?
शैलेन्द्र चौहान – नही, नही, उस तरह का नही उसका उन्नत रूप है यह ....उसका थोड़ा सा ये उन्नत रूप है चूँकि राजेन्द्र यादव समझदार व्यक्ति हैं इसलिए उन्होंने इसमें साहित्य और विचार को भी स्थान दे रखा है.

नित्यानंद गायेन :- चलिए जब राजेन्द्र जी इस बातचीत को सुनेंगे /पढ़ेंगे देखते हैं राजेन्द्र जी अगली सम्पादकीय में क्या लिखते हैं .
शैलेन्द्र चौहान :- राजेन्द्र जी बहुत सीजन्ड व्यक्ति हैं ओर वो चाहते है कि लोग उनकी जो है बुराई करे उनसे असहमत हों ताकि विवाद में ही उनका नाम होता है तो नामवरजी, अशोक वाजपेयी और राजेन्द्र जी विवाद के ही लेखक/रचनाकार हैं. उनके लिए विवाद ही सृजन है. क्योंकि वो चुक गये.


नित्यानंद गायेन :- मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि कुछ लोग मनोवैज्ञानिक रूप से कुछ ऐसा करते हैं ताकि लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हों ?
शैलेन्द्र चौहान :- जी हाँ ,जी हाँ जैसे मीडिया में होता है जैसे सनसनी , इंडिया टीवी आदि ...लेकिन क्योंकि इनका क्यों कि बैकग्राउंड अच्छा है इसलिए इनका स्तर ठीक है.

नित्यानंद गायेन :- मैं आपसे कुछ निजी प्रश्न पूछुंगा उससे पहले केदारनाथ सिंह जी जो कि मेरे बहुत आदरणीय कवि भी हैं मैं जानना चाहता हूँ कि दो या तीन साल पहले मुझे ठीक से याद नही ‘आउटलुक हिंदी’ का एक अंक आया था मुझे वर्ष ठीक से याद नही अभी उस अंक में एक सर्वे हुआ था जिसमें यह कहा गया था कि केदार जी हिंदी में नम्बर एक कवि हैं जिसमें सर्वे का कोई आधार नही दिया गया था जैसे कि पाठकों का क्या स्तर था या किन पाठकों से उन्होंने पूछा था केवल यह संख्या दे दी थी कि इतने पाठकों से हमने पूछा. पाठकों की कविता /या साहित्यिक समझ पर कोई विश्लेषण नही दिया था पत्रिका ने. और उसके बाद इसी पत्रिका ने ठीक इसी तरह कवयित्रियों पर भी इसी तरह का सर्वे हुआ और उसमें अनामिका जी को सर्वाधिक पढ़े जाने वाली कवयित्री घोषित किया गया था. क्या कवि नम्बर एक और नम्बर दो भी होता है क्या इनकी कोई रैंकिंग भी होती है कवियों की? इस पर आपके विचार ..

शैलेन्द्र चौहान :- दरअसल केदारजी शुरूआती दौर में बहुत ही अच्छे कवि थे इससे हम इंकार नही कर सकते. बहुत सम्मानित व्यक्ति भी हैं. अब परेशानी यह होती है कि जब हम कविता को और साहित्य को किसी फ्रेमवर्क में कस लेते हैं और उसे खास तौर पर एक ऐसी कला मानने लगते हैं जो शब्दों के खिलवाड़ की कला हो. लोगों ने जब आज से आठ –दस साल पहले (post modernism) उत्तर आधुनिकता का दौर चला तो लोगों ने कहा कविता क्या है ? कविता शब्द है और शब्दों के साथ खिलवाड़ करना ही कविता है . क्योंकि उत्तर आधुनिकता के कन्सेप्ट में विघटनवाद कन्सेप्ट में यह था कि विचार तो मर चूका है. भाषा का अंत हो गया है .इतिहास शांत हो गया है. तो ये लोग प्रगतिशील चेतना के कवि थे प्रारंभ में, धीरे –धीरे इन्होने देखा पश्चिम से प्रभावित होकर कि ये सारी चीजें  आज हिंदी साहित्य में मठाधीश बनाए रखने के लिए उतनी कारगर नही है जितना यह है कि कविता को एक कलात्मकता प्रदान की जाये तो उन्होंने कविता को कला मान लिया. उनकी कवितायों में आप देखेंगे कि उनकी कवितायों में भी कोई दर्शन नही है आज इधर की कवितायों में. वे किस चीज के समर्थक है हम नही जानते. छोटी –छोटी चीजों पर, अनुभूतियों पर एक सहज सी, सपाट सी लेकिन थोड़ी सी संवेदना प्रकट करने वाली कविता अगर लिख दी जाए और हम कहें कि अमुक व्यक्ति बहुत महान हो गया है नम्बर एक कवि हैं, हाँ तो ठीक है न सुरेन्द्र शर्मा नम्बर एक थे एक जमाने में, काका हाथरसी उससे पहले नम्बर एक कवि थे. छोटी –छोटी चीजों पर छोटी –छोटी कविता करने वाले छोटे –छोटे तुक्कड़ कवि अरुन जैमिनी भी बड़े महान हैं. तो हमारे बौद्धिक जगत में केदार जी बड़े महान हैं. नम्बर एक पर हो सकते होंगे  और आउटलुक ने ऐसा सर्वे किया है तो निश्चित रूप से आपने खुद ही कहा कि किन लोगों से किया है यह तो पता नही क्योंकि हमसे तो किसी ने पूछा भी नही  या हमारे जानकार लोगों से भी नही पूछा गया. अब भाई बात ये है कि बहुत सारी चीजें प्रायोजित भी होती है, प्रभावित होकर भी करते हैं  और इसी तरह कवयित्रियों पर भी हुआ होगा. सम्पादक भी हमेशा से यही चाहते हैं कि उनका कुछ सेल बड़े, कुछ नयापन हो कुछ आकर्षक हो, कुछ सनसनी हो कुछ विवाद हो तो इसीतरह से उनके सलाहकार भी यही बड़े लोग होते हैं और वो इसी तरीके की प्रयोग करते हैं. जैसा कि आप देखेंगे ‘नया ज्ञानोदय’ के बहुत सारे अंक बहुत सारी चीजों पर निकले, बहुत सारे प्रयोग युवाओं पर केन्द्रित किए गये. जानबूझकर कि मैंने युवाओं को प्रोमोट किया है. आपने क्या प्रोमोट किया है ये बताएं आप ? आप शुरू से क्या करते रहे ? तो इस तरीके के जो सनसनीखेज वक्तव्य है और विवाद है और जो को कुछ लोगों को आकर्षित करने वाली चीजें हैं जिस तरीके से मदारी डमरू बजा के आकर्षित करता है उसी तरह से ये लोग साहित्य से जुड़े लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ये सब कुछ कर रहे हैं.
 
नित्यानंद गायेन :- मतलब कहीं न कहीं आप यह कहना चाहते हैं कि इस सभी पर भी कहीं न कहीं बाजारवाद /पूंजीवाद का असर दिख रहा है ?
शैलेन्द्र चौहान :- निश्चित रूप से, न सिर्फ बाजारवाद और पूंजीवाद का असर बल्कि इन सब लोगों के मनोमस्तिक में एक पुराना भाववादी सामंतवाद भी है. ये ठीक उसी तरह अपने लोगों को प्रोमोट करते हैं, अपने ग्रुप को प्रोमोट करते हैं जिस तरह सामंती जमाने में, राजाओं के जमाने में लोग किया करते थे. तो वो असर भी इनके दिमाग में हैं, पूंजीवादी प्रभाव भी इनके दिमाग में हैं. वर्ना नामवर जी ‘राष्ट्रीय सहारा’ में क्यों नौकरी करते? वर्ना रवीन्द्र कालिया जो है ज्ञानपीठ और वागर्थ इन सारी पत्रिकाओं में क्यों नौकरी करते ? क्योंकि इन लोगों कि ये मज़बूरी तो खास तौर पर नही थी. एक जमाने में जब रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, अज्ञेय हुआ करते थे तब मज़बूरी हो सकती थी लेकिन आज की तारीख में मैं नही मानता कि ऐसी कोई मज़बूरी इन लोगों के सामने थीं. तो इनके ऊपर पूरी तरह बाजारवाद और पूंजीवाद का असर परिलक्षित होता है.


नित्यानंद गायेन :- खैर यह तो एक ऐसा विवाद है इसका तो अंत अभी नही दिखता और न ही होने वाला है, बहरहाल हम आते हैं अगले प्रश्न की ओर. कल मैंने आपको पढ़ा ओर इससे पहले मैं आपको नही पढ़ पाया, यह  मेरा दुर्भाग्य है. दूसरी बात यह कि मैं जहाँ हूँ यहाँ पत्रिकाएं पहुँचती नही, मंगवानी पड़ती है. आपने इतना काम किया यह कल पढ़ने के बाद मालूम हुआ, उसके बावजूद मैंने यह देखा कि ये एक बात अपने कही कि गुटबाजी वाली बात मुझे लगता है आप जैसे जो और भी प्रतिभावान एवं ईमानदारी से काम करनेवाले लोग होंगे, उनका नाम ये जो बड़े लोग हैं ये अपनी आलोचना में या लेख में ऐसे लोगों का नाम लेना क्यों भूल जाते हैं?
शैलेन्द्र चौहान :- मैं, गायेनजी इसको इस तरह से लूँगा कि यह हमारे लिए बड़ी अच्छी बात है. होता यह है कि अगर ये लोग, बड़े तमाम महान लोग किसी को हाथों-हाथ उठा लेते हैं तो, उसकी उसी दिन मृत्यु हो जाती है. नए कवियों को बर्वाद करने में, उन्हें बहुत आगे न आने देने में इन लोगों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. जो चिंतन की दिशा में आगे बढ़ते हुए रचनाकार थे उनको सम्मान दिलाने में, उनको छपने में, उनके संग्रह बड़े –बड़े प्रकाशकों से छपवाने में, और उनके नाम उछालने में जो इन लोगों की भूमिका रही वो लोग आज कहाँ मौजूद हैं? अब देखिये काफ़ी दिनों तक उन लोगों ने संघर्ष भी किया कि हम एक स्तर बनाये रखेंगे. लेकिन शुरूआती दौर में एक दो संग्रह में उनकी अच्छी कवितायेँ आती है उसके बाद वे चुभ जाते हैं. तो मैं यह मानता हूँ कि जरुरत से ज्यादा, देखिये दो चीजें होती सृजनात्मकता में कि हमें कोई प्रोत्साहित करें, लेकिन जरूरत से ज्यादा अगर प्रोत्साहन हमें दे दिया जाये तो हम उसी दिन रिटायर्ड हो जाते हैं उस स्थान से. और हम उसी चक्कर में फंस जाते हैं पूरा का पूरा जो चक्रव्यूह है कि अगली चीज कब मिलेगी हमको . हमको एक पुरस्कार मिल गया, मेरे एक जनवादी मित्र हैं भोपाल में उनके पास ऐसा कोई पुरस्कार नही देश का सिर्फ एक बड़ा वाला ज्ञानपीठ पुरस्कार को छोड़कर कि उन्होंने पुरस्कार न ले लिया हो. तो उनके पास में जैसे बहुत सारे लोगों को पैसा कमाने कि हबस होती नाम कमाने की हबस होती है उसी तरह सम्मान कमाने की, छपने की पुरस्कार कमाने की भी हबस होती है अपने लोगों में जाने जानेकी भी एक लस्ट होती है. दरअसल मैं इन सारी चीजों को बहुत पहले समझ चूका था. इसीलिए इन सारी चीजों का मेरे ऊपर कोई बहुत प्रभाव नही पड़ता. मेरा यह मानना है कि मैं काम करता रहूँ, धीरे–धीरे. आपके न पढ़ पाने का भी यही कारण है कि दरअसल पब्लिसिटी भी बड़ा बड़ा काउंट करती है, सेल्फ प्रोमोशन भी बड़ा काउंट करता है. अपने–आप को स्पोंसर करिये पैसे दे देकर और अपने प्रभाव से तो लोगों तक पहुँचने का एक जरिया बनता है. मैं यह बात मानता हूँ, लेकिन मैं इस चीज को ज्यादा महत्व देता हूँ कि आप इन चक्करों में न पड़ कर अच्छा सृजन करें. लोग आज नही पढ़ेंगे तो कल पढ़ेंगे. सृजन करना प्रसिद्धि की मौलिक शर्त नही है. सृजन करना जनता के साथ जुड़ने की, जनभावना को समझने की, अपने–आप को निरंतर समृद्ध करने की एक कसौटी है. इसलिए मैं सृजन करता हूँ. मेरे लिए ये चीजें महत्वपूर्ण नही.


नित्यानंद गायेन :- अभी कुछ दिन पहले कान्हा में एक प्रकाशक शिल्पायन ने एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें आयोजन के खर्चे को लेकर विवाद हुआ और यह भी मालूम हुआ कि उसमें कुछ ऐसे भी लोग आये थे जिनका संबंध ‘संघ’ से था . यहाँ कुछ ऐसे भी कवि पहुँच गये थे जो खुद को खुद को मार्क्सवादी विचारधारा के मानते हैं. इस मुद्दे पर भी बड़ा हल्ला हुआ. क्या आप यह मानते है कि इस तरह के आयोजन में आयोजक को या जो कवि वहाँ जा रहे हैं उन्हें पहले से यह नही मालूम होता है कि कौन –कौन आ रहे हैं ?
शैलेन्द्र चौहान :- दरअसल अब यह प्रश्न तो कुछ बड़ा असमंजस वाला हो गया है कि कौन वामपंथी है और दक्षिणपंथी हैं  क्योंकि जो दौर चल रहा है  .....उस आयोजन के बारे में मुझे याद है शिल्पायन ने जो किया था उसमें दक्षिणपंथी भी थे, वामपंथी भी थे और मध्यपंथी भी थे . उसमें गिरिराज किराडू थे जो अशोक वाजपेयी के बाकायदा दांये हाथ हैं बाँए हाथ है ..पता नही, कौन सा हाथ है ..जो उनकी सारी चीजों को आगे बढाते हैं . उसमें वो लोग भी थे जो बाकायदा भाजपा से और आर. एस. एस. से पैसे लेकर और चीजों को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, उसमें सरकार समर्थित लोग भी थे और शिल्पायन के जो सज्जन हैं कहा जाता है वह खुद अशोक वाजपेयी के बड़े निकट हैं. उन तमाम प्रगतिशीलों के निकट हैं. जनवाद तो पता नही लेकिन हाँ प्रगतिशीलों के बहुत निकट हैं, तथाकथित प्रगतिशीलों के ...उन्हें पुरस्कृत भी करते रहते हैं वो . तो ये सारा जो मामला है ये सब पैसे से जुड़ा हुआ मामला है पैसे कमाने का मामला है ...क्योंकि प्रकाशक को पैसे चाहिए और पैसे कवि को सम्मान चाहिए, प्रतिष्ठा चाहिए, उसे  भी पैसे चाहिए. तो जो अपने आप को कहते हैं प्रगतिशील जनवादी कवि वो सिर्फ उसको भुनाना चाहते हैं. दरअसल मन से और चेतना से वो प्रगतिशील नही हैं, पूरी तरह अवसरवादी हैं. और कहीं न कहीं मैं यह नही कहना चाहुंगा कि वे दक्षिणपंथी हैं लेकिन जब भी जरूरत पड़ेगी वो उनके पाले में भी बैठ जायेंगे .उन्हें कोई परेशानी नही होगी. तो उनकी चेतना कुंद हो चुकी है इसलिए ये सारी महत्वहीन हो गई हैं. दरअसल जो कहता है वो होता नही है तो हमें बड़ा खराब लगता है .और ये भ्रम जबरदस्ती फैलाया जा रहा है ये पूंजीवाद और बाज़ारवाद और सत्ता के द्वारा निरंतर फैलाया जा रहा है पिछले कई दशकों से. इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है .और इसे समझने की भी आवश्यकता भी है और यह समझ बहुत आसानी से नही आती . पिछले दिनों ज्ञानरंजन दिल्ली में आये हुए थे तो उन्होंने कहा कि साहित्य की ‘पालिमिक्स’ हर कोई नही समझ सकता. उसके समझने के लिए भी उसे बहुत ही ध्यान देकर उसके अध्यन की आवश्यकता है .तब जाकर वो साहित्य की पालिमिक्स समझ सकता है. वर्ना हम कहते ही रह जायेंगे कि ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ वो कहेंगे हमारी पालिटिक्स कुछ नही है, हम तो कवि हैं. अवसरवाद ही हमारी पालिटिक्स है, इस दुनिया में आये हैं तो कीड़े –मौकोड़े की तरह जी लेंगे ..तो हम ..हमारी वही पालिटिक्स है.


नित्यानंद गायेन :- तो, इस युग के हर पल में हमें मुक्तिबोध की ये बात आएगी .....?
शैलेन्द्र चौहान :- रखनी चाहिए , अन्यथा हम कहीं के नही रहेंगे तो ..जैसा कि आपने कहा कि मेरे जैसे बहुत से लोग होंगे ..मैं इस चीज से निराश नही हूँ ..न इस चीज का कोई अफ़सोस है कि मेरे जैसे बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं ..और अन्ततः उन्ही के काम जो हैं वो फलदायी होते हैं . और वो लम्बे समय तक जीवित रहते हैं . ये ये क्षणभंगु किस्म के काम से मुझे आनंद नही मिलता .

नित्यानंद गायेन :- अंत में मैं चाहता हूँ की आप अपनी मनपसंद कविता की कुछ लाइनें हमें सुनाएं ...आपकी कविता से  नही ..
शैलेन्द्र चौहान :- देखिये ये बहुत अच्छी बात आपने कही कि मनपसंद कविता ...अब मैं आपसे कहूँगा एक चीज जो थोड़ी से आश्चर्यजनक और अटपटी भी होगी कि मुझे शील जी की कवितायेँ बड़ी अच्छी लगती थीं ..और उनकी कविता की दो पंक्तियाँ है कि ..

‘क्षेत्र क्षीण हो जाये न साथी
हल की मूंठ गहो’ 

तो अपने –आप को उर्वर बनाये रखने के लिए हमें हमेशा हल चलाना होगा, तभी आप आगे बढ़ सकेंगे ..इसी तरह मुझे ..यह आपको जानकार अटपटा लगेगा कि मुझे दुष्यंत कुमार बहुत प्रिय रहे हैं और उनकी जो कवितायेँ और गज़ल हैं मुझे बहुत अच्छी लगती है. और उनकी गज़लों में राजनैतिक चेतना से मैं बहुत प्रभावित था ...जब वो कहते थे कि ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ..’ तो अगर हम प्रवत्तियों पर भी बात करते हैं तो लोग कहते हैं कि ये तो हमसे नाराज़ हैं और हमने इनकी कविताएँ नही छापी , इनका नाम नही लिया इसलिए हमारी आलोचना कर रहे हैं. और हमारे आदरणीय नागार्जुन जी, जिन्होंने सैदेव जानता के साथ में रहकर जनता की कविताएँ लिखीं  उनकी एक कविता थी ‘शासन की बंदूक’ इस तरह की कवितायेँ मैं हमेशा याद रखता हूँ. मुक्तिबोध की कवितायेँ मैं हमेशा याद रखता हूँ ..उन कविताओं से मुझे सदेव प्रेरणा मिलती है.


नित्यानंद गायेन :- शैलेन्द्र जी , बहुत अच्छा लगा ...आपने इतना समय दिया और हैदराबाद में आकर मुझे सूचना दी, मेरा हौसला बढ़ाया. मुझे विश्वास है कि आगे भी हम इसी तरह से मिलेंगे ..नमस्कार .
शैलेन्द्र चौहान :- मुझे भी आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा. नमस्कार!

(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की हैं जिसे हमने गूगल से साभार लिया है।)
 


संपर्क-
नित्यानंद गायेन
मोबाईल-
_

+91-9030895116

+91-9491870715
 _______________
ई-मेल  :- nityanand.gayen@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. नित्यानन्द जी, सबसे फले तो आपसे मुझे अपने हिस्से का प्रेम चाहिए ....... मतलब समझ गए न मैं आपके कविता संग्रह की बात कर रहा हूँ ! वह मेरे पास ... आपकी कविताएं बहुत ताजतरीन कविताएं हैं .... और भाई शैलेंद्र जी से आप की यह बातचीत महत्वपूर्ण है इसमे कई मसले ,कई मुद्दे उठे हैं !आप की प्रश्न करने की कला भी पसंद आई ! शैलेंद्र भाई हमारे समय के संजीदा और प्यारे कवि हैं ,उन्होने आपके सभी प्रश्नों का डूब कर जवाब दिया है , किसी प्रश्न को नज़रअंदाज़ नहीं किया है ... साक्षात्कार बहुत मुकम्मिल लगा, आपको बधाई और शुभकामनाएँ

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  2. अच्‍छी बातचीत... रोचक.... मज़ा आया गायेन .... और ये नरेश भाई क्‍या कह रहे हैं पहली ही पंक्ति में....वही इधर भी...या उसके मिलने का अता-पता....

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  4. आज वास्तव मे यह तय करना मुश्किल है कि कौन वामपंथ में है और कौन और दक्षिणपंथ मे। शैलेन्द्र जी का यह कहना कि ज्यादातर लोग अवसरवादी है...कटु सत्य है...तभी तो बाबा नागार्जुन कहते थे हम किसी की भी जय बोल सकते हैं...हम किसी की भी पोल खोल सकते हैं...दरअसल कहीं न कहीं अब ज्यादातर मामलों में कविता मनोविलास का साधन बनती दीख पड़ रही है...धन नहीं तो यश कामना ही...समझौते तो है...।
    .....संतोष भाईजी , शुक्रिया इस बेबाक साक्षात्कार को प्रस्तुत करने का...और नित्यानन्द भाईजी की ऊर्जा को निरंतर बढ़ते जाने हेतु शुभकामनाएँ
    - पद्मनाभ गौतम

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  5. शैलेन्द्र जी एक प्रबुद्ध, चेतस और प्रतिबद्ध कवि हैं, यद्दपि साहित्यिक बिरादरी उन्हें द्वेषवश नकारती रही है विशेषकर उनके समकालीन, परन्तु शैलेन्द्र जी ने अपनी ईमानदारी और सचाई का कतई परित्याग नहीं किया है, उनसे युवा कवि नित्यानंद गायेन ने बहुत ही और बेबाक बातचीत की है। शैलेन्द्र जी के उत्तर बहुत सधे हुए है। इस बातचीत को पहली बार ब्लॉग पर देने के लिए बहुत बहुत साधुवाद।
    अर्जुन प्रसाद सिंह

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  6. शैलेन्द्र जी का साक्षात्कार एक बहुत ही स्वाध्यायी, स्वाभिमानी और चेतना सम्पन्न व्यक्ति का सटीक सुचिंतित कथन है।यह ह्हिंदी साहित्य में व्याप्त साजिशों, उसके छद्म और उसकी सडांध को बहुत ही निर्भीकता से उजागर करता है वहीँ भविष्य की आशाओं को भी नए रचनाकारों के माध्यम से इंगित करता है। शैलेन्द्र जी इस ख़राब समय के बेहतरीन शिल्पकार हैं, उनकी कवितायेँ सामजिक प्रतिबद्धता की बेमिशाल कृतियाँ है। बाबा नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल, शील, कुमार विकल, उदय प्रकाश की तरह ही शैलेन्द्र जी हिंदी कविता के मानक हैं। आपने इस बातचीत को पहली बार ब्लॉग पर दे कर अत्यंत महत्व का और एक जरूरी काम किया है इसके लिए बहुत बहुत साधुवाद। चन्द्रमौलि चंद्रकांत

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  9. इंटरव्यू बहुत अच्छा है। सारी बातें साफ़ साफ़ और सटीक हैं। शैलेन्द्र भाई ने बहुत बेबाकी एवं निर्भीक होकर बिना लाग लपेट के उत्तर दिये हैं। हिंदी साहित्य के महंत तो ऐसे लोगों को क्यों बर्दाश्त कर पाएंगे क्योंकि वे तो पूरी तरह व्यवस्था के पक्ष में ही हैं और कीचड़ में सने हैं। उन्हें बेनकाब करना शैलेन्द्र जी जैसे साहसी लोगों का ही काम हो सकता है। उन्हें न इन महंतों की शरण में जाना है न कोई सम्मान पुरस्कार ही लेना है।
    दिनेश रघुवंशी

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  10. शैलेन्द्र चौहान की एक कविता

    तुम हो
    एक अच्छे इंसान
    डिब्बे में बन्द रखो
    अपनी कविताएँ
    मुश्किल है थोड़ा
    अच्छा कवि बन पाना

    कुछ तिकड़म
    चमचागिरी थोड़ी और
    अच्छा पी. आर.
    नहीं तुम्हारे बस का

    कविताएँ अपनी
    डिब्बे में बंद रखो

    आलोचकों को देनी होती
    सादर केसर-कस्तूरी
    संपादक को
    मिलना होता कई बार
    बाँधो झूठी तारीफ़ों के पुल पहले
    फिर जी हुजूरी और सलाम

    लाना दूर की कौड़ी कविताओं में
    असहज बातें,
    कुछ उलटबासियाँ
    प्रगतिशीलता का छद्‍म

    घर पर मौज-मजे, दारू-खोरी
    निर्बल के श्रम सामर्थ्य का
    बुनना गहन संजाल

    न कर पाओगे यह सब
    तो कैसे छप पाओगे
    महत्वपूर्ण, प्रतिष्ठित
    पत्र-पत्रिकाओं में?

    क्योंकर कोई, बेमतलब
    तुम्हें चढ़ाएगा ऊपर?
    तुम हो
    एक अच्छे इंसान
    डिब्बे में बन्द रखो
    अपनी कविताएँ.

    -संदीप

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  11. कृपया ब्लॉग पर तर्कपूर्ण टिप्पणियाँ करें. बेनामी नाम से आधारहीन टिप्पणियां करने का कोई भी अर्थ नहीं है. अगर कोई भी प्रस्तुति आपको अच्छी नहीं लगी तो उसे खारिज करने के बजाय यह बतलाएं कि वह आपको किस आधार पर आधारहीन लगी. इससे लेखक के साथ-साथ मुझे भी सीखने-जानने का मौक़ा मिलेगा. ब्लॉग व्यक्तिगत खुन्नस निकालने का मंच नहीं है. इसके सरोकार व्यापक है. हम किसी भी तरह की उस रचनाधर्मिता का स्वागत करते हैं जो जनपक्षधर हो, लोक से जुडी हो एवं वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देती हो.
    संतोष कुमार चतुर्वेदी.

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  12. सचाई कड़वी होती है।

    शिखर जैन

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  13. दिल्ली में व्यवसायिक पत्रकार-साहित्यकारों का एक बड़ा भारी नेक्सस है। व्यवसायिक पत्रकार (मीडिया सेवक) बने साहित्यकार अपने आप को साहित्यकार मात्र से काफी ऊपर समझते हैं। इनका अहम् सवर्था इनकी बात करने शैली, व्यस्तता और हम सब कुछ जानते हैं के भाव से अक्सर ही प्रकट होता रहता है। दूसरी बात इनकी नौकरी करने में (संपादकों-मालिकों को खुश रखने में) अत्यधिक व्यस्तता भी इनके अधिक महत्त्वपूर्ण होने का भाव देती है। दिल्ली में बसे ऐसे अधिकांश विख्यात साहित्यकार अक्सर उन्ही लोगों से मित्रता रखते हैं जो उन्हें या तो लाभ दिला सकें या फिर उनकी सेवा-चाटुकारिता कर सकें। संपादक स्तर के साहित्यकार इस विद्या में पारंगत होते हैं। वे चाहते हैं कि अन्य साहित्यकार उनके चरण चाटते रहें। जो लेखक सत्ता या व्यवस्था के विरोध में लिखे उसे ये साहित्यकार ही नहीं मानते क्योंकि उससे इनकी सत्तापरस्ती पर आंच आती है। व्यवसायिक पूंजीवादी तथा सरकारी मीडिया में इन्हीं और ऐसे ही लोगों के इशारे पर साहित्य की छीछालेदर सम्पन्न होती है। दरअसल साहित्यकार भी इस कदर धूर्त और चापलूस हो सकता है यह देख-सुन कर थोडा कष्ट होता है। क्या राजनीतिज्ञों की तरह इनके पतन की भी कोई सीमा नहीं है ?

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  14. विनीता शर्मा

    शैलेन्द्र चौहान की रचनाओं और व्यक्तित्व में ऐसा बहुत कुछ है जो साहित्यकारों को आसानी से हजम नहीं होता। उनकी रचनाएँ सर्वप्रथम जनसंघर्ष के प्रति उद्देश्यपरक मित्रता का सम्बन्ध रखती हैं। वे भावात्मक न होकर विश्लेष्णात्मक होती हैं। वहां नारेबाजी नहीं होती और वे छद्म व पाखण्ड से कोसों दूर होती हैं। शैलेन्द्र की रचनाएँ और भाषा उलझने वाली न होकर सहज होती है। उनकी रचनाओं में सघन व्यंजना होती है। उपमाएं, प्रतीक और बिम्ब शैलेन्द्र के यहाँ जादू न होकर वस्तु जगत के अनुरूप ही आते हैं। उनका अतिरिक्त आग्रह वहां नहीं होता। दूसरी ओर सत्ता सहयोग की ध्वनियाँ वहां कतई मौजूद नहीं होती। शैलेन्द्र एक खांटी ईमानदार कवी-आलोचक हैं। न वे गलत स्थितियों से समझौता करते हैं न दबाव में ही आते हैं। आज के कवि - लेखक जहाँ छपने के लिए, चर्चा के लिए, सम्मान पुरस्कार पाने के लिए जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाने में लगे रहते हैं वहीँ शैलेन्द्र किसी ऐसे अनैतिक उपक्रम में अपनी ऊर्जा नष्ट नहीं करते। उनकी समझ एकदम साफ़ है कि यह सब महज एक अतृप्त कामना का खेल है उन्हें इसमें नहीं फंसना है। वह व्यवस्था के नचाये नहीं नाचते बल्कि उससे आवश्यकतानुसार सीधी मुठभेड़ करते हैं जबकि एनी इन स्थितियों से कतराते हैं और समझौते का रास्ता अपनाते हैं। इसिलए संपादक,प्रकाशक, मीडिया, व्यवस्था इनमें से शैलेन्द्र किसी के प्रिय नहीं हैं। उनसे सर्वाधिक दुखी उनके समकालीन रचनाकार तो रहते ही हैं ऐसे नामवर भी उनसे दुखी रहते हैं जिन्होंने अपने गढ़ और मठ बना रखे हैं। शैलेन्द्र चौहान इनके बीच में अकेले दिखते हैं पर वह कभी अकेले नहीं होते। सामाजिक प्रतिबद्धता उन्हें सदैव जन सामान्य के करीब रखती है और जन सामान्य को उनके करीब।

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