अमीरचंद वैश्य
बुद्धिलाल पाल हमारे समय के सजग कवि हैं। लोक से जुडी हुई इनकी कवितायें हमें अपनी तरफ अनायास ही आकृष्ट करती है। अभी हाल ही में इनका एक कविता संग्रह 'राजा की दुनिया' आया
है। वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य ने इस संग्रह पर पत्र शैली में एक
समीक्षा लिखी है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
निराला की कविता का विस्तार- ‘‘राजा की दुनिया‘‘
प्रिय भाई बुद्धिलाल,
आप का चौथा काव्य-संकलन ‘राजा की दुनिया’ की प्रति जनवरी 2013 में प्राप्त हुई
थी। संयोग ऐसा उपस्थित हुआ कि जिस दिन आप ने पुस्तक-प्राप्ति के बारे में
फोन-संवाद किया था, उसी दिन वह हाथ में आई थी। उसी दिन आद्यन्त पढ़ भी लिया था।
संकलन की कविताओं ने प्रभावित किया था। लेकिन तत्काल उस पर लिख नही सका। यह मेरी
कमजोरी है।
इस महीने अर्थात् मार्च में आप ने पुनः फोन
करके मेरे दायित्व का स्मरण कराया। परिणाम। सक्रिय हुआ मैं। और तैयारी करने लगा।
दो-तीन नई पत्रिकाएं देखी, पढ़ी। ‘सर्वनाम’ के नवीनतम अंक 108 में ‘राजा की दुनिया’ पर संक्षिप्त
समीक्षा श्रीयुत् सूरज प्रकाश राठौर ने की है। ‘अलाव’ के सयुक्तांक मई-अगस्त,2012 में श्रीयुत् लक्ष्मी प्रसाद दुबे ने ‘कायम है राजा की
दुनिया’ शीर्षक के अन्तर्गत
अपनी विस्तृत समीक्षा में विचार व्यक्त किये हैं। और ‘कृति ओर’ के संयुक्तांक 65-66(2012)
में राधेलाल बिजघावने ने ‘राजा की दुनिया’ को ‘जनजीवन की
चुनौतीयुक्त चिन्ताओं का विस्तार’ बताया है।
उपर्युक्त तीनों समीक्षाओं से आपका उत्साह बढ़ा
होगा और मनोबल भी। साथ-ही- साथ आत्मविश्वास भी । आप पुलिस विभाग में उच्चपद पर
सेवारत् हैं। ऐसी अवस्था में व्यवस्था की आलोचना करते समय आप को सघन
अन्तर्द्वन्द्व का तनाव झेलना पड़ता होगा। फिर भी आपने साहस किया है। ‘राजा की दुनिया’ से साक्षात्कार
करवा के वर्तमान् क्रूर व्यवस्था की सटीक आलोचना की है। ‘राजा की दुनिया’ का राजा सिर्फ राजतंत्र का द्योतक न होकर वहे
अतीत और वर्तमान दोनो के सत्ता-सूत्र-साधकों के स्वभाव और उनके क्रूर चरित्र पर
सम्यक् टिप्पणी करते हुए कोटि-कोटि निरन्न-निर्वस़्त्र जनों के प्रति अपनी हार्दिक
संवेदना व्यक्त की है। मुक्तिबोध के के बहुप्रयुक्त पद ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ के आधार पर कह सकते हैं, कि आप ने ‘राजा की दुनिया’ में मुक्तिबोधी
पदों को दृष्टिगत रखते हुए कविता रची हैं। आप के पास इतिहास-दृष्टि के साथ-साथ
वर्तमान जन-जीवन के पर्यवेक्षण से प्राप्त पर्याप्त अनुभव है, कल्पना के रंग
में रंग कर प्रभावपूर्ण अनुभूति का रूप प्रदान किया है।
महाकवि निराला ने अपनी सहज अनुभूति के आधार पर
राजतंत्र के प्रतीक राजा की आलोचना करते हुए लिखा है- ‘‘राजे ने अपनी रखवाली की/ किला बनाकर रहा/ बड़ी-बड़ी
फौजें रखीं। /चापलूस कितने सामन्त आए/ मतलब की लकड़ी पकड़े हुए/ कितने ब्राम्हण आए/ पोथियों
में जनता को बांधे हुए/ कवियों ने उस की बहादुरी के गीत गाए/ लेखकों ने लेख लिखे/ ऐतिहासिकों
ने इतिहासों के पन्ने भरे/ नाट्यकारों ने कितने नाटक रचे/ रंगमंच पर खेले/ जनता पर
जादू चला राजे के समाज का।‘‘ (नि.र.द्वि.खण्ड,177-178)
‘ जनता पर जादू चला राजे के
समाज का’। वाक्य विचारणीय
है। यह कैसे सम्भव हुआ। इतिहास साम्य की अवस्था से विषमता की ओर अग्रसर हुआ। निजी
सम्पत्ति के कारण।
पहले गण समाज की
व्यवस्था थी। गण का कोई महावीर गण का स्वामी हुआ करता था। अपना वर्चस्व कायम करने
के लिए गण या कबीले आपस में झगड़ते-लड़ते थे। विजेता होकर अपना वर्चस्व बढ़ाया करते
थे। प्राचीन भारत में भरत गण प्रमुख था। शायद, इसी के नाम पर अपने देश का नाम ‘भारत‘ प्रसिद्ध हुआ।
कालान्तर में छोटे राज्य संगठित हुए। फिर बड़े-बड़े साम्राज्य। राजा चक्रवर्ती
सम्राट भी होने लगा। उसकी इच्छा सर्वोपरि मानी जाने लगी। उसके वर्चस्व की रक्षा को
पुरोहित वर्ग सक्रिय हुआ। उसने ऐसा विधि-विधान प्रस्तुत किया कि जन-गण उसका अनुसरण
करने लगे। कुछ राजा लोकरंजक अवश्य हुए, लेकिन अधिकतर लोकपीड़क के रूप में ही सामने आए।
प्रमाण है शूद्रक का नाटक मृच्छकटिकम् ‘अर्थात् मिट्टी की गाड़ी।‘ इस नाटक में दिखाया
गया है कि स्वेच्छाचारी एवं अत्याचारी राजा को नाटक वीर पात्र गोपाल आर्यक द्वारा
पदच्युत कर दिया जाता है। अब यह सिद्ध हो
गया है कि इतिहास राजाओं की गाथा न होकर वर्ग-संघर्ष की गाथा है।
अब समाज में राजतंत्र का नहीं लोकतंत्र का
वर्चस्व है। लेकिन यह सच्चा लोकतंत्र न हो कर क्रूर पूँजीतंत्र है। और
साम्राज्यवाद उसका सर्वाधिक भयंकर और शोषक रूप है। आजकल हमारे लोकतांत्रिक समाज
में राजा भैया जैसे क्रूर सामांतों और भू-माफियाओं ने आम जनों को इतना अधिक
संत्रस्त कर रखा है कि वे उनके खिलाफ बोलने में हिचकिचाते हैं। आजकल जो व्यक्ति
धनबल और बाहुबल से चुनाव जीत जाता है, वह स्वयं को किसी राजा से कम नहीं समझता है।
वास्तविकता तो यह है कि प्राचीन युग के राजाओं की तुलना में आजकल के पूँजीपति, नेता, अधिकारी और उनके
छुटभैये इतने अधिक सुख भोग रहे हैं, जो पुराने राजाओं ने सपने में भी नहीं देखे थे।
आजकल प्रत्येक मंत्री पुष्पक विमान में आराम से विराजमान होकर हवाई यात्रा करता
है। धरती पर तो वह पॉव रखता ही नहीं है।
ऐसे वर्तमान राजा अपने राज-पाट की रक्षा के
लिए निरन्तर चौकन्ने रहते हैं। जनता के प्रति न्याय न करके उससे व्यमिचार करते
हैं। उस पर बलात्कार करते हैं। अदृश्य रहकर प्रत्येक समर्थक के घट में निवास करते
हैं।
आजकल का राजा जनता को घड़ियाली ऑसू बहा कर
उसे अपने पक्ष में करता है। भय दिखा कर उसका दोहन करता है। यदि भाजपा का राजा
हिन्दुओं को मुसलमानों का भय दिखाता है तो सपा का राजा मुसलमानों को हिन्दुओं का।
सभी जानते हैं कि गुजरात में राज्य की ओर से प्रायोजित संहार हुआ था, अल्पसंख्यक
समुदाय का। फिर भी राजा के आमोद में कोई कमी नहीं आई है। क्योंकि ‘‘राजा का
रूप/दिव्य शक्तियों का पुंज होता है/ और जनता/ राजा के इसी रूप पर /मुग्ध रहती
है।‘‘ (राजा की दुनिया, पृ.13)
आजकल का लोकतांत्रिक राजा दिव्य दृष्टि
सम्पन्न होता है। वह ताड़ जाता है कि जनता संगठित हो रही है। वह आन्दोलन करने वाली
है। अतः आन्दोलन कुचलने के लिए वह बल का प्रयोग करता है। आपात्काल को तत्कालीन
राजा, अर्थात्
प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गॉधी ने ‘अनुशासन पर्व‘ घोषित किया था। उस समय वह ‘अनुशासन पर्व‘ ‘लोक कल्याण की
नीति‘ था।(पृ.14)
आजकल लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा तिरोहित हो गई है। वर्तमान समय का लोकतांत्रिक राजा अपना कल्याण देखकर लोक-कल्याण की बात सोचता है। इसीलिए एक ओर तो वह युवकों को बेरोजगारी का भत्ता देता है और दूसरी ओर उन्हें रोजगार अथवा नौकरी देने के लिए मनमानी रकम वसूल करता है।
वर्तमान समय में सज्जन अथवा भला मानुष
चुनाव में प्रत्याशी होने की बात सपने में भी नहीं सोचता है, लेकिन ‘वर्चस्ववादी
संस्कृति ‘ का पोषक अपने आतंक से चुनाव अनायास
जीत जाता है, क्योंकि ‘‘उसने कितनों के सर कलम करवाए/ उसने कितनों से (पर) बलात्कार किया/ उसने कितनों
के शील भंग किए/ उसने अमानवीयता की कितनी सीमाएँ तोड़ी/ यह सब जरूरी नहीं है/ जरूरी
है उसने वर्चस्ववादी संस्कृति/कितना पोषण किया।‘‘ (पृ.15)
ऐसा वर्चस्ववादी राजा अदृश्य रह कर अपने
विरोधियों का संहार करता है, लेकिन दृश्य रूप में ‘‘ईश्वर की तरह/ पीताम्बर धारण किए होता है।‘‘ (पृ.16) ऐसे बाहुबली एवं
धनबली राजा अपनी कूटनीति से जनता को छलता है। और यह ‘छलना‘ ‘राजा का यश फैलाना होती है।‘‘(पृ.17)
ऐसा स्वार्थी और महत्त्वाकांक्षी राजा अपने
वर्चस्व की रक्षा के लिए जाति और धर्म की सब बंदिशें तोड़ देता है, क्योंकि ‘‘ये सब जरूरतें
/जनता के लिए हैं/ जनता ही भोगे।‘‘ (पृ.18)
राजा ऐश्वर्यवान् होता है। उसका आदेश ईश्वर
का आदेश होता है। यह मान्यता यद्यपि इतिहास ने खंडित कर दी है, तथापि
लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रायः देखा गया है कि मंत्री या मुख्यमंत्री तुगलकी
फरमान जारी करता रहता है। जन-विरोध से विवश होकर वह अपना फरमान वापस भी ले लेता
है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता आक्रोशित न
हो, इसके लिए राजा ‘जनता के उबलते
खून को‘ ठंडा करने का
प्रयास करता रहता है। आरक्षण देकर। लैपटाप देकर। बेरोजगारी-भत्ता दे कर।
इतिहास के प्रत्येक युग में राजा का
वर्चस्व रहा है। राजसत्ता के साथ-साथ धर्मसत्ता भी रही है। दोनों का गठबंधन लोक
कल्याणकारी नहीं है। ऐसा गठबंधन अन्य धर्मों के अनुयायियों का अस्तित्व मिटाता है।
इतिहास साक्षी है। हिन्दू राजाओं ने बौद्वों का इतना विरोध किया कि बौद्ध धर्म भारत में विलुप्त हो गया।
वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में विचारों
की अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार संविधान ने प्रदान किया है। फिर भी व्यवस्था का
आतंक ऐसा है कि लोग सच कहने-बोलने से बचते हैं। ‘धीरे बोलो‘ कविता में यही आशय व्यक्त किया गया है। ‘‘कुछ कहने के
पहले/आवाज साथ नहीं देती /कहीं सुन न ले राजा।‘‘ यहॉ ‘राजा‘ प्रत्येक सत्ताधारी अधिकारी का प्रतीक है।
राजा के पास जब शक्ति है, तब ‘‘उसका दर्प भी झलकता है।‘‘ (पृ. 23)
आजकल के राजा की भाषा मातृ भाषा न होकर
अॅग्रेजी है और खेल भी अॅग्रेजी। व्यंग्य के लहजे में कहा गया है- ‘‘राजा कोई/ गिल्ली
डंडा तो खेलेगा नहीं। हिन्दी से तो उसका काम चलेगा नहीं /राजा है/ तो कुछ विशिष्ट
तो होगा ही/ खेलेगा तो शतरंज, गोल्फ/ काम चलेगा तो/ सिर्फ अॅग्रेजी में ही राजा का भला /दरिद्रता
से क्या वास्ता।‘‘ (पृ.24)
इस कविता में कलात्मक ढंग से राजा और रंक का
अन्तर व्यक्त किया गया है।
सत्ता चक्र, इश्तहार, किस्सा, खासियत, राजा जी के घोड़े, रिश्ते, उदारता, ढोल, संरचना, निष्ठा शीर्षक रचनाओं में ‘राजा‘ अर्थात् ‘सत्ता ‘ का वास्तविक
चरित्र व्यक्त किया गया है। ‘‘राजा पर संकट हो तो/जनता व्यथित होती है।‘‘ (पृ.34) यह बात सच्चे और
अच्छे राजनेता के बारे में कही जा सकती है। ऐसा राजा लोकरंजन के लिए अपनी गर्भवती
पत्नी का परित्याग कर सकता है। गॉधी जी की हत्या पर सम्पूर्ण देश रोया था। लेकिन
स्वार्थी और जन-विरोधी नेताओं के प्रति जनता की निष्ठा नहीं होती है। घृणा व्यक्त
होती है। लेकिन यह सत्य है कि वर्ग-विभक्त समाज में श्रमशील जन सुख से वंचित रहे
हैं। ठीक लिखा गया है- ‘‘उन की ऑखें /मृत्यु देवता के दर्शन तक/ रोटी में (पर)
लॅगोटी में (पर) /छप्पर में (पर) टॅगी रही।‘‘ (पृ.35)
उपर्युक्त कवितांश बिम्ब-विधान की दृष्टि से आकर्षक है। ऑखों के मानवीकरण ने चाक्षुक दृश्य उपस्थित कर दिया है, जो ‘गरीबी‘ से साक्षात्कार करा रहा है। लोक के प्रति हार्दिक संवेदना से ऐसे बिम्बों की सृष्टि सम्भव होती है। अकबर के समकालीन महाकवि तुलसी ने गरीबी और दरिद्रता का वास्तविक निरूपण किया है । वह लिखते हैं- ‘खेती न किसान को भिखारी को भीख, बलि/बनिक को बनिज न, चाकर को चाकरी/$$दारिदन्दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु।/दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।‘‘ (कवितावली, पृ.63)
तुलसी को तो राम पर भरोसा था, लेकिन अब युग बदल
गया है। अब राम भरोसे बैठे रहने से समाज बदलने वाला नहीं है। एक मात्र जनशक्ति समाज में परिवर्तन उपस्थित कर सकती है।
अब भाग्य और भगवान के प्रति आस्था त्यागनी होगी। वास्तविकता तो यह है कि भगवान
कल्पना का पुत्र है। ‘ कल्पना के पुत्र हे भगवान्।‘ नागार्जुन ने ठीक लिखा है।
राजा अर्थात् व्यवस्था जनता को दबाने के लिए भाग्य और भगवान का आश्रम लेकर मिथ्या
प्रचार करती है। आप ने ‘किसने कहा‘ में ठीक प्रश्न उठाए हैं- ‘‘ आदमी/ब्राहमण होता है,
शूद्र होता है/ आदमी गोरा
होता है काला होता है/ आदमी/मालिक होता है, सेवक होता है/किसने कहा ?/ईश्वर ने/ईश्वर
ने नहीं /तो फिर किसने कहा ?/राजा ने /या उसकी दुनिया के लोगों ने/किसने कहा....? ‘‘ (पृ. 43) मिथ्या प्रचार
इतना किया गया कि सत्य समझा जाने लगा। आभिजात्य और सम्पन्नता-विपन्नता पूर्व जन्म
के कर्मो का परिणाम है। इस अवधारणा ने, पुनर्जन्म के विचार ने लोगों को अपनी निर्धनता
से समझौता कर लिया और उसमें ही संतुष्टि का अनुभव किया। शक्ति-सम्पन्न राजा
अर्थात् आजकल के मंत्री-गण स्वयं को ‘विधाता‘ समझकर के आम लोगों की किस्मत लिखा करते हैं।
आखिरकार क्या कारण आजादी के पैंसठ साल बीतने के बाद भी भारत के अधिकतर जन-गण गरीबी
रेखा के नीचे क्यों जी रहे हैं। त्रिपुरा के त्यागी मुख्यमंत्री माणिक सरकार के
जैसे हमारे प्रदेशों के मुख्यमंत्री और केन्द्रीयमंत्री धन का लालच क्यों नहीं
त्याग रहे हैं। लेकिन वर्तमान राजा तो स्वयं को देवराज इन्द्र के लोक का सुख भोग
रहे हैं। वे उसे कैसे त्याग सकते हैं। वे स्वयं को अजर-अमर समझते हैं। लेकिन
अफसोस। उन्हें भी अपना वैभव त्यागकर मरना ही पड़ता है। फिर भी जब तक जीवित रहते हैं, तब तक अपनी ‘आकांक्षाएं‘ पूरी करती रहती
हैं। अपने अस्तित्व के लिए ‘नरसंहार‘ की आकांक्षा भी। ऐसी परिस्थितियों में सत्ता के बिचौलिए सत्ताधीशों
के ‘आगे-पीछे दॉए-बॉए
‘सत्ता का व्यापार
किया करते हैं। यह आजकल के लोकतंत्र का दुष्ट चरित्र है। सत्ता की चाल, उसका चरित्र और
चेहरा अब तो संगठित जनशक्ति ही बदल सकती है। आपने ठीक लिखा है- ‘‘राजा/
और राक्षस में/फर्क सिर्फ इतना/राक्षस के सींग /दिखाई देते हैं/राजा के नहीं।‘‘ (पृ.51)
और राक्षस में/फर्क सिर्फ इतना/राक्षस के सींग /दिखाई देते हैं/राजा के नहीं।‘‘ (पृ.51)
वर्तमानकाल में ‘नया राजा‘ अमरीका है, जो पूँजी का
वर्चस्व कायम रखने के लिए निजीकरण और उदारीकरण को बढ़ावा दे रहा है। भारत उसी की
नीतियों का अनुसरण कर रहा है। इसीलिए समाज और बाजार में गलाकाटू प्रतिस्पर्धा है।
अधिक लाभ और अधिक से अधिक शोषण का बोलबाला है। ऐसे समाज में सत्ताधीश राजा
सोने-चॉदी तोले जाते हैं। उन्हें सोने का मुकुट पहनाया जाता है। लोकतंत्र में भी
उसका राजतिलक किया जाता है। उसके पुत्र को युवराज घोषित किया जाता है। ऐसा सत्ताधारी
राजा ‘कुछ फन्दे कुछ
हथकण्डे कुछ हथकड़ियॉ/ कुछ अनर्थ वाले भय‘ अपना कर स्वयं को अविजित सूरमा घोषित करता रहता
है।
आजकल राजा स्वयं को ‘शेर‘ समझकर धर्मात्मा
की पदवी धारण करके अपनी कमजोरी छिपाता है। और छल-बल से अधिकाधिक वोट प्राप्त करके
महान क्रान्तिकारी बन जाता है। वह विश्वास के साथ-साथ अंधविश्वास को बढ़ावा देकर अपना
उल्लू सीधा करता है। जनता को भ्रमाता है। आपने ठीक लिखा है- ‘‘उसे विश्वास है/
विज्ञान उसकी आस्था को/कुन्द करता है/ तर्क उसे नर्क ले जाते हैं। इसलिए वह ईश्वर
में ही तर्क और विज्ञान को गढ़ती है/और ठीक-ठीक अपने विश्वासों के /आसपास होती है।‘‘ (पृ.60)
वर्ग-विभक्त समाज यह विधान अलिखित और
अघोषित है कि समाज में अपराध गरीब ही अपराध करते है। अतः ‘अमीर के अपराध /गरीब पर थोप दिए जाएं/गरीब को
कोई फर्क नहीं पड़ता/अमीर को पड़ता है।‘‘ (पृ.61) लेकिन बकरे की मॉ कब तक खैर मनाएगी। अब
लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘राजा‘ सरे राह नंगा किया जा रहा है। उसके काले कारनामे उजागर किए
जा रहे हैं। आपकी कविताओं मे इसकी ओर संकेत नहीं किया गया है।
खैर। इस लाभ-लोभ की व्यवस्था में ऐसी
प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ है कि हर कोई आगे की पंक्ति में उपस्थित रहना चाहता है।
आदमी आदमी से छल कर रहा है। ठीक लिखा है - ‘‘आदमी आदमी को/सीढ़ी बनाता है/ चढ़ता है/ दूसरों
को धक्का दे कर‘‘ (पृ.67)
आम आदमी तो यही चाहता है कि समाज बदले।
उसकी गरीबी समाप्त हो। लेकिन ‘अंधी आस्तिकता‘ उसके रास्ते का पत्थर है। ‘अंधे अंधो की बात
मानते हैं/चमत्कार पर विश्वास करते हैं।‘
वर्तमान पॅूजीवादी व्यवस्था में ऐसी मार-काट
मची हुई है कि ‘‘चॉदनी रात भी काली बदलियों के/ ओट में छिप जाती है/ श्मशान घाट में नीरवता का/
साम्राज्य हो जाता है/ $ $ $ $ $ अब तो दिन के
उजाले में भी/हर नुक्कड़ में (पर) उल्लुओं की चीख है/ $ $
$ भूतप्रेत का अस्तित्व
इतना हो गया है/ कि अब दिन में भी उल्लुओं की चीख सुनाई देती है।‘‘ (पृ.69) कहने की आवश्यकता
नहीं है कि ‘उल्लुओं‘ पद का प्रयोग बुद्धिहीन एवं अदूरदर्शी स्वार्थी सत्ताधीशों के लिए प्रयुक्त
किया गया है। इन्हीं की चीख-पुकार सुन-सुन
कर जन-गण के मान पक गए हैं। और वे इनके प्रति उदासीन हो गए हैं। यह शुभ लक्षण नहीं
है। लेकिन वे भी क्या करें। संगठन के असफलता से वे लाचार हो गए हैं। उन्हे ‘राजा‘ की सत्ता की ओर
प्रतिदिन डराया जाता है। ‘डर‘ को/ डर/ दिखाकर/दिग्भ्रमित किया जाता है/ डर की राजनीति/ खूब
फलती-फूलती है/ डर से मुक्ति आवश्यक है/ डर से मुक्ति की चिन्ता करना/ दुनिया की
चिन्ता करना है।‘‘ (पृ.76)
विश्व कवि टैगोर ने ‘गीतांजलि‘ में सौ बरस पहले
लिखा था कि मेरे देश को वहॉ ले चलो जहॉ मन भय-रहित हो।
आपने ‘राजा की दुनिया‘ में सामाजिक कल्याण के लिए ‘ईश्वर‘ को सब कुछ नहीं
माना है। असहिष्णु धार्मिकता की निन्दा की है, जो ठीक है। धर्म के प्रदर्शन पर रोक का समर्थन
किया है। ठीक भी है। अपने देश में अंध आस्था ने धन-जन की अपार क्षति की है।
अवसरवाद की प्रखर आलोचना करके प्रशासन के अदने से सेवक का स्वभाव निन्दनीय बताया
है- ‘‘प्रशासन का/एक
अदना सा प्यादा/ मदमस्त होकर/ हाथी जैसा चलता है/ अपने को भारी भरकम/ पहाड़ जैसा/ बाकी
को तुच्छ समझता है/ एक अदना सा प्यादा/ शहर की कमजोर बॉहों पर/ खूब नाचता है।‘‘ (पृ. 83)
साम्राज्यवादी अधिनायक पर मधुर व्यंग्य
भी किया है। ‘‘ इतिहास/समाप्ति की घोषणा‘ लिखकर उसके अन्त का निषेध किया है। और अन्त में समरसता के
लिए भेद-भाव के समर्थकों के लिए ‘नकेल‘ अनिवार्य बताई है- ‘‘अति धार्मिक व्यक्ति जो/पृथ्वी को जकड़ कर बैठे
हैं/इन सब के नाक में/नकेल जरूरी है।‘‘ (पृ. 87)
प्रतिरोध की यह भावना आप के कवि व्यक्तित्व
को लोकोन्मुखी बनाती है।
सारांश यह है कि आपकी ‘राजा की दुनिया‘ की सर्जना की
प्रेरक शक्ति मानवीय करूणा है, जिसके फलस्वरूप कविताओं में सहज व्यंग्य, आक्रोश और
सात्विक क्रोध की अभिव्यक्ति हुई है। प्रत्येक कविता लोकोन्मुखी एवं भौतिकवादी
चिन्तन से अनुप्राणित है। ‘राजा की दुनिया‘ में अतीत की तो झलक है,
लेकिन वर्तमान समाज की
कुरूपता की निर्मम आलोचना है।
मंथर गति वाले गद्य की लय से गति वाले गद्य
की लय से अन्वित कविताओं की भाषिक संरचना में सहज बोधगम्यता है। लेकिन भाषा के
मानक रूप का अभाव कहीं-कहीं खटकता है। प्रमाण के लिए पहली कविता ‘चौकन्नापन‘ देखिए। ‘‘ उसकी ऑखों में/ पट्टी बॉधी जाती है इसकी।‘‘ (पृ.09) ‘ इस वाक्य में ‘ऑखों में‘ प्रयोग सदोष है।
अभीष्ट है-‘‘ उसकी ऑखों पर।‘‘ ‘अप्सरा में‘ (पृ.25), ‘संवेदनायें‘ (29) ‘ अपने-अपने क्षेत्रों में‘ (पृ.28 ) ‘राजा की इच्छा के
लिये ही‘ (पृ.28) ‘और यह राजा के
लिये‘ (पृ.32) में पदो के रूप
सदोष हैं। इनके मानक रूप हैं- अप्सराएं, संवेदनाएं, अपने-अपने क्षेत्र में,
इच्छा के लिए ही राजा के
लिए।
‘राजा की दुनिया‘ की कविताओं में पूर्वावर सम्बन्ध का निर्वाह लक्षित नहीं होता है। इस कारण इसे लम्बी प्रबंधात्मक रचना कहना उचित नहीं है। फिर भी आपने निराला की कविता ‘राजे ने अपनी रखवाली की‘ के संवेदनात्मक विचार को अपने ढंग से विस्तृत रूप प्रदान किया है। इसे आपकी उपलब्धि कहा जा सकता है ‘सवाल‘ शीर्षक कविता महत्त्वपूर्ण है। इसका जवाब गम्भीर शोध के बाद दिया जा सकता है। फिलहाल तो मुझे लैटिन अमरीकी देश बेनेजुएला के दिवंगत राष्ट्रपति ह्योगो शावेज का नाम याद आ रहा है, जिसने अमरीकी नीतियों का तिरस्कार करने, पॅूजीवाद का विरोध किया और अपने देश के नागरिकों को सुख-सुविधाएं प्रदान की। अपने देश में प0 बंगाल के ज्योति बसु को कौन भूल सकता है, जिन्होंने भूमि-सुधार लागू करके प्रदीर्घ काल तक मुख्यमंत्रित्व का गौरव बढ़ाया। अब त्रिपुरा राज्य के मुख्यमंत्री माणिक सरकार त्यागी के समान शासन कर रहे हैं। उनके पास अपनी सम्पत्ति नहीं है, जब कि अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों की धुली चादर गुनाहों की कमाई है।
‘ राजा की दुनिया‘ आपकी निर्भीकता
का प्रमाण है, आशा है कि आप स्वस्थ-प्रसन्न होंगे। आपकी कीर्ति का अभिलाषी।
दिनांक 22 मार्च 2013 आपका
अमीरचंद वैश्य
बदायूं,(उ0प्र0) 243601
(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
संपर्क-
मोबाईल -098974-82597
(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स सुष्मिता की हैं जो अमीर चन्द्र जी की सुपुत्री है।)
बदायूं,(उ0प्र0) 243601
(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
संपर्क-
मोबाईल -098974-82597
(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स सुष्मिता की हैं जो अमीर चन्द्र जी की सुपुत्री है।)
सीधे सीधे , तीखे व्यंग्य के साथ अपनी बात कहती, व्यापक जनवाद की कविताओं पर एक सुंदर और विचारशील लेख ...... जो कविता के बहाने अपने समय समाज के सत्ता रूपों के वर्चश्व को बहुत गहरे से पकड़ता है और उनके विरुद्ध विकल्प का रचाव भी करता है
जवाब देंहटाएंYadav Shambhu
जवाब देंहटाएंसीधे सीधे, तीखे व्यंग्य के साथ अपनी बात कहती, व्यापक जनवाद की कवितायों पर एक सुंदर और विचारशील लेख ...... जो कविता के बहाने अपने समय समाज के सत्ता रूपों के वर्चश्व को बहुत गहरे से पकड़ता है और उनके विरुद्ध विकल्प का रचाव भी करता है
Ashok Kumar Pandey
जवाब देंहटाएंवाह!
Tiwari Keshav
जवाब देंहटाएंRaja dunia mughe bhi padhne ko mili thi. Tippadi padh ker achha laga in kawitaon ka mool swar us dunia ko udghatit karne ka ha jo aam jan ko kone me dhakel deti ha. Ak wargeey bodh paida karti han kawitayen. Kawitaon per bat hui per pyas abhi bhi bani ha. Ameer ji kabhi vistar se kahen to achha lagega
बिना किसी लाग-लपेट के सीधा, सरल, स्पष्ट और सार्थक लेख। अमीर चन्द्र वैश्य जी...धन्यवाद
जवाब देंहटाएं" राजा की दुनिया " में मेरी समझ में सर्वहारा की राजा (व्यवस्था)के प्रति आक्रोश का स्वर है . व्यवस्था जो राजा ही देता है और राजा ही व्यवस्था है को "राजा की दुनिया" में व्यवस्था से उपजी छटपटाहट को बहुत ही सहज ढंग से कवि बुद्धिलाल पाल ने व्यक्त किया है ,और उतने ही सहज ढंग से वैश्य जी ने उसे विश्लेषित किया है
जवाब देंहटाएंRaja nanga ho gya hai. Budhilal ji Amir chandra ji Badhai! Santosh ji Abhaar.
जवाब देंहटाएंबुद्धि भाई के संग्रह पर अमीरचंद जी की समीक्षा पढ़ना अच्छा लगा.बधाई दोनों को .
जवाब देंहटाएंअभी तक हम राजा की दुनिया में ही तो रह रहे हैं फर्क इतना भर है कि उनके राजमुकुट ,राज सिंहासन और ढाल-तलवारें रखने की जगह बदल गयी है ।अभी प्रजा का ही तंत्र है जनता का नहीं । जिस रोज जन का तंत्र हो जाएगा , राजा की दुनिया बदल जायेगी । पाल जी की कविता का मैं भी पाठक हूँ । बधाई वैश्य जी और पाल जी दोनों को ।
जवाब देंहटाएं