विवेक निराला





विवेक निराला का जन्म ३० जून १९७४ को इलाहाबाद में हुआ. विवेक ने इलाहाबाद विश्वद्यालय से दूध नाथ सिंह के निर्देशन में ‘आधुनिक हिंदी साहित्य में शोषण विरोधी चेतना’ (निराला साहित्य के विशेष सन्दर्भ में) पर शोध कार्य किया. राजकमल प्रकाशन से कविता संग्रह ‘एक बिम्ब है यह’ और लोकभारती प्रकाशन से एक आलोचना की किताब ‘निराला साहित्य में प्रतिरोध के स्वर’ का प्रकाशन. आजकल इलाहाबाद के भरवारी स्थित भवंस मेहता डिग्री कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक.
  

कविता हर जमाने में प्रतिरोध का प्रमुख स्वर होती है. विवेक उन युवा कवियों में से एक हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में इस प्रतिरोध की धारा और स्वर को आगे बढाया है. इस देश के किसान की यह विडम्बना ही है कि हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी वह कर्ज के जाल में फस कर आत्मघात की ओर बढ़ता चला जाता है. प्रभु वर्ग को इससे क्या फर्क पड़ता है. लेकिन कवि तो इसकी उपेक्षा कर ही नहीं सकता. क्योकि वह हमेशा उस आम जनता के साथ खड़ा होता है जिसके बिना कोई राज्य, देश या दुनिया नहीं बन सकती. विवेक की कविता पढ़ते हुए हम हमेशा एक राग एक लय से गुजरते हैं. 
तो आईए विवेक की कविता का आस्वाद इन कविताओं को पढ़ते हुए लिया जाय.


हत्या


एक नायक की हत्या थी यह
जो खुद भी हत्यारा था।

 हत्यारे ही नायक थे इस वक्त
और नायकों के साथ
लोगों की गहरी सहानुभूति थी।

हत्यारों की अन्तर्कलह थी
हत्याओं का अन्तहीन सिलसिला
हर हत्यारे की हत्या के बाद
थोड़ी खामोशी
थोड़ी अकुलाहट
थोड़ी अशान्ति

और अन्त में जी उठता था
एक दूसरा हत्यारा
मारे जाने के लिए।



निर्वासन


एक-एक कर
सब कुछ छूटता जाता है
यह देह, यह बोध
यह देहरी, यह क्रोध

यह मित्र, रिश्तेदार
सुत, दारा, घर, संसार।
यह अग्नि, यह जल
यह हमारा आज
यह बीता हुआ कल
यह सागर, यह नाव
यह विचार, यह भाव
यह शस्त्र, यह शास्त्र
यह मन्त्र, ब्रह्मास्त्र
यह शिष्य, यह ज्ञान
यह घृणा, सम्मान।

 एक-एक कर
सब कुछ छूटता जाता है

हे ऋषियों!
यह ब्रह्मज्ञान नहीं
यही निर्वासन है।



अभिधा की एक शाम नरबलि


एक छोटी शाम जो
लम्बी खिंचती जाती थी
बिल्कुल अभिधा में।
रक्ताभा लिए रवि
लुकता जाता था।

लक्षणा के लद चुके
दिनों के बाद
अभिधा की एक छोटी-सी शाम
धीरे-धीरे
करती रही अपना प्रसार
बढ़ती जाती थी भीड़
सिकुड़ता रहा सभागार।

रचना ही बचना है
कोहराम मचना है-
कहा कभी किसी ने

बे दांत जबड़ों के बीच
कुतरे जाते हुए।

अहंकार से लथपथ
शतपथी ब्राह्मणों के
पान से ललाये मुख
से होते हुए आखिर
पेट में जा पचना है।

आयताकार प्रकाश पुंज
फैला है भीतर
बाहर शाम को
लील रहा अंधकार

मंच पर आसीन
पहने कौपीन
लकदक लिये घातक हथियार
आतुर थे करने को एकल संहार।

वायु-मार्ग से आये
ऋषिगण करते आलोचन
लोहित लोचन।
थके चरण वह वधस्थल
को जाता उन्मन नतनयन।

माला और दुशाला को
डाला एक कोने में;
वध के पश्चात् रक्त
सहेज कर भगोने में,
तेज़ धार वह कटार
पोंछ-पाछ साफ़ कर
अन्तिम यह वाक्य कहा-
‘‘हल्का है, बासी है कल का है,
डिम्ब है न बिम्ब है
अभिधा है, अभिधा है

अग्नि को जो अर्पण है
मेरी प्रिय समिधा है।’’



भाषा


मेरी पीठ पर टिकी
एक नन्हीं-सी लड़की
मेरी गर्दन में

अपने हाथ डाले हुए
जितना सीख कर आती है
उतना मुझे सिखाती है।

उतने में ही अपना
सब कुछ कह जाती है।



निषाद-कन्या

 मैं मछलियां बेचती हूँ
जल से ही शुरू हुआ जीवन
पृथ्वी पर, मेरा भी।

आदिकाल से ही अपने
देह की मत्स्यगंध लिए
महकती, डोलती
तुम्हारी वेगवती
कल्लोलिनी भाषा के प्रवाह में
मछलियां पकड़ती
अपने को खोलती।

मेरा ध्रुवतारा जल में है
मेरा चांद, मेरा सूरज

जल में ही दिपता है
मेरे लिए आरक्षित नहीं कुछ
मछली भर मेरी निजता है।

अपने गलफरों से सिर्फ़ तुम्हारे लिए
सांसे लेती थक गई हॅूं।
अपने घर लौट जाओ ऋषि!
तुम्हारे आत्मज संकल्पबद्ध हैं
और तुम्हारे पास
न अपनी जर्जर देह का कोई
विकल्प है, न परम्परा का।
ऋषि! लौट जाओ अपनी
अमरत्व और मोक्ष की
मोहक कामनाओं में।
मुझे तो इसी जल में
फिर-फिर जन्म लेना है।

  
आदिवासिनी


मैं जंगली लड़की हूँ
तुम लोगों की
कब्जे़ की लड़ाई में
बार-बार मात खाती हुई ।

सबका मालिक एक-
है आज भी
अपनी सारी अर्थच्छवियों में।
जब उस एक के खिलाफ़
हम सम्मिलित खड़े होते हैं
तो तुम हमें नक्सली कहते हो।
तुम एकल न्याय के नाम पर
सामूहिक नरसंहार करते हो।

तुम्हें हमारे जंगल चाहिए
तुम्हें हमारी ज़मीन चाहिए
तुम अपनी सभ्य भाषा में
हमारे शरीर का ही अनुवाद करते हो
चाहे वह जीवित हो या मृत।

अपनी सभ्यता में
हमारी कला, हमारी संस्कृति,
हमारी देह और हमारे देश पर

कब्ज़ा करने वालों से
मैं कहती हूँ -
‘‘जान देबो, ज़मीन देबो ना’’
नफ़रत की तमीज़ को
अपनी बोली से
तुम्हारी भाषा में रूपान्तरित करते हुए।



मैं और तुम


मैं जो एक
टूटा हुआ तारा
मैं जो एक
बुझा हुआ दीप।

तुम्हारे सीने पर
रखा एक भारी पत्थर
तुम्हारी आत्मा के सलिल में
जमी हुयी काई।

मैं जो तुम्हारा
खण्डित वैभव
तुम्हारा भग्न ऐश्वर्य।
तुम जो मुझसे निस्संग

मेरी आखिरी हार हो
तुम जो
मेरा नष्ट हो चुका संसार हो।


क्या फर्क पड़ता है

क्या फर्क पड़ता है

एक आदमी अपने चार बीघा
खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत
के बाद हासिल कर्ज़ अपने झोले में
सहेजे आत्मघात की तरफ
चला जा रहा है।

एक औरत अपने लम्बे
विश्वास से बाहर
लुटती-पिटती लौट रही है
भीतर के दुःखों को सम्हालती।

एक बच्चा जो
कूड़े में खेल रहा था
बम फटने से मारा जाता है
जेब में तीन चिकने पत्थर लिए।
एक लड़की जो
दुनिया में आने की सज़ा
पाती है और नीले निशान
अपनी फिरोजी फ्रॉक से छिपाती फिरती है।

क्या फर्क पड़ता है!
हमारे समय का बीज वाक्य है
यह हमारे समय का
अन्तिम सत्य
किसी से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
तमाम गाजे-बाजे और
इक्कीस तोपों की सलामी से
हमें भी क्या फर्क़ पड़ता है।


दिल्ली में एक दिन की राष्ट्रीय समस्या
  

दिल्ली हमारे देश की राजधानी है
इसलिए यहां की सरकारी समस्याएं राष्ट्रीय होती हैं
एक दिन समस्या यह थी कि एक प्रदेश के राज्यपाल को
उसके प्रदेश के राजभवन तक पहुंचाया कैसे जाए?

महामहिम पिछले कई दिनों से दिल्ली में थे
और सरकारी खर्च पर महंगा इलाज करा रहे थे

वे नींद में बड़बड़ाते थे कि देश में अच्छे डाक्टर नहीं
फिर भी अब वे पहले से स्वस्थ थे।
यह महाराजा के इलाज जैसी बात नहीं थी।

आमिर खान टेलीविजन पर महंगे इलाज और
महंगी दवाओं का अर्थशास्त्र समझा रहे थे
लेकिन मामला राज्यपाल का था और मुखिया के बिना
प्रदेश को नहीं छोड़ा जा सकता था बहुत दिनों तक
इसलिए उन्हें उनके राजभवन तक पहुंचाना ज़रूरी था
किसी संवैधानिक संकट उत्पन्न होने से पहले ही।

विकट राष्ट्रीय समस्या थी और
राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान सदैव राष्ट्रीय होते हैं।
हमारे देश में बिना वार्ताओं के समाधान नहीं निकला करते
इसलिए एक ही दिन में वार्ताओं के कई दौर चले
पहले उपसचिव स्तर की वार्ता हुई
फिर प्रदेश और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच
प्रमुख सचिव स्तर की वार्ता हुई
तब जा कर हेलीकॉप्टर से उन्हें ले जाना तय हुआ।

आयुर्विज्ञान संस्थान से निकल कर बीमार महामहिम ने
उड़ान भरी अपने प्रदेश के राजभवन की ओर

प्रशासन की जान में जान आयी और
प्रदेश को संवैधानिक संकट से बचाने की राष्ट्रीय समस्या
का राष्ट्रीय हल निकाल लिया गया था।


संपर्क-
२६५, छोटी वासुकी, दारागंज, इलाहाबाद
मोबाईल- 09415289529  



  

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर एवं सामायिक कविताएँ , बहुत -बहुत बधाई कवि मित्र को . पहलीबार का आभार इन रचनाओं को साझा करने के लिए . सादर
    -नित्यानंद गायेन

    जवाब देंहटाएं
  2. vishwaas nahin hota itni achhi kavitaen aaj ek saath padhne ko mili aur ashcharya yeh bhi ki kavi ka naam fb fried ke maadhyam se pehli baar suna . Vevek bhai ko janmdin ki aur achhi kavitaon ki ek saath badhai v haardik shubhkaamnaen.

    जवाब देंहटाएं
  3. कवितायें पसंद आयीं। 'निर्वासन' विशेष कर्। निषाद- कन्या जहाँ एक पूरी पौराणिक कथा पर सवाल खड़ी करती है, वहीं आत्मबल में मजबूत भी साबित होती हैं, इसी तरह आदिवासिनी भी आज के यथार्थ को खुल कर सामने लाती है...किंतु कोई फर्क नहीं पड़ता इस मुहावरे के साथ पहले भी एक कविता पढ़ी थी, शायद केदारनाथ सिन्ह की..

    जवाब देंहटाएं
  4. रचनाएँ अच्छी लगीं ।महाप्राण की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए साधुवाद!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'