चन्द्रभूषण का आलेख 'पुरुषों को राह दिखाता था मीना राय का नारीवाद'

 

मीना राय 


मीना राय प्रतिबद्ध साहित्यकार और कम्युनिस्ट रामजी राय की ही पत्नी नहीं थीं बल्कि हम सबकी 'मीना भाभी' भी थीं। बहुत लोगों को यह बात नहीं पता कि वे एक स्कूल की प्रिंसिपल और प्रतिष्ठित शिक्षिका थीं। लेकिन सादगी का आलम यह कि इलाहाबाद में जब जहां कोई कार्यक्रम होता तो वे किताबों का अपना स्टाल लगातीं और बिना किसी हिचक के वे अपना काम करतीं। ‘समकालीन जनमत’ जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका की पूरी व्यवस्था वे ही देखती थीं। कोविड काल में उन्होंने अपनी आत्म कथा 'समर न जीते कोय'  नाम से लिखनी शुरू की थी, हालांकि अचानक निधन हो जाने से यह अधूरा ही रह गया। आज ही के दिन 21 नवंबर 2023 को अचानक भोर में ब्रेन हैमरेज की वजह से मीना राय की मृत्यु हुई थी। आज उनकी पुण्य तिथि पर हम उनकी स्मृति को नमन करते हैं। आइए इस मौके पर आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चन्द्रभूषण का आलेख 'पुरुषों को राह दिखाता था मीना राय का नारीवाद'।



'पुरुषों को राह दिखाता था मीना राय का नारीवाद'


चन्द्रभूषण


मीना राय कौन थीं? हाल तक लगता था कि इस सवाल का जवाब मेरी जुबान पर है। 


तीन शहरों से चार अवतारों में निकल चुकी साप्ताहिक, पाक्षिक, त्रैमासिक, और अभी मासिक पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ की इंतजामकार। मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता से जुड़े हर मौके पर इलाहाबाद में और बाहर भी पूरे दम-खम से नजर आने वाली सामाजिक कार्यकर्ता। लगभग 25 साल एक स्कूल की प्रिंसिपल रहीं प्रतिष्ठित शिक्षिका। और इन पहचानों से इतर, नक्सल-कम्युनिस्ट नेता, साहित्य समालोचक रामजी राय की पत्नी। दसियों साल कोई खोज-खबर तक न लेने वाले मुझ जैसे कमजर्फ को भी संयोगवश कहीं देख कर मदार की तरह खिल उठने वाली, मुझसे पहले और बाद में हुए न जाने कितने मौजूदा और पूर्व कार्यकर्ताओं की ‘मीना भाभी’। 


बहरहाल, 21 नवंबर 2023 की भोर में ब्रेन हैमरेज से उनकी मृत्यु हुई, तब से इतने बड़े दायरे में, इतने अधिक प्रसंगों से उनकी चर्चा सुन चुका हूं कि भीतर से लग रहा है, जैसे मैं उन्हें जानता ही नहीं था।


कोविड वाला दौर गुजरने के साथ ही मीना राय ने ‘समर न जीते कोय’ शीर्षक से छिटपुट संस्मरणों के जरिये आत्मकथा पर हाथ आजमाया। दिसंबर 2021 से शुरू हो कर दिसंबर 2022 तक ये संस्मरण समकालीन जनमत के ऑनलाइन संस्करण में पाक्षिक ढंग से प्रकाशित हुए। लेकिन उनकी कहानी यहां आधे तक ही पहुंच पाई है। इसमें आई अंतिम घटना 1999 की शुरुआत में हुई बेटी की शादी की है और यह सत्ताइसवीं किस्त में आई है। संस्मरण की उनतीसवीं और अंतिम किस्त के नीचे उनका एक लाइन का बयान छपा है- ‘पाठक गण, इसके बाद अब अगली किस्त संभवतः मार्च के बाद शुरू होगी...।’ मार्च, यानी मार्च 2023, हालांकि यह वादा वे पूरा नहीं कर पाईं। 


एक ही बार में सारी किस्तें आदि से अंत तक पढ़ जाने के बाद कोई उपन्यास अधूरा छूट जाने जैसी छटपटाहट मुझे महसूस हुई। आगे का किस्सा थोड़ा-बहुत पता था। सीधा संपर्क नहीं रह गया है लेकिन हाल-चाल बीच-बीच में मिल ही जाती है। फिर भी कहानी की निरंतरता में थोड़ी दूर और चलने के लिए मैंने पिछले पचीस वर्षों में मीना जी के करीब रहे मित्रों से फोन पर लंबी-लंबी बातें कीं। इससे हतक कम होने के बजाय कुछ बढ़ ही गई, यह और बात है।





बालों में सांप

एक कार्यकर्ता और पत्रकार के रूप में बहुत तरह के लोगों को नजदीक से देखने का मौका मुझे मिला है। एक से एक दिलचस्प व्यक्तित्व। फर्श से अर्श तक और वापस अर्श से फर्श तक जाने की दास्तानें। लेकिन जितने नाटकीय बदलावों से होकर गुजरती हुई मीना राय की जिंदगी उनके संस्मरणों में दिखती है, उसे कई मायनों में बेमिसाल ही कहा जा सकता है। गाजीपुर के ठेठ देहात में पली-बढ़ी एक लंबी और हट्टी-कट्टी, मेधावी लड़की, जिसे अपने घर-परिवार की ओर से आठवीं तक और काफी रोने-बिसूरने के बाद दसवीं तक ही पढ़ने का मौका मिला। ऐसा वज्र देहात कि स्कूल में एक दिन प्रार्थना के समय डेढ़ फुट का जिंदा सांप मीना राय के बालों में कुलबुलाता मिल गया!


उनकी कहानी में मायके डेढ़गांवां और ससुराल मतसा के कई दिलचस्प प्रसंग गांव से पढ़कर शहरों में जीविका कमाने वाले मेरे जैसे पाठकों को अपना अतीत याद दिलाते हैं। गणित में उनकी गहरी दिलचस्पी। बहुत मन होने के बावजूद पढ़ाई का हाई स्कूल से आगे न बढ़ पाना। पीठ पर धान का बोरा लादे छत से उतरते देख इलाहाबाद में पढ़ने वाले एक अजीब से लड़के का उन्हें पसंद कर लेना, जो शादी के दिन रोजमर्रा के कपड़ों में बिना किसी प्रस्तावना के उनके भाई का नाम पुकारता हुआ घर में घुस आया। न सिर्फ तिलक-दहेज बल्कि हर कर्मकांड और दैवी प्रयोजन को खारिज किया। ससुराल के बाकी सदस्यों से जो इतना अलग-थलग था कि वहां कर्मठ बहू बन कर रहना भी आसान नहीं था। ऐसे माहौल में प्राइवेट पढ़ाई करना। मायके में आकर प्रेग्नेंसी के आठवें महीने में बारहवीं का इम्तहान देना और एक महीने की बच्ची के साथ होलटाइमरों वाली जिंदगी गुजारने की सलाह पाना।


रामजी राय के साथ मीना राय का विवाह 1976 में हुआ और 1977 में, जब उनकी बेटी समता सिर्फ तीन महीने की थी, वे गाजीपुर से इलाहाबाद रहने चली आईं। एक ऐसे व्यक्ति के साथ, जिसके पास न रहने का कोई ठिकाना था, न एक पैसे की कमाई थी। न ही आगे कुछ कमाने की कोई योजना या इच्छा थी। कुछ था तो एक सीधा सा प्रस्ताव कि साथ रहना है तो कुछ कमाने-धमाने का इंतजाम करें, किसी तरह टीचर ट्रेनिंग कर लें। रामजी राय के जीवन मूल्यों का अंदाजा मीना राय को शादी से पहले ही हो गया था, लेकिन वे ट्रेड यूनियन करते हैं और भारत में सशस्त्र क्रांति की तैयारी कर रही एक भूमिगत पार्टी के सदस्य हैं, ये जानकारियां उन्हें इलाहाबाद आकर धीरे-धीरे हासिल हुईं। 


मेरी मुलाकात मीना राय से 1984 के सितंबर-अक्टूबर में हुई थी, जब वे अपनी दूसरी संतान, बेटे अंकुर को जन्म देने के लिए अस्पताल जाने की तैयारी में थीं। रामजी राय की शक्ल उस समय तक मैंने नहीं देखी थी। साही के कांटों जैसे उनके मशहूर बाल पहली बार मुझे एक शाम के झुटपुटे में आनंद भवन के आसपास दिखाई पड़े। किसी ने बताया कि ये रामजी राय हैं, प्रगतिशील छात्र संगठन के संस्थापक सदस्यों में से एक। कानपुर उस समय भारत का एक प्रमुख औद्योगिक शहर था और एक कम्युनिस्ट संगठक के रूप में वे वहां की ट्रेड यूनियनों में काम कर रहे थे।


रामजी राय के साथ मीना जी


प्रति-शिकार कथा

इलाहाबाद में यह मेरा पहला साल था लेकिन इस दंपति को वहां रहते तब तक सात साल गुजर चुके थे। दंपति भी क्या कहें। विवाह के थोड़े ही समय बाद से रामजी राय का इलाहाबाद में रहना प्रतीक रूप में ही संभव हो पाता था। 1988 तक अगले चार साल मैंने इलाहाबाद में बिताए लेकिन करीब पैंतीस साल बाद, अभी हाल में ‘समर न जीते कोय’ पढ़ते हुए मुझे इस बात का अंदाजा हो पाया कि मीना राय के कैसे-कैसे इम्तहान यह शहर तब तक ले चुका था। कैसे उन्होंने संगठन के साथियों की यथासंभव सहायता लेते हुए लेकिन बिना पैसों के टीचर ट्रेनिंग की। कैसे हर साल बदलते कमरों में एक छोटी सी बच्ची के साथ एक ठरकी के मालिकाने वाले स्कूल में अपनी नौकरी शुरू की।


हॉलिवुड की ऑल-टाइम ग्रेट फिल्मों में से एक, ‘टाइटनिक’ में बूढ़ी होकर मृत्यु के करीब पहुंच रही नायिका एक वाक्य बोलती है कि ‘स्त्री का हृदय किसी समुद्र जैसा होता है, जिसकी तली में न जाने कितने रहस्य दफन रहते हैं।’ अपने संस्मरणों में मीना राय बताती हैं कि कुछ भी न कमाने वाले और कभी-कभी ही घर लौटने वाले एक पुरुष की पत्नी होने की खबर पाकर कोई-कोई सज्जन अपना दिल हथेली पर लिए उनके घर पहुंच जाते थे। एक रिश्तेदार को रेलवे स्टेशन छोड़कर रात में रिक्शे से घर लौटने का उनका किस्सा पढ़ते हुए खौफ से झुरझुरी होने लगती है। मन में यह बात उठी कि शिकार-कथा, बल्कि ‘प्रति-शिकार-कथा’ भारत में लेखिकाओं की सर्वकालिक विधा हो सकती है!


यहां रामजी राय और मीना राय के रिश्ते के एक अहम पहलू की ओर ध्यान खींचना जरूरी है कि इस तरह के संदर्भ जहां रोमांटिक कहानियों में पुरुष के ‘दो टकिया की नौकरी’ छोड़कर घर लौट आने, या फिर परेशान करने वाले मर्द का मुंह तोड़ देने की ओर जाते हैं, वहीं इस खास कहानी में पुरुष लगातार स्त्री को समझाता है कि अपनी रक्षा करने की कला तुम्हें खुद ही सीखनी होगी। ‘मान लो, छेड़ने वाला बदमाश हुआ और उसने मुझे मार डाला तो अंततः खुद को बचाने की जिम्मेदारी घूम-फिर कर तुम्हीं पर आएगी।’ 


आत्मरक्षा से लेकर जीविका तक के लिए आत्मनिर्भर होने की यह सोच मीना राय में किसी भी बिंदु पर पति से या कहीं और से आई हुई नहीं दिखती। लगता है, यह उनके भीतर उग रही है। यही कारण है कि बाद में कुछ बड़े सांस्कृतिक आयोजनों से लेकर निजी जीवन में बेटी की शादी तक कितने ही काम उन्होंने अकेले दम पर किए और न तो इसका श्रेय लेने का कोई प्रयास किया, न इस बिना पर किसी को कमतर साबित करने में कोई रुचि दिखाई।


1988 में इलाहाबाद से हटने के बाद रामजी राय के नेतृत्व में ‘समकालीन जनमत’ निकालने में कई साल तक कुछ-कुछ गैप के साथ थोड़ी भूमिका मेरी भी रही। इस दौरान मीना भाभी से परिवार के एक सदस्य जैसा जुड़ाव बना। ‘पर्सनल’ और ‘पोलिटिकल’ में कोई फासला उनके यहां नहीं था। किसी मजाक पर ठठाकर हंसते हुए भी उनकी वैचारिकी का तीखापन ज्यों का त्यों बना रहता था। यह मेरी व्यक्तिगत सीमा थी कि इस दौरान उनमें उभर रहे प्रबंधात्मक गुण को मैं बिल्कुल भांप नहीं पाया। 


रूपांतरण

अभी हाल में मित्रों से बात कर के पता चला कि 1998 में अपने स्कूल की प्रिंसिपल होने और 1999 में अपनी बेटी समता की शादी करने के बाद से समाज और संगठन की बड़ी जिम्मेदारियां वे अपने कंधों पर लेने लगी थीं। उनका कहना था कि आवाज खराब होने के चलते अच्छा भाषण तो वे दे नहीं सकतीं। ऐसे में जनमत का प्रबंधन और ‘सांस’ प्रकाशन का जिम्मा देखने के साथ-साथ प्रगतिशील साहित्य बेचने जैसे काम करके ही वे पार्टी में अपनी भूमिका निभाती रहेंगी। 


दूर-दूर के शहरों में लोगों की मीना राय से जुड़ी सबसे गहरी याद यह है कि जनमत की प्रतियां भेजने जैसे नीरस रुटीन काम को भी कैसे उन्होंने गहरी सांगठनिक-वैचारिक शक्ल दे दी थी। लोग उनसे घर-परिवार के मसलों पर भी बात कर लेते थे और अनजाने में ही कई बार कुछ काम की सलाहें भी उन्हें मिल जाया करती थीं। अंततः हासिले-महफिल और पति-पत्नी के एक अनूठे संबंध के नमूने की तरह रामजी राय और मीना राय के रिश्तों को नजदीक से जानने के लिए एक पत्र का आखिरी हिस्सा यहां प्रस्तुत है, जिसे बेटी समता के ब्याह से ठीक पहले रामजी राय ने पटना से मीना राय को लिखा था। ‘समर न जीते कोय’ की छब्बीसवीं किस्त में मीना राय ने ही इसको शब्दशः टांक रखा है-


‘शादी कोर्ट मैरेज ही हो। शाम को स्थानीय लोगों को नाश्ते पर (या आप जैसा कह रही थीं, खाने पर) आमंत्रित किया जा सकता है। बाहर से आने वालों को तो भोजन पर भी आमंत्रित करना ही होगा। कितने बाहर से लोग आएंगे, इसका अंदाजा कुछ दिन में लग जाएगा। शेष और किन्हें बुलाना है, आप तय कर लीजिएगा। जीवन भर बच्चों को मां-बाप दोनों की हैसियत से आपने ही संभाला है। यह शादी भी आपको ही संभालनी है। 


'पहले आने की कोशिश कर रहा हूं, न आ पाऊं तो जैसे जसम का सम्मेलन आपने संभाला था, वैसे ही समझिए कि इसे भी संभालना है। संभव है मैं जसम सम्मेलन की तरह ही सबके साथ 6 फरवरी (ऐन शादी का दिन- चं.) को सुबह ही पहुंच पाऊं। वैसे मैं दिल्ली की सी. सी. (केंद्रीय कमेटी) बैठक में 2 फरवरी को प्रयागराज (एक्सप्रेस) से इलाहाबाद से ही जाऊंगा। मेरे जाने का आरक्षण 2 फरवरी का और लौटने का 4 फरवरी का प्रयागराज से करा लीजिएगा। यह भी आपके जिम्मे ही। मैं जैसा हूं, आपने मुझे संभाला है और आगे भी आप संभालेंगी। हो सके तो मेरी नालायकी या काम की मेरी व्यस्तता समझ मुझे माफ कर दीजिएगा और सारा भार खुद उठाने की हिम्मत और धीरज जो आप में हमेशा से है, उस बूते यह नाव भी पार लगाइएगा।’ 



चन्द्रभूषण 



सम्पर्क 


मोबाइल : 9811550016



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