चन्द्रेश्वर का आलेख 'सत्ता के ख़िलाफ खड़े कबीर'

 




भारतीय साहित्य के सार्वकालिक रचनाकारों में कबीर का नाम शीर्षस्थ रचनाकारों में शामिल है। सही मायनों में कहा जाए तो कबीर ऐसे पहले रचनाकार के रूप में दिखाई पड़ते हैं जो प्रतिरोध का मार्ग चुनते हैं। प्रतिरोध का यह मार्ग उन्होंने खुद चुना था। लेखन वह व्यवहार है जो संवेदनाओं से उपजता है। इसे जबरन नहीं किया जा सकता। सत्ता के खिलाफ खड़ा होना कभी भी आसान नहीं होता। सत्ता किसी भी तरह अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहती है। वह इसके लिए हर समय सारे जतन करती रहती है। वह इसके लिए पाखण्ड रचती रहती है। कबीर इस जतन और पाखण्ड की रूढ़िगत सत्ता के ही खिलाफ आजीवन खड़े रहे। उनके लिए जीवन मूल्य सबसे ऊपर था। वह ढाई आखर वाले प्रेम के पक्षधर थे। प्रेम का पथ कंटकाकीर्ण होता है। कबीर को पता है कि सब इस पथ पर नहीं चल पाते। बल्कि इसके लिए शीश को उतार कर भुई पर धरने का साहस रखना होता है। वे उस जीवन व्यवहार के समर्थक थे जहां 'थोथा को उड़ा' कर 'सार सार को गह' लिया जाता है। आज जब अपने पास सब कुछ बटोर लेने की होड़ पागलपन की हद तक मची हुई है, कबीर बस उतने की ही कामना करते हैं जिसमें 'कुटुम समा जाए' और कोई 'साधु भूखा न जा पाए'। सबसे बड़ी बात यह कि कबीर अपने समय की धर्मगत और जातिगत रूढ़ियों के खिलाफ हमेशा खड़े रहे। आज के अनुभव से हम इतना तो जानते हैं कि इन रूढ़ियों के खिलाफ बोलना कितना खतरनाक होता है। चौदहवीं सदी में जन्मे कबीर इक्कीसवीं सदी में इसीलिए प्रासंगिक हैं कि सताएं, रूढ़ियां और पाखण्ड आज भी पूरे ताम झाम के साथ अकड़ कर खड़े हैं। यही खासियत तो उन्हें ओंकार नाथ ठाकुर और कुमार गन्धर्व के गायन में ला देती है। कबीर ने मसि और कागद को छुआ नहीं था लेकिन उनकी वाणी जन के मन में इस तरह अंकित हो गई कि लोग बात बात में कबीर के दोहों को उद्धृत करते रहते हैं। भारतीय वर्ण क्रम में जुलाहा शूद्र था फिर भी उन्हें अपने जुलाहा होने पर गर्व था। वे बेहिचक अपने को जुलाहा बताते हैं। यह गर्व अपने ऊपर उस विश्वास से उपजा जो अनुभवजन्य था। आज कबीर जयंती है। कबीर की स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि आलोचक चंद्रेश्वर का महत्त्वपूर्ण आलेख 'सत्ता के ख़िलाफ खड़े कबीर'।



कबीर जयंती पर विशेष आलेख 

'सत्ता के ख़िलाफ खड़े कबीर'



चन्द्रेश्वर 



(1)


'कबीर का स्वप्न'


कबीर की रचनाओं को मैं किशोरावस्था से सुनता, पढ़ता और गुनता आ रहा हूँ। धीरे-धीरे उसने हमारी चेतना को कुछ हद तक बदलने का काम ज़रूर किया है। उनकी जो छवि अब तक बनी है, मेरे मानस में; वह एक ऐसे संत-साधक, चिंतक, गृहस्थ, बुनकर, कवि और समाज सुधारक की है जो बिना किसी लाग-लपेट के निर्भय हो कर अपनी बात को कहता और सुनाता है। जो खरी-खरी बोलता है और दुविधा से मुक्त हो कर बोलता है। जो बेबाकपन के लिए प्रसिद्ध हो चुका है। जिसका नाम एक मुहावरे में बदल गया है। कबीर ने अपने नाम को सार्थक किया है, अपने कर्म से। वह ईश्वर को तो मानता है; पर अवतार को नहीं मानता है। जिसके चिंतन की धुरी निर्गुण ब्रह्म है। वह निर्गुण ब्रह्म ज्ञानमय और प्रेममय है। वह अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट दशरथ का राम नहीं है; जिसकी महिमा का बखान तीनों लोकों में व्याप्त है। इस निर्गुण राम के नाम का मर्म तो कुछ अन्य ही है -


"दसरथ सुत तिहूँ लोक बखाना, राम नाम को मरम है आना।" 


इस तरह स्पष्ट है कि कबीर भारतीय परंपरा में मुख्य धारा के बरअक्स अपनी नयी और दूसरी धारा का निर्माण या संधान करते हैं। इसे ही हिन्दी आलोचक नामवर सिंह दूसरी परंपरा की खोज कहते हैं। यह परंपरा वेद, पुराण और स्मृतियों का प्रत्याख्यान करते हुए नव विकल्प प्रस्तुत करती है।


कबीर का स्पष्ट मानना है कि उनके राम तो घट-घट में रहते हैं। वे सब जगह बसे हुए हैं। वे एक ऐसे पुरुष हैं जो अक्षर और अविनाशी हैं। जो अजन्मा हैं। वे कहते हैं कि ईश्वरत्व हमारे जीवन में एक थोपी हुई कल्पित अवधारणा नहीं है। वह सज़िल्द पोथियों में या शब्दों में क़ैद नहीं है। वह मंदिर, मस्ज़िद, चर्च या गुरुद्वारा में नहीं है। वह किसी तीर्थ अर्थात् काशी, काबा या कैलाश में नहीं है। वह असीम है। वह हद से बाहर है। वह शून्य है। उनका राम तो हरेक जीवात्मा के अंतस में पैठा हुआ है। उसको पहचानना, जानना या चीन्हना पड़ता है। वह राम के नाम को रटने या उसके उच्चारण मात्र से नहीं हासिल होता है। अगर ऐसा ही होता तो एक सुग्गा भी राम-राम रट कर उस राम को, सर्व शक्तिमान ब्रह्म को जान लेता। कबीर ईश्वर तक पहुँचने का सरल मार्ग बताते हैं - निज आत्म का दर्शन या उसी का साक्षात्कार। एक तरह से कहा जाए तो स्वयं के वजूद की तलाश ही उनके यहाँ  ईश्वर की तलाश है। 


कबीर के संपूर्ण 'बीजक' (साखी, सबद और रमैनी) में ईश्वर को ले कर एक जो वैचारिकी निर्मित हुई है, उसके सहारे भी गोरख नाथ या नौ नाथों और चौरासी सिद्धों से होते हुए बुद्ध तक पहुँचा जा सकता है। जिस तरह बुद्ध ने स्वयं दीपक बनने की बात की है, उसी तरह कबीर भी आत्म-तत्त्व और आत्म-ज्ञान पर ज़ोर देते हैं। हमारी परंपरा की मुख्यधारा के बरअक्स जो कई अन्य धाराएँ हैं, कबीर उन अन्य धाराओं के भीतर के शीर्ष संत और विचारक हैं। कबीर हिन्दी में जिस भक्ति काव्य और भक्ति आंदोलन की शुरुआत करते हैं, वह बहुत ही क्रांतिकारी अवधारणा से जुड़ा हुआ है। कबीर उन भक्तों में नहीं हैं जो सब कुछ को स्वीकार कर लेता है, निरीह बन कर या आँख मूँद कर। वे उन भक्तों में शामिल नहीं हैं जो अंधश्रद्धा विगलित हो या सब कुछ को तर्कातीत मानता हो। वे परंपरा में जो कुछ सड़ा-गला है, जो कुछ कमज़ोर है, उसको तज देने की बात करते हैं। वे परंपरा के कई रूपकों, मिथकों या पौराणिक आख्यानों को तर्क और विवेक की कसौटी पर कसते हैं। यही उनका आधुनिक मन सामने आ जाता है। यह तर्क और विवेक ही है जो उनको जगाता है और रोने के लिए विवश करता है वर्ना वे भी सुखिया संसार का हिस्सा बन जाते।


वे ईश्वर और ईश्वरत्व को ले कर अपने सबद, साखी और रमैनी में हज़ार-हज़ार तरह से और दो टूक लहज़े में अपनी बात रखते हैं।  वे ईश्वर तक पहुँचने के लिए ज्ञान का होना ज़रूरी मानते हैं। वे ज्ञान को प्रेमरहित नहीं मानते हैं। उनका पब्लिक स्फेयर' (लोकवृत्त) में बहुत ही लोकप्रिय दोहा है -


"पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।  

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।"


उनका प्रेम एक ऐसे प्रकाश की तरह है जो सबको प्रकाशित करता है। वह किसी को अस्पृश्य या नीच नहीं मानता है। कबीर का प्रेम निजी या वैयक्तिक हो कर भी वैयक्तिक नहीं है। वह समाज को एक नयी दिशा प्रदान करता है। 


पंडित या विद्वान को ले कर कबीर की जो अवधारणा है वह परंपरावादी चिंतन पर हथौड़े की तरह चोट करने वाली है। वे पंडित उसको मानते हैं जो संवेदना से पूरित और सजल हृदय मनुष्य है। हिन्दी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध भी कोरे शब्दजीवी या ग्रंथ में डूबे रहने वाले को ब्रह्मराक्षस कहते हैं। उनकी लंबी कविता 'ब्रह्मराक्षस' फैंटेसी के शिल्प में रची गई है जो इसी वैचारिकी और ज्ञान की धारा से संपृक्त है। वे ज्ञान को कर्म और प्रेम से जोड़ने के हिमायती हैं। कबीर एक महान कर्मयोगी भी हैं।


वे धर्म की भी लीक और रूढ़ियों से हट कर सरल-सहज व्याख्या करते हैं। उनके बातें हमारे मर्म को गहरे तक भेदने वाली होती हैं। वे कहते हैं -


"जहाँ दया तँह धरम है, जहाँ लोभ तँह पाप। 

जहाँ क्रोध तँह काल है, जहाँ छिमा तँह आप।।"


जहाँ क्षमा भाव है, वहीं ईश्वर है। जहाँ दया भाव है वहीं धर्म है। एक तरह से कबीर धर्म के मर्म को कुछ शब्दों में ही निचोड़ कर रख देते हैं। उनका धर्म कर्मकांड से कोसों दूर है। उनका ईश्वर अर्थात् निर्गुण ब्रह्म जो ज्ञान और प्रेम से दीप्त है, जो मनुष्य को निज स्वार्थ के दायरे से बाहर निकाल देता है; जो ख़ुद के घर को जलाने या फूँकने की बात करता है; जो सताए हुए, उत्पीड़ित समुदाय, वर्ण और वर्ग के पक्ष में ला खड़ा करता है। यह वह ईश्वर है जो निष्पक्ष बनाता है यानी पूर्वाग्रह रहित बनाता है। यह वह ईश्वर है जो हमेशा सच्चाई के पक्ष में रहता है। यह वह ईश्वर है जो निर्मल चित्त में निवास करता है। वह चित्त जो कपट से मुक्त हो गया है। 


कबीर किसी क़िस्म के छद्म, पाखंड या फ़रेब या ठगी के विरूद्ध हैं। वे लिखते हैं -


"कबीरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय। 

आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय।।"


कबीर अपनी वाणी और कर्म से सौ फीसदी एक हैं। उनका पूरा जीवन एक नैतिक पाठ या संदेश की तरह है। वे कहीं भी दुचित्तापन या दोहरेपन या छद्म पर जम कर प्रहार करते हैं। वे काव्य कला के अभ्यासी या नाना पुराण, निगम या आगम के अध्येता नहीं हैं। वे 'कागद की लेखी' की बात नहीं करते हैं; वे 'आँखिन देखी' की बात करते हैं। उनका जीवन सत्य 'आतमगेयान' और 'अनुभव के साँचे' से निकला हुआ है। यह ज्ञान, यह अनुभव उनको और उनकी वाणी के मर्म को जानने वालों को अनभय अर्थात् भयमुक्त भी करने वाला है। वे जिस निर्गुण-निराकार ब्रह्म की कथा की बात करते हैं, वह कथा तो निर्भयता प्रदान करने वाली है; परंतु इस कथा के रहस्य को बूझ लेना सबके बूते की बात नहीं है - 


"निर्भय कथा कौन सूँ कहियो, है कोई चतुर बभेकी।"


कबीर निर्गुण ब्रह्म की कथा सुनाना चाहते हैं, पर उनका समानधर्मा या बराबरी का श्रोता मिलना आसान नहीं है। वह कोई विरला ही होगा जो इस कथा को बूझेगा।


कबीर ने मध्य काल में ईश्वर या व्यक्ति या समाज को ले कर जो चिंतन प्रस्तुत किया, वह नूतन चेतना दृष्टि से संपृक्त है। उनको हिन्दी की नयी कविता के बड़े कवि-गद्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध ने आधुनिक चित्त का कहा है। हिन्दी में भक्ति काव्य के इस आरंभिक दौर को जिसमें कबीर आते हैं, सूत्रधार की तरह, मुक्तिबोध ने क्रांतिकारी माना है। निर्गुण भक्ति काव्य की ज्ञानाश्रयी धारा में ईश्वर यानी ब्रह्म की सत्ता का जो स्वरूप उभरता है, वह कमज़ोर और सताए और उत्पीड़ित मानव समुदाय को नैतिक और आत्मिक बल प्रदान करने वाला है। यह ब्रह्म समानता और मनुष्यता के पक्ष में खड़ा नज़र आता है। कबीर ने दबे-कुचले और दलित-शोषित-उत्पीड़ित समाज को, हाशिए के समाज को वाणी प्रदान करने का काम किया है। वे समाज में हर तरह की रूढ़ियों, कुरीतियों, बुराइयों के विरोध में थे। वे ऐसे समाज के निर्माण की परिकल्पना से जुड़े थे जहाँ जाति और वर्ण के आधार पर नहीं; बल्कि ज्ञान के आधार पर, मानवीय मूल्यों के आधार पर किसी की श्रेष्ठता प्रमाणित होगी। वे किसी क़िस्म की संकीर्णता, कट्टरता, किसी क़िस्म की हिंसा, किसी क़िस्म की असहिष्णुता, किसी क़िस्म की गैरबराबरी, किसी क़िस्म की अराजकता और अनैतिकता के ख़िलाफ खड़े थे। उनका मानना था कि प्रत्येक मनुष्य में चाहे वह किसी धर्म, पंथ या मज़हब का हो एक ही ईश्वर का अंश है। वे बार-बार पाँड़े पर बहुत ही तीक्ष्ण शब्दों से प्रहार करते हैं। वे बूझ कर यानी जाति पूछ कर पानी पीने वाले पंडित जी को पंडित नहीं मानते हैं-  


"पाँड़े बूझि पियहूँ तुम पानी।" 


उनके अनुसार यह मनुष्य के मानाधिकार का अतिक्रमण और अपमान है। वे जब 'पाँड़े को निपुन कसाई' कहते हैं तो वर्णाश्रम व्यवस्था, कट्टर पुरोहितवाद के मकड़जाल पर ही हमलावर होते हैं।


कबीर का उद्देश्य कवि-कर्म या कविताई करना नहीं था। वे यश की ऐषणा की प्राप्ति की कामना से कुछ नहीं रच या सुना रहे थे। उनका उद्देश्य एक ऐसे समाज के निर्माण का था जो हर तरह से समता के आधार पर खड़ा हो। वे हर धर्म की रूढ़ियों पर चोट कर रहे थे। वे मानते थे कि सच्चे मनुष्य की राह इन धार्मिक कर्मकांडों के बीच से नहीं निकल सकती है। वे ऐसी राह की तलाश में थे जो मनुष्यता पर अर्थात्  मानवीय मूल्यों और विवेक पर निर्मित हो।


कबीर अपने समय से बहुत आगे की सोच रखते थे। वे कई तरह की सत्ताओं के ख़िलाफ थे। कबीर के राम के निर्माण में जितनी भूमिका ज्ञान की है, उतनी ही प्रेम की। वे ज्ञान को प्रेम से पृथक कर नहीं देखते हैं। वे राम को अपना पिय और अपने को उनकी बहुरिया मानते हैं। वे राम की दुल्हन बन जाते हैं। हरि या राम को पाना अर्थात् ज्ञानमय प्रेम और प्रेममय ज्ञान को पा लेना है। वे प्रेम को मनुष्य जीवन का सर्वोत्तम मूल्य मानते हैं। वे प्रेम को पाने के लिए अपना निज, अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार हैं। वे मानते हैं कि प्रेम से पृथक, प्रेम से शून्य मनुष्य का जीवन कोई मायने नहीं रखता है। वे कहते हैं -


"कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।

सीस उतारि भुईं धरे, तब पैसे घर माँहि।।"


एक अन्य दोहे में वे कहते हैं -


"जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि मैं नाहिं। 

प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं।।"


हरि यानी प्रेममय ज्ञान को या ज्ञानमय प्रेम को पाने के लिए निज की सत्ता को मिटाना पड़ता है।


कबीर एक जगह अपने पुत्र कमाल से संवाद में कहते हैं -


"हरि का सुमिरन छाँड़ि के घर में लाया माल।

बूड़ा बंस कबीर का उपजा पूत कमाल।।"


उनके लिए माल यानी येन केन प्रकारेण धन-संपदा अर्जित करने का कोई मोल नहीं है। वे अपने बेटे की करतूतों पर शर्मिंदा महसूस करने लगते हैं और अपना वंश डूब गया मानते हैं। उनके लिए हरि को पाना, हरि से तादात्म्य स्थापित करना प्रेम और ज्ञान से संयुक्त होना है।


कबीर जिस हरि को स्वीकार करते हैं वह जाति-पाँत से विरत है। हरि की अवधारणा जाति मुक्त करने वाली है।


दरअसल कबीर हर तरह की दासता और पराधीनता के विरोध में हैं। वे किसी तरह की लौकिक सत्ता से संघर्ष करते हैं। वे एक ऐसे समाज की परिकल्पना करते हैं जो मनुष्यता की उच्चतर भूमि पर अवस्थित होगी, जहाँ कोई न ब्राह्मण होगा न कोई शूद्र होगा।  एक ऐसी भूमि जिस पर किसी तरह के अन्याय के लिए जगह नहीं होगी, जहाँ समानता होगी। कबीर ने कई सदियों पहले जो स्वप्न देखा था और जिसके लिए संघर्ष की ज़मीन बनायी थी, वह स्वप्न अब भी अधूरा रह गया है। मनुष्य और मनुष्य के बीच अब भी कई-कई सुमेरु पहाड़ खड़े हैं, एक दुर्लंघ्य खाई अब भी बनी हुई है। जिस मनुष्यता की ज़मीन की पड़ताल कबीर ने मध्य काल में की थी, वह आधुनिक काल में इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत तक आ कर और कमज़ोर हुई। उस ज़मीन को तहस-नहस करने की तमाम कोशिशें जारी हैं। मनुष्य मनुष्य से कई दर्ज़ा नीचे जा रहा है। हम बर्बर और अमानुषिक होते गए हैं। ऐसे में कबीर का देखा और बुना गया स्वप्न पहले से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बना हुआ है। आधुनिक गद्य और कविता में कबीर के विचारों और स्वप्नों की अभिव्यक्ति का विस्तार प्रेमचंद के कथा साहित्य में मिलता है तो नागार्जुन और मुक्तिबोध, गोरख पाँड़े और धूमिल के काव्य में भी। कबीर अपने प्रश्नों और मुद्दों के साथ अब भी समकालीन और प्रासंगिक बने हुए हैं।





(2)


कबीर का नीर-क्षीर विवेक


"हरिजन हंस दसा लिए डोलै, निर्मल नांव चवै जस बोलै।। टेक।।

मानसरोवर तट के बासी, रामचरन नित आन उदासी।

मुकताहल बिनु चंच न लावे, मौनि गहे कै हरिगुन गावै।

कउवा कुबुधि निकट नहीं आवै, सो हंसा निज दरसन पावै।

कहै कबीर सोई जन तेरा, खीर-नीर का करै निबेरा।।"

            

"निर्गुण काव्य", नीलकमल प्रकाशन, गोरखपुर, एम. ए. (अंतिम वर्ष) का पाठ्यक्रम


'हरिजन' निर्गुण ब्रह्म की भक्ति में निरंतर तल्लीन रहता है  अर्थात् अपनी मस्ती में डोलता रहता है। वह हंस की दशा को पा लेता है। वह जब भी बोलता है उसकी ज़ुबान से हरि का निर्मल नाम ही उच्चरित होता रहता है। वह मानसरोवर के तट का बासी हो जाता है। वह राम के चरणों में अनुरक्त हो कर दुनियावी मोहमाया के पाश से, मुक्त हो जाता है। वह मोती पर ही चोंच मारता है - ज्ञान रूपी मोती पर। इधर-उधर कहीं किसी कादो-कीचड़ पर चोंच नहीं मारता है। वह मौन गह कर हरि के गुणों को गाता रहता है अर्थात् रामनामी ओढ़ कर रामनाम का ढोल नहीं पीटता चलता है। वह प्रचार या पब्लिसिटी से कोसों दूर रहता है। कुबुद्धि रूपी कौआ उसके पास नहीं फटकता है। वही हंस निज दर्शन यानी आत्मसाक्षात्कार करता है। कबीर आगे कहते हैं कि वही जन 'हरिजन' है जो 'नीर-क्षीर विवेक' रखता है। उपरोक्त पद का यह सामान्य पाठ है या कह लीजिए खड़ी बोली में एक तरह से भावानुवाद है।


इस पूरे पद का मंतव्य क्या है? कबीर इसके माध्यम से क्या संदेश देना चाहते हैं? दरअसल वे यह बताना चाहते हैं कि 'हरिजन' होना अर्थात् ज्ञान-प्रेम रूपी निर्गुण ब्रह्म का उपासक-साधक होना ही हंस होना है। वे निर्गुण ब्रह्म को राम के नाम से ही संबोधित करते हैं। वे 'रामचरन' की बात भी करते हैं, परंतु सबको पता होना चाहिए कि उनके राम अयोध्या के चक्रवर्ती नृप दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम नहीं हैं। वैसे यह संबोधन सामान्य बुद्धि के पाठकों या श्रोताओं को भ्रम में भी डालता रहा है। जो भी हो, हम मूल बात पर आते हैं। हंस के बारे में एक लोकप्रिय  काव्यरूढ़ि है कि वह मानसरोवर के तट पर बसता है और मोती ही चुगता है। 'हरिजन' भी किसी पवित्र एवं ख़ूबसूरत जगह में ही अपना बसेरा बनाता है जहाँ साधना के लिए शांति हो, कोई विघ्न-बाधा न हो और ज्ञानरूपी मोती को प्राप्त किया जा सके। इसी ज्ञान को पाने के बाद कुबुद्धि रूपी कौआ दूर भाग जाता है और साधक निज का दर्शन करता है। वह परमपद को पा लेता है। वे अन्यत्र भी कई स्थलों पर ज्ञान की महिमा का बखान अपने निराले अंदाज़ में करते हैं। एक जगह कहते हैं कि 


"संतों भाई आई ग्यान की आँधी रे! 

भ्रम की टाटी सभै उड़ानी, माया रहै न बाँधी रे" 


या फिर यह कि जब ज्ञान होता है, गुरुकृपा से 'अकिल' होती है तो बेग़ानापन (परायापन) समाप्त हो जाता है।


बहरहाल, कबीर का मानना रहा है कि 'निज' को जान लेना ही निर्गुण ब्रह्म को जान लेना है। आत्मा को जान लेना ही परमात्मा को जान लेना है। वे कहते हैं कि 'सोई जन तेरा' अर्थात् वही जन ('हरिजन') ब्रह्म (ईश्वर) का होता है जो नीर-क्षीर को एक दूसरे से निबेरना या अलगाना जानता है। इसे पूरे पद का जो सार-संक्षेप है वह आख़िरी पंक्ति में ही समाया हुआ है।


कबीर 'हरिजन' के लिए हंस का एक ख़ूबसूरत रूपक गढ़ते हैं। यह रूपक उनकी यूटोपियाई दृष्टि की उपज है। इसके मूल में 'नीर-क्षीर विवेक' वाली बात ही है। वास्तविकता तो यही है कि जो निर्गुण ब्रह्म का सच्चा साधक होगा, वही न्यायी होगा। सत्य को असत्य से अलगाने या मिलावट को चीन्हने-बूझने वाला होगा।  वही समाज में भी ईमान व नैतिकता को बचाए रखेगा।


कबीर विवेक ही नहीं, तर्कसम्मत विवेक पर ज़ोर देते हैं। वे समाज में दूध को पानी से अलग करना चाहते हैं। वे असली-नक़ली, सही-ग़लत को समझने या उसमें फ़र्क़ करने का पाठ पढ़ाते हैं। वे दरअसल न्याय पाना चाहते है और किसी के साथ न्याय करना भी चाहते हैं। सच्चाई तो यही है कि उनके यहाँ 'हरिजन' होना समाज का सर्वोत्तम नागरिक या श्रेष्ठ मनुष्य होना है। उनके यहाँ 'हरिजन' की परिकल्पना भी यूटोपियन है। यह एक ऐसे नए मनुष्य के निर्माण का स्वप्न है जो निर्भय हो, ज्ञान-प्रेम से संयुक्त हो, जो सिर्फ़ पोथी का गुलाम न हो, जो 'आँखिन देखी' पर ज़्यादा यक़ीन करता हो, जो सत्य को सत्य कहता हो और असत्य को असत्य कहता हो, जो मोह माया या पारिवारिकता या भाई-भतीजावाद के चक्कर में अंधा हो कर किसी के पक्ष में न खड़ा होता हो; जैसे आधुनिक कवि मैथिली शरण गुप्त भी कहते है कि 


'न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है।' 


जैसे प्रेमचंद की कहानी 'पंच परमेश्वर' में जुम्मन की खाला कहती है अलगू चौधरी से कि 'क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे!'


दरअसल भारतीय चिंतन दृष्टि और काव्य दृष्टि के मूल में ही 'नीर-क्षीर विवेक' व 'ईमान' वाली बात बीज रूप में सर्वत्र व्याप्त रही है। 'राम की शक्तिपूजा' में निराला के राम भी तो न्याय के लिए ही अपने पूरे अस्तित्व को दाँव पर लगा देते हैं। उनकी मूल चिंता का स्वर भी यही है कि 


'अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।' 


शक्ति यानी जो व्यवस्था अथवा सत्ता संरचना है, उसके केन्द्र में न्याय नहीं दिखता। नैतिकता एवं ईमान का तो प्रश्न ही नहीं उठता। दरअसल निराला के राम का लक्ष्य न्याय को ही हासिल करना है। उसको पाने के लिए ही शक्ति को साधना ज़रूरी है। उसे अपने साथ जोड़ना है। पहले साधक बनना है। कवि मुक्तिबोध भी 'अच्छे और बुरे के बीच संगर' की बात करते हैं। गहरे कश्मकश की विषम स्थितियाँ हैं। कवि धूमिल का मोचीराम तो कहता है कि 'अगर जीवन जीने के पीछे सही तर्क नहीं है तो रामनामी बेच कर या रंडियों की दलाली कर रोज़ी कमाने में कोई फ़र्क़ नहीं है।' यहाँ भी जीवन जीने के पीछे के सही तर्कों को ढूढ़ना चाहता है कवि। तर्क जो न्याय एवं ईमान से संबद्ध हो!


हिन्दी साहित्य में एक लंबी परंपरा रही है, इस तरह की काव्य दृष्टि की; काव्य विवेक की। कबीर से ले कर धूमिल एवं गोरख पाण्डेय तक। आज के दौर में सबसे ज़्यादा संकट में है तो यही काव्य विवेक। कवियों के इस काव्य विवेक के हरण की हज़ार कोशिशें की जा रही हैं। समकालीन हिन्दी ही नहीं, अपितु तमाम भारतीय भाषाओं के सामने इस काव्य विवेक को बचाने की आज कठिनतर चुनौती दरपेश है,जब कवि धूमिल की कविता 'रोटी और संसद' का तीसरा आदमी और ज़्यादा ताक़तवर हुआ है। और अंत में एक प्रश्न कि यही कबीर का 'हरिजन' जब गांधी जी का हरिजन बनता है तो इतना कमज़ोर एवं दयनीय क्यों बन जाता है? बाद में जिन जाति समूहों के लिए गांधी ने इसका प्रयोग किया वे भी इससे परहेज़ करने लगते हैं - नागार्जुन के 'हरिजन दहन' तक आते-आते! क्या गांधी का यह भक्ति काव्य से उधार लिया गया शब्द अब पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चला है। क्या उसकी स्मृति अब पूरी तरह से धुँधली पड़ने लगी है?



चंद्रेश्वर 



सम्पर्क 


चंद्रेश्वर, 

पूर्व विभागाध्यक्ष/ प्रोफेसर  हिन्दी विभाग 

एम.एल.के.पी.जी.कॉलेज,

बलरामपुर

उत्तर प्रदेश--271201


मोबाइल नंबर--7355644658

टिप्पणियाँ

  1. डॉ डी एम मिश्र

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  2. डॉ डी एम मिश्र11 जून 2025 को 9:43 am बजे

    महत्वपूर्ण आलेख पढ़ता हूँ। प्रोफेसर चंद्रेश्वर जी को पहली बार आलेख पोस्ट होने के लिए भरपूर बधाई और आपको साधुवाद।

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  3. बहुत ही महत्त्वपूर्ण लेख।

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  4. बहुत अच्छा विश्लेषण,महत्त्वपूर्ण आलेखन 💐

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  5. तर्कसम्मत, सहज, सरल भाषा में कबीर पर लिखा शानदार आलेख. आदरणीय चंद्रेश्वर जी को हार्दिक बधाई. कबीर के ईश्वर के बारे में पढ़ते हुए मुझे हिग्स -बोसोन का 'गॉड डेम पार्टिकल' का ख्याल आया. कबीर सही मायने में आधुनिक विचारक होने होने के साथ साथ वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न थे.

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