शिवदयाल का आलेख 'स्वराज के मूल्य और प्रेमचंद'

 




प्रेमचंद ने जिस समय लिखना आरम्भ किया, एक भाषा के तौर पर  हिन्दी अपना रूपाकार ले रही थी। खुद प्रेमचंद अपने मूल नाम धनपत राय से उर्दू भाषा में लिख रहे थे। लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि प्रेमचंद नाम से उन्होंने हिन्दी में लिखना शुरू किया। वे मध्य वर्ग की विडंबनाओं और उनकी समस्याओं से बखूबी वाकिफ थे। इसीलिए उन्होंने जो लिखा वह यथार्थपरक चित्रण लगता है। सामाजिक विद्रूपताएं हों, भ्रष्टाचार हो या फिर स्वाधीनता आन्दोलन सबकी प्रतिध्वनि उनकी रचनाओं में सुनाई पड़ती है। आज भी अगर हम प्रेमचंद को याद कर रहे हैं तो इसलिए कि उनका लिखा हुआ आज भी न केवल प्रासंगिक है बल्कि समकालीन लगता है। प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर स्मृति को नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि आलोचक शिवदयाल का एक व्याख्यानपरक आलेख। शिवदयाल जी ने कल्चर बुकलेट की वेब संगोष्ठी में 31 जुलाई 2020  को यह व्याख्यान दिया था जिसका यत्किंचित सम्पादित अंश हम प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवदयाल का आलेख 'स्वराज के मूल्य और प्रेमचंद'।



'स्वराज के मूल्य और प्रेमचंद'

                                

शिवदयाल


 

प्रेमचंद क्या हैं, यह इसी बात से प्रमाणित हो जाता है कि हम उनके जन्म के 140 साल बाद भी उन पर बात कर रहे हैं, और करते चले आ रहे हैं और यह सिलसिला अभी चलता चलेगा। किसी भी लेखक की महानता का, उसके बड़प्पन का, उसके लिखे का सबसे बड़ा मोल और प्रमाण यही है कि उस पर बातें कभी खत्म नहीं होतीं। इस कार्यक्रम में हिस्सेदारी के लिए जो मेरे पास आग्रह आया तो मैंने यही सोचा कि उनके बारे में बात करने को क्या होगा? इतनी सारी बातें आ चुकी हैं और लगातार कुछ-न-कुछ नया निकलकर आता रहता है। एक और बात है कि प्रेमचंद पर कुछ न बोलना, यह अपने आप में ग्लानिबोध का एक कारण बन जाता है। तो लिहाजा बोलना ही है। 



उषाकिरण (खान) जी को सुन रहा था थोड़ी देर पहले। काफी लंबी बातचीत उन्होंने की और कुछ महत्वपूर्ण बातें उसमें रखीं। प्रेमचंद से हमारा परिचय उसी समय शुरू हो जाता है, जिस समय हम लिखने-पढ़ने का अभ्यास करते हैं। जिस समय हमारा लिखना-पढ़ना शुरू होता है, उसी वक्त प्रेमचंद हमारे साथ आ जाते हैं और उनसे परिचय हमारा लगातार गाढ़ा बनता जाता है और जीवनपर्यंत बना रहता है। वह समय-समय पर हमें संवेदित करते हैं। हमें बौद्धिक खुराक देते हैं। और राह भी दिखाते हैं। प्रेमचंद से इसीलिए एक खास तरह का जुड़ाव है, बहुत ही आत्मीय लगाव होता है हिंदी के पाठक का, क्योंकि वह बचपन से सारी उम्र उसके साथ चलते हैं। कई प्रसिद्ध बाल रचनाएँ हैं और वहाँ से हम शुरू करते हैं और जीवन की इस अवस्था में भी हम उनको पढ़ते हैं और उनके लिखे-पढ़े को गुनते हैं। ये बहुत ही विशेष बात है, बहुत ही कम लेखकों को यह बात नसीब होती है। प्रेमचंद जी के बारे में वैसे बहुत सारी बातें हुईं। मेरी जो बातचीत होगी मेरे अपने लिखे-पढ़े पर, हमारे सुनने वाले जितने दिखाई दे रहे हैं, काफी सब प्रबुद्ध हैं। 



यह देखना चाहिए कि प्रेमचंद या किसी भी लेखक के बारे में बात करते समय एक जो मूलभूत बात है उस को ध्यान में रखना चाहिए कि रचनाशीलता जो है वह हमेशा समय-सापेक्ष होती है। हम जो अभी लिख रहे हैं, तो अभी जो परिस्थितियाँ, चुनौतियाँ हमारे पास हैं, तो हमारे लिए क्या वरेण्य है, क्या त्याज्य है? एक परिस्थिति विशेष में हमारी रचनाशीलता प्रकट होती है। हो सकता है कि अभी मैंने जो कुछ लिखा कुछ सालों बाद, दस साल, बीस साल, तीस साल बाद उसकी अहमियत न रह जाए, तो फिर हमारे लिखे का मोल क्या रहा? यहाँ पर यह बात समझनी चाहिए कि लेखक का जो विवरण है, वह तो महत्वपूर्ण है, लेकिन उसका इरादा जो है, इंटेंट है, उसका ध्यान रखना जरूरी होता है। अगर जानबूझ कर मैंने ऐसी बातें कीं, जो आगे जाकर किसी खास वर्ग या किसी खास तरह के वर्ग-समूहों को, खास तरह के व्यक्तियों को, समाजों को.. उनके खिलाफ चला जाए और इरादतन ऐसा हो तो यह बहुत नकारात्मक-सी बात होगी जो कि होती नहीं है। साहित्य का यह काम होता नहीं है। इसलिए साहित्यकार के इरादे पर शक करना, उस पर संदेह करना इसलिए कि एक समय के आगे आपको ऐसा लगता है कि संगति नहीं बैठ पाई है उसकी रचना के साथ… इसका मतलब यह नहीं है कि लेखक या उसकी रचना बिल्कुल त्याग देने लायक है या उसको बिल्कुल खारिज कर देना चाहिए।



तो प्रेमचंद के बारे में जब भी हम बात करेंगे तो चूँकि उन्होंने हमारे लिए कहानियों का, हिंदी कहानियों का, कथा-साहित्य का एक क्षितिज तैयार किया है, बहुत ही चौरस जमीन तैयार की है - तीन सौ कहानियाँ, चौदह उपन्यास, दर्जनों निबंध और इतनी विपुल रचनाशीलता और वह भी सिर्फ 56 वर्ष की आयु उनको मिली। और जो कुछ उन्होंने जितना परिमाण में लिखा उसके लिए तो वैसे दो जीवन भी मुझको लगता है कि कम होते। तो इसमें बहुत-सी चीजें आ सकती हैं, जो आपको लगे कि वह बहुत प्रासंगिक नहीं है। यह भी लग सकता है कि ये कमजोर हैं लेकिन इसीलिए उनका महत्व कम नहीं होता। क्योंकि जिस समय प्रेमचंद लिख रहे थे, उस समय उन पर एक परिस्थिति जो उनके समक्ष है, उस पर एक लेखकीय प्रतिक्रिया उनको देनी है। उनको सृजन करना है, लिखना है। दूसरी कि एक ऐसी भाषा में लिखना है, जो भाषा अभी तक पकी नहीं है, तैयार नहीं है, तो भाषा का भी निर्माण करना है, एक कथा-भाषा का। उसकी मानकता निर्धारित करनी है, उसको स्थिर करना है, तो यह बहुत बड़ी उन पर चुनौती थी, जिसको उन्होंने स्वीकार किया। और इस बात को हमको मानना चाहिए और इसके लिए हम उनके ऋणी हैं। इन्होंने इतनी विपुल रचनाशीलता से हिंदी की कथा भाषा के लिए एक बहुत ही उर्वर जमीन तैयार की, जहाँ से कई तरह की भाषिक प्रवृत्तियाँ निकलती हैं। कभी स्थानिकता में जाती हैं या बिलकुल खड़ी बोली की तरफ जाती हैं। वह सब निकलता वहीं से है, और उन्होंने अपने लिए जिस भाषा का वरन किया, तो आप देख रहे हैं कि बहुत सहज, सुबोध भाषा जिसे कहते हैं, समझ में आने वाली भाषा है। स्थानीय मुहावरों का इस्तेमाल है। यह भी कहना चाहिए कि ऐसा भी नहीं था कि उस समय वही भाषा लिखी जा रही थी। उनके सामने उनके जो समकालीन थे वह कुछ अलग तरह की भी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे। देखिए, गुलेरी जी की भाषा अलग है। जयशंकर प्रसाद की कथा की जो भाषा है वह अलग है। बाद में जो जैनेंद्र हैं, उनके समकालीन भी थे, उनके जूनियर भी थे, उनकी भाषा अलग है।



'गोदान' के कुछ ही साल बाद 'शेखर एक जीवनी' उपन्यास आता है, उसकी कथा भाषा बिल्कुल ही अलग है। लेकिन उनका जो चुनाव था अपनी कहानियों के लिए जिस भाषा का, वह भी बहुत ध्यान देने लायक बात है कि उन्होंने उसी भाषा का चुनाव क्यों किया? क्योंकि वह ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक ज्यादा-से-ज्यादा पाठकों तक पहुँचना चाहते थे और अपना संदेश पहुँचाना चाहते थे। तो इस मोटी पृष्ठभूमि में प्रेमचंद को समझने की जरूरत है और यह भी देखना पड़ेगा कि प्रेमचंद का जो समय था, वह क्या था, वो दरअसल कर क्या रहे थे? तो वैसे हम देखें तो प्रेमचंद का समय, जिसको कहते हैं 'तुमुलतस टाइम', एक ऐसा समय जब अभी-अभी स्वदेशी आंदोलन हुआ है, बंग-भंग आंदोलन हुआ है, राष्ट्रीय आंदोलन पूरे ज्वार पर है और गांधी जी का पदार्पण हो रहा है 1917 के आसपास। उस समय प्रेमचंद का लिखना, बकायदा लेखक बन चुके हैं, तो एक उपनिवेशवादी शासन का विरोध करना और स्वराज की प्राप्ति के लिए संघर्ष में अपना योग देना, कलम के माध्यम से अपना योग देना - यह उनका सबसे बड़ा लक्ष्य है। यह एक बात है और दूसरी बात यह है कि जो औपनिवेशिक शोषण है, उसके अलावा जो भारतीय समाज में शोषण की, उत्पीड़न की आंतरिक संरचनाएँ हैं, उनके खिलाफ लिखना, उनको खोलना, उनको एक्सपोज करना - यह उनका दोहरा काम है, जो उनके साथ-साथ चलता रहता है। इसीलिए स्वराज की भावना उनमें जितनी प्रबल है, उसके लिए जिस तरह से लिखते हैं उसमें.. आदर्शवाद की बहुत बात होती है, तो वे आदर्शवाद की तरफ बहुत झुकते हैं। इसका बहुत बड़ा कारण स्वराज की प्रति उनकी जो प्रतिबद्धता है, वह है। लेकिन उसी तरह से वह बहुत ही निर्मम हो कर सामाजिक सच्चाईयों के बारे में लिखते हैं, तो यह एक बहुत महत्वपूर्ण आयाम है उनके लेखन का जिसमें एक दोहरा संघर्ष उनके साथ चलता है। भारत राष्ट्र का जो संघर्ष है, उपनिवेशवाद के खिलाफ वो, एक ओर उसके साथ हैं। दूसरी ओर जो भारत राष्ट्र के अंतर्गत शोषण और उत्पीड़न की जो स्थितियाँ हैं, उनके खिलाफ भी उनको लिखना है। यह एक तथ्य है, जिस पर हमें विचार करना होता है। राजनीति में यही काम गांधी जी कर रहे हैं, लेकिन वह, 1916 के बाद, गांधी जी का जो आंदोलन है, वो उपनिवेशवाद के खिलाफ भी है। साथ ही अपने आंदोलन में ऐसे लोगों तक, ऐसे वर्ग-समूहों तक वे भी पहुँचते हैं।



यह एक ऐसी स्थिति है कि प्रेमचंद और और गांधी जी के बारे में कह सकते हैं, जो काम गांधी जी कर रहे थे राजनीति में, वही काम प्रेमचंद कर रहे थे साहित्य में। यहाँ यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि 1908 में 'सोजे वतन' जब्त हो चुका है। अंग्रेज सरकार ने उसको जब्त कर लिया था। फिर गांधी जी का जो पदार्पण होता है भारत की राजनीति में वह 1916 में होता है। 1917 में चंपारण सत्याग्रह शुरू हुआ था। इसका मतलब है कि प्रेमचंद पर जो असर था वह.. स्वदेशी आंदोलन के समय से ही उन पर राष्ट्रवाद का गहरा असर था। जाहिर बात है कि राष्ट्रवादी उन्होंने रचनाएँ लिखी थीं और वे जब्त भी हुईं। 





अब यहाँ जो मैं एक ऐतिहासिक तथ्य के बारे में मेरी जो समझ है वह साझा करना चाहूँगा, क्योंकि यह प्रेमचंद के समय को या उसके पूरे दौर को समझने के लिए जरूरी है। प्रेमचंद को 'किसान जीवन का चितेरा' कहा जाता है। वह किसान जीवन के सबसे प्रामाणिक लेखक माने जाते हैं। लेकिन किसान जीवन की जो यंत्रणा और त्रास है, उसका जितना जीवंत और प्रमाणिक चित्रण उनके यहां होता है, इतना दूसरे जगह पर दुर्लभ है। कम-से-कम उस समय उनके दौर में। तो इसके पीछे जो पृष्ठभूमि है उसे जानना होगा। किसानों की जो दुर्दशा है, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण जो नजर आता है जो उनकी रचनाओं में भी है, और वैसे भी ऐतिहासिक तथ्य के रूप में है, वह जमींदारी प्रथा है। उस समय जो जमींदारी का चलन था और उसी के साथ जुड़ी हुई जो महाजनी व्यवस्था है, तो वो कैसे शुरू हुई ? यह पूरा का पूरा जो दौर था, जिसमें किसान जमींदारी और महाजनी व्यवस्थाओं में पिस रहे थे। 1793, वो एक लैंडमार्क है… प्रेमचंद से सौ साल पहले का दौर, जबकि भारत में कंपनी राज था और स्थायी बंदोबस्ती की व्यवस्था शुरू हुई थी। पलासी के युद्ध के बाद जबकि अंग्रेजों को बंगाल का पूरा सूबा मिल गया। तो उनके समक्ष जो पहली चुनौती आई वह यही आई कि इतने बड़े सूबे का, उस समय वह काफी बड़ा था, राजस्व का प्रबंध, वसूली कैसे हो। उसके लिए बहुत बड़े महकमे की जरूरत थी, एक बहुत बड़े ब्यूरोक्रेटिक सेट-अप की जरूरत थी। अंत में इन्होंने एक शॉर्टकट निकाला कि राजस्व की जिम्मेदारी एक ऐसे वर्ग को दे दी जाए जो कि उनके लिए राजस्व संग्रह का काम करता रहे। एक तरह की ठेकेदारी समझ लीजिए। और यहीं से जमींदारी प्रथा अस्तित्व में आई। कितनी उत्पीड़क व्यवस्था थी। लगान के लिए जमींदारों को अधिकृत कर दिया गया और अलग-अलग क्षेत्र में जमींदार पैदा हो गए। किसी-न-किसी एक नियत समय पर, तारीख पर लगान जमा कराना पड़ता था और लगान की वसूली के लिए जो भी तरीके हो सकते थे घटिया-से-घटिया, उसका इस्तेमाल वे करते थे। तो जो सूखे की स्थिति हो या किसी और तरह की स्थिति हो, उसमें  किसानों की जो दुर्दशा हो रही थी और लगान न दे सकने की जो एक स्थिति थी, तो उसमें इनको कभी-कभी कर्ज लेने की जरूरत पड़ती थी। अब यहाँ से महाजनी की एक नई व्यवस्था जुड़ी हुई थी। कर्ज में, दोहरे तंत्र में यह भारत का किसान पिस रहा था। गाँवों की स्वायत्तता नष्ट हो रही थी। अपना पूरा उत्पादन-तंत्र खत्म हो रहा था। दस्तखारी खत्म हो रही थी। हमारी अपनी जो एक भारतीय गाँव की न्यायिक-प्रणाली थी, वह भी खत्म हो रही थी। धर्मपाल ने सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि उस समय जो कंपनी का शासन था, उसके पहले एक ऐसी व्यवस्था थी गाँवों में कि मंदिरों में, मस्जिदों में भी गाँव के बच्चों को शिक्षा का प्रबंध था। और वो सब चीजें नष्ट हो रही थीं। तो गाँव बिल्कुल दरिद्र से दरिद्रतम स्थिति में पहुँच रहे थे। एक आंकड़ा याद आ रहा है…. वैश्विक आय में भारत की हिस्सेदारी लगभग साढ़े बाईस-तेईस प्रतिशत थी। प्रेमचंद के समय में वो आते-आते ढाई-तीन प्रतिशत से भी नीचे रह गई थी। तो आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत का धन जहाँ से पैदा हो रहा था…, क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश था और जो हमारी अर्थव्यवस्था थी, वह कृषि आधारित थी। भले कृषि आधारित उद्योगों से धन पैदा हो रहा था, लेकिन मूलतः वह कृषि आधारित व्यवस्था थी। तो सारा धन हमारा जा रहा था यूरोप की समृद्धि के लिए। खासतौर से ब्रिटेन की समृद्धि के लिए। और वो सही बात है कहीं-न-कहीं कि इससे औद्योगिक क्रांति की पृष्ठभूमि बन रही थी। इस पृष्ठभूमि में प्रेमचंद के सरोकारों को समझना जरूरी है। ये एक पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, जिसमें आप देखेंगे कि उन्होंने जो अपना पक्ष बनाया लिखने के लिए… उन्होंने एक जगह कहा भी है कि जो मजलूम हैं, शोषित हैं, वंचित हैं, तो लेखक स्वभावतः उनके पक्ष में जाता है, उनके लिए खड़ा होता है और जो जनता का न्यायालय है, उसमें इस्तगासा पेश करता है, उनकी वकालत करता है। तो यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें प्रेमचंद की रचनाशीलता को, उनके सरोकारों को समझने की ज़रूरत है। 



मैं यहां इन्हीं सरोकारों से ओत-प्रोत उनकी चार कहानियों का खास तौर पर जिक्र करना चाहूंगा। उन के चार कहानियों में से पहली कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी' पर बात की जाए, तो इसका जो कथानक है वह 1856 के आसपास का है। जिसमें अवध की सत्ता जा रही है और देशी सत्ता अपना स्वत्व, बिना खून दिए, गवाएँ बिना... विदेशी सत्ता को समर्पित कर रही है। 1857 के तुरंत पहले यह घटना हो रही है, जिसमें अवध चला जा रहा है और 'शतरंज के खिलाड़ी' जो मनसबदार, जमींदार हैं - ये वर्ग है , जो शतरंज की असली बिसात बिछी हुई है राजनीति की, उसकी न कोई समझ है, न कोई चेतना है। वो बिल्कुल जैसे नशे में डूबे हुए लोग हैं, जिनको इस बात का इल्म नहीं है कि उनका क्या कुछ छिनता जा रहा है, लुटता जा रहा है, और इसका प्रेमचंद ने बहुत प्रभावी चित्रण किया है- 'शतरंज के खिलाड़ी' में। तो एक संदर्भ बनता है 'शतरंज के खिलाड़ी' का, जो एक ऐतिहासिक संदर्भ बनता है भारत की तत्कालीन परिस्थिति में।





'पंच परमेश्वर' एक ऐसी कहानी है, जिसमें दरअसल हमारी जो परंपरागत न्याय व्यवस्था है, न्याय-प्रणाली थी, जो स्थानीय थी और जो भरोसे पर चलती थी, आपसी सहकार पर चलती थी, उसको उन्होंने एक तरह से रिवाइव करने की कोशिश की है। यह जो ब्रिटिश प्रणाली है न्याय की, वह आम आदमी के पहुँच के बाहर है। वो बहुत औपचारिक प्रणाली है। और हमारी अपनी व्यवस्था क्या थी? भरोसे पर टिकी हुई व्यवस्था, जिसमें यह कहा जाता है कि ' क्या बिगाड़ के डर से इमान की बात न कहोगे?'। ये एक कितना बड़ा कथन है, जो आज भी बल्कि हमेशा, हर युग के लिए प्रासंगिक बना रहेगा। दरअसल 'पंच परमेश्वर' स्वराज के बहुत गहरे बोध से भर कर लिखी गई कहानी है। यह न्यायिकों के लिए मूल्य और मान निर्धारित करती है। ये एक ऐसी कहानी है कि आज की पंचायतों में भी हमें जुम्मन शेख और अलगू चौधरी की जरूरत पड़ती है। हम देखना चाहते हैं अपनी पंचायतों में, आज की पंचायतों में भी कि आखिर वह बात क्यों नहीं रह गई जो उस जमाने की पंचायतों में रहती थी। जबकि जो चरित्र हैं उनको आप देख लीजिए - एक जुम्मन शेख और अलगू चौधरी हैं। दोनों दो भिन्न आस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन जब पंच की बात आती है, पंच के पद पर बैठ कर जब वे निर्णय लेते हैं, तो उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह कभी गलत निर्णय नहीं लेंगे। क्योंकि पंचों में परमेश्वर बोलता है। ये एक आस्था, विश्वास हमारे समाज में रहा है, जिस पर हमें ध्यान देना चाहिए आज की तारीख में।



तो ये सब जो स्वराज बोध से और स्वाधीनता की चेतना से जुड़ी हुई जो चीजें मुझे दिखीं उनकी रचनाओं में, जो सबसे ज्यादा प्रबलता के साथ दिखाई दे रही हैं, उन कहानियों का मैं फिलहाल जिक्र कर रहा हूँ आपके आगे।



इस तरह से उनकी एक कहानी है 'ईदगाह'। मेरा ख्याल है कि शिल्प और संवेदना के लिहाज से वह शायद सबसे अच्छी कहानी है। बच्चे के माध्यम से यह कहानी बड़ा मूल्य रचती है। यह कहानी एक ऐसी कहानी है, जिसका मान कभी कम नहीं होगा, कभी खत्म नहीं होगा। इसमें… बुजुर्गों को बच्चों के लिए त्याग करते देखा जाता है। ऐसी कई कहानियाँ हैं, जीवन में ऐसी घटनाएँ देखने को मिलती हैं, ऐसे अनुभव होते रहते हैं। लेकिन यह ऐसी कहानी है, जिसमें एक बच्चा जो एक अभावग्रस्त परिवार का बच्चा है, दादी की सुविधा का ख्याल करके वह अपने खिलौनों को छोड़ देता है और उनके लिए चिमटा खरीद लाता है। यह एक खांटी भारतीय संस्कारों में पगी कहानी है। भले इसका बैकग्राउंड, इसकी पृष्ठभूमि एक मुस्लिम परिवार की है। लेकिन यह खांटी भारतीय परंपरा में पगी कहानी है। और यह कहानी हमें, जो पौराणिक बाल चित्र हैं, जैसे- आरूणी या श्रवण कुमार, उनकी भी याद दिलाती है। इस कहानी का आग्रह कहीं-न-कहीं बाल संवेदी दुनिया का निर्माण करना भी है। बच्चों की आँखों से दुनिया को देखने का आग्रह करती है यह कहानी। और इसमें कहीं-न-कहीं वह जो अंतर-सामुदायिक संबंध है.. उसको मजबूत करने का आग्रह भी दिखाई देता है। इसलिए यह कहानी बहुत महत्वपूर्ण कहानी है। और यह हमेशा पढ़ी जाएगी, चाहे कोई भी समय हो, आने वाले समय में भी इसका मूल्य कम नहीं होगा। इसका साहित्यिक मूल्य बहुत बड़ा है।



एक और कहानी की याद आ रही है, जो इसी पृष्ठभूमि से जुड़ी हुई है - 'पूस की रात'। 'पूस की रात' मुझे निजी तौर पर बहुत पसंद भी है। और 'पूस की रात' एक खांटी किसान जीवन की कहानी है। किसानों के त्रास जीवन को व्यक्त करती है.. कि तीन रुपए बचा कर रखे हैं उसने कंबल खरीदने के लिए- हल्कू। हल्कू नाम है किसान का जहां तक मुझे याद आ रहा है। और उसको, लगान चुकाने के लिए उस पर जो तगादा हो रहा है, तो आखिरकार वह पैसा जो उसका बड़ा मुश्किल से जोड़ा हुआ था, वह लगान चुकाने में जाने वाला है। अब देखिए कि यहाँ पर वो रात भर बेचारा ठिठुरता है और पत्तों में आग लगा कर किसी तरह से रात में गुजारा करता है। तब भी वो सुबह उठता है तो (देखता है) जानवर उसके फसल को चर जाते हैं। उसकी पत्नी आती है दौड़ी-दौड़ी और कहती है, "अभी तक सोए हो, जानवर तो चर गए फसल"। और तब भी ऐसे मालूम पड़ता है कि जैसे हल्कू को उसकी परवाह नहीं है। और वह कहता है "कोई बात नहीं, अगली बार उसको लगान दे देंगे"। फिर यह होता है - इससे अच्छा तो था कि मजूर बन जाते और हम लोग खेती-बाड़ी से पिंड छुड़ा लेते, लेकिन इससे हल्कू इंकार कर देता है, वह कहता है कि हम किसानी नहीं छोड़ सकते। आगे जा कर आप देखिए कि यह किसान जो यहां मजदूर बनने से इंकार करता है - 'पूस की रात' में, वहीं, 'गोदान' में किसान के मजदूर बनने की कहानी है। आगे जो घटनाक्रम बनता है उसमें यही होता है। किसान धीरे-धीरे मजदूर बनने लग जाते हैं। यह परिघटना अभी तक चल रही है, यह बहुत बड़ी परिघटना है और अभी तो इसका ताजा संदर्भ है कोरोना काल में मजदूरों की घर वापसी का संदर्भ है। उससे पता चलता है कि यह कितनी बड़ी घटना है, परिघटना है। इससे पता चलता है कि एक तरह से गांव आपूर्ति करता है मजदूर की। तो ये इशारे हैं प्रेमचंद की कहानियों में जहां-तहां। उनको बहुत सावधानी से देखना पड़ता है और समझना पड़ता है और आज के समय के साथ उनके संगति बनानी पड़ती है, बिठानी पड़ती है। इसमें कभी-कभी आपको ऐसा लग सकता है कि बहुत जगह अतिरेक है। लेकिन तब भी ऐसे संकेत उनकी कहानियों में कई जगह मिलेंगे, उपन्यासों में मिलेंगे।






एक और अलग कोटि है कहानियों की- जैसे; 'सद्गति' है, 'कफन' है, 'ठाकुर का कुआँ' है, 'मंदिर' है। तो इन कहानियों में जो दलित समाज है, उसकी जो पीड़ा है वह बहुत घनीभूत रूप में निकलती है और कभी-कभी हमें बहुत स्तंभित करती है। बल्कि हिला कर रख देती है। इन कहानियों में ऐसी जीवन स्थितियाँ हैं। इन कहानियों में है कि जो सामाजिक व्यवस्था है वह किस कदर अमानवीय हो सकती है। 'सद्गति' और 'कफन' में जो अमानवीयता है, ठीक ही कहा था उषा किरण जी ने कि वह वीभत्स रस में व्यक्त हो रही है। और सच में यह विश्वास नहीं होता कि ऐसा भी हो सकता है। आदमी, आदमी के प्रति इतना क्रूर भी हो सकता है और एक व्यवस्था के तहत हो सकता है। यह देखकर पीड़ा होती है, क्षोभ होता है, लेकिन इन कहानियों की जो शक्ति है वह यह है कि, लेखक, जिसको कहते हैं कि पूरी तरह से शोषित और वंचितों के पक्ष में तन कर खड़ा है, उसकी प्रतिबद्धता जरा भी हिलती नहीं है। बल्कि कहना चाहिए कि जो शोषण का चक्र है, वह, इन कहानियों में यह है कि वह सामाजिक व्यवस्था से निकल कर आ रहा है। ऐसा नहीं है सिर्फ कोई एक विलेनस कैरेक्टर होता है और उसकी अपनी जो सनक होती है, उसके प्रभाव में अगर ऐसा कोई अपराध करता है या ऐसी घटनाओं को अंजाम देता है, तो वह बात नहीं है। यह हमारी एक इंस्टिट्यूशनलाइज्ड हिंसा है। इसमें एक जाति के नाम पर.. , लैंगिक असमानता हो या जातीय असमानता हो, उसके नाम पर एक ऐसी हिंसा दिखाई दे रही है, जिसके खिलाफ प्रेमचंद खड़े हैं एक लेखक के तौर पर।



प्रेमचंद पर जब भी बात होती है तो उनकी आलोचना में खास तौर पर यथार्थवाद बनाम आदर्शवाद पर, प्रेमचंद में आदर्शवाद ज्यादा हावी होता है कहीं-कहीं। मुझे यह भी लगता है कि यह आदर्शवाद एक नेकनीयती से निकला है और एक सदिच्छा उसमें पल रही है। प्रेमचंद चीजों को ठीक करना चाहते हैं, उनको लगता है कि अगर कोई गड़बड़ी है तो वह अपने रास्ते आ जाए, सही रास्ते पर आ जाए। और जहां-तहां उनका यह आग्रह दिखाई देता है। हो सकता है कि यह उतनी सही बात नहीं हो लेकिन फिर मैं कहूंगा कि उनका इरादा चीजों को ठीक करने का है। प्रेमचंद मास एजुकेशन का काम भी कर रहे हैं शायद, जन शिक्षा का, एक नए मूल्य बोध से लोगों को लैस करना चाहते हैं। क्योंकि स्वराज्य प्राप्ति उनका लक्ष्य है उस समय तक। और उसके लिए वह चाहते हैं कि ऐसे लोग हों जिनमें, आपसदारी हो, एका हो, आपसी सहकार हो और वे एक नए भारत के निर्माण के लिए, स्वाधीन भारत के निर्माण में अपने को प्रयुक्त करें। तो यथार्थवाद बनाम आदर्शवाद का, एक तो यह समझ में आता है, दूसरी बात यह है कि दलित जीवन से संबंधित जो प्रसंग हैं या स्त्री जीवन से संबंधित जो प्रसंग हैं, उसमें उनकी आलोचना होती है, कि वे दलितों में जो अमानवीकरण की स्थितियां हैं, उनको ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर दिखलाते हैं, या खासतौर से दलित स्त्रियों के प्रति जिस तरह की भाषा का प्रयोग हुआ है जहां-तहां… आज की तारीख में जो दलित समाज है या वंचित समाज है उसको यह नागवार गुजरता है। उसको ऐसा पढ़ने में, सुनने में अच्छा नहीं लगता, बल्कि कहीं न कहीं लगता है कि यह ज्यादती हो रही है।

      


लेकिन बात यह है कि ऐसा लिखते हुए प्रेमचंद, जो तथाकथित उच्च वर्ग, जो शोषक वर्ग है, ऊंची जातियां हैं उनमें एक स्थाई ग्लानिबोध भरने में ये कामयाब रहे हैं एक लेखक के तौर पर। आज भी जब आप इन कहानियों को पढ़ते हैं तो एक गहरे ग्लानिबोध से भर जाते हैं। यहां उनकी एक लेखक के तौर पर तो सफलता है, कि ऐसी अमानवीय स्थितियां कैसे पैदा हुईं? जिसमें एक स्त्री के प्रति, किसी एक व्यक्ति के प्रति आप इतने क्रूर हो जाएं। ठाकुर का कुआं जैसी कहानी है, कि पानी इतनी बड़ी समस्या हो जाए किसी समाज में कि पानी ना मिल पाए और गंदा पानी पीने को आखिर मजबूर हो जाए व्यक्ति। इससे एक और जुड़ी हुई जो चीज है जो हमें दिखाई दे रही है - एक घास वाली कहानी है उनकी। 'ठाकुर का कुआं' में एक संदर्भ आता है, विवरण है कि वह जो औरत पानी लाने गई है चोरी-चुपके, वहां अन्य औरतें भी हैं जो कह रही हैं कि यह जो मर्द जात हैं, हमको तो कुछ समझते ही नहीं हैं, ये तो जब चाहें हमें पानी लाने के लिए भेज देते हैं, हमसे नौकरानियों की तरह व्यवहार करते हैं।

 


मेरा ख्याल है कि 'ठाकुर का कुआं' जैसी कहानी है या 'सद्गति' है, इन कहानियों के पात्र जो हैं, उनकी कोई हैसियत नहीं है। वह सिर्फ आते हैं, रोते हैं और वापस हो जाते हैं। लेकिन 'घास' वाली जो कहानी है उसमें एक अलग तरह की कहानी है। इसमें घास वाली ने एक उच्च वर्गीय व्यक्ति को सही रास्ते पर लगाया है, उसको एक अच्छे व्यक्ति के रूप में रूपांतरित कर दिया है। मेरा ख्याल है कि दलितवादी पाठ तो इन कहानियों का है लेकिन स्त्रीवादी पाठ भी होना चाहिए और ऐसी कई दशाएं हैं जिनका स्त्रीवादी पाठ हो सकता है।

             


प्रेमचंद की रचनाओं पर अभी भी काम होना बाकी है। और हम तो लानत-मलामत में ज्यादा पड़ जाते हैं जबकि एक ठोस काम होना चाहिए। अगर जो नयी प्रवृत्तियां आ रही हैं, नई चेतना आ रही है, जो नए सरोकार बन रहे हैं, हमारा जो नया समाज बन रहा है, उसकी रोशनी में इन कहानियों को कैसे देखें? हममें जो नया मूल्य बोध विकसित हुआ है - 1936 का भारत, 2019 का भारत नहीं है। अब भारत बदल चुका है। इसलिए आप देखिएगा कि उस समय भले ही 'सद्गति' और 'ठाकुर का कुआं' वाली स्थिति हो, पर आज वैसी स्थिति नहीं रही है। आज न दलितों की स्थिति वैसी है,और न स्त्रियों की स्थिति वैसी है। अपवादस्वरूप कुछ घटनाएं घट जाती हैं, वह बात अलग है लेकिन सत्ता में और संपत्ति में आज इनकी बहुत भागीदारी है, बहुत मजबूत उपस्थिति है पूरी सत्ता संरचना में। हमारे यहां जो वोट की ताकत आई, लोकतांत्रिकता का प्रसार हुआ, इससे क्या हुआ कि जो हाशिए की आबादियां हैं, उनका जो इस तरह से सशक्तीकरण हुआ है, सत्ता संरचना में जिस तरह से उनकी भागीदारी हुई है, तो परिस्थितियां बिल्कुल बदल गई हैं। आप किसी भी राज्य की विधानसभा को देखिए या लोकसभा को देख लीजिए, और देखिए कि उनका प्रतिनिधित्व कहां है? कौन लोग वहां मैटर करते हैं? तो यह जो नई परिस्थितियां हैं हमारे यहां, उनके आलोक में चीजों को देखने की जरूरत है। और प्रेमचंद को, उनकी कहानियों को इस नजरिए से देखिए कि जिस समय परिस्थितियां ऐसी नहीं थी, और हमारे यहां सौ में दस लोग भी साक्षर नहीं थे, ये उस समय की कहानियां है। इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए। जिस समाज में सौ में दस लोग ही साक्षर हों, वहां क्या स्थिति होगी, जहां अर्थव्यवस्था नाम की कोई चीज ही न हो खासतौर से गांवों की। ऐसे में जो शोषण का, दमन का जो दंश होता है, वह कई गुना बढ़ा हुआ होता है। जहां अच्छे-खासे परिवारों की भी स्थिति अच्छी नहीं हो तो वहां जो बिल्कुल निचले दर्जे के लोग हैं उनकी क्या स्थिति होगी? इसके बारे में सोचा जा सकता है।

             


स्त्रियों के बारे में अभी उषा किरण जी ने कुछ बहुत अच्छे उदाहरण दिए। यह सच है कि उनकी कहानियों में स्त्रियां उस तरह से प्रतिरोध का प्रतीक बनकर बहुत कम आती हैं या उनकी इस तरह की उपस्थिति शायद नहीं के बराबर है। लेकिन मुझे जहां तक ख्याल आ रहा है कि प्रगतिशील लेखक संघ का जो सम्मेलन हुआ था, उसमें शायद उन्होंने स्त्रियों के बारे में बहुत सकारात्मक बातें कही थीं। किसी लेख में भी उन्होंने कहा है महिलाओं के बारे में - कि उनको अब दबा कर नहीं रखा जा सकता है, इनको उनका अधिकार दिलाना होगा, बराबरी के स्तर पर लाना होगा। कहानियों में जरूर बात पीछे रह गई है, कभी कभी मुझे ऐसा लगता है कि उस समय का जो मूल्य बोध था, उस समय जो सामाजिक परिस्थिति थी, उसका जो दबाव होता है, एक लेखक के ऊपर अवचेतन में, कहीं न कहीं वह बात लेखन में उभर कर आती है।  लेकिन तब आप ये नही कह सकते कि वे स्त्री-संवेदी नही थे या स्त्रियों के प्रति संवेदना उनकी थोड़ी कमजोर थी। । लेकिन जैसा मैंने कहा, कई जगह ऐसे संकेत हैं, जिससे लगता है कि प्रेमचंद की रचनाओं का, आज जो स्त्रीवादी विमर्श है, उसके आलोक में उनका एक पाठ होना चाहिए, उस पर अध्ययन होना चाहिए। कुछ लोग कर भी रहे हैं। 





और भाषा के बारे में भी प्रेमचंद की आलोचना होती है, क्योंकि उनकी भाषा दरअसल ऐसी भाषा है जो कहीं नहीं बोली जाती है, किसी भी अंचल में वह भाषा नहीं बोली जाती है, जो प्रेमचंद का किसान है जिस भाषा में बात करता है, उनके जो दलित पात्र बात करते हैं, उनके जो स्त्री पात्र जो संवाद करते हैं, वह भाषा कहीं नहीं बोली जा रही है। तो जैसा कि मैंने कहा प्रेमचंद के लिए भाषा का सवाल बड़ा महत्वपूर्ण था और वह एक निर्माणाधीन (निर्मित होती हुई) भाषा थी। उसको स्थिर करना था, उसको मानकीकृत करना था, इसलिए वह अगर बहुत स्थानीयता के चक्कर में पड़ते तो वह भाषा पता नहीं..... उनको लगा होगा कि अगर अवध की ही भाषा में लिखें तो फिर बिहार और राजस्थान के लोग इसको कैसे पढ़ेंगे? कैसे समझेंगे? आज की स्थिति के हिसाब से हम उस जमाने की तुलना नहीं कर सकते, उस समय की स्थिति जो थी वो भाषा के संबंध में भी (अलग) थी। वहाँ हिंदुस्तानी की बात होती थी, हिंदी की बात नहीं होती थी। हिंदुस्तानी तर्जुमा की बात होती थी। प्रेमचंद ने भी एक जगह कहा है कि जवाहर लाल नेहरू का एक टेक्स्ट है, जिसका मुझे हिंदुस्तानी तर्जुमा करना है। यह नहीं कि हिंदी तर्जुमा करना है। हिंदी एक बनती हुई भाषा है, तो इसलिए जो बाद में हिंदी का एक भाषा के रूप में विकास होता है वह अलग है। लेकिन उसका उत्स कहीं ना कहीं प्रेमचंद की कथा भाषा में है, और इसको हमें मानना पड़ेगा। भले ही आपको ऐसा लगे कि वह भाषा कहीं नहीं बोली जाती है, लेकिन वह सरोकार भाषा के अंदर जो छुपा हुआ है, वह जो इंटेंट है वह तो हर जगह वही है। वह सार्वदेशिक है। ऐसा नहीं है कि वह झूठा या किसी तरह से नकली है, सरोकार तो असली है। तो यह जो भाषा का मामला है, बाद में हम देखते हैं कि रेणु तक आते-आते हिंदी भाषा का एक कायांतरण हो जाता है। लेकिन इसके चलते आप यह नहीं कह सकते कि प्रेमचंद में भाषा के स्तर पर कोई किसी तरह की कमजोरी थी। और यह भी है कि जहां प्रेमचंद के निम्न वर्ग की स्त्रियां बहुत बोल्ड नहीं हैं, कहीं-कहीं तो बोल्ड हैं ही, लेकिन कई जगह पर बोल्ड नहीं है। ज्यादातर… ऐसे प्रसंग कम हैं जहां स्त्रियां बोल्ड हैं। 

 


प्रेमचंद और गांधी जी के बारे में साम्य बहुत दिखाई देता है। गांधी जी का भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा और बहुत महत्वपूर्ण काम था कि उन्होंने जो अभी वंचित समाज था, जो हाशिए का समाज था, जो सबसे निचले पायदान पर यह समाज खड़ा था, उसको उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद से जोड़ा और प्रेमचंद ने साहित्य में उनको जगह दी। उनको नायकत्व दिया। वही लोग उनकी कहानियों के पात्र बने। यहां पर जो प्रेमचंद की भूमिका है, वह साहित्य निर्माता की ही भूमिका नहीं है, वह कहीं ना कहीं एक राष्ट्र निर्माता की भी भूमिका है। और साहित्यकार जो उनके स्तर का होता है वह राष्ट्र निर्माता भी होता है। इसीलिए प्रेमचंद के योगदान पर जब निगाह दौड़ाएंगे तो आपको दिखाई देगा कि बहुत-सी बातें ऐसी हैं जिन पर हमको उनके काल सापेक्षता में ही उनके बारे में हमको विचार करना पड़ेगा। आज की परिस्थिति से गुणा भाग कर के उसको हम सही नतीजे तक नहीं पहुंच पाएंगे। प्रेमचंद के साथ एक और बहुत जरूरी सवाल उठता है उनके बारे में बात करते हुए , कि आज हम प्रेमचंद को किस तरीके से देखें? उन्होंने कहा था- साहित्य की परिभाषा देते हुए, कि साहित्य जीवन की आलोचना है। तो अगर साहित्य जीवन की आलोचना है तो यह काम बहुत ही नैतिकता, ईमानदारी और सात्विक भाव के साथ किया जाना चाहिए। जो शोषित हैं, जो मजलूम है तो साहित्यकार को उसके, स्वभावतः, उसके पक्ष में खड़ा रहना चाहिए और आज भी हमारे सामने यह चुनौती है कि जहां कहीं भी अन्याय है, शोषण है, वहां तक हमारी निगाह जाती है कि नहीं? और हम उनके बारे में, उनके पक्ष में अपनी कलम, अपनी लेखनी उठाते हैं कि नहीं। यह भी है कि प्रेमचंद जो समाज बनाना चाहते थे, तो हमें यह भी देखना पड़ेगा कि हम जो लिखना चाहते हैं वह समाज को जोड़ने वाला है, सहयोग और सहकार की ओर ले जाने वाला है या कि नई विभाजन रेखाएं खींचने वाला है  - लोगों को, समूहों को, एक दूसरे से दूर करने वाला है, क्योंकि हमें यह भी देखना होगा कि हम एक लेखक के बतौर, रचनाकार के बतौर राजनीति के काम आ जाने वाले हैं या राजनीति हमसे बदलने वाली है। हम कोई नई राजनीति खड़ा करने की स्थिति में अपने को ले जाना चाहते हैं क्योंकि साहित्य अगर मशाल है तो राजनीति के आगे चलना है तो हमें इसकी भूमिका के बारे में भी विचार करना होगा अगर हम प्रेमचंद के बारे में आज बात कर रहे हैं तो। 


           




जैसा कि मैंने कहा, प्रेमचंद को समझने के लिए या किसी भी रचनाकार को समझने के लिए उसका जो काल है, उसका जो समय है, उसके सापेक्ष उसकी रचनाशीलता का मूल्यांकन करिए। सौ साल के बाद आप किसी रचनाकार का मूल्यांकन कर रहे हैं, तो अपनी जो कसौटियाँ आपके लिए हैं, वही कसौटियाँ उसके लिए नहीं रहेंगी। उसके प्रति थोड़ी सह्रदयता आपको बरतनी पड़ेगी, और यही काम हमारे साथ भी होगा अगर हम इस लायक हुए कि सौ साल बाद भी हम पर कोई बात हो, तो हमारे साथ भी यही होगा कि हमारी जो सौ साल बाद की जो पीढ़ी है वह हमें किस तरह से याद करेगी। अपने उसके मानक होंगे हमको याद करने के लिए। 

   


लेकिन इसलिए अगर हम प्रेमचंद को उनके जन्म के एक सौ चालीस साल बाद याद कर रहे हैं तो जाहिर-सी बात है कि प्रेमचंद में कुछ बात है, वह एक हस्ती है जो कि मिटने वाली नहीं है। हिंदी के कथा साहित्य पर बल्कि भारतीय कथा साहित्य पर उनका जो प्रभाव है वह कम होने वाला नहीं है। हम बतौर रचनाकार प्रेमचंद के ऋणी हैं और बतौर भारतीय नागरिक भी उनके ऋणी हैं, क्योंकि उन्होंने जो समत्व का, जो एकत्व का संदेश दिया है अपनी रचनाओं में, वह हमारे जीवन के स्थायीमूल्य हैं और हमें अगर रहना है तो इन मूल्यों के साथ ही रहना है और तभी हम अपने समाज को बचा कर रख सकते हैं, अपने को बचा कर रख सकते हैं। उनके जितने पात्र हैं,  प्रेमचंद उनके माध्यम से हमारा मार्गदर्शन करते हैं और आगे भी मार्गदर्शन करते रहेंगे।





सम्पर्क


मोबाइल : 9835263930

टिप्पणियाँ

  1. ज्ञानवर्धक आलेख!

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  2. बहुत धन्यवाद!
    शिवदयाल

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  3. पहलीबार ब्लॉग स्पॉट को पढ़ते हुए मेरी भाषा भी सुधर रहीं है। इतने सुंदर ब्लॉग को चलाने के लिए बहुत बहुत आभार

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  4. बहुत सुन्दर ज़रूरी आलेख

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  5. प्रेमचंद का इतना ईमानदार, निष्पक्ष और बहु आयामी मूल्यांकन करने के साथ उन्हें उनके देश काल के साथ और कालजयी प्रसंगिकता के साथ देखने और समझने की कुंजी लेखक ने थमा दी, आलोचना, विश्लेषण और प ठनीयता के मानदंड एक साथ इतनी सहजता से प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक बधाई!समाज, राजनीति और मनुष्यता की लेखकीय परख. अद्भुत

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  6. बहुत सुंदर विश्लेषण के लिए दील की गहराई से धन्यवाद प्रेषित करते हैं।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद!!
      शिवदयाल

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    2. बहुत-बहुत धन्यवाद!
      शिवदयाल

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