सदानन्द शाही की कविताएँ।
सदानन्द शाही |
अपने समकालीन किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति पर कविता लिखना हमेशा टेढ़ी खीर होती है। कोरोना की दूसरी लहर में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पुरोधा और वाराणसी संगीत घराने की मशहूर जोड़ी के एक फनकार राजन मिश्र नहीं रहे। अपने भाई साजन मिश्र के साथ उनकी जुगलबंदी विख्यात थी। अब उनके न रहने से बहुत कुछ बदल गया है। राजन के बिना साजन का नाम अधूरा अधूरा अधूरा लगने लगा है। ताने से बाना अलग हो गया है। राजन मिश्र को केंद्रित कर कवि सदानन्द शाही ने कविता लिखी है 'दुख की गठरी'। यह कविता उन्होंने उनके भाई साजन मिश्र के लिए समर्पित की है। पूरी कविता संवेदनासिक्त है और इसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे हम किसी अपने को शिद्दत के साथ याद कर रहे हों। सदानन्द शाही ने कविता में इस दुख को उसके अपने स्वरूप के साथ व्यक्त किया है। दुःख जो सबके साथ नत्थी है। सदानन्द शाही की और भी कविताएं इस बात की तस्दीक करती हैं कि इस कवि का ताना-बाना अपने समकालीनों से काफी अलग हट कर है। कवि का भाषाई अंदाज़ कबीराना है। कल सदानन्द शाही का जन्मदिन था। उनको जन्मदिन की विलंबित बधाई देते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं सदानन्द शाही की कविताएँ।
सदानन्द शाही की कविताएँ
हाइडेलबर्ग के थे कबीर*
कबीर मिथिला के थे
भटकते हुए चले आए थे काशी
यहां से घूमते रहे देस देसावर
विद्यापति जौनपुर के थे
कीर्ति सिंह के साथ लग लिए
और पहुंच गये तिरहुत
मैंने एक ऐसी किताब भी पढ़ी -देखी है
जिसमें प्रमाण सहित बताया गया है
कि तुलसीदास और कहीं के नहीं
बलिया के थे-
क्योंकि बड़े लोग अमूमन बलिया में ही पैदा होते हैं
सूरदास बंगाल के होते थे
चैतन्य महाप्रभु ने वृन्दावन की तलाश की
और
सूर को छोड़ आये ब्रज भूमि में
जिन्हें हम राजस्थान की मीराबाई के रूप में जानते हैं
वे अस्ल में तमिल की आण्डाल थीं
हालाँकि वे कश्मीर की ललद्यद भी हो सकती थीं
इस पर विद्वानों में मतभेद होता आया है
पर इस बात में शक ओ शुबहा की कोई गुंजाइश है ही नहीं
कि कन्नड की अक्क महादेवी ही
महादेवी वर्मा बनकर उपरा गयीं
आज के प्रयागराज में
वैसे तो जब मैं जर्मनी से स्विट्ज़रलैंड होते हुए
इटली जा रहा था
मिल गया था एक जर्मन फकीर
हालांकि उसके पास कोई झोला नहीं था
फिर भी फकीर था
वह बहुत देर तक
कबीर के बारे में बातें करता रहा
उसने बताया कि कबीर उसके भाई थे
जान आफ आर्क से उनकी खूब बहसें होती थीं
फिर अचानक डपटते हुए बोला-
प्रोफेसर नोट कर लो
यहीं हाइडेलबर्ग में पैदा हुए थे कबीर
हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी की नींव
और कबीर का जन्म आस पास की घटनाएँ हैं ......
जबकि एक खाँटी बनारसी विद्वान ने रहस्य की बात बताई-
कबीर को गुरुमंत्र देने वाले रामानन्द
मेरे ही चेले थे
जिन्होंने कबीर को गुरु मंत्र दिया था
और
हाँ मेरे परचेले कबीर ने
गोरख को पहला पाठ पढ़ाया था…
मेरे एक आलोचक मित्र का कहना है
कि कबीर ने उनके गॉंव में जन्म लिया था
कुंइया बरई के रूप में
और सारा जीवन हल जोतते रहे
तो भाइयो और बहनो
यह सब ऊंचे ज्ञान की बातें हैं
ज़्यादा दिमाग मत खपाइए
जो जैसा कहे
उसे वैसा मान लीजिए
भलाई इसी में है।
(*किसी ने दावा किया कि कबीर मिथिला के थे)
2020
विज्ञापन युग में
विज्ञापन युग में
समाचार देखिए
और विज्ञापन पढिए
‘आज अख़बार के दो खंड हैं
एक बीस पेज का
दूसरा बाईस पेज का
लेना न भूलें
बयालीस पेज के अख़बार में
पचास पेज के विज्ञापन छपे हैं
रंगीन थ्री डी वाले
विज्ञापन जो है वह तो विज्ञापन है ही
लेकिन जो कुछ छपा है
समाचार की शक्ल में
वह भी विज्ञापन है
भाइयो और बहनों !
विज्ञापनों के इस महायुग में
विज्ञापन देखिए
विज्ञापन पढ़िए
विज्ञापन सुनिए
विज्ञापन बन जाइए
किसी न किसी कम्पनी के
क्योंकि जो विज्ञापन होगा वहीं बचेगा
ध्यान से देखिए-
नेता नेता नहीं है,नेता का विज्ञापन है
साधु साधु नहीं है,साधु का विज्ञापन है
धर्म धर्म नहीं है, धर्म का विज्ञापन है
भाइयो और बहनों !
यक़ीन मानिए
यह जो मैं इतनी देर से
आपके सामने बकबक कर रहा हूँ
मैं मैं नहीं हूँ
किसी न किसी का विज्ञापन हूँ
मैं बंदर छाप दंत मंजन का विज्ञापन हो सकता हूँ
पॉंच मिनट में रुपया दुगुना करने वाली
कंपनी का विज्ञापन हो सकता हूँ
भाइयो और बहनो!
जो कुछ दिख रहा है
इस चराचर जगत में -
कवि लेखक पत्रकार
अध्यापक बुद्धिजीवी कलाकार
जोगी जती संन्यासी …
सब विज्ञापन है
तो भाइयों और बहनों !
यक़ीन करें
कि जो नहीं दिख रहा है
वह भी विज्ञापन है
विज्ञापन का मूल मंत्र है
जो दिखाने लायक़ है
उसे ज़्यादा से ज़्यादा दिखाया जाय
और जो छुपाने लायक़ है
उसे पूरी तरह छुपा दिया जाय
इस मंत्र को समझिए
और फ़ौरन से पेश्तर
विज्ञापन में बदल जाइए
2021
दुख की गठरी
(साजन मिश्र के लिए)
राजन मिश्र के नहीं रहने की खबर से
हक्का बक्का है काशी
वे जो
काशी के बसैया हैं
और काशी के खेवैया हैं
वे जो भंग के छनैया
और
गंग के धरैया हैं
यानी कि भोलेनाथ
वे भी हक्का बक्का हैं
कि कैसे लेंगे
राजन के बिना
साजन का नाम
केवल वे ही दुखी नहीं हैं
जो बनारसी संगीत के दीवाने हैं
केवल वे ही दुखी नहीं हैं
जो संकट मोचन संगीत समारोह में
राजन साजन मिश्र की
पक्की गायकी सुनने के लिए
सारी रात जागते रहे हैं
शाम को सुबह करते रहे हैं
बल्कि वे भी दुखी हैं
जिन्होंने सिर्फ़ सुन रखा है
राजन साजन मिश्र का नाम
कबीरचौरा मुहल्ले से
उठी दो आवाज़ें
नाद के अपार उदधि में
साथ साथ उठी दो लहरें
जो गुंजायमान होती रहीं हैं
धरती के इस छोर से
उस छोर तक
नापती हुई
धरती का ओर छोर
जिनकी भैरवी
गझिन से गझिन शामों को
हंसते हंसते
बदलती रही है
भोर की उजास में
उसी में से एक लहर
नाद के उदधि में विलीन हो गई है
दूसरी को
अकेला कर गई है
अचकचा कर उठ गये हैं कबीर
जैसे
ताने से
अलग हो गया हो बाना
दोनों की संगति ऐसी चली आई
कि
किसी एक का अकेले नाम लेना
असंभव है
अकेले राजन मिश्र
कोई और नाम है
जैसे अकेले साजन मिश्र
कोई और
राजन साजन मिश्र
यानी
राम लक्ष्मण
राजन साजन मिश्र
यानी
भरत शत्रुघ्न
प्रेमचन्द की कहानी के
हीरा मोती
एक के बिना
दूसरा आधा
दूसरे के बिना पहला अधूरा
मिश्र केवल कुलनाम नहीं था उनका
राजन में साजन मिल गये थे
जैसे पानी में मिल जाता है
नमक
इसलिए वे मिश्र थे
साजन मिश्र की भारी आवाज़
आज
कुछ और भारी हो गई है
कुछ और गमगीन
राजन के आवाज़ की ख़लिश
मिल गयी है
साजन की आवाज़ में
जाने वाले
शायद इसी तरह
छोड़ जाते हैं
अपनी अमानत
जो इस सफ़र में छूट गये हैं
उन्हें ही सँभालनी होती है
दुख की गठरी
जैसे सँभाले हुए हैं साजन मिश्र।
2021
उगूँगा
मैं दूब हूं
मुझे काटो!
कितनी बार काटोगे?
फिर उग आऊंगा
और हां
तुम्हारी बंजर हथेली पर नहीं
धरती पर उगूँगा।
2020
संगम तट पर लुप्त सरस्वती को देखते हुए
जब भी संगम तट पर होता हूँ
मेरी निगाहें
बरबस ढूँढने लगती हैं
लुप्त सरस्वती को
सोचता हूँ
क्यों और कैसे
किन परिस्थितियों में लुप्त हुई होंगी सरस्वती
ऐसे कोई अचानक
लुप्त होने का निर्णय थोड़े ही ले लेता है
कुछ तो हुआ होगा
लुप्त होने के पहले क्या क्या सहा-सुना होगा
सरस्वती ने
मैं हर बार इस उम्मीद में यहाँ आ जाता हूँ
क्या पता
इस पर गंगा कुछ बोल दें
क्या पता
यमुना ही मुँह खोल दें
पर हर बार निराशा हाथ आती है
इस मुद्दे पर दोनों ने ही ओढ़ रखी है
चुप्पी की चादर
कि मुझे सुनाई पड़ने लगती है
सरस्वती की सिसकियाँ
जिनमें शामिल हैं
सरस्वती(यों)की सिसकियाँ
सिसकियों से उभरती है
किन्हीं दैवीय कदमों की पीछा करती आवाज़
आवाज़ की पकड़ से
खुद को बचाती
भागती सरस्वती
पुष्कर का तालाब
तालाब के निकट की पहाड़ी
पहाड़ी के शिखर पर जा छुपी
सरस्वती
सरस्वती की सिसकियों से
छन कर निकलने लगती है
युगों-युगों की क्रूर
और
हिंसक आवाज़ें
सरस्वती का पीछा करती हुई…
मुझे पड़ोस के घर में
झाड़ू पोछा करने वाली सुरसतिया की
याद आ जाती है
शराबी पति की मार खा सिसकती हुई
घर बुहारती हुई।
2021
संगम
आंसू की दो बूंदें
ढुलकीं
पसीने से जा मिलीं
जैसे कोई नदी
दूसरी नदी से जा मिली हो।
2020
जब टीवी चैनल नहीं थे
हम आसपास की चीजें देखते थे
और ख़ुश हो लेते थे
मसलन मुहल्ले की क्रिकेट देखते
और ग़ालिब की तरह
दुनिया को बाज़ीच ए अतफाल समझते
आसमानों से आंख मिलाती
गली की पतंग देख कर
हौसलों को उड़ान भरने के लिए
खुला छोड़ देते
हमारी अपनी आंखें थीं
हम देखते थे पास पड़ोस
निहारते थे-
छोटे छोटे सुख
छोटे छोटे दुख
बछड़े को दूध पिलाती गाय देखते
और निहाल हो जाते
चमकीले प्लास्टिक चबाती गाय को देख कर
हो जाते थे बेचैन
सोते हुए बच्चे की मुस्कराहट देखते
और फिराक की कोई रुबाई याद करके
मगन हो जाते
असि जो कभी एक नदी थी
अब नाम है केवल एक गंदे नाले का
उसका गंगा से मिलना देख
दुखी होते
हम गंगा की लहरों का मंथर प्रवाह देखते
और उनके साथ बहते हुए चले जाते
आदि केशव घाट
जहां थकी-मादी वरुणा
गंगा से भेंट रही होती
दोनों का समवेत रुदन सुनते
और वहीं टपका देते
दो आंसू
वहीं दिख जाते
सारनाथ से पानी के लिए चले आ रहे बुद्ध
बुद्ध की आंखें
आंखों में करुणा
करुणा में जल
और भींग जाती हमारी अन्तरात्मा
हमारी निगाह गंगा के किनारे बैठे भिखारियों
के खाली कटोरों की गहराई पर पड़ती
हम याद करने लगते
केदारनाथ सिंह की बनारस कविता
हम संकटमोचन के बंदरों को देखते
एक दूसरे की पीठ से
जुएँ निकालते
हम अस्सी चौराहे पर सजी
सब्जी की दुकानों पर
मुँह मारते सांडों को देख कर डर जाते
थोड़ी ही देर में
उन्हें बीएचयू की कक्षाओं में
भाषण झाड़ते देख
सहम जाते
हमारे कानों में सुनाई पड़ जाती थी
आज के कबीर के करघों से उठने वाली
थकी हुई आवाज़ें
हम रैदास की आकुल पुकार
सुन पाते
सुन पाते
गुरु नानक की पदचाप
विवेकानंद हॉस्पिटल के इर्द-गिर्द
तिपहिया वाहनों की चिल्ल पों के बीच उठती
मरीजों की कराह
आदमियों की हालत देख
भौंकना छोड़ चुके
चिंता मग्न कुत्तों के झुंड
अब हमें
अगल-बगल
पास पड़ोस
कुछ नहीं दिखता
हमें थमा दिया गया है रिमोट
और यह भ्रम
कि दुनिया हमारी मुट्ठी में है
हम कुछ-कुछ धृतराष्ट्र हो चले हैं
कलियुगी संजय के कहे को
सच मानने को अभिशप्त।
24.08.2020
माला बाबा का पोखरा -1
मेरे गांव के रास्ते में पड़ता है
माला बाबा का पोखरा
सबको मालूम है
माला बाबा के पोखरे के बारे में
किसी को माला बाबा के पोखरे से होते हुए आना है
किसी को माला बाबा के पोखरे से होते हुए जाना है
कोई अपने घर लौट रहा है
इस पोखरे से होते हुए
कोई जा रहा है परदेस
इस पोखरे से होते हुए
राही बटोही को थोड़ी देर बैठ कर सुस्ताना है
माला बाबा के पोखरे पर
और उठ कर चल देना है
किसी अनजान दिशा में
विकास की तेज रफ्तार से
बिल्कुल बेपरवाह
गांव के लड़कों को
वहीं चबूतरे से थोड़ा आगे
खेलना है किरकेट
जहां उनके बाप दादे
ऐन उसी जगह
खेलते आये हैं गुल्ली डंडा
उन्हें घास गढ़ने वाली लड़कियों से
करना है नैन मटक्का
चिरई चुरुंग की तो खैर बात ही क्या
उनका तो घर ही है
माला बाबा का पोखरा
चिड़िया आती हैं
माला बाबा का गीत गाते हुए
पानी में चोंच डूबोती हैं
और पोखरे को चीरती हुई
निकल जातीं हैं
खेतों के उस पार
पकते हुए गेहूं का हाल लेने
जहां तक पोखरे का सवाल है
वह पोखरा है भी
और नहीं भी है
दूर देश से आई जलकुंभी
मछलियों को बेरहमी से बेदखल करती हुई
पूरे पोखरे में पसर गई है
उसके नीले-नीले फूल
दूर से ही पोखरे पर अपनी दावेदारी जताते रहते हैं
पानी मुश्किल से दिख पाता है
उतना ही जितना
कुत्तों और कभी- कभार चउवों को चाहिए
हां चिरई नहान के लिए
फिर भी बचा रह गया है पानी
माला बाबा के बारे में
किसी को कुछ भी नहीं मालूम
कौन थे माला बाबा
कहां से आ गये थे
इस पोखरे से
क्या ताल्लुक था माला बाबा का
किसी को नहीं मालूम
कैसे पोखरा हो गया माला बाबा के नाम
हालांकि सरकारी दस्तावेजों में
कहीं भी दर्ज नहीं है माला बाबा का नाम
जो औरतें भरी दोपहरी में माला बाबा के पोखरे पर
आती हैं बकरियां चराने
और मंदिर के चबूतरे पर बैठ कर
करती रहती हैं हंसी-ठिठोली
वे भी कुछ नहीं जानती
माला बाबा के बारे में
मैंने माला बाबा के बारे में
उस लड़की से पूछा
जो शायद पिछले जन्म में
अपने प्रेमी को
माला बाबा के पोखरे पर
बैठा कर भूल आई थी
उसने उड़ती हुई चिड़ियाँ की ओर इशारा किया
और तेजी से चली गई
वैसे ही जैसे चिड़ियाँ
आसमान को चीरते हुए रास्ता बनाती जाती हैं
बहुत देर तक असमंजस में खड़ा रहा
कि मुझे चिड़ियों से पूछना चाहिए
माला बाबा के बारे में
या
उस रास्ते से पूछना चाहिए
जो उस लड़की के जाने से बन गया था अपने आप!
माला बाबा का पोखरा -2
मैंने उस पुरातन गड़ेरिए से पूछा
जो अपनी भेड़ों को
हिमालय की तलहटी में छोड़ आया था
और माला बाबा के पोखरे पर बने
अपने ही मंदिर के चबूतरे पर बैठा
बंशी बजा रहा था
वह बांस की नहीं
चैन की बंशी थी
उसने मुझे उस निगाह से देखा
जिससे देखता रहा था
अपनी भेड़ों को
उसने मुझे बताया
माला बाबा के बारे में
बात तब की है जब
बंगाल के जलाशयों में
अपने नीले लुभावने फूलों के साथ
पसरने लगीं थीं जलकुंभियां
मछलियों को होने लगी थी सांस लेने में दिक्कत
तभी बंगाल छोड़ कर चले आये थे
माला बाबा
हिमालय की तलहटी में
और इस पोखरे को अपना घर बनाया
चिड़ियों , चउवों और मछलियों के अलावा
अपना कहने के लिए
कुछ भी नहीं था माला बाबा के पास
अपनी सारी जमा-पूंजी लगा कर
पोखरे से जलकुंभियों को हटाया
और आबाद किया मछलियों को
चिड़ियों के गाने की धुन पर थिरकते रहे
दिन-रात फेरते रहे माला
और जपते रहे मंत्र
कि
पोखरा जलकुंभियों के लिए नहीं
मछलियों के लिए है
माला बाबा का पोखरा -3
माला बाबा ने
पोखरे से जलकुंभियों को हटाया
मछलियों को बसाया
चिड़ियों के गीत सुनें
और एक दिन अचानक
जाने कहाँ चले गये माला बाबा
अपनी मालाएँ समेट कर
वे कब और कहां गये
यह मेरी भेड़ों को भी नहीं मालूम
कहते-कहते मायूस हो गया गडेरिया
बस हवा में गूंजता रहता है
माला बाबा का नाम
उनके असली नाम
‘श्रीपति चरण घोष’
को छुपाने का जतन करते हुए
माला बाबा का पोखरा -4
माला बाबा के नाम को झुठलातीं
अपने लुभावने फूलों के साथ
आज पूरे तालाब पर काबिज हैं
जलकुंभियां
बची खुची मछलियों के
सिसकने की आवाज दूर तक सुनाई देती है।
15.10.2020
लाकडाउन में कुत्ते
लाकडाउन में कुत्ते
अकबकाए घूम रहे थे
लंका से नरिया
और नरिया से सुंदरपुर
झुंड के झुंड
बेशक वे भूखे थे
और भोजन की तलाश में
डोल रहे थे
इधर-उधर
कहना मुश्किल था कि
उन्हें लाकडाउन के बारे में हुई
राजाज्ञाओं का कोई इल्म था भी
या नहीं
रोज-रोज बदलती
आसमानी उद्घोषणाएँ
उन तक पहुंच भी रही थीं
या नहीं
फिर भी
उन्होंने भौंकना बंद कर दिया था
ओढ़ ली थी
चुप्पी की गहरी चादर
भूख से कहीं ज्यादा
वे इस बात से चिंतित दिखे
कि आखिर
इन आदमियों को हो क्या गया है?
क्या उन्हें सांप सूंघ गया है?
न आना, न जाना
न बोलना, न बतियाना
टुकुर-टुकुर टीवी निहारना
न पढ़ना, न लिखना
सिर झुकाए मोबाइल पर
थोक के भाव जारी संदेशों को
पढ़ते हुए
अज्ञात अंदेशे में डूबे रहना
मुँह पर जाबी लगाए
चोरी छुपे निकलना
आखिर इन आदमियों ने
ऐसा क्या कर दिया है
कि
मुँह दिखाने लायक नहीं रहे
इसी सोच में डूबे हुए
आते जाते
आदमियों पर करुण सी निगाह
डालते जाते हैं
उनकी निगाह में वही करुणा है
जिसे प्रेमचन्द ने पाया था
हलकू के लिए
जबरा की आंखों में
पूस की एक सुबह।
10
ग़ाज़ीपुर
(ग़ाज़ीपुर पर एक असमाप्त कविता)
ग़ाज़ीपुर बनारस से सटा ज़िला है
जैसे कि बनारस गंगा के किनारे बसा है
वैसे ही ग़ाज़ीपुर गंगा के किनारे बसा है
शायद इसीलिए
ग़ाज़ीपुर को लहुरी काशी कहते हैं
अब बनारस वाले माने न माने
लेकिन ग़ाज़ीपुर वाले मानते हैं
और इस तरह बनारस को भी
मान देते हैं
कहते हैं
ग़ाज़ीपुर की आबो-हवा
तन्दुरुस्ती के लिए बेहतर है
ग़ाज़ीपुर की इसी ख़ासियत से
खिंच कर चले आये थे
कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर
और रहे कुछ दिन
अब यह तो ग़ाज़ीपुर के गौरव
अवधेश प्रधान ही जानते होंगे
कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने ग़ाज़ीपुर पर
कोई कविता लिखी
या नहीं
जैसे ग़ालिब ने लिखी थी बनारस पर
पर ग़ाज़ीपुर के लिए यह गौरव की बात है
कि टैगोर यहाँ आये और रहे
अफ़ीम फ़ैक्ट्री में काम करने वाले किसी
बंगाली रिश्तेदार के यहाँ रुके थे
दिन तारीख़ महीना जानना हो तो
आपको
ग़ाज़ीपुर के युवा इतिहासकार
ओबेदुररहमान से मिलना होगा…
अब अफ़ीम फ़ैक्ट्री की बात आई
तो बताता चलूँ
कि ग़ाज़ीपुर के गौरव का
एक ज़रूरी सन्दर्भ है
अफ़ीम फ़ैक्ट्री
मेरी बात पर यक़ीन न हो तो
सी ऑफ पॉपीज के लेखक
अमिताभ घोष से पूछ सकते हैं
अफ़ीम फ़ैक्ट्री होने से
अगर यह नतीजा निकाल रहे हों
कि यहाँ अफ़ीम की खपत बहुत होती होगी
बहुत होंगे अफीमची
तो ग़लत नतीजे पर पहुँचेंगे
ग़ाज़ीपुर में अफ़ीम की खेती होती रही है
वैसे ही जैसे
किसी जमाने में
देश के अलग अलग हिस्सों में
होती थी नील की खेती
ग़ाज़ीपुर में बनती रही है अफ़ीम
पर निर्यात के लिए
मुझे कभी कोई गाजीपुरिया
अफीमची नहीं मिला
कुछ बंदर ज़रूर मिले
अफ़ीम के नशे में चूर
अफ़ीम फ़ैक्ट्री से निकलने वाला नाला
गंगा में मिलता है
और कुछ दूर का पानी
हो जाता है
नशीला
जिसे पी कर बंदर और कौवे
नशे में मस्त रहते हैं
देखिए ग़ाज़ीपुर की ख़ासियत
कि वह अफीमची बंदरों
और कौवों का भी निर्यात कर देता है
आप चाहें तो
ऐसे बंदरों और कौवों को
टीवी चैनलों में कांव कांव
और खॉंव खॉंव करते देख सकते हैं
ग़ाज़ीपुर केवल गर्व में चूर नहीं रहता
उसे सब्र करना भी आता है
लेकिन ग़ाज़ीपुर के सब्र का सबब
मामूली नहीं है
सब्र करने के लिए भी उसे
लाट साहब की
कब्र चाहिए
ग़ाज़ीपुर में कभी
रहते थे
पवहारी बाबा
जिनके आकर्षण में
चले आये थे विवेकानंद
जैसे आज रहते हैं
पी एन सिंह
जिनका
‘दिल एक सादा काग़ज़ है’
और जिनसे मिलने के लिए आते रहते हैं
दूर देसावर के
नामवर केदार……..।
(एक प्रवासी गाजीपुरिया सूर्यनाथ सिंह से हुई बातचीत से प्रेरित)
क्वारंटाइन
समाजवादी ट्रेनें केवल समाजवादियों को ले जायेंगी
मार्क्सवादी ट्रेनें केवल मार्क्सवादियों को ले जाने के लिए बनी हैं
राष्ट्रवादी ट्रेनों में सिर्फ और सिर्फ
राष्ट्रवादी बैठाए जायेंगे
सभी कुंए अपने-अपने मेंढकों को जगह देंगे
जो नहीं होंगे
किसी ख़ास कुएं के सदस्य
वे अपने हाल पर छोड़ दिए जाएंगे
क्वारंटाइन।
2020
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)
सम्पर्क
मोबाईल - 09616393771
लाजवाब कलम। शुभकामनाएं जन्मदिन की।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंसदानन्द शाही एक अव्यक्त सुखानुभूति के कवि हैं। इन कविताओं को पढ कर कह सकता हूं कि वे ऐसे कवि हैं जिनकी आईने की तरह साफ कविताओं में कोई भी बडी सहजता से प्रवेश पा सकता है। लेकिन अपने शब्दार्थ में सरल सी दिखती इन कविताओं के ध्वन्यालोक में प्रवेश पाने के लिए, कविता में रचे गये व्यूह का भेदन करना पडता है। अपने प्रथम पाठ में उनकी कविताएं आप को एक हल्के फुलके मजाकिया आनन्द में ही डूब जाने के लिए प्रलुब्ध करती है। बहुत से पाठक इसी में डूब भी जाते हैं और कविता के अंतःकरण तक पहुंचने से बंचित रह जाते हैं। उदाहरण के लिए, कोई पाठक ‘हाइडेल बर्ग के थे कबीर‘ की स्थूल वर्णनात्मकता के आनन्द में डूब कर ही संतुष्ट हो सकता है। जबकि कविता का वास्तविक मर्म कविता में चुप चाप सी पडी उन दो पिंक्तयों में है जिसमें कवि कहता हे कि- ‘‘हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी की नींव / और कबीर का जन्म आस पास की घटनाएँ हैं ...... ‘‘ ये कोई सामान्य पंक्तियां नहीं हैं। इनमें कबीर द्वारा प्रस्तावित ज्ञान विषयक विमर्श की तरफ इशारा किया गया है। अपने अपने स्वार्थो के अनुरूप कबीर को अपहृत करने लेने की लडाइयों का दृश्यांकन करने के साथ साथ यह कविता अपने समकाल के संदर्भ में कबीर की प्रासंगिकता की पुनर्रचना करती है।
जवाब देंहटाएंसदानन्द की कविताएं अपने समकाल की विडम्बनओं के अतीत के आलोक में और अतीत की स्मृतियें को समकाल के आलोक में देखने की दुहरी प्रक्रिया को साधने का सफल प्रयास करती हे।
बहुत आभार लेकिन आप से प्रशंसा की नहीं सिखावन की उम्मीद रहती है।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंभाई सदानंद शाही से दिल्ली में मुलाकात होती रही है-जब वे पहुंचते रहे भारतीय ज्ञानपीठ के दफ्तर। साखी के संपादक और कवि-लेखक के रूप में हम उन्हें जानते ही रहे हमेशा। दफ्तर से बाहर निकलकर हम चाय पीते एक-एक समोसे या बिसकुट के साथ। उनके इरादे और मजबूत कद-काठी सहसे उनकेउनकी दृढ़ता सामने आती। वे अक्सर अपने कविता संग्रह ज्ञानपीठ से छपवाने की बात करते। शायद इह बाबत मंडलोई जी से बात भी करते होंगे। मैं सिर्फ उन्हें यह सलाह देता कि कविताओं की पांडुलिपि तैयार कर भारतीय ज्ञानपीठ को सौंप देना चाहिए।
जवाब देंहटाएंनिर्णय कमेटी लेती है। बहरहाल, संग्रह वहां से छपा या नहीं मुझे नहीं, मगर आज जब उनकी कविताएं पढ़ी तो मुझे लगा कि प्रो. शाही कविताएं बहुत अच्छी लिखते हैं।
प्रसिद्ध कवि विष्णु खरे के बारे में मैंने आलोचको को यह कहते सुना कि उनकी कविताओं में कोई कोई प्रसंग और कथा जरूर होती है। देवताले जी की कविताओं में भी कथा होती यानी काव्य में कथा कहने का कवि का विशिष्ट गुण है। जो मुझे शाही जी की कविताओं में मिला।
उनकी कविताओं में केवल संवेदनाओं का लबादा नहीं हैं। वे केवल भावाकुल करुणा में डूबी हुई भी नहीं हैं। उनकी कविताओं में देश का मानचित्र है, जिसमें इतिहास है, भूगोल और सामाजिक संरचना का सहस्त्र नाद है।
सदानंद शाही की कविताओं का सूफियाना अंदाज उन्हें बनारसी होने की गारंटी देता है, बेशक वे गाजीपुरिया क्यों न हों।
मैं उन्हें बधाई और शुभकामनायें देता हूं।
बहुत आभार नागर जी। आपके इन सुंदर शब्दों के लिए और उनके पीछे से झांकते भावों के लिए। मुझे भी वह चाय याद रहती है। जल्दी ही फिर किसी मोड़ पर मिलेंगे और चाय पी जायेगी।ज्ञानपीठ में महादेवी वर्मा पर
जवाब देंहटाएंपांडुलिपि जमा है। कविता संग्रह के लिए किसी से नहीं कहा। हालांकि अभी भी एक संग्रह भर की कविताएं हो गई हैं।
आपका बहुत आभार भाई साहब।
जवाब देंहटाएंसाखी को जरूर मैं नियमित चाहता हूं कि वह मेरे अध्ययन में रहे।
अत्यंत विनम्र किंतु दृढ़ व्यक्तित्व के बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न चिंतक कवि सदानंद शाही जी की कविताएं पाठक को कविता के भीतर खींच ले जाती हैं। इनकी कविताओं के लिए सजग होना अपनेआप में एक अनिवार्यता है ।इनकी कविताओं में आत्म संवाद का गुण आकर्षित तो करता ही है अचंभित भी करता है । गहराई इतनी कि संवेदनाएं अनुभव जनित जान पड़ती हैं । कविताओं में तीखे व्यंग्य भी हैं जो विषयगत समस्याओं को बाखूबी पटल पर उधेड़ कर रख देते हैं ।
जवाब देंहटाएंराजन मिश्र का चले जाना सिर्फ चले जाना ही नहीं है बल्कि पीछे एक दर्दीला दरिया छोड़ जाना है जिसकी हर तरंगे उनकी अनुपस्थिति को शिद्दत से महसूसती हैं । कविता की अंतिम पंक्ति में जाने वाले के बाद पीछे छूटे हुए लोगों की अकाट्य ,असहनीय , मर्मांतक पीड़ा को शब्दों के माध्यम से दुख की गठरी मे ही समेट देना उनका कवित्त कौशल है जो सिद्ध करता है कि किसी के दुःख को अपना दुःख जान कर ही संवेदना की इस कसौटी पर खरा उतरा जा सकता है ।
इन सभी सारगर्भित रचनाओं में निहित गूंज को पाठकों की अन्तस्चेतना तक पहुंचाने के लिए सदानंद भाई का हार्दिक आभार ।
आपकी इस सार्थक और कविता के मर्म में प्रवेश करती प्रतिक्रिया के सामने नत मस्तक हूं।
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