भरत प्रसाद की कविताएँ



 
भरत प्रसाद



रचनाकार की नज़र प्रायः उन चीजों पर होती है जो अक्सर परिदृश्य से बाहर रहते हैं. इसीलिए उसकी सोच अलहदा होती है. उसके यहाँ मनुष्यता का एक सम्मान होता है. ‘स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व’ भले ही 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रान्ति का नारा हो, इसका आग्रह साहित्य में काफी पहले से दिखायी पड़ता है. भरत प्रसाद चर्चित युवा कवि हैं और उनकी कविताओं में सामान्यता के प्रति एक विशिष्ट आग्रह दिखायी पड़ता है. उनकी एक कविता है नम्बर-1. इसकी पंक्तियाँ हैं – ‘नंबरों में सबसे कम जगह घेरता है/ लाखों, करोड़ों, अरबों का वजूद/ टिका होता है किसी नंबर-1 पर ही/ नंबर-1 है तो शून्य का भी भाव है/ कीमत है. सबसे कम दिखने वाला, सबसे कम जगह घेरने वाला ही वह रीढ़ है जिस पर आज प्रगति का यह परिदृश्य रचा गया है. ‘अलग बात है कि वह हमेशा उपेक्षित ही रहता चला आया है. आज पहली बार पर प्रस्तुत है ‘जड़ों की महानता का गीत’ रचने वाले कवि भरत प्रसाद की कुछ नयी कविताएँ.




भरत प्रसाद की कविताएँ  

    

आठ  बसंत का बचपन
(कठुवा काण्ड की आसिफा की याद में )


 
जिसकी  अठखेलियाँ अनगढ़ संगीत थीं
धरती के आँगन में
जिसके क़दमों के निशां
पैगाम थे जीवित सृष्टि के
जिसकी कूक पक्का आश्वासन थी
खुशहाली का
जिसका बचपन दबी हुई दूब हो कर भी
मिसाल था
चट्टाने तोड़ कर जिन्दा रहने का


जैसे उगने के पहले
कुचल दिया जाय अंकुर
जैसे  लिखे जाने के पहले
फाड़ डाला जाय पन्ना चिन्दी-चिन्दी
जैसे खुलने के पहले ही
फोड़ दी जायं नन्हीं आँखें
वैसे ही शिकार हुई एक पंखुड़ी
दो पैर वाले जानवरों का


नोंचा फिर खाया, खाया फिर नोंचा
खाया, खाया और, और खाया
नोंचा, नोंचा और, और नोंचा
एक नहीं, दो नहीं
दस –दस दिन लगातार
दस-दस के पंजों ने बार-बार, बार-बार
आठ बसंत का एक बचपन
विदा हो चुका है धरती से
जैसे अलविदा कहती हैं उम्मीदें
हर मोर्चे पर मात खाने के बाद
टप-टप झर जाते हों आंसू
अपने ही दरिया से
अपमान की बाढ़ के बाद
जैसे मिट गयी हो एक सीढ़ी


मनुष्य की ऊँचाई की
ख़त्म हो गयी हो पहचान
आदमी होने की,
जैसे नाच रही हो नियति-सिर पर
हमारे अमानव होने की बेतरह


कटी हुई डाल


अपने होने की हकीकत
और कुछ भी न होने की कसक के बीच
कटी हुई डाल की तरह
काट लेती हैं सारी उम्र
किसी चोट की तरह टभकते हुए


शरीर पर रोयें ज्यादा हैं
या रात-दिन चुभती पराजय के कांटे


कौन जानता है?
किस क्षण वे स्त्री हैं, किस क्षण पुरुष
किस क्षण कुछ भी नहीं
कौन बता सकता है?
होगा कोई एकाध अपनेनुमा  अपना
पर अपने सिवाय अपना कोई भी नहीं
बर्फ के मानिंद
आँखों में जमे हुए दरिया में
असंतोष की बिजली सोती है
वे जब खड़ी हो जाती हैं
तो देखते ही बनती है
हार न मानने की अदा
रोती हैं तो पृथ्वी मानो थम जाती है
आधी-अधूरी ममता की आत्मग्लानि में
इतिहास के अहम् सवालों में से एक है
उसके वजूद का इनकार


मानिए या न मानिए
पर उसके बगैर हासिल कहाँ होने वाला
मानवता की यात्रा का शिखर?




 आत्महत्या की सदी


मृत्यु का एहसास
मेरे हर दिन की हकीकत है
इसमें मैं हर पल जीता हूँ
यह मुझे हर पल खाती है
नसों में लावा की तरह बहती
कोई आग है यह
जिसे हर सांस पीता हूँ
मुझसे कहिए न मौन
मैं काठ बन जाऊँगा
मुझसे कहिए न त्याग
मैं मिट्टी हो जाऊंगा
मगर मुझसे मत कहिएगा हंसो
मैं रो भी नहीं पाऊंगा
पेट फ़ैल गया है शरीर में
माया की तरह
भूख जैसी पीड़ा पूरे बदन से उठती है
हड्डी दर हड्डी में
मस्तक में इंच-इंच
नाचती है भूख
आत्मा में गूंजता है मौत का अनहदपन
हृदय से धिक्कार उठती है अपने ही जीने पर
पानी अब पानी नहीं पेट का अन्न है
पत्थर मन भूला है
श्मशानी अतीत
भूला है हृदय  दीयों का बुझ जाना
देखा है  देखा है
गांवों की अकाल मृत्यु
जीते जी टूटना, टूट कर बिखर जाना



नंबर -01


सबसे सीधा है नंबर -1
कोई बनाव नहीं, कोई घुमाव नहीं
कोई भी ऐंठन, कोई भी कलाकारी नहीं
सध जाता है किसी के भी हाथों
जमीन हो या जीवन
हर जगह सीधा खड़ा रहता है
बिना झुके, बिना लड़खड़ाए
अड़ा रहता है अकेले ही
गोलमोल रहना नहीं है उसकी आदत
नंबर-1 को कितना भी काटो
कितना भी तोड़ो
रहता है वह नंबर -1 ही
तना रहता है इस कदर
मानो पूरा शरीर ही रीढ़ हो
शून्य की हिफाजत में पर्वत की तरह खड़ा
नंबर-2 से सदैव बचाता हुआ
नंबर-10 होगा नंबर -1 से आगे
मगर इसके बिना जीरो
तनिक भी जगह पा कर
संभल जाता है नंबर -1
अगुवाई के लिए
एक पाँव पर भी तैयार
दुनियाँ में किसी भी नंबर से
बेखास है नंबर-1
नंबरों में सबसे कम जगह घेरता है
लाखों, करोड़ों, अरबों का वजूद
टिका होता है किसी नंबर-1 पर ही
नंबर-1 है तो शून्य का भी भाव है
कीमत है


गूंगी आँखों का विलाप


आओ ए आओ!
तनिक उठाओ मेरी आत्मा को
सुलगा दो मेरी चेतना
झकझोर दो मेरी जड़ता
चूर चूर कर डालो मेरा पत्थर पन
तुम्हें  पहचानने में कहीं देर न हो जाय
नहीं चलने दूंगा
तुम्हारे खिलाफ अपने मन की बेईमानी
नहीं बढ़ने दूंगा
तुम्हारे  खिलाफ अपने उठे हुए कदम
नहीं सोने दूंगा
तुमसे बेफिक्र रह कर जीती हुई शरीर
मजाल क्या कि
तुम्हारे सपनों का सपना देखे बगैर
मेरी आँखें चैन से सो जाएँ
गहरी लकीरों से पटे
तुम्हारे निष्प्राण चेहरे का
असली गुनहगार कौन है?
जीवन के हर मोर्चे पर
तुम्हारी शरीर  को ढाल बनाने वाला
मेरे सिवा कौन है?
यह मैं ही हूँ
जो तुम्हें तुम्हारे ही देश से
बेदखल करता रहा हूँ निरंतर
भीतर बाहर से
टूट- टाट चुकी तुम्हारी शरीर को
सहलाने का जी क्यों करता है?
क्या है तुम्हारी आँखों में कि
सदियाँ विलाप करती हैं
तुम्हारा मौन चेहरा
हमें धिक्कारता ही क्यों रहता है ?
तुम्हारे मुड़े तुड़े ढाँचे को देख कर
मैं अपनी ही नजरों में क्यों गिरने लगता हूँ?
रोम-रोम पर दर्ज है
तुम्हारे खून पसीने का कर्ज
मिट ही नहीं सकते पृथ्वी से
तुम्हारे पैरों के निशान
गूंजता है सीने में
तुम्हारे सीधेपन का इतिहास
मचलता है मेरी आँखों में
तुम्हारी गूंगी आँखों का विलाप





जड़ों की महानता का गीत

जैसे शब्द  शब्द में छिपा है
हृदय में बरसते अर्थों का जादू
जैसे वाणी में छिपी है
असीम वेदना की ऊँचाई
जैसे शरीर, हर माँ की कीमत सिद्ध करती है
वैसे ही हर माँ से उठती है
पृथ्वी जैसी गंध
वृक्षों से झरती है , जड़ों की महानता
गूंजती है कल्पना में
सृष्टि की महामाया
धूल – मिट्टी में
अपने प्राणों की पदचाप सुनाई देती है
दाने –दाने में जमा है
अनादि काल से बहता हुआ
आदमी का खून
उतरना फसलों की जड़ों में
तुम्हें विस्मित कर देगी
खून –पसीने की बहती हुई
कोई आदिम नदी ,
पूछो तो किस पर नहीं लदा है
रात –दिन का कर्ज?
सोचो जरा कौन जीवित है
सूरज के नाचे बिना?


पहला जागरण

अनगिनत इंसानों का ऋण नजर आता है
अपनी शरीर पर उगा एक-एक रोवां
हैरान हूँ, हतप्रभ हूँ, अवाक् कि
अपने पास अपना कुछ भी नहीं
कितना झूठा, भ्रम है
अपने जीवन को अपना जीवन कहना
कैसे कह दूँ?
कि मेरी शरीर, मेरी शरीर है
माँ की हंसी की तरह
भीतर खिलने लगा है-मिट्टी का चेहरा
कौन कहता है?
केवल औरत ही माँ होती है
कहीं मिट्टी के महामौन में
बैठ तो नहीं गयी है
हमारे पतन की गहन उदासी?
मेरे लिए तो कुछ भी साधारण नहीं इस दुनियाँ में
न आग, न पानी, न अन्न, न ही बीज
न छाया, न धूप
न रोना, न सोना
यहाँ तक कि जूता-चप्पल भी नहीं
कहता हूँ सुबह
तो घूम जाता है -शताब्दियों से नाचती
एक स्त्री का चेहरा,
कहता हूँ-मैं
तो मन की न जाने कितनी गहराई से
उठने लगती है सम्पूर्ण सृष्टि की गूँज
पुकारता हूँ आकाश
तो प्रेम जैसा कुछ झरने लगता है हृदय में
मुझे तो भ्रम होता है
कि मैं अपने पैरों पर खड़ा हूँ
अपने बल पर चलता हूँ
अपने बूते उठता हूँ
अपने दम पर जीता हूँ
मुझे बार-बार भ्रम होता है



सम्पर्क

मोबाईल : 09863076138


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)


टिप्पणियाँ

  1. भरत प्रसाद की कविताओं में जीवन का विस्तृत संसार मिलता है। उनकी कविताओं में मनुष्य और मनुष्यता को बचाये रखने के लिए जरुरी उपादानों को सहेजने और संरक्षित रखने की बैचैनी भी दीख पड़ती है। इसलिये उनकी कविताओं की परिधि में केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि वनस्पतियां और जीव जंतु भी होते हैं।

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