वन्दना शुक्ल का यह आलेख ‘दुःस्वप्न की पीड़ा से जन्मा एक भावुक लेखक – काजुओ इशिगुरो।’
नोबेल
पुरस्कार दुनिया के सबसे ख्यातिलब्ध पुरस्कार हैं। हर वर्ष लोग बड़ी उत्सुकता से नोबेल
पुरस्कारों की घोषणा का स्वागत करते हैं। साहित्य और शान्ति के नोबेल पुरस्कार लोगों
का अधिक ध्यान आकृष्ट करते हैं। इसीलिये जब इन क्षेत्रों में नोबेल की घोषणा होती
है तो वाद-विवाद का क्रम शुरू हो जाता है। बावजूद इस वाद-विवाद के दुनिया इसे
स्वीकार करती है। यही इन पुरस्कारों की खूबसूरती भी है। इस वर्ष साहित्य के नोबेल
पुरस्कार के लिए भी तमाम नामों पर कयास लगाए जा रहे थे। जापानी उपन्यासकार मुराकामी, केन्या के महान लेखक न्गुगी
वा थियोंगो, चिली में जन्मे स्पेनिश भाषी रचनाकार रोबेर्तो बोलान्यो, इज़राइल के
लेखक अमोस ओज़, सीरियाई कवि अदूनिस, अमेरिकी लेखक फिलिप रॉथ, मार्गरेट एटवुड, कोरियाई कवि को उन और स्पैनिश लेखक खावियर
मारियास, इतालवी उपन्यासकार क्लादियो मागरीस समेत तमाम
नाम इस वर्ष के सम्मान की दौड़ में थे। काजुओ
इशिगुरो का नाम इस सूची में दूर-दूर तक नहीं था। लेकिन बाजी अंततः जापानी मूल के
ब्रिटिश लेखक इशीगुरो के हाथ ही लगी। नोबेल कमेटी ने पुरस्कार का एलान करते
हुए अपने बयान में कहा है कि काजुओ इशिगुरो ने "अपने बेहद भावुक उपन्यासों से दुनिया के साथ संपर्क
के हमारी मायावी समझ की गहराई पर से पर्दा उठाया," उन्हें इस साल का नोबेल पुरस्कार दिया जायेगा। युवा रचनाकार वन्दना शुक्ल ने इसीगुरो
के लेखन पर एक आलेख पहली बार के लिए लिखा है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं वन्दना शुक्ल का यह आलेख ‘दुःस्वप्न की पीड़ा से
जन्मा एक भावुक लेखक – काजुओ इशिगुरो।’
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दुःस्वप्न की पीड़ा से
जन्मा एक भावुक लेखक – काजुओ इशिगुरो
वंदना शुक्ल
पसंद/ नापसंद निहायत एक निजी मामला है और उनके मापदंड यानि वजहें भी
जुदा। रुचि की ये निजता सिर्फ व्यक्तिगत नहीं सामूहिक भी होती हैं ….अर्थात सामूहिक निजता। एक ही चीज़ एक समय पर एक व्यक्ति या समूह को अद्भुत लग सकती है ठीक
वही चीज़, उसी समय और अवसर पर
किसी अन्य व्यक्ति या समूह को बेकार प्रतीत हो सकती है। अपने मापदण्डों पर अपनी
अपनी तरह से लोग उसे नापते-तौलते और जस्टीफाई करते हैं।
इस बार का साहित्य का नोबल पुरस्कार जापानी मूल के ब्रिटिश लेखक
काजूओ ईशिगुरो को मिला। स्वीडिश एकेडमी ने गुरुवार को विजेता के नाम की
घोषणा की।
उन्हें 90 लाख
क्रोनर अर्थात 11 लाख डॉलर (करीब 7.15
करोड़ रुपये)
नकद के अलावा प्रतीक चिह्न प्रदान करने का ऐलान किया गया।
ये एक आश्चर्यजनक सत्य है कि जिन विश्वविख्यात हस्तियों के नाम की
अटकलें हमेंशा की तरह इस वर्ष भी लगाई जा रही थीं उनमें काजुओ कहीं नहीं थे। ऐसा
ही पिछले वर्ष 2016 के नोबल विजेता गायक और गीतकार बॉब डिलेन के साथ हुआ था। साहित्य
लेखकों की बिरादरी ने उन्हें साहित्यकार ही नहीं माना था। क्यूँ कि
उन्हें मूलतः संगीतज्ञ माना गया, गीतकार नहीं। पुरस्कार की घोषणा के बाद बॉब डिलेन को भी काफी आलोचनाओं का
सामना करना पड़ा था। कमोबेश यही स्थिति इस वर्ष के साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता
ईशिगूरो के साथ भी है। यहाँ तक कि उनकी किताबों के प्रकाशक “फेबर एंड फेबर” ने इस घोषणा पर
आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा “हम ईशिगूरो के नोबल पुरस्कार जीतने पर वाकई बेहद खुश
हैं।’’
दरअसल पिछले दो तीन वर्षों में साहित्य का नोबेल पुरस्कार भावनाओं को प्राथमिकता देने और पारंपरिक साहित्य को वापिस लाने वाले लेखकों को मिला है। उल्लेखनीय है कि 2006 का साहित्य का नोबल प्राइज़ जीतने वाले प्रयोगधर्मी लेखक ओरहन पामुक साहित्य को एक स्वतंत्र कर्म मानते हैं। किसी प्रकार की प्रतिबद्धता या परिपाटी उन्हें मंजूर नहीं। ‘’द हिन्दू’’ को दिये गए एक साक्षात्कार में उन्होने कहा था "अगर मैं जीवन की आम परेशानियों में यहीं फंसा रहा तो जरूर मानसिक संतुलन खो दूंगा, इसलिए मैं रोज़ सुबह उठ कर शावर के नीचे नहाता था और लिखने बैठ जाता था, इस उद्देश्य के साथ कि मुझे एक अच्छी और सुन्दर किताब लिखनी है!" ....’’अच्छी और सुंदर’’ .... भविष्य की कल्पना की ज़मीन हमेंशा सुवासित (आशा से भरी) और चिकनी (खुशनुमा) होती है लेकिन अतीत, व्यतीत होते ही स्मृति बन जाता है। स्मृति सच नहीं, सच का एहसास मात्र है।
पारंपरिक लेखन यानि भावनाओं को सर्वोपरि मानने
वाले लेखकों की नोबल पुरस्कार में वापसी स्वेतलाना आलेक्सीविच से मानी जा सकती है।
उल्लेखनीय है कि 2015 का पुरस्कार बेलारूस की पत्रकार स्वेतलाना अलेक्सिएविच को इन्हीं
विशेषताओं के लिए दिया गया था। पुरस्कार देने वाली स्वीडिश एकेडमी की स्थायी सचिव सारा डैनियस और
नोबल पुरस्कार देने वाली समिति ने 2017 में दिये गए ईशिगूरों की इसी विशेषता का
उल्लेख करते हुए निर्णय को स्पष्ट किया । “द रिमेंस ऑफ द डे” किताब (जिसके लिए
ईशिगूरो को इस पुरस्कार से नवाजा गया) बीसवीं सदी के ब्रिटेन में दबी हुई भावनाओं
को बहुत बारीकी से विश्लेषित करती है।
इशिगुरो ने “’रीमेंस
ऑफ द डे”, “ए पेल व्यू ऑफ द हिल्स”, “नेवर लेट मी गो”, “द बरीड जाएंट”,
“एन आर्टिस्ट ऑफ दि फ्लोटिंग” सहित उन्होने कुल आठ किताबें लिखीं। “ए पेल व्यू ऑफ द हिल्स” व “एन
आर्टिस्ट ऑफ दि फ्लोटिंग”, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नागासाकी की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं तो
“नेवर लेट मी गो” बोर्डिंग स्कूल में तीन युवा दोस्तों की कहानी। “द रिमेंस ऑफ द डे”
(जिसके लिए उन्हें ये पुरस्कार दिया गया ) एक रसोइये की कहानी है जो एक रईस और
आभिजात्य परिवार की सेवा करता है और अपने अतीत को मुड़ कर देखता है।
The Buried Giant विस्मरण
और भरम में जीती कहानी है। बुद्धिजीवी इसिगुरो पर आरोप लगाते
हैं कि उनकी कहानियाँ कभी कभी अकल्पनीय, उबाऊ, विभ्रम पैदा करने वाली अजीबोगरीब शैली में लिखी कहानियाँ हैं।
उनकी कहानियों के लिए यदि कोई एक शब्द कहा जाये तो वो है “आत्मविमोह’’ की कहानियाँ। उनकी कहानियों में समय एक खास किरदार बनकर उभरता है, अमूमन कहानी का केंद्रीय चरित्र। लेकिन शैलीगत जटिलता और कहानी की अतिभावुकता
कभी-कभी पाठक को एक मायावी लोक में ले जाती है। कुछ पाठकों को उनकी अतिसंवेदना और
वास्तविकता का चित्रण लाजवाब लगता है तो किसी को ये फ़ेंटेसी गले नहीं उतरती। आलोचकों
ने उन्हें कई मोर्चों पर खारिज किया।
लिहाजा समिति के इस नतीजे को किसी ने निराशाजनक कहा। ला
टाइम्स ने तो पुरस्कार पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया, जबकि टेलीग्राफ ने इसे पाँच में से सिर्फ दो स्टार्स देने योग्य समझा। ले
गुइन ने इसे ‘अकल्पनीय’ बताया। उनकी
अजीबोगरीब शैली के कारण कुछ ने उन्हें उबाऊ कहा तो कुछ ने जादुई। किसी ने उनकी
कहानियाँ पढ़ने के बाद कहा “ये वो लेखक है जिसे या तो पाठक बहुत प्यार करेंगे या
बहुत नफरत।
बावजूद आरोपों के इशिगूरो की कहानियाँ/ उपन्यास मानवीय मनो-विज्ञान
और संवेदनाओं की गहरी पड़ताल करने के साथ ही कुछ और भी विशेषताएँ रखती हैं जो
उन्हें विशिष्ट का दर्जा दिलाती हैं।
ईशिगुरो की तमाम कहानी/
उपन्यासों में स्मरण, समय और
आत्म-भ्रम की झलक मिलती है। यदि उनके मनोविज्ञान की गहराई को समझना है तो उनका
उपन्यास “द बरीद जाएंट” बेहतरीन उदाहरण है जिसमें उन्होने दिखाया है कि स्मृति-विस्मृति, वर्तमान–अतीत
और वास्तविकता - भ्रम ये विरोधाभास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और मनुष्य जीवन को
सर्वाधिक प्रभावित करने वाले सत्य भी। खासतौर पर विस्मरण जीवन का सर्वाधिक ज़रूरी
भाव है तो यही मनुष्य जीवन के लिए एक श्राप भी है।
सुखद स्मृतियाँ मनुष्य को
जीने की प्रेरणा देती हैं वहीं विस्मरण यानि स्मृतियों का विखंडन, टूट फूट और
जमीदोज़ होना इंसान के जीवन को दूभर होने से बचाता है। याद कीजिये बोर्हेस की कहानी “फ्युंस दी मेंमोरियल” कहानी का
नायक 19 साल का लड़का जो स्मृति के अतिरेक का शिकार है। वो
सिर्फ एक इतिहास है। उसके जीवन में भविष्य का कोई भाव नहीं।
खैर, सितंबर अक्तूबर आते ही दुनियाँ के सबसे सम्मानजनक ओबेल पुरस्कार की
सुगबुगाहट दुनियाँ भर में शुरू हो जाती है। अटकलों के दौर तब तक चलते रहते हैं जब
तक पुरस्कार की घोषणा नहीं हो जाती। आलोचना होना तयशुदा है, चाहे जिसको भी मिले। छोटा
हो या बड़ा, दुनियाँ का कोई भी पुरस्कार आलोचना से बच नहीं
सकता।
दरअसल जो
बात शुरू में कहीं गई वही अब दुबारा दुहरानी पड़ेगी, पसंद और नापसंदगी की। व्यक्ति की पसंद या नापसंदगी उसकी रुचियों और मानसिक
स्तर पर भी निर्भर करती है। यदि ऐसा न होता तो तो संभवतः न साहित्य में इतनी
विधाएँ होतीं और न कलाओं में वैविध्य।
लेकिन रुचि
की इन विविधताओं, सहमति–असहमतियों में भी एक बात जो
सामान्य है वो है कुछ नया, जो विचित्र हो, मनुष्य जीवन के सामान्य विषयों से जुदा और रोचक हो। यदि कुछ विश्व
प्रसिद्ध कहानियों पर एक बार लौटें तो पाएंगे कि ये वो कहानियाँ थीं जो मनुष्य के
मन को एक रोचक चकित से भर देती थीं, इन्हें विश्वस्तरीय
बनाने में एक अहम कारण यह भी था। जैसे कारपेंतिएर' की कहानी 'Journey to the Seed', लारेंस स्टर्ने की 'Tristram Shandy', गुंटर ग्रास की कहानी 'The Tin Drum', एच. जी.
वेल्स की 'The Time Maschine' एंबोर्स बिएर्स की कहानी 'An
Occurence at Owl Creek Bridge' काफ्का की एक कहानी ‘’द बरो’’(मांद)।’’ द हंटर
ग्राचूस का नायक मर चुका है लेकिन वो जीवित लोगों की दुनियां नहीं छोड़
पाता। ये सभी कहानियाँ एक दुःस्वप्न की पीड़ा से जन्मी हैं। ये तमाम फेंटेसी जीवन की
सच्चाई, करुणा और रहस्य रोमांच से भरी हैं। इनमें जीवन
का सत्य बहुत गहरे कहीं धंसा है संभवतः उस गहराई तक न पहुँच पाना कई भ्रमों, और असहमतियों को भी जन्म देता है जो स्वाभाविक है। कुल मिला कर, अपने ही भयों
और विरोधाभासों से मुठभेड़ करते जूझते एक जज्बाती लेखक का नाम है – काजूओ ईशिगुरो।
काफ्का के ही समकालीन स्वीडिश लेखक स्टिग डागरमन कहते हैं “हमें
अपने डर के प्रति वफादार बने रहना चाहिए”। संभवतः
दुनियाँ का ये सर्वाधिक सम्मानजनक पुरस्कार लेखक की इसी “डर के प्रति वफादारी” का
इनाम है।
इस
प्रकरण में प्रिय कवि विनोद कुमार शुक्ल की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं।
ईश्वर अब अधिक है
सर्वत्र अधिक है
निराकार साकार अधिक
हरेक आदमी के पास बहुत अधिक है
इस अधिकता में
मैं अपने खाली झोले को
और खाली करने के लिए
भय से झटकारता हूँ
जैसे कुछ निराकार झर जाता है
सम्पर्क-
एक बहुत सधा हुआ सार्थक आलेख ....वंदना बाजपेयी
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