संजय जैन की कहानी 'गायब तालाब'
संजय जैन |
नाम - संजय जैन
जन्म - 2
मार्च, 1965
शिक्षा - एम. एस-सी.
(गणित), बी.जे.एम.सी.
लेखन
कार्य - सामाजिक सरोकारों को लेकर 100 से अधिक
व्यंग्य लेख देश
के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कहानी लेखन। कहानियों के क्षेत्र में राष्ट्रीय
स्तर पर कथादेश, जनसत्ता जैसी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में दो
दर्जन से अधिक कहानियाँ प्रकाशित।
- प्रमुख
साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
-समसामयिक विषयों पर लगातार लेखों का प्रकाशन।
-म.प्र. शासन की मुखपत्र पत्रिका मध्य प्रदेश
संपादन में सम्पादन कार्य।
साहित्य का मुख्य कार्य अपने समय की विडम्बनाओं को उजागर करना होता है। यह साहित्य कोई भी समाधान निकालने का न तो दावा करता है न ही इस तरह की कोई प्रत्यक्ष कोशिश। हाँ, इशारों-इशारों में समस्या की तरफ लोगों का ध्यान आकृष्ट जरुर करता है। हास्य के माध्यम से यह काम पैनेपन के साथ किया गया है। कथाकार संजय जैन की कहानी 'गायब तालाब' में यह सधा हुआ व्यंग्य अपने पैनेपन के साथ दिखायी पड़ता है। तो आइए आज 'पहली बार' पर पढ़ते हैं संजय जैन की कहानी 'गायब तालाब'।
संजय जैन
कहानी एक
गाँव की है। वैसा ही गाँव जैसा आमतौर पर होता है। गाँव की इस कहानी में पाठकों को सुविधा
है कि वे इसे किसी भी देश और काल से जोड़ सकते है। सदियाँ बीत गयी इस कहानी को सुनते-सुनाते।
किस्सागो बदलते रहे कहानी भी समय के साथ बदलती रही। इसके बाद भी कहानी को सुनने-सुनाने
का तौर-तरीका नहीं बदला।
कहानी शुरू
होती है। एक गाँव है, गाँव का
नाम कुछ भी रख लीजिए। उस गाँव में रहने वाले अलग-अलग टोलों में रहते। अलग-अलग जात, अलग-अलग
टोला। पर गाँव में बड़ा एका। लोग एक दूसरे का सुख-दुख बांटते। बड़े-बुढ़े सम्मान पाते।
युवा आसमानों में उड़ते, पर बूढों
को देख थम जाते। बच्चों के लिये तो हर टोला और टोले के घर खेल के लिये खुले। साझा त्यौहार
मनाने की परम्परा थी गाँव में। होली-दीपावली में हर टोला बढ़-चढ़ कर शामिल होता। रंग
उड़ाते, दिये जलाते।
हिन्दू हो या मुसलमान कोई अंतर नहीं रहता। इसी तरह ईद या जब भी मोहर्रम के ताजिये निकले सब
शामिल हो जाते। मन्नत मांगते, रेवड़िया चढ़ाते। ऐसा था यह गाँव।
कुछ ऐसा
ही था गाँव का तालाब। सबकी जरूरतों को जो पूरा करता बिना किसी भेदभाव के। तालाब था
गाँव के बाहर। पर लगता नहीं था कि वह गाँव का हिस्सा नहीं है, सुबह हो
या शाम वहां चहल-पहल लगी रहती। कभी बच्चे तो कभी बड़े और कभी लुगाईयां उसके पास नजर
आती। तालाब भी सबका स्वागत अपनी बाँहे फैला कर करता। साल का कोई सा भी समय हो वह हमेशा
पानी से भरा रहता। जैसे उसने तय कर लिया था कि कभी भी पानी खुंटने नहीं देगा।
तालाब कैसे
बना, इसकी भी
एक कहानी है। जो गाँव के बड़े-बूढ़े सुनाते रहते। जब तालाब नहीं था, तब गाँव
की जरूरतें गाँव से थोड़ी दूर बहती नदी से पूरी होती थी। एक साल भीषण सूखा पड़ा, बारिश हुई
ही नहीं। अकाल पड़ा, नदी सूख
गयी। फसलें गर्मी से झुलस गयी। लोग परेशान। घर में अन्न नहीं और करने को काम नहीं।
बात राजा तक पहुंची। राजा को अपनी प्रजा की चिंता रहती थी। राजा ने गाँव के पास लोगों
के लिये काम खोला। लोग काम करते और शाम को मजदूरी में अनाज ले जाते। यह काम कई महीनों
तक चला। जब तक कि फिर से बारिश का मौसम नहीं आ गया। इसी काम के चलते यह तालाब बना।
इसके बनाने में गाँव के हर घर के पुरखों का पसीना बहा था। शायद इस वजह से गाँव के हर
बाशिन्दें का तालाब से गहरा लगाव था।
रोज की तरह सोये जब सुबह उठे तो तालाब नहीं था। था तो वहाँ बस एक सपाट मैदान। मैदान को देख कर कुछ देर तो तक तो लोगों को समझ ही नहीं पड़ा। ऐसी विचित्र घटना तो गाँव के इतिहास में कभी हुई नहीं थी। जैसे कि परम्परा थी गंभीर मामलों में पंचायत का दखल हमेशा रहता था। गाँव में पंचायत बैठी, सारे मामले में बड़ी गंभीरता से विचार हुआ। इस दौरान अलग-अलग बातें सामने आ रही थी। काफी बहस के बाद फैसला यह हुआ कि तालाब गायब होना गंभीर मामला है इसलिए इसकी शिकायत हाकिमों से करना चाहिये। अच्छा यह होगा कि सूबे के हाकिम से कुछ गाँव वाले जा कर मिलें और पुरा मामला बताएँ। सबने पंचायत के फैसलें पर सहमति दी।
दूसरे दिन गाँव में समझदार समझे जाने वाले बीस-पच्चीस लोगों का जत्था तैयार हो गया। जत्थे में जाने वालों की लुगाइयों ने एक वक्त का खाना बांध कर रख दिया। जत्थे को गाँव की सीमा तक विदा करने गाँव वाले आये। उम्मीदों से भरा जत्था दोपहर तक सूबे के मुख्य शहर में पहुंच गया। रास्ते में बिना रूके हाकिम के दफ्तर पहुंचे तो सूरज सिर पर आ गया था। दो लोग हाकिम के दफ्तर गये बाकि सबने एक बड़े बरगद की छाया में डेरा डाल दिया। थोड़ी देर बाद ये दो लोग वापिस आ गये। ये दोनों खबर लाये थे कि, बड़े हाकिम तो दफ्तर में है नहीं, छुट्टी पर है। यह सुन कर लोग थोड़े से निराश हो गये। पर पूरी बात सुनी तो पता हुआ छोटे हाकिम है दफ्तर में और उनसे मिला जा सकता है।
रोज की तरह सोये जब सुबह उठे तो तालाब नहीं था। था तो वहाँ बस एक सपाट मैदान। मैदान को देख कर कुछ देर तो तक तो लोगों को समझ ही नहीं पड़ा। ऐसी विचित्र घटना तो गाँव के इतिहास में कभी हुई नहीं थी। जैसे कि परम्परा थी गंभीर मामलों में पंचायत का दखल हमेशा रहता था। गाँव में पंचायत बैठी, सारे मामले में बड़ी गंभीरता से विचार हुआ। इस दौरान अलग-अलग बातें सामने आ रही थी। काफी बहस के बाद फैसला यह हुआ कि तालाब गायब होना गंभीर मामला है इसलिए इसकी शिकायत हाकिमों से करना चाहिये। अच्छा यह होगा कि सूबे के हाकिम से कुछ गाँव वाले जा कर मिलें और पुरा मामला बताएँ। सबने पंचायत के फैसलें पर सहमति दी।
दूसरे दिन गाँव में समझदार समझे जाने वाले बीस-पच्चीस लोगों का जत्था तैयार हो गया। जत्थे में जाने वालों की लुगाइयों ने एक वक्त का खाना बांध कर रख दिया। जत्थे को गाँव की सीमा तक विदा करने गाँव वाले आये। उम्मीदों से भरा जत्था दोपहर तक सूबे के मुख्य शहर में पहुंच गया। रास्ते में बिना रूके हाकिम के दफ्तर पहुंचे तो सूरज सिर पर आ गया था। दो लोग हाकिम के दफ्तर गये बाकि सबने एक बड़े बरगद की छाया में डेरा डाल दिया। थोड़ी देर बाद ये दो लोग वापिस आ गये। ये दोनों खबर लाये थे कि, बड़े हाकिम तो दफ्तर में है नहीं, छुट्टी पर है। यह सुन कर लोग थोड़े से निराश हो गये। पर पूरी बात सुनी तो पता हुआ छोटे हाकिम है दफ्तर में और उनसे मिला जा सकता है।
इतना सुनते
ही पूरा जत्था जा पहुंचा छोटे हाकिम के दफ्तर में। छोटे हाकिम इस वक्त अपनी प्रिय आराम
की मुद्रा में थे। एक साथ इतने गाँव वालो को देख कर चौंके, फिर पूछा
कि क्या माजरा है? तो लोग शुरू
हो गये। साहब, हमारे गाँव
का तालाब गायब हो गया है। पुरी कहानी सुनने के बाद छोटे हाकिम ने उन्हें समझाया।....
अरे, भोले लोगों, राजकाज ऐसे
नहीं चलता। जो भी समस्या है,
एक दरख्वास्त बना कर लाओ। लिहाजा, दल हाकिम
के दफ्तर से फिर बाहर निकल गया। हाकिम के दफ्तर के बाहर एक नकलनवीस बैठा था। उसकी भेंट
पूजा कर उसे पूरा मामला समझाया। नकलनवीस ने उनकी समस्या को समझ कर एक दरख्वास्त बना
दी। दरख्वास्त ले कर ये लोग दौड़े-दौड़े फिर छोटे हाकिम के पास पहुंचे। इस उम्मीद के साथ
कि जैसे इधर उन्होंने दरख्वास्त दी और उधर उनका तालाब गाँव में वापिस आ जायेगा।
पर ऐसा कुछ चमत्कार हुआ नहीं, छोटे हाकिम ने दरख्वास्त रख ली। और कहा- जाँच कराते हैं, कुछ पता चला तो खबर करेंगे। गाँव वाले थोड़े से निराश हुए। पर छोटे हाकिम पर भरोसा कर गाँव लौट चले। गाँव पहुंचे तो गाँव में उनका इंतजार हो रहा था बेसब्री से। दिन भर की उत्सुकता का अंत हुआ। गाँव की सभा इस उम्मीद से खत्म हुई कि जल्दी ही छोटे हाकिम अपने तालाब के बारे में कोई खबर भेजेंगे।
पर दिन पर दिन गुजरते गये। छोटे हाकिम से कोई खबर आई नहीं। गाँव वाले रोज तालाब की खाली जगह को देखते और ठंडी सांस भर कर रह जाते। उनकी अधीरता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। जब उम्मीद का एक कतरा तक नहीं बचा तो फिर एक बार गाँव की चौपाल पर पंचायत बैठी। सबने अपनी-अपनी समझ से बात रखी। फिर सब की सहमति से तय किया गया, इस बार जा कर बड़े हाकिम से मिला जाये। उसको समस्या बतायी जाये। यह भी बताया जाये कि छोटे हाकिम ने कुछ किया नहीं। तय हो गया कि अगली भोर में गाँव का जत्था निकल पड़े। रात रूकना पड़े तो रूक जाये पर बड़े हाकिम से मिल कर ही आये। लुगाइयों को बता दिया गया कि दल में जाने वालों के लिये दो दिन का खाना साथ में बांध दें। इस बार गाँव के एक मात्र बाँके पंडित से पंचांग दिखा कर मुहूर्त भी निकलवाया गया। ताकि शुभ मुहूर्त में गाँव का जत्था प्रस्थान करें और काम को पूरा कर के ही लौटे।
अगले दिन भोर में शुभ मुहरत में जत्था निकल पड़ा। दोपहर होते-होते सूबे की राजधानी पहुंच गया। भाग्य अच्छा था या शुभ मुहूर्त में निकलने का प्रभाव कि बड़े हाकिम दफ्तर में मिल गये। बड़े हाकिम, सचमुच बड़े हाकिम जैसा लगते थे गर्व और गरिमा से भरे हुए। उसने गौर से गाँव वालों की बातें सुनी। कुछ प्रश्न भी पूछे, जैसे कब से तालाब गाँव में था, गायब होने से पहले आख़िरी बार किसने देखा था। इस गाँव का आन गाँव वालों से कोई बैर तो नहीं था, आदि-आदि। जत्थे में गये लोगों को अच्छा लगा, बड़े हाकिम की रूचि देख कर। आखिर में बड़े हाकिम ने कहा - एक पखवाड़े का समय दो। मैं खोज करवाता हूँ। ईश्वर ने चाहा तो आपका तालाब मिल जायेगा। गाँव वाले खुश हो गये अब तो बस एक पखवाड़े की बात है, ईश्वर क्यों नहीं चाहेगा। हाकिम कह रहा है तो भरोसा तो करना ही पड़ेगा। तालाब तो मिल ही जायेगा। इस खुशी के साथ खुश होते हुये जत्था गाँव लौट पड़ा।
पर ऐसा कुछ चमत्कार हुआ नहीं, छोटे हाकिम ने दरख्वास्त रख ली। और कहा- जाँच कराते हैं, कुछ पता चला तो खबर करेंगे। गाँव वाले थोड़े से निराश हुए। पर छोटे हाकिम पर भरोसा कर गाँव लौट चले। गाँव पहुंचे तो गाँव में उनका इंतजार हो रहा था बेसब्री से। दिन भर की उत्सुकता का अंत हुआ। गाँव की सभा इस उम्मीद से खत्म हुई कि जल्दी ही छोटे हाकिम अपने तालाब के बारे में कोई खबर भेजेंगे।
पर दिन पर दिन गुजरते गये। छोटे हाकिम से कोई खबर आई नहीं। गाँव वाले रोज तालाब की खाली जगह को देखते और ठंडी सांस भर कर रह जाते। उनकी अधीरता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। जब उम्मीद का एक कतरा तक नहीं बचा तो फिर एक बार गाँव की चौपाल पर पंचायत बैठी। सबने अपनी-अपनी समझ से बात रखी। फिर सब की सहमति से तय किया गया, इस बार जा कर बड़े हाकिम से मिला जाये। उसको समस्या बतायी जाये। यह भी बताया जाये कि छोटे हाकिम ने कुछ किया नहीं। तय हो गया कि अगली भोर में गाँव का जत्था निकल पड़े। रात रूकना पड़े तो रूक जाये पर बड़े हाकिम से मिल कर ही आये। लुगाइयों को बता दिया गया कि दल में जाने वालों के लिये दो दिन का खाना साथ में बांध दें। इस बार गाँव के एक मात्र बाँके पंडित से पंचांग दिखा कर मुहूर्त भी निकलवाया गया। ताकि शुभ मुहूर्त में गाँव का जत्था प्रस्थान करें और काम को पूरा कर के ही लौटे।
अगले दिन भोर में शुभ मुहरत में जत्था निकल पड़ा। दोपहर होते-होते सूबे की राजधानी पहुंच गया। भाग्य अच्छा था या शुभ मुहूर्त में निकलने का प्रभाव कि बड़े हाकिम दफ्तर में मिल गये। बड़े हाकिम, सचमुच बड़े हाकिम जैसा लगते थे गर्व और गरिमा से भरे हुए। उसने गौर से गाँव वालों की बातें सुनी। कुछ प्रश्न भी पूछे, जैसे कब से तालाब गाँव में था, गायब होने से पहले आख़िरी बार किसने देखा था। इस गाँव का आन गाँव वालों से कोई बैर तो नहीं था, आदि-आदि। जत्थे में गये लोगों को अच्छा लगा, बड़े हाकिम की रूचि देख कर। आखिर में बड़े हाकिम ने कहा - एक पखवाड़े का समय दो। मैं खोज करवाता हूँ। ईश्वर ने चाहा तो आपका तालाब मिल जायेगा। गाँव वाले खुश हो गये अब तो बस एक पखवाड़े की बात है, ईश्वर क्यों नहीं चाहेगा। हाकिम कह रहा है तो भरोसा तो करना ही पड़ेगा। तालाब तो मिल ही जायेगा। इस खुशी के साथ खुश होते हुये जत्था गाँव लौट पड़ा।
जत्था गाँव
पहुंचा। बताया बस अब तो एक पखवाड़े की बात है अपना तालाब मिला ही समझो, बड़े हाकिम
ने बोल दिया है। गाँव में त्योहार का माहौल बन गया। उस रात कोई सोया नहीं, खूब गाना-बजाना
हुआ। तुकबंदी करने वालों ने तालाब के स्वागत में गाने के लिये कई गीत बना लिये। समय
तेजी से गुजरा और एक पखवाड़ा भी बीत गया। पर न तो बड़े हाकिम का कोई दूत आया और न तालाब
की कोई खबर नहीं आयी। गाँव वाले फिर चिंता में पड़ गये। आखिर करे तो क्या करें?
गाँव की
चौपाल पर एक बार फिर पंचायत बैठी। इस बार सब पहले से ज्यादा गंभीर थे। लंबे विचार के
बाद आखिर तय किया गया कि अब कोई दूसरा चारा नहीं। इस बार सीधे राजा से गुहार लगायी
जाये। राजा की छवि जनता में न्यायप्रिय राजा की है। राजा अपनी जनता का बहुत ख्याल रखता
है। गाँव वालों को पूरी उम्मीद कि राजा के दरबार में उनकी जरूर सुनी जायेगी और तालाब
मिल जायेगा।
फिर एक दिन सुबह-सुबह गाँव वालों का जत्था निकल पड़ा। इस बार मंजिल है राजा का दरबार। दोपहर होते-होते जत्था राजधानी पहुंच गया। राजा के दरबार में प्रवेश करना इतना आसान नहीं था। पर सरपंच ने भी धूप में बाल सफेद नहीं किये है। दरबान को कैसे रिश्वत देकर पटाया जाता है, इसका उन्हें अच्छा-खासा अनुभव है। खैर जैसे-तैसे जत्था राजा के दरबार में पहुंच गया। जत्थे के लोगों ने देखा कि, भव्य सिंहासन पर राजा बैठे हैं, दरबार लगा है, मंत्रीगण भी अपने-अपने स्थानों पर बैठे है। फरियादी खड़े हो कर फरियाद कर रहे है। राजा सबको ध्यान से सुन रहे है। फिर अपना निर्णय सुना रहे है। निर्णय को सुन कर भीड़ राजा की जय-जयकार कर रही है। कुछ देर इंतजार के बाद इस जत्थे का नम्बर आ गया। जत्थे की ओर से सरपंच ने फरियाद पेश की। ...... हुजूर, हमारे गाँव का तालाब गायब हो गया है, बाप-दादाओं का तालाब था। हुजूर, रातो-रात कहां चला गया, पता नहीं ............।
राजा ने गंभीरता से पूरी कहानी सुना। सुन कर अपने प्रमुख मंत्री को आदेश दिया - इन गाँव वालों का तालाब तुरन्त ढूँढा जाये। एक सप्ताह में सारी जानकारी पेश की जाये। फिर उसने मुस्करा कर इन भोले-भाले गाँव वालों से कहा - आप लोग निश्चिन्त होकर जाइए। एक सप्ताह में आपको आपका तालाब मिल जायेगा।
एक बार फिर जत्था लौट पड़ा। इस बार उत्साह थोड़ा था, पर राजा पर भरोसा ज्यादा था। इस बार तो तालाब मिलना ही चाहिये। गाँव पहुंच कर सबको जानकारी दी गयी। उस रात जब गाँव सोने गया तो उसके साथ उम्मीद भी थी कि अब तालाब मिल जायेगा। उधर राजा के निर्देश मिलते ही मंत्री सक्रिय हो गये। खुफिया विभाग के अमले को जिम्मेदारी सौंप दी गयी। लंबी खोजबीन और पूछताछ के बाद जो जानकारी मिली उससे मंत्री थरथरा गया। मंत्री ने तुरन्त राजा से एकांत में मिलने का समय मांग लिया। मामला राजा के अन्त:पुर से जुड़ गया था, इससे वह बहुत ज्यादा घबरा गया था। वैसे इसके लिये पूरी तरह से निर्माण विभाग जिम्मेदार था। पर निर्माण विभाग का मुखिया, राजा की प्रिय रानी का मुहलगा है। यह पूरा दरबार जानता है।
दो दिन बाद रात के पहले पहर मंत्री डरते-डरते राजा के महल में पहुंचा। राजा ने उसे देखते ही कहा- जल्दी बताओ, हमें जाना है, हमारी प्रिय पटरानी इंतजार कर रही है। मंत्री ने डरते-डरते कहा- उस गाँव के तालाब के बारे में पता चल गया है। उस तालाब को रातो-रात हमारा निर्माण विभाग उठा लाया था। फिर उसने डरते-डरते कहा- अब वह पटरानी जी के महल में शोभा बढ़ा रहा है। उसकी बात को सुन कर राजा ने प्रयास किया और उसे कुछ-कुछ याद आया। कुछ समय पहले पटरानी ने हठ की थी कि उसे महल में तालाब चाहिए, वह भी सुबह होने से पहले-पहले। राजा ने तब तुरन्त निर्माण विभाग के मुखिया बुलाया और आदेश दिया। और उसने सुबह होने से पहले-पहले रानी के महल में तालाब स्थापित कर दिया। तब राजा ने उसे खुश हो कर पुरस्कार भी दिया था। पर उसने बेचारे गाँव वालों का तालाब चुराया था, यह नहीं जानता था। राजा न्यायप्रिय था, यह हम पहले से जानते है। इससे उसे लग रहा था कि उसके अनजाने में गाँव वालों के साथ अन्याय हो गया है। जैसा कि वह विपत्ति के समय अक्सर करता था। उसने तुरन्त अपने प्रमुख सलाहकार को बुलाया।
सलाहकार के आते ही मंत्री, सलाहकार और राजा में मंत्रणा शुरू हो गयी। राजा ने रानी को खबर करा दी, आज नहीं आ सकूँगा। सुबह होते-होते तीनों ने मामले को समझ लिया और तय कर लिया कि अब कैसे और किस तरह से मामले का अंत करना है।
उधर सप्ताह बीतते ही गाँव से जत्था फिर राजधानी की ओर चल पड़ा। इस बार जत्थे में कुछ युवा भी थे। दोपहर होते-होते जत्था राजा के दरबार में। इस बार जत्थे को दरबान ने भी नहीं रोका। बेरोक-टोक जत्था दरबार में पहुंच गया। जत्थे का नम्बर भी इस बार जल्दी आ गया। राजा ने जत्थे के लोगों का अभिवादन भी स्वीकार किया। फिर पूरी गंभीरता से कहा- हमने आपके गाँव के तालाब की बहुत खोजबीन कराई है। खोजबीन का काम अभी भी चल रहा है। इस बीच हमने तय किया है कि आपके गाँव में चार दिशाओं में चार सुंदर कुंए बनवा दिये जाये। ताकि गाँव वालों को तकलीफ नहीं हो। जब तक तालाब नहीं मिलता ये कुंए आपके काम आएँगे। जब तालाब मिल जायेगा, ये कुंए अतिरिक्त मदद करेंगे। जैसे ही तालाब मिलेगा, आपको खबर कर दी जायेगी। इतना सुनते ही दरबार में राजा की जय-जयकार होने लगी। लोग कहने लगे ऐसा न्यायप्रिय राजा दीपक ले कर ढूँढने पर भी नहीं मिलेगा। जत्थे के लोगों ने राजा का आभार व्यक्त किया और फिर लौट चले।
लौटते वक्त जत्थे के लोगों को कुंए मिलने से खुश होना था, पर वे तालाब नहीं मिलने से दुखी थे। ऐसी ही प्रतिक्रिया गाँव वालों की भी थी, खैर राजा को इससे क्या वह तो अपने कौल का पक्का था। अगले ही दिन निर्माण विभाग के दर्जनों कारीगर गाँव में पहुंच गए। कुओं का निर्माण शुरू हो गया।
एक बार फिर से गाँव की पंचायत बैठी। सबने विचार किया, मिल कर तय किया कि जब तक तालाब नहीं मिलता। राजा को याद दिलाने समय-समय पर जत्था राजधानी जाता रहे। कभी न कभी तो हमारा तालाब मिलेगा। तब से बरसो-बरस बीत गये। शुरू में महीने-महीने जत्था राजधानी जाता रहा। फिर तीन माह में, फिर छह माह में और फिर साल में एक बार।
तब से ये
परम्परा बन गयी। साल में एक बार जत्था गाँव से राजधानी जाता है। अपने गाँव के तालाब
को याद करते हुये, राजा को
याद दिलाने के लिये। तालाब मिला नहीं पर गाँव वालों ने भी उम्मीद छोड़ी नहीं। आज भी
साल में एक बार पूर्णिमा को सुबह शुभ मुहरत में गाँव का जत्था राजधानी की ओर निकल पड़ता
है। उस दिन रात को गाँव वाले जत्थे का इंतजार करते है। यह सोचते हुए कि इस बार शायद
उनके तालाब की कोई खबर मिल जाये।
(साभार : रविवारीय
जनसत्ता)
सम्पर्क -
संजय जैन एफ-119/33, शिवाजी नगर,
भोपाल
म.प्र.
मोबाईल - 94259 02425
Email- sanjayjain266@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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