श्रीधर दूबे की कविताएँ
परिचय:
नाम: श्रीधर दूबे
जन्मस्थान एवँ शिक्षा: गोरखपुर के
पचदेवरी गाँव में जन्म
गोरखपुर विश्वविद्यालय से ही स्नातक।
विशेष: हिन्दी की समकालीन पत्र
पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षा, लेख, निबन्ध आदि प्रकाशित।
आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी कविताएँ
प्रसारित।
कोई जौहरी ही हीरे की पहचान कर सकता
है। यह कहावत यूँ ही नहीं बनी होगी। लोक में इस कहावत ने ऐसे ही ख्याति नहीं पायी
होगी। दुनिया का कोई भी कवि सबसे पहले एक सजग सन्नद्ध जौहरी ही होता है। छोटी-छोटी
उपेक्षित पड़ी चीजें जब कवि की नजर में आती हैं तो कवि अपने हुनर से उसमें जैसे जान
डाल देता है। श्रीधर दुबे ऐसे ही जौहरी हैं जो हैं तो नए पर परखने में किसी
रिजे-पिजे कवि जैसे ही सिद्धहस्त। उनकी एक बड़ी प्यारी कविता है – ‘गिरी हुई लेडीज
रुमाल’। इस कविता ने मेरा ध्यान इसलिए भी आकृष्ट किया क्योंकि इस तरह की कविता
मेरी नजर में पहली बार आयी। कविता की पंक्तियों से गुजरते हुए अहसास होता है कि
कहाँ पहुँच कर इस उपेक्षित पड़ी रुमाल को मूल्यवत्ता प्राप्त होगी। आज पहली बार पर
नए कवि श्रीधर दुबे की नयेपन की ताज़गी का अहसास कराती कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं।
तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं श्रीधर दुबे की कविताएँ।
श्रीधर दूबे की कविताएँ
औरत
वह जब भी टूटी
तो बस इतना भर ही टूटी
कि कुछ और बन सके
तीखी हुई
तो बस इतना ही
कि बना रहे सब्जी का स्वाद
खट्टे के बाबत भी
बस चटनी के स्वाद भर ही खट्टी हो पाई
नमक बनी
तो स्वाद की ही तासीर के मुताबिक
आहिस्ते-आहिस्ते
घुल गई
दाल में।
बाबू जी भूल जाते हैं
कुछ रोज हुए
बाबू जी को
गाँव से शहर आए
लेकिन अभी तक
ठीक-ठीक याद नहीं हो पाया उन्हें
कृष्णा नगर,
गली नम्बर 7 और माकान नम्बर 62 सी
वाला
मेरा शहरी पता,
बताते हैं बाबू जी
कि शहर की सारी गलियाँ व
गलियों के सारे मकान
उन्हें एक जैसे ही लगते हैं,
एक दफा तो
ऐसे भूले
कि शाम होने तक
पहुँच ही नही पाए
कालोनी के पार्क से
मेरे घर तक
जबकी
बताया है मैनें उन्हें कई बार
गली के मोड पर वाले
छोले-बटूरे की दुकान,
फिर गँगाराम मोबाईल शाप
फिर आगे
गुलशन टेलर की दुकान
जिसके ठीक आगे ही है
मेरा घर
इन सब के बावजूद
अब-तक
ठीक-ठीक याद नहीं हो पाया बाबू जी को
मेरा शहरी पता
जबकी याद है उन्हें
अपने गाँव के
एक-एक खेत व मेड़ का हिसाब
यहाँ तक कि
गाँव के
एक-एक आदमी का
नाम व पता भी
लेकिन
न जाने कैसे
बार-बार याद दिलाने पर भी
भूल जाते हैं बाबू जी
इस महानगर में
मेरा ही
शहरी पता।
काठ की कुर्सियाँ
अपने ही घर में
अपनी जगह से
बेजगह हुई हैं
वर्षों पुरानी काठ की कुछ कुर्सियाँ,
नई बहू के आगमन पर
साथ-साथ आई
दहेज की नई-नवेली कुर्सियों ने
विस्थापित किया है
बैठक में रक्खी
काठ की कुछ कुर्सियों को,
अब वे रक्खी हैं
घर के खुले आँगन के एक हिस्से में,
उन कुर्सियों में
एक कुर्सी तो
गँवा चुकी है
अपना दाहिना हाथ
और बाकी की कुर्सियों की देह भी
हो चली हैं जर्जर
कभी भींगती हैं ये कुर्सियाँ
बारिस में
कभी सहती हैं शीत
कभी सहती हैं घाम
विस्थापन की पीड़ा झेलती
काठ की ये कुर्सियाँ
काट रही हैं
जैसे-तैसे
अपने बुढापे के
जर्जर दिनों को।
पापा का कोट
पापा का
पुराना कोट
कहीं गुम हो गया
घर के
एक कोने में
लगी खूँटी से
टँगा रहता था चुपचाप
या कभी-कभी वह भी
आकार पा लेता था
पापा के देह में ही
उन्हीं के देह जैसा,
सालों गुजर गए
उस कोट को
इतिहास में तब्दील हुए
मुझे तो ठीक-ठाक याद भी नही
कि वो चीथडे-चीथडे हो फटा
या फिर
दे दिया गया
किसी जरुरतमन्द को।
वैसे पापा अब
कोट नहीं पहनते
मुझे वो खुद
अब एक कोट की तरह दिखते हैं
ठीक उसी की तरह
घर के
एक कोने में
समय की खूँटी पर
टँगे हुए चुपचाप।
एक उम्रदराज कड़ाही
साँझ की
सँवलाई अँगुलियों ने
मानों छुआ हो
घर के कोने में उपेक्षित पड़ी
उस करिखही कड़ाही को
कि जिसकी उम्र का
सही-सही हिसाब लगा पाना भी
अब मुश्किल,
अपने यौवन के रजत दिनों को गवाँ चुकी
एक उम्रदराज कड़ाही है वो
जीवन भर के अथक श्रम से झँवाई
काली कलूटी कि जिस पर
जिद्दी दाग धोने के दावों से भरी
साबुन की टिकिया भी अब बेअसर,
आज घर के कोने में
मृत्युमुखी
किसी धीर-गम्भीर बुढ़िया सी
चुपचाप बैठी
बाट जोह रही है
उस कबाडी वाले का
जो अपने तराजू पर तौल कर
ले जायेगा उसे
औने पौने दामों पर
अपनी ही साथ
किसी दूसरी दुनिया की ओर।
सूनी बालकनी
बर्षों बाद आया हूँ अपने घर
जिसके दूसरे तल पर खड़ा देख रहा हूँ
सामने वाले घर की
सूनी बालकनी को,
वहाँ अब सुरुचि के
कपड़े नहीं सूखते
वह वहाँ बैठ अपने
हाथ व पाँवों में
नेल-पालिश भी नहीं लगाती
भींगे बाल तौलिये से झटक कर
सुखाने भी नहीं आती वह
प्रथम प्रेम का एक पूरा अध्याय ही
किताब से फाडे गये
पन्नों की ही मानिन्द
अलग हो चुका है।
सुना है कि
जब सुरुचि भी आती है यहाँ
कुछ दिनों के लिये तो वह भी
घँटों बैठती है अपनी बालकनी में ही
चुप-चाप ताकती हुई मेरी
सूनी बालकनी की ओर।
गिरी हुई लेडीज रुमाल
सड़क किनारे कुछ देर से
गिरी पड़ी है बित्ते भर की
एक लेडिज रुमाल, लपेटे हुए
अपने अंतस में
उस खूबसूरत लडकी की
खुशनुमा देह-गन्ध
कि जिसकी जेब से
अनजाने ही आ गिरी है
सड़क किनारे
धूलि-धूसरित होने
अगर पता हो
उस लडकी के किसी चाहने वाले को
सड़क किनारे गिरी
इस नन्हीं सी रुमाल के बारे में
तो फिर से फिर उठेंगें
इस गिरी हुई रूमाल के दिन भी।
सम्पर्क-
paras tieara appartement,
Tower 4, Flata 503,
Noida, 201301
मोबाईल नम्बर: 8050743616
ई-मेल : shridhardubey1@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
ग़ज़ब की कविताएँ. बहुत दिनों बाद पढ़ी हैं ऐसी कविताएं
जवाब देंहटाएंओंकार जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद। श्रीधर दूबे।
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, दुर्गा भाभी की १८ वीं पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंगांव, शहर, महानगर तक के क्रमिक विस्थापन को टाला नहीं जा सकता किन्तु जीवन को छोटे-छोटे पलों की सहेजी स्मृति से समृद्ध ज़रूर किया जा सकता है। ये कविताएं साक्षी हैं उस संवेदनशील मन की जिसने ये सब बड़ी सादगी, ज़िम्मेदारी और सौम्यता से संजोया है। बधाई श्रीधर! शुक्रिया पहली बार!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद दीदी।
हटाएंबहुुत ही गजब है आपकी लेखनी...दुबे जी ...पूरी तरह मन को भर भर देने वाली...औरत, पापा का कोट और काठ की कुर्सियां...वाह
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