रणेन्द्र की कहानी ‘बाबा, कौए और काला धुआँ।’
समय के साथ शब्द भी अपने अर्थ बदलते
हैं। मसलन आजकल विकास शब्द का मतलब अपना उल्लू साधने, लफ्फाजी करने और अपना गोरख-धंधा
चलाते रहने से है। वरिष्ठ कथाकार रणेन्द्र ने अपनी कहानी ‘बाबा, कौए और काला धुआँ’
में इस विकास के मायने को बारीकी से उद्घाटित करते हैं। कल्पना का वास्तविकता के साथ गुथाव रणेन्द्र के यहाँ रोचक अंदाज में दिखायी पड़ता है। रणेन्द्र की इस कहानी में एक
तरफ जहाँ देशज जमीन की सुगंध को महसूस किया जा सकता है वहीँ दूसरी तरफ लोक गीतों की
सुरीली धुन को भी सुना जा सकता है। हमारे लोक कथाओं की ये ताकत हुआ करती थी। दुर्भाग्यवश आज की कहानी से ये तत्व लगातार
गायब होते जा रहे हैं। रणेन्द्र के यहाँ यह तत्व अपने मौलिक रूप में सुरक्षित बचा हुआ
है। इसीलिए यह कहानी पढ़ते हुए हमें लोक कथा का आभास होता है। बावजूद इसके कि हमारे
समय और समाज की विद्रूपता इसमें पूरी तरह उजागर हुई है। इस कौशल को साध पाना सबके वश
की बात नहीं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रणेन्द्र की कहानी ‘बाबा, कौए और काला धुआँ।’
बाबा, कौए और काला धुआँ
रणेन्द्र
कॉलेज पुस्तकालय के गोस्वामी काका ने
बुला कर तस्वीर दिखाई। अखबार के चौथे पन्ने
‘राजधानी
और आसपास’ पर एकदम उपर बड़ा सा फोटो। सचिवालय की सीढ़ियों
पर अयो (माँ) फिसली हुई। बाबा (पिता) की फ्रेम वाली फोटा, दरख्वास्तों वाली फाइल, कागज-पत्तर बिखरे हुए। अयो को सँभालने
हड़बड़ा कर हाथ बढ़ाती हुई मैं और झुमरी, बुगनी, बहादुर और झुमरु साथी कौए भी। नीचे
शीर्षक था, “ढ़ाई साल से भटकती बुधनी उराइन को न्याय की तलाश।” फोटो में सचिवालय का बड़ा सा गेट, सन्तरी, गुम्बद और उस पर तिरंगा सब साफ-साफ
दिख रहे थे। हाँ! सबका रंग थोड़ा धूसर, थोड़ा उदास सा। हवा नहीं चलने से झंडा
फहराने की जगह लटका हुआ था मानो हमारी तरह उसका चेहरा भी मायूसी से उतरा हुआ हो।
सीढ़ियों के रंग उड़े टाइल्स, उनके जोडों की दरारें और उनमें उग आए
घास भी फोटो के फोकस में आ गए थे।
अखबार में फोटो सुन कर ही जी कैसा तो
धक्क से हो जाता है। उस दिन भी जब बाबा का फोटो छपा तो लगा बाबा की देह
दुबारा...............। सोच कर ही आँखें डबडबाने लगती है। बाबा थोड़ा ज्यादा ही
भावुक थे। भावुक ही क्यों...............सब कुछ थोड़ा ज्यादा ही। ........ थोड़ा
ज्यादा गुस्सैल.............. थोड़ा ज्यादा ही दुलार करने
वाले....................थोड़ा ज्यादा बोलक्कड़.................... और कोई बात बुरी
लग गई तो उनकी आँखे डबडबाने लगती, कई दिनों तक चुपा जाते। जब से होश
सँभाला तक से देख-सुन रही थी कि ब्लॉक ऑफिस कि राशन दूकान कि हाट-बाजार में जिस
तिस के लिए झगड़ा कर लिए और कभी दो दिन-तीन दिन तो कभी महीने-दो महीने के लिए अन्दर
फिर आराम से जेल से छूट कर आ रहे हैं। मानो कुछ हुआ ही नहीं हो।
जब सुरेश काका और शनिचरा काका साथ थे
तो तब देखने लायक तेवर होता था बाबा का। ब्लॉक ऑफिस में तो ‘तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा‘ के नाम से बदनाम थी यह मंडली। मैंने तो
अपनी आँखों से देखा था कि तीनों के ब्लॉक ऑफिस के कैम्पस में कदम रखते खलबली सी मच
जाती थी। मोटरसाइकिल वाला ठग-ठेकेदार, बिचौलिया कमीशनखोर सब कोई न कोई बहाना
कर के खिसक लेते। तीनों के मन-मिजाज का कोई ठिकाना नहीं था। ओवरसियर-किरानी के
कॉलर पकड़ने में तनिको देर नहीं लगता था बाबा को। सुरेश काका को तो बी.डी.ओ.-सीओ से
बहसा-बहसी, मुहाँमुही करने में बहुत मजा आता। वैसने सरकारी
कड़ेर हिन्दी, अंग्रेजी घुसा-घुसा के। इन्दिरा आवास, कुआँ, जवाहर रोजगार सब के नियम-कानून फारेफार
याद। साहब-सुबहा भी बतियाने में नरभसाये रहते।
शनिचरा काका को तो न जाने कैसे
थाना-कचहरी की धारा सब कंठस्थ हो गयी थीं। महीने दो महीने पर आदतन झगड़े के बाद जब ’तीन तिगाड़ा’ गिरफ्तार कर थाना पहुँचाए जाते तो
शनिचरा काका खुद बताते कि कौन-कौन धारा लगानी है। न्यूसेन्स के लिए धारा 290, झगड़ा करने के लिए धारा 147, सरकारी काम में बाधा डालने के लिए धारा
186 और न जाने क्या-क्या ..................? थाना के नया-नया बड़ा बाबू और कचहरी में
जूनियर वकील लोग भकुवा जाते। सो हिसाब से धारा-उरा लगता। फायदा यह कि कभी थाने तो
कभी कोर्ट से ज्यादा से ज्यादा दो महीना में छूट कर आ ही जाते। आजी-अयो-काकी लोगों
के साथ-साथ हम लोगों को भी आदत पड़ गई थी। खाली अयो बात-वे-बात भुनभुनाती “वैसे ही घरे में रहता है तुमरा बाबा तो
कौन बेसी कमाई करता है। अपन कौआ सभन को भात खिलाना, ताश खेलना, हड़िया पी कर सुरेश के साथ भवप्रीता
गाने में ताल मिलाना और दिन पार कर देना। घर वाली खेत-बधार-बाजार सब करती ही है तो
काहे जांगर चलाया जाये। तीनों सहिया का एके हाल।”
लेकिन आजी के सामने अयो ज्यादा
बतकुच्चन कर नहीं पाती। जहाँ बाबा को ज्यादा शरापना शुरु करती कि आजी एकदमे भड़क
जाती। मय अयो के नैहर के एक-एक झन (जन) का लच्छन उचारने लगती। खास कर बड़का मामू
जिनकी सरकारी राशन की दूकान थी और तेल-चीनी ब्लैक में बेच-बेच कर दो तल्ला पक्का
मकान-बनवा लिये थे और जिनका मोटर साइकिल से नीचे पैर ही रहीं उतरता था, उनके मुख्य टार्गेट बनते।
आजी की उम्र कितनी थी तीन कोड़ी (तीन
गुने बीस) कि चार कोड़ी बस यही आजी को याद नहीं था बाकि हर छोटी से छोटी बात याद
रहती। वैसे भी उनको किस्सा-कहानी सुनाने का बहुत शौक। उराँव टोले के सब बच्चों को
इक्कट्ठा कर दिया-बत्ती के साथ अपना कहानी-क्लास शुरु कर देती। कभी रोहतासगढ़ के
पड़हा राजा की राजकुमारी सिनगी दई (दीदी) की कहानी जिसमें वह सिनगी दई अपनी दो
सहेलियों चम्पु दई-कइली दई के साथ पुरुष भेष धारण कर, महिलाओं की ही सेना के बल पर मुगलों की
सेना को तीन-तीन बार हराया था। कभी मुड़मा और मुड़मा जतरा की कहानी, कभी करम पेड़ की दया और करम परब की कथा।
हमें तो सबसे अच्छी सिनगी दई की ही कहानी लगती। रात भर सपने में जिरह बख्तर धारण
किए तीर-धनुष, तलवार से सजी सिनगी दई, चम्पु दई, कइली दई घोड़े दौड़ाती नजर आतीं। मैं भी
उनके पीछे वैसे ही वेषभूषा में तड़ातड तीर चलाते चमचम काले घोड़े पर। तीरों की ऐसी
बरसात कि पूरा आकाश-पूरी धरती तीरों से पट जातीं। कहानियों का क्या जबरदस्त असर।
आज सब कहते हैं आजा-बाबा के जाने के बाद सिनगी दई की तरह ही मैंने अपने परिवार, खेत-बधार, जमीन-जायदाद की रक्षा की है। वैसा ही
तेज तेज, वैसी
ही ताकत। लेकिन अपने दुलरुआ बेटे, हमारे बाबा और उनके संगियों की कहानी
सुनाने में उन्हें थोड़ा ज्यादा ही मजा आता। खूब रस ले-ले कर, हँसा-हँसा कर सुनातीं।
आजी कहानियों में जब हमारे गाँव की भी
तस्वीर खींचती तो लगता कि किसी और जमाने की, किसी आन गाँव की कहानी सुना रही हों।
बरवा टोली बाजार से फलदा रोड पर आधा कोस पूरब, दाहिने हाथ पर ढ़ीपा कुजाम हमारा गाँव।
सड़क से सटे खेत पार कर जोड़ा पोखर। वहीं महतो टोली-कुड़मी महतो लोगों का टोला। सालो
भर खेती में डूबा रहने वाला समाज। उसके बाद थोड़ी सी चढ़ान। ढ़ीपा-टुंगरी और सखुआ का
छोटा जंगल, उसके बाद दोन-धनहर पानी में डूबे खेतों की
हरी-भरी लहर जैसी हरियाली की नदी। उसके उपर उराँव टोला, हमारा टोला। हमारे टोले के बाद पतरा
पार कर सीधा चढ़ान। पहाड़ के ऊपर पाट पर बिरहोड़ टंडा। रस्सी बुनने-मधु पालन करने
वाले थोड़ी बहुत खेती मड़ुआ-मकई-उड़द उगाने वाले बिरहोड़ आदिम जाति के 15-20 घर। कुड़मी
महतो लोगों ने उराँवों को सब्जी की खेती सिखाई थी। तो धान के बत्तीस किस्मों से
उराँवों ने उनका परिचय कराया था।
गाँव तो हमारे पूर्वजों ने ही बसाया
था। भूईंहर परिवार था हमारा, जंगल काट कर खेत-गाँव बसाने वाला। सो
धनहर खेत भी बहुत थे। आजा (दादा) रामेश्वर उराँव अपने बाबा के इकलौता बेटे थे और
हमारे बाबा अपने बाबा के इकलौते। सो साढ़े सात एकड़ एक नम्बर दोन, धनहर जमीन। खाने की कोई कमी नहीं।
भूईंहर परिवार ही अन्य रैयतों को बसाता है। चाहे वो उराँव हों या महतो या बिरहोड़,
सबों को हमारे पूर्वजों ने ही बसने-खाने-पीने के लिए कोना और दोना दिया। सो ग्राम
प्रधान, महतो
हमारे परिवार की टाइटिल थी।
आजा बहुत प्रभावी मातबर आदमी थे। बीस
गाँवों के प्रधान, पड़हा राजा भी बिना उनसे सलाह-मशवरा किए कोई
काम नहीं करते। ‘‘खूँटा बहुत मजबूत इसलिए बिफैया मनबढू हो गया था,‘‘ आजी बताती, ‘‘तुमरा बाबा, सुरेश और शनिचरा काका की पैदाइश एक ही
हफ्ता में आगे-पीछे हुआ था। बिफे को बिफैया, शुकर को सुरेश और शनिचर को शनिचरा
पैदा हुए। शनिचरा की अयो तो जचगी के समय ही चल बसी। शनिचरा तो हमारे घर में ही
पला। एक बरख (बरस) तक दोनों छऊआ हमरे दूध पीते रहे। बूझले कि नयँ मइया।”
‘‘तीनों छऊआ का स्कूल में नाम लिखाने
तुम्हारे आजा साथे ले कर गए थे। तीनों छुटपन से ही संगे-संगे खाते-पीते, खेलते-झगड़ते बड़े हुए। छुटपने से बिफैया
बहुते हथछूट रहे। जेकरा पीटे ला होता, तीनों सहिया पहले से सब तय कर लेते।
शनिचरा पहले पीछे से भर अँकवारी पकड़ लेता। बिफैया मार घुस्सा के नाक-मुँह फोड़
देता। उसके बाद सुरेशवा मीठ-मीठ बतिया, हाथ-पाँव पड़ कर मामला सुलटाता। जवान
होने हर हाट-बाजार में कभी चोर राशन दूकानदार, कभी किसान ठगवैया व्यापारी, कोई न कोई इ सभन कर हाथ से पिटबे करता।
बूझले कि नयँ मइया। मुर्गा लड़ाई के खेल के बहाने जुआ खेलावे वाला तो ई तीनों सहिया
के छाया देख कर काँपत रहें।”
‘‘बाकी अपने स्कूल के हेडमास्टर से उलझ
के बेस नयँ किया ई तीनो। हुआँ तो तुमरे आजा की महतोगिरी-मातबरी भी कोनो काम नयँ
आलक मइया। का जाने का गाली-उली देले रहे पोगेइरढ़ाहा (पगड़ी उछालने वाला) बिफैया कि
भड़कल सॉड़ जैसन उफड़ल रहे हेडमास्टर। तीनों छौड़न के कहेक रहे कि सरकार से मिले वाला
वजीफा में से पैसा खात रहे हेडमास्टर। आँठवें क्लास से भॉपत रहें। दस्तखत करवात
रहे एक सौ इक्वान रुपया के हिसाब से आउर हाथ में थमावत रहे सौ रुपया। हर महीने
इक्वान रुपया गायब। सैकड़ा-सैकड़ा छौड़ा-छौड़िन के हजार-लाख कचिया (रुपया) कर लूट।
तभिये तो ठोकले रहे तीन मंजिला मकान। शनिचरा ओकर मकान के खपसूरती बखाने लागलक तो
दुई घंटा तक रुकवे नयँ करलक। लगातार भचर-भचर। कहत रहे कि एकदमे किताब वाला ताजमहल
जैसन दिसेला ओकर घर। बाकी मोय (मैं) एकबारिग हेडमास्टर के हाट में देखले रहों। मोय
के तो चरका (सफेद) मोटाल सूअर जैसन दिखलक। पाँच पसेरी से का कम होबी। एकदम थलथल।
बूझले कि नयँ मइया।”
आजी की कहानी चालू थी, “बाकी भरी बदमाश रहे उ चरका सूअर। ऐसन
कागज के साथ नाम काटलक कि इ तीनों कर जिला भर में कोनो इस्कूल में नाम नयँ खिलाय
सकलें तोर आजा। दौड़-दौड़ कर सूखा गैलें। कौन हाकिम के दरवाजा नयँ खूँदलैं। लेकिन ई
तीनों के खूब-बगरा पढावे के उन कर सपना छितरा गैलक। ऊ दिन बिफैया पहिला और आखिर बार
अपन बाबा से भर दम पिटालक। लेकिन भोकार पार कर कांदे (रोने) लागलैं तोर आजा। अजब
अजगुत, सब
उलटा पुलटा। भरदम पिटाल धूला में लेसराल छऊआ का कांदी ओकर बदले ओकर बाबा कांदे
लागलक। पहिले तो बहुत घबड़ालक, फिर छऊआ अपन बाबा के चुप करावे लागलक।
गमछी से लोर पोछ-पोछ के बेहाल। आखिर में हरान-परशान बिफैया भोकार पार कर कांदे
लागलक तब ओकर बाबा के रोवाई रुकलक। बूझले कि नयँ मइया।”
अब समझ में आया कि हमारे इतने
तेज-तर्रार बाबा-काका नन-मैट्रिक कैसे रह गये? जबकि अयो मैट्रिक फर्स्ट डिवीजनर थी।
आजी ने ही कभी रात में सोते समय सुनाया था कि भले बेटा नन-मैट्रिक रह गया हो, तुमरे आजा को बहू मैट्रिक पास चाहिए
थी। लेकिन यह इतना आसान नहीं था। बाबा-काका लोग जिसे ब्लॉक सुधार अभियान मान रहे
थे, उसे
गॉव-समाज लफुआगिरी मान रहा था। जहाँ-तहाँ ग्राम सभा में ठग-ठेकेदार से झगड़ा, ब्लॉक ऑफिस में रगड़ा, जेल-पुलिस, मारपीट को समाज अच्छा नहीं मान रहा था।
बीस कोस तक उराँव समाज ने बाबा की मातबरी की इज्जत नहीं रखी। कोई न कोई बहाना कर
के लौटा दिया। अन्त में ननिहाल काम आया। बहुत दूर बरवे इलाके से बहू लाई गई। उसके
बाद शनिचरा काका के लिए कनिया खोजाई। बिरहोड़ आदिम समाज में कहाँ-पढाई लिखाई। बहुत
दिक्कत। आखिर दूर जिला में आवासीय विद्यालय से मैट्रिक पास कनिया मिल ही गई। लेकिन
सुरेश काका ने शादी से साफे इन्कार कर दिया। आजी को सब पता था कि सुरेश काका के
इन्कार के पीछे क्या था? ‘‘पढ़ाई-लिखाई छूटल कर बाद तीनों छौड़न को
नवा-नवा शौक चढ़ल रहै।” आजी ने विस्तार से समझाया था थाना-कचहरी, ब्लॉक-बाजार से जब भी फुर्सत मिलती, बाबा सबेरे-शाम-दोपहर कौवा सबों को
चावल-मकई-गोन्दली खिलाते। ऐसे ही दुलराते-खिलाते ढेरे कौआ को सहिया बना लिये थे।
सब का नाम भी रख दिए थे। कौन किसकी मादा है कौन किसका नर, यह भी उनको पता था। चार-पाँच महीने में
साठ-सत्तर कौए उनकी मंडली में आ गए। उन्हीं के संग गपियाना, यहाँ तक कि उन्हीं के ताश खेलना। एक नशा
की तरह अपने कौओं के प्यार-दुलार में वे डूबे रहते। उसके बाद तो बाबा जहाँ भी जाते
पाँच-सात कौए उनके साथ आगे-पीछे हमेशा रहते। जिससे बाबा को बतकही या झगड़ा होता
उसकी तो खैर नहीं। बाबा के फाइटर, झुमरु, बहादुर कौए उसकी ऑखों या सर पर चोंच
मार-मार कर बेहाल कर देते। आजी बताती है कि कुछ दुलराय सहिया कौए तो बरात भी गए
थे।
शनिचरा काका को पेड़-पौधा, लत्तर-लरंग, जड़ी-बुटी सबसे दोस्ती हो गई थी। वे
अकेले या बूढ-पुरनिया के साथ जंगल में घुमते रहते। धीरे-धीरे पेड़-पौधों से बतियाने
लगे। कहाँ कौन गाछ को दीमक चाट रहा है, कहाँ कौन लरंग के पास की मिट्टी में
चूना देना है। दिन-रात यही चिन्ता।
उधर सुरेश काका को दूसरी बीमारी लग गई
थी। आजी बताती है कि उन्हें गाना सीखने का चस्का लग गया था। रोज सबेरे बिना नागा
साइकिल से फालदा के पास किसी गाँव में मंडल गुरुजी के पास कुरमाली गीत सीखने जाने
लगे थे। उन्हें भवप्रीता के गीत और मंडल जी की सॉवली-सलोनी बेटी दोनों से लगाव हो
गया था। धीरे-धीरे भवप्रीता के सारे गीत, भजन, झूमर, राग-ताल-छंद-मात्रा के साथ साल बीतते
कंठस्थ हो गये। उनकी सबसे अच्छी श्रोता बनी उनकी नई-नवेली बोदी (भाभी) हमारी अयो।
इतना भवप्रीता सुनाया, इतना सुनाया कि अयो को भी सारे
राग-रागनिया कंठस्थ हो गई। कभी-कभी गाँव के अखड़ा में अजीब समाँ बँधता। बाबा मांदर, शनिचरा काका बांसुरी और सुरेश काका और
अयो भवप्रीता के एक से बढ कर एक गीत उठाते। कुछ गीतों के बोल तो मुझे आज भी याद हैं,
‘‘शरत् के चांद हेरी मगन चकोर,
सखि! मगन चकोर।
पिया नहीं गृह मोर, रे उमरिया जे थोर,
कमलें गुंजरै भौंरा मधु रसे भोर,
दियै पवने झिकोर, रे सिहरै अंग मोर,
पिया नहीं गृह मोर।"
आजी कहती है कि ऐसन मिठास, ऐसन झक झूमर, ऐसन संगीत कि हवा बहना भूल जाती। नदी
ठहर जाती। पेड़-पौधा-लरंग भी थिर हो जाते। हाट-बाट से लौटते सियानीमन, मरद, बरद (बैल) सब रास्ता भूल कर अखड़ा पहुँच
जाते। जिन्दगी में उतनी हँसी-ख़ुशी, उतना मिठास फिर कभी नहीं मिला। अजब सुख
के दिन थे। आजी बताती है कि लेकिन वे सुख जाड़े की धूप की तरह तुरन्त बिला गये।
न जाने किसके बहकावे में सुरेश काका ने
ब्लॉक के प्रमुख का चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। उनके बाबा ने, हमारे आजा-बाबा सबने मना किया। लेकिन
नहीं माने। बाबा ने साफ-साफ बताया कि जिन गलत कामो के विरोध करने में हम लोग
दर्जनो बार जेल जा चुके हैं, वह ठग-ठेकेदारी, राशन दूकान की ब्लैक मार्केटिंग, हाट-बाजार में व्यापारियों की लूट, ऑफिस सब में घूस-फूस धीरे-धीरे तुमको
सब आम बात लगने लगेगी। सहज लगने लगेगा। चलता है टाईप। धीरे-धीरे तुम भी हाकिम के
चोला में ढल जाओगे। आग सब ठंड़ी पड़ जायेगी। लेकिन काका कुछ और सोच रहे थे कि प्रमुख
बन के वह सारी जरुरी-सही बातों को मनवा सकेगा। बात-बात में सरकारी काम में बाधा के
नाम पर जेल नहीं भेजा जा सकेगा। पद की मातबरी से वह सब सुधारने सकेगा। सबों के
अपने-अपने तर्क। अपने-अपने उदाहरण। कोई किसी की बात मानने को तैयार नहीं। सो बात
हाथ से निकल गई। समय ने शतरंज की विसात पर चाल चल दी थी।
मना तो विधायक भैय्या जी राष्ट्रवादी
ने भी करवाया था। उनकी पार्टी अपना उम्मीदवार उतार रही थी। पार्टी सिम्बल पर चुनाव
नहीं लड़ना था तो क्या हुआ? सबको मालूम था कि हलधर चौधरी, भैय्या जी का आदमी है। अब मामला
गम्भीर हो गया था। यह ढीपा कुजाम गाँव, मातबर प्रधान रामेश्वर उराँव और बाबा
शनिचरा काका- सुरेश काका की दोस्ती की परीक्षा की घड़ी थी। पूरा गाँव सेबेरे-सबेरे
बासी भात साग खा कर निकलता तो गाँव-गाँव टोला-टोला घूमते रात में ही लौटता।
प्रखण्ड भर के सब मुखिया को उनके ही सगा-सम्बन्धी, भैयाद-गोतिया से घेरने की योजना कामयाब
हो गई। सुरेश काका भारी वोट से जीत कर प्रमुख बन गया।
लेकिन इस जीत के कुछ ही समय बाद विधायक
भैय्या जी राष्ट्रवादी ने जो चाल चली, उसका अन्दाजा हमलोगों को तो क्या, हमारे पूर्वज-पितर देवताओं को भी नहीं
रहा होगा। भैय्या जी ने सुरेश काका से अपनी चचेरी बहन से शादी तय कर दी। साँप-छुछुन्दर
की स्थिति। न उगलते बन रहा था, न निगलते। पूरे गाँव को ठकमुक्की लग
गयी। अखड़ा के कोने में गुलईंची के नीचे सुरेश काका के बाबा और मेरे आजा सिर से सिर
जोड़े चिन्ता में डूबे रहते। विधायक जी को ना कहने की हिम्मत नहीं थी। वे जाति
बिरादरी के सिरमौर थे। सुरेश काका का तो इस शादी का पूरा मन था। बड़े घर में
ब्याहने पर बेटा का हाथ से निकलना तो तय था। लेकिन सुरेश काका को अपना कैरियर दिख
रहा था। किन्तु मंडल गुरू जी की बेटी सोनामणि, उसका क्या? आजा लोगों के लिए सबसे ज्यादा चिन्ता
की बात यही थी। एक अन्देशा, एक खटका दोनों के मन को मथता रहता।
हालाँकि आजी के कहानी क्लास में सब घटनाएँ, कथा-कहानी बन कर उतरतीं तो लगता कि कल
की ही बात हो। लेकिन घटनाएँ धीरे-धीरे, अपनी चाल से, अपनी भूमिका निभाते गुजर रहीं थी। सब
कल की बातें नहीं थीं। इसी बीच में सब समझने बुझने लगी थी। स्कूल जाने लगी थी।
देखते-देखते क्लास पार करती जा रही थी। सुरेश काका - शनिचरा काका को बाबा से कम
नहीं मानती थी। वे दोनों भी बाबा से ज्यादा ही दुलार करते। सुरेश काका के पॉकिट
में मेरे लिए हमेशा लेमनजूस रहता। अगर नहीं रहता तो जादू से मँगवाते। मुट्ठी बन्द
कर के मुँह के पास ले जा कर क्या-क्या मंत्र बुदबुदाते। फिर आगे-पीछे हाथ घूमाते
और जोर से आक छू कह कर मुट्ठी मेरे सामने कर फूँकने को बोलते। मेरे फूँकते ही
मुट्ठी खुलती और जादू के जोर से उसमें रंग बिरंगा लेमनजूस सामने होता। मैं भौंचक
हो जाती। अयो को सब बताने दौड़ पड़ती। अयो भी बड़े गौर से तो सब सुनती किन्तु कुछ
बोलने के बदले बस मुस्काँ कर रह जाती। अब मैं सब समझ गई हूँ। काका जब मुट्ठी बन्द
कर हाथ जोर-जोर से घूमाते पीछे के पॉकिट की तरफ भी ले जाते थे। वहीं से लेमनजूस
उनकी मुट्ठी में आता था। वे भी क्या दिन थे? झूला की पेंगो की तरह आकाश में उड़ने
वाले दिन। लेकिन विधायक जी की बहन से शादी होने के बाद सब कितनी तेजी से बदल गया।
इस चक्कर में मेरा लेमनजूस सदा के लिए गायब हो गया। लेकिन लेमनजूस के कारण कनिया
काकी खराब नहीं लगी बल्कि मंडल गुरू जी की बेटी सोनामणि काकी ज्यादा अच्छी थी।
सचमुच ज्यादा अच्छी।
न जाने मंडल गुरूजी को सुरेश काका की
शादी की खबर कैसे मिल गई? बाप-बेटी रोते कलपते भोरे-भोर मेरे
गाँव में। चूँकि ग्राम प्रधान आजा, तो उनके ही दरवाजे पर न्याय की गुहार।
सोनामणि काकी की गोद में छोटा सा बच्चा भी था। बताया जा रहा था कि यह सुरेश काका
का बेटा है। उस समय मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था कि जब सुरेश काका की शादी ही
सोनामणि काकी से नहीं हुई तो यह बच्चा कहाँ से आया? अगर शादी हो गई है तो फिर यह दूसरी
शादी क्यों हो रही है?
आजा के बुलाहट पर सुरेश काका के बाबा
तो आए साथ में आजी-काकी भी आई। वे अन्दर आंगन में मेरे आजी-अयो के पास। बाहरी कोठरी
में केवल सोनामणि काकी की सुबकी गूँज रही थी। मंडल गुरूजी की आँखें रोते-रोते पथरा
गई थीं। आजा और काका के बाबा मुँह लटकाये चुपचाप बैठे थे। उनके मुँह से बकार भी
नहीं फूट रहा था। लेकिन अन्दर आँगन से तुरन्त ही चीख-चिल्लाहट सुनाई पड़ने लगी।
काका की आजी-अयो मंडल गुरूजी और उनकी बेटी को ही भला-बुरा कह रही थी। वे उसे किसी
भी हाल में स्वीकारने को तैयार नहीं थीं। आवाजें साफ-साफ बाहर कोठरी तक आ रही थी।
दरार पड़ गई थी। मन फट गया था। आजा सब समझ गये। अब किसी को कुछ समझाने का कोई लाभ नहीं
था। दरअसल सुरेश काका ही तैयार नहीं थे। उनके मन की बात ही उनकी आजी-आयो बखान रही
थीं।
लेकिन मंडल गुरूजी और काकी लौट कर नहीं
गये। हमारे दरवाजे पर ही टिक गये। हार कर आजा ने उनके लिए अलग कोठरी बनवा दी। लगता
है आजा से यह गलती हो गई। सुरेश काका के परिवार से ज्यादा विधायक जी ने इसे खुली दुश्मनी
माना। आजा-बाबा को बारात जाने के लिए ठीक ठाक से पूछा नहीं गया। उराँव टोले के
दो-चार परिवार जो हमारे परिवार से किन्हीं कारणों से नाराज रहते थे, वे ही सुरेश काका के बारात गये। मेरी
सब तैयारी धरी की धरी रह गई। उधर रात भर सोनामणि काकी के कलपने और रूलाई गीत से एक-एक
जन, गाय-गरू, पंछी-पखेरू, लता-लरंग सबके हृदय काँपते रहते। कैसा
कलेजा चिरने वाला गीत कैसे दर्द भरे बोल।
“ऐसन दुनिया में आगिया लागी जाय,
हे आगिया लागी जाय।
कौने मोरे राजा, मोरे सोना के लै गेली चोराय,
हाय रे, लै गेली चोराय,
हाय रे, आगिया लागी जाय।
जागि रे, सगरो निषी, राखतों जोगाय,
सखी हे! राखतों जोगाय,
हाय रे, लै गेली चोराय..........”
लेकिन
समय खराब था, गलती पर गलती हो रही थी। बारात लौटे दो दिन भी
नहीं हुए थे। सब नई बहुरिया की मुँह दिखाई को आ-जा रहे थे। उस माहौल में सोनामणि
काकी को अपना छऊआ ले कर नहीं जाना चाहिए था। दरवाजे पर ही सुरेश काका भेंटा गये।
चौखट तो लाँघने नहीं ही दिया, उल्टे काकी ने जिद्द की तो हाथ चला
दिया। फिर गलती, भारी गलती। कहते हैं कि काकी एक क्षण तक फटी
आँखों से सुरेश काका को ताकती रहीं। कुछ नहीं बोलीं। छऊआ को वहीं खटिया पर लेटाया।
और दौड़ कर सामने के कुँए में छलाँग लगा दी। जब तक लोग बाग कुछ समझते, यह बहुत ही बड़ी दुर्घटना घट गई। वह भी
सबसे शुभ दिन। लेकिन सारी खुशियाँ मातम में बदल गईं। कुँए से बाहर निकालते-निकालते
सोनामणि काकी की साँसे उखड़ चुकी थीं। पूरे गाँव में अजब तरह का सन्नाटा छा गया।
शोक-दुख की लहर हहा कर दौड़ रही थी। मेरी रूलाई रूक नहीं रही थी। मुझे सोनामणि काकी
बहुत पसन्द थी। उनका साँवला पानीदार चेहरा, नुकीली नाक, पोठरी मछली सी आँखें और खूब घुँघराले
काले-काले बाल। सब नजरों के सामने नाच रहे थे। रो तो मेरी अयो-आजी भी रही थी। कौन
नहीं रो रहा था। बाबा की आँखें डबडबा कर टपक रही थी। आजा को ठकमुक्की लग गई थी।
मंडल गुरूजी पागलों की तरह हरकत कर रहे थे। धोती-उती की भी खबर नहीं। जहाँ-तहाँ सर
पटक-पटक कर लहूलुहान हो रहे थे। सोनामणि काकी की मिट्टी देख कर कहते हैं कि सुरेश
काका भी फफक पड़े थे। अजब तरह की बात थी जो सुरेश काका, उनकी आजी-अयो अभी कुछ ही मिनट पहले तक
सोनामणि काकी का मुँह तक देखने को तैयार नहीं थे। वे ही लोग उनकी लाश पर दुलार
लूटा रहे थे। अन्तिम क्रिया कर्म सब पति की हैसियत से उन्होंने ही निपटाया।
सोनामणि काकी को सुहागन का दर्जा तो मिला लेकिन मरने के बाद। लाल-पीली चुनरी में
सजी काकी की लाश की माँग को सुरेश काका ने लाल सिन्दूर से भरा। नाक से लेकर माँग
तक लाल सिन्दूर। कलाइयों में भरी हुई लाल-लाल चुड़ियाँ। लग रहा था कि सोनामणि काकी
अभी-अभी उठ कर मुस्कुराने लगेगी। अपने छऊआ को सीने से लगा लेगी। लेकिन काकी को ही
आग के लाल-लपटों ने सीने से लगा लिया। कहते है कि मंडल गुरूजी को चार लोग अगर नहीं
थामे होते तो वे चिता पर कूद ही जाते।
शायद रात को विधायक भैय्या जी खुद आये।
और उनकी बहन के साथ सुरेश काका के पूरे परिवार ने गाँव छोड़ दिया। लेकिन वह अजब
काली-कालिख भरी, भींगे कम्बल सी भारी रात थी। जिसके बोझ ने
हमें-हमारे गाँव को न जाने कहाँ-कहाँ से तोड़ा। सच कहें तो उस रात की कालिख हमारी
जिन्दगी पर छा गई। हमारे आजा, गाँव के सबसे मातबर, प्रधान जिनकी बुद्धि और तेज का पूरा
इलाका, कद्र
करता था। वे भी कुछ कर न सके। सोनामणि उनके दरवाजे पर पड़ी रही। उनका ही एक बेटा सुरेश
उनके भावना को समझ नहीं पाया। बेटे ने भाव को नहीं, मुनाफे को तरजीह दी। उसकी नजरें बदल
गईं। पाप समा गया। उनमें ही कोई कमी थी तब ही तो सही संस्कार दे नहीं पाये। उन्हें
लगा कि जीवन भर की कमाई उनके हाथों से फिसल गई। कुछ नहीं बचा। सोनामणि और उसके
बाबा उनके ही भरोसे उनके दरवाजे पर आये थे। वे उनके विश्वास की रक्षा नहीं कर
पाये। बेटी-बहू की रक्षा नहीं कर पाये। चुप्पी में डूबे आजा रात में जो खटिया पर
गिरे तो सबेरे ठंढी मिट्टी ही वहाँ मिली। मंडल गुरू जी भी उसी काली रात में बिला
गये। कई बरस बाद अब पकी दाढ़ी-बाल के साथ नंग-धड़ंग कभी-कभी हाट-बाजार में दिख जाते
हैं। कहते हैं उस शाम बेटी की लाश पर पछाड़ खाते हुए ढ़ीपा कुजाम गाँव को उजड़ने का
श्राप दिया था। उस श्राप में एक असहाय बाप का कातर दुःख छलछला रहा था। सो असर तो
होना ही था।
सोनामणि काकी के गुजरने के बाद वाले
साल से मौसम का मिजाज बदल गया। आषाढ़ और सावन के शुरूआत में ठीक-ठाक बारिश होती।
धान का बिचड़ा डाला जाता। रोपा के समय भी खेत में पानी की कमी नहीं रहती। लेकिन जब
धान में बाली फूटने और उसमें दाना लगने, दूध भरने का समय आता तो भादो में बादल
बिला जाते। जैसे-तैसे पोखरा-आहर-कुआँ से पटवन कर खाने भर धान का जुगाड़ हमारा
परिवार कर पाता जो गाँव का भूईंहर परिवार था, सबसे ज्यादा धनहर खेत वाला। अन्य
किसानों की हालत बहुत खराब थी। मजदूरी के सिवाय कोई चारा नहीं था। लेकिन लगता है सुरेश
काका का गुस्सा घटा नहीं था। हाँ, शायद उनके कारण ही ब्लॉक ऑफिस की नजर
ढ़ीपा कुजाम के लिए टेढ़ी हो गई थी। और गाँवों में कोई न कोई काम तलाब-कुआँ खोदने का
दिया गया। लेकिन ढ़ीपा कुजाम के ग्रामीण तरस कर रह गये। नतीजन शनिचरा काका-काकी और
अन्य परिवारों को भी दूसरे गाँवों में मजदूरी करने जाना पड़ता। ऐसा आज तक नहीं हुआ
था। लेकिन यह तो अभी शुरूआत थी।
ढ़ीपा कुजाम में योजना नहीं दिए जाने का
एक कारण मेरे बाबा भी हो सकते हैं क्योंकि बिफैया उराँव अभी भी सुरेश काका की तरह ’एडजस्ट’ नहीं करने सके थे। सो न यहाँ जे० सी० बी०
मशीन से काम हो सकता था, न बाहरी ठेकेदार घुस सकते थे और न
प्रखंड ऑफिस के पंचायत सेवक से लेकर ’ऊपर तक’ के लिए कमीशन भेंटा सकता था। फिर
क्यों काम दिया जाए?
उधर सुरेश काका तो जैसे-जैसे समय बीत
रहा था, थोड़ा
ज्यादा ही एडजस्ट करते जा रहे थे। ब्लॉक भर के ठग ठेकेदार, राशन दुकानदार सब भैय्या जी की पार्टी
के कार्यकर्त्ता, कर्त्ता-धर्त्ता थे या निकट भविष्य में होने
वाले थे। वैसे हाट-बाजार के व्यापारियों से किसानों को बचाने के लिए उनके पास एक
भारी योजना थी। वे सब्जी उत्पादक किसानों का कोपरेटिव बनाने में लगे थे। प्रमुख
साहब को पूरा भरोसा था कि इधर कोपरेटिव बनी उधर किसानों के सब दुख चुटकी बजाते
दूर। कोपरेटिव के अपने ट्रक होंगे, जिनमें किसानों की सब्जियाँ सीधे
राउरकेला, कोलकता की मंडियों में और भारी भरकम चेक
किसानों के बैंक खातों में। क्या झक्कास योजना थी। बस कोपरेटिव गठन का काम पूरा
होने ही वाला था। यह अलग बात थी उसकी कमिटि और मेम्बरशिप में किसानों से ज्यादा
वही बेईमान व्यापारी सब घुस गये थे। आखिर वे सब भी तो भैय्या जी की पार्टी के
कार्यकर्ता, कर्ता-धर्ता थे या होने वाले थे। ब्लॉक- अँचल
ऑफिस की घूसखोरी-कमीशनखोरी से प्रमुख साहब सुरेश बाबू को अब भी बहुत चिढ़ थी। वे तो
निगरानी विभाग से छापा मरवाने की तैयारी कर के बैठे थे। बस कोई घूसखोरी का ठोस
प्रूफ ला कर दे दे। बरस पर बरस बीत रहे थे, यह ’ठोस प्रूफ’ भगवान-उगवान जैसा भेंटाइये नहीं रहा
था। नहीं तो प्रमुख साहब एके झटका में सबको दुरस्त कर देते। सीधे भीतरामपुर। खटते
रहिए जेल। चलाइये चक्की। प्रमुख सुरेश महतो जमानत तक नहीं होने देगा, ये चैलेंज है। लेकिन प्रूफ ठोस होने
चाहिए। खोजते-खोजते तीन साल बीते, चार साल बीते। अब यह आखिरी साल था। इस
साल तो प्रमुख साहब ठोस प्रूफ खोजिये के मानेंगे। इलाके भर में दूर-दूर तक तो यही
हल्ला था। बाकी विकास के काम में अफवाह के बिना पर तो बाधा नहीं डालनी चाहिए न।
विकास तो बहुते जरूरी है। अफवाह, झूठ-फूस बोल के उसमें अडंगा लगाना, बाप रे! बहुत बड़ा पाप। भैय्या जी, विधायक साहब का केतेक पवित्र विचार कि “विकास और केवल विकास को ही लक्ष्य करना
है। अभी सारे पूजा पाठ छोड़ कर केवल विकास भगवान की पूजा करनी है। ध्यान इधर-उधर
भटकने नहीं देना है। झूठे, अफवाह फैलाने वाले, बदनाम करने वाले विकास की पावन राह में
सबसे बड़ी बाधा है। पापी है। राक्षस हैं। लेकिन पाप से घृणा कीजिए, पापी से नहीं। सो झूठ, अफवाह जैसे पाप से डरिए। हमेशा याद
रखिए कि झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे साँप है, वही झूठे का बाप है।“ माननीय विधायक जी के ये आप्त वचन प्रमुख साहब
ने प्रखण्ड सह अंचल कार्यालय की दीवारों पर पेन्ट करवा रखे थे, एकदम गहरे गेरूआ रंग से। जिन्हें देख
कर ही राष्ट्र भक्ति की लहर हृदय में उफान मारने लगती और मुख से फलाँ माता की जय
के नारे खुद ब खुद उमड़ने लगते। हाँलाकि यह आज तक समझ में नहीं आया कि फलाँ माता
कहाँ युद्ध लड़ने जा रही थीं कि उन्हें जय-विजय की शुभकामनाओं, दुंदभियों और नारों की इतनी ज्यादा
जरूरत थी।
अब उस हिसाब से प्रखण्ड भर में दसियो
साल से झूठ-फूस बोल कर, अफवाह फैला कर विकास भगवान की राह में
रोड़ा अटकाने वाले तो ’तीन तिगाड़े’ ही थे जिनमें ये एक को तो माननीय
विधायक जी की कृपा से सुधर गये थे। तीसरे शनिचरा काका जो अकाल और पेट की मार से
घबड़ा कर चुपचाप अपने टोला के संग ईट भट्ठा कमाने निकल गये। अब बचे हमारे बाबा। “ तो बकरे की अम्मा कब तक खैर मनायेगी और
ऐसे पापी का बोझ धरती माता कब तक उठायेगी। बिफैया का भी इन्तजाम बात जल्दिये हो
जायेगा“, ऐसी
बतकही ब्लॉक आस पास की चाय दुकानों, पान गुमटियों में होती रहती। उसी ब्लॉक
कॉलोनी की कई सहेलियाँ मेरे साथ ही हाईस्कूल में पढ़ती थीं। उनसे वहाँ की एक एक
हरकत की खबर मुझे मिलती रहती। विकास भगवान के ध्वजा वाहक इलाका भर के ठग
ठेकेदार-चोर, बिचौलिये-कमीशनखोर जो रोज ठेकेदारी के लिए एक
दूसरे के खून के प्यासे बने रहते वे हमारे बाबा के लिए सिर से सिर जोड़ कर एक से एक
बेहतरीन प्लॉन बनाने में जुटे रहते। शायद इसे ही कहते हैं अनेकता में एकता, हिन्द की विशेषता।
शनिचरा काका- काकी के जाने के बाद बाबा
और अयो दोनों अपने को बहुत अकेला महसूस करने लगे थे। ऐसे भी तीन-चार बरसों से मौसम
बेईमानी कर रहा था। आषाढ़-सावन में ठीक ठाक बारिश के बाद भादो माह की रोहिणी
आर्द्रा, चित्रा
स्वाति सारे नक्षत्र धोखा दे रहे थे। अकाल जैसी हालत। गाँव उजाड़ सा हो गया।
मेहनत-मजदूरी करने लायक परिवार कोड़ा कमाने (मिट्टी काटने की मजूरी करने) घर से
निकल गये थे। वैसे भी आदिवासी समाज में मेहनत करने को दूसरे समाज की तरह छोटा काम
नहीं माना जाता, अच्छी नजर से देखा जाता। हाँ! बिना मेहनत किए
खाने वाले को जांगर-चोर, दिकू टाईप माना जाता। सारे टोलों में
हर दूसरे-तीसरे घर में ताला लटक गया था। देखिए तो ज्यादातर बूढ़ा-बुजुर्ग, बर-बीमार, देहचोर-निकम्मों, नशेड़ी-गंजेड़ी ही गाँव में बच गए थे।
खाना-खुराकी और काम की कमी से लोग चिड़चिड़ाये रहते। झगड़ने को तैयार। चोरी-चकारी भी
होने लगी। घर के पीछे की बाड़ी से कद्दू-कोहड़ा तक लोग चुराने लगे थे। खलिहान में
रखे अनाज के बोझे और टाँड़ में चरती बकरी-छगरी देखते-देखते गायब हो जाती। गायब तो
गाँव से हँसी-ख़ुशी रिझरंग भी हो गई थी। सुरेश काका-शनिचरा काका के जाने के बाद
गाँव का अखड़ा भी सूना हो गया था। कहाँ वह भवप्रीता का गान, कहाँ बाँसुरी की तान और कहाँ बाबा का
झमकौआ मान्दर की ताल। सबके कान तरस कर रह गये थे। खाली एकदम भोरे-भोर, भुरकुआ उगने की बेला में अयो भवप्रीता
का निरगुन उठाती। कभी-कभी आजी भी अपना सुर मिलाती,
“धन जन परिवार क्षण में सभे उजार,
दारूण
संसार,
हाय रे, दारूण संसार।
तोरा से जी उचटै हमार रे, दारूण संसार,
पेट लागी कतै पापाचार रे, दारूण संसार
हाय रे, दारूण संसार।
बाबा भी आसपास के गाँव में मनरेगा के
काम में मजूरी माँगने जाने लगे लेकिन लोग बरसों की दुश्मनी साध रहे थे। कोई न कोई
बहाना बना कर टाल देते। दिन प्रति दिन घर की उदासी बढ़ती जा रही थी। लेकिन मेरी
पढ़ाई नहीं रूकी थी। घर का खर्च जैसे-तैसे निकल ही जा रहा था। मेरी आजी हड़िया बनाने
वाली जड़ी-बूटियों की जानकार थी। इन जड़ी-बूटियों की जानकारी घर की बूढ़ी महिलाएँ
अपनी बहुओं को विरासत में सौंप कर जाती थी। बाइस-तेइस प्रकार के जड़ी-बूटियों को
कूट-काट, छान-बीन
कर चावल के आटे में फेंट कर सूखाया जाता। सफेद रंग की वे गोटियाँ रानु कहलातीं, जिनसे चावल का हल्का नशा वाला पेय, हड़िया तैयार होता। आजी पहले रानु ऐसे
ही बाँटा करती थी, जो भी माँगने आ जाता, वह खाली हाथ नहीं लौटता। लेकिन इस
कुबेला में आजी-अयो हाट-बाजार में टोकरी में रानु लेकर बैठने लगी। सबको आजी के हाथ
के हुनर की खबर थी, सो घंटे आधे घंटे में टोकरी खाली हो जाती। हर
हाट में ढाई सौ-तीन सौ रूपये की बिक्री कम नहीं थी। बीच-बीच में मामू या रमेश दादा
की मोटर साइकिल भी ढ़ीपा कुजाम का चक्कर लगाने लगी। हर बार मोटर साइकिल के पीछे
एकाध बोरा बंधा रहता। लेकिन यह सहूलियत भी लोगों को खटक रही थी।
अकेले पड़ गए बाबा की दोस्ती अपने कौओं
से ज्यादा बढ़ गई थी। जब देखिए कौओं के बीच, उनसे बतियाते, उनके साथ ताश खेलते। लोगों ने इसी
दोस्ती को लेकर कहानियाँ बनानी शुरू कर दी। बाबा को टोनहा पुकारना शुरू कर दिया।
उनके कौए, कौए के भेष में भूत-प्रेत, डाक-डाकिन थे। सबसे पहले इस अफवाह की
शुरूआत ब्लॉक गेट के पास वाले चाय दूकान से हुई थी। जो पान गुमटी से होते हुए
हाट-बाजार तक पहुँच गई। बाबा ने ध्यान नहीं दिया। हँस कर टालते रहे। तब आजी और अयो
के टोनहीं-डाईन होने की कहानियाँ फैलनी शुरू हुई। बुढ़िया की नजर कड़ी है और छाया
बहुत भारी। अब जिस आजी ने किस्सा-कहानी सुना-सुना कर, अपने सीने से लगा-लगाकर छऊआ बच्चों की
कितनी पीढ़ियों को जवान बना दिया। उसी की नजर को शक के घेरे में लाने को रोज नई
कहानी गढ़ी जा रही थी और हमारी अयो तो आजी से भी बड़ी टोनहीं, भारी डाईन।” उसने ही तो बाण मार कर सोनामणि को
प्रमुख साहब के घर पर भेजा था। नहीं तो प्रमुख साहब तो तैयारे थे उसको दूसरा घर
में रखने को। किस बात की कमी थी। दो बीबी को पालना कौन बड़ी बात थी सुरेश बाबू के
लिए। लेकिन डाईन के बाण मारल औरत काहे को सुनने जाए, छलाँगे न लगा दी। अछरंग-कलंक लगा कर
चली गई। ई सब बिफैया के घरवाली का कमाल है, उसी के मारल वाण का कमाल । मामूली
सियानी नहीं है दुनो सास-पुतोह भारी टोनहीं, पक्की डायन।”
शुरू-शुरू में सब मजाक लग रहा था। नशेड़ी-गंजेड़ी
लोगों की बदमाशी। किन्तु कहानियाँ रूकने का नाम नहीं ले रही थीं। साल बीतते-बीतते लोगों
की निगाहें बदलने लगीं। अफवाहें सच लगने लगीं। लोग रास्ता बदलने लगे। बोलने-
बतियाने, घर
आने-जाने में कतराने की कोशिश। आजी को ऐसी चोट लगी कि पहले घर से निकलना बन्द
किया। फिर धीरे-धीरे बीमार पड़ी। उसके बाद खाट ही पकड़ ली।
साल डेढ़ साल में इन अफवाहें कहानियों
का असर हाट बाजार में भी दिखने लगा। अयो रानु और बाड़ी की सब्जी की टोकरी लेकर सुबह
से शाम तक बैठी रहती लेकिन एक भी ग्राहक झाँकने नहीं आता। दो-चार हाट से बिना बिके
टोकरियाँ लौट गईं तो इतना तो तय हो गया कि अब इस हाट में बिक्री के लिए नहीं जाना
है। दस कोस दूर गोन्दली बाजार के मंगल-शुक्र हाट में जाने लगी। महीना दो महीना तक
तो ठीक रहा। बस कंडक्टर सब गाड़ी रूकवा कर टोकरी चढ़वा देते और इज्जत से सीट भी
देते। लेकिन अब अयो को देखते गाड़ियाँ आगे बढ़ जाती। अयो भी कम जिद्दी नहीं थी। दस
कोस टोकरी बोह कर गोन्दली बाजार हाट पैदले आने-जाने लगी। आखिर गृहस्थी की बात थी।
मेरे स्कूल की फीस, आजी की दवा सबके लिए कचिया (पैसे) की जरूरत।
धान बेच बेच कर कितना पूरा करेगी। अब धान भी तो दो सौ-चार सौ मन नहीं हो रहा था।
कोठली भर धान तो सपना हो गया।
स्कूल आने जाने में बस में दिक्कत अब
मैं भी महसूस कर रही थी। हाँलांकि मेरे साथ ढेर सारी सहेलियाँ और क्लास के लड़के भी
रहते। इसी लिए हिम्मत बँधी रहती। लेकिन इधर कंडक्टर सीट देने में आनाकानी करता।
तीन चार बाजारू लफूआ लड़के उतरने चढ़ने में मुझे धक्का मारने या हाथ यहाँ वहाँ लगाने
के चक्कर में रहते। हाँलांकि एक दिन जैसे ही पीछे की तरफ हाथ लगाया। मैने पकड़
लिया। उसके बाद स्कूल के सारे संगियों-सहेलियों ने जम कर धुलाई की। कुछ महीने तक
सब ठीक हो गया। लेकिन फिर तीन चार नये लोफरों ने वही हरकत फिर से शुरू कर दी।
उधर हमारे खेतों की तरफ भी हालत अच्छे
नहीं थे। चूँकि मेरा कोई भाई नहीं था तो गोतिया-दियाद बाबा को बिना वारिस का मान
रहे थे। “बेटी छऊआ का हक थोड़े सारी पुश्तैनी जमीन पर मानेंगे। हाँ! खाने-पीने भर
आठ-दस क्यारी पर विचार किया जा सकता है।” ऐसी बतकहियों से की कान माथा सब गरम हो
जा रहा था। खेत जोतते समय हमारे खेतों के चौहद्दी (चारों ओर के) के रैयत मेड़ काट
कर दो-चार कुदाल अपना खेत बढ़ाने के चक्कर में रहते। अकेले बाबा अयो किस किस से
झगड़ा करते? बाबा अकेला समांग केतना लाठी चलाते?
उस भोर को भुरकुआ बेला में बाबा-अयो से
अंदेशा जता रहे थे कि “जब हम नहीं रहेंगे तो लगता है तुम
लोगों को भी गाँव में रहने नहीं देगा लोग। डाईन बिसाही की कहानी अभी से सब के
दिमाग में बैठाने में लगा है। मेरे बाद तो नगाड़ा पीट कर बोलेगा सब। ई सब हमारे
पितर पूर्वज के धनहर खेत पर कब्जा करने का प्लान है कि कुछ और है समझे में नहीं आ
रहा। कि कोई पुरानी दुश्मनी निकाल रहा है? लेकिन दुश्मनी तो मुझ से होनी चाहिए, तुम लोगों से क्यों?
कुछ ही दिनों बाद स्कूल में टिफिन के
समय ब्लॉक कॉलोनी वाली सहेली ने बताया कि “इधर कई रोज से तुम्हारी अयो को लेकर
डाईन गीत गा रहा है सब। वही गेट वाली चाय दूकान में। वे ही लोग है, विकास भगवान के नयका भगत लोग। गीत में
गाता है सब कि तुम्हारी अयो ने तुम्हारी ही आजी से डाईन विद्या सीखी है और
तुम्हारे ही बाबा को खायेगी। ऐसा बाण मारेगी कि बिफैया खुदे अपनी जान ले लेगा
सोनामणि की तरह। कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या चल रहा है?” सहेली ज्यादा चिन्तित थी। उसकी सलाह
थी कि बाबा को ब्लॉक से और ब्लॉक आफिस के लफड़ों से जितना दूर रखा जाए उतना ही
अच्छा होगा।
वैसे भी जब से सुरेश काका प्रमुख बने
थे बाबा का ब्लॉक जाना छूट ही गया था। लेकिन जब खेती की परेशानी बढ़ने लगी तो गाँव
के लोगों के साथ तलाब-कुआँ जैसी स्कीम के लिए गए थे। लेकिन ब्लॉक ऑफिस के स्टॉफ
लोगों का व्यवहार देख कर लगा कि आ कर गलती कर दी। ये वही लोग थे, जिनकी कुछ ही साल पहले तक उनके नाम तक
से थरथरी छूटती थी आज उनकी ओर ताक भी नहीं रहे थे। नयका बी.डी.ओ. के कान में न
जाने क्या भरा गया था कि बैठने के लिए भी नहीं बोला। स्कीम तो नहीं ही मिली, मिला-जुला कर इज्जत खूब उतारा गया।
हाँलांकि बगल के ही चैम्बर में सुरेश काका बैठे थे। शायद किसी ने उन्हें नहीं
बताया हो या सब जान कर भी मटिया दिये हों। क्योंकि वे चाहें और उनके ही गाँव को
काम नहीं मिले? ऐसा कैसे हो सकता है? अब भले उनका परिवार शहर में जा कर बस
गया हो लेकिन उनका मूलवास तो अभी भी ढीपा कुजाम ही था, जहाँ उनकी ओर उनके पूर्वजों की नाल गड़ी
थी। लेकिन गलती इस ओर से भी तो हुई थी। बाबा को तो छोड़िए लेकिन गाँव के किसी
नौजवान को उनके चैम्बर में भी जा कर जोहार उहार बोलना चाहिए था, पाँव लगी करनी चाहिए थी। अब क्लर्क
किरानी के सामने जा कर तो हाथ जोड़ रहे हैं, किन्तु अपने ही गाँव के चाचा-काका को
चेहरा भी नहीं दिखा रहे हैं। गलती तो थी ही हो सकता है इस बात का भी बुरा मान गए
हों।
लेकिन उस बात के बरस बीत गए। फिर आषाढ़
आने वाला था। लक्षण वही लग रह थे कि आषाढ़ सावन में भरपूर बरस कर अन्तिम भादो में
बादल बिला जायेंगे। इस लिए जरूरी था कि महतो टोली का जोड़ा तलाब, उराँव टोली का भैंसादह पोखरा, आहर-पाईन, बिरहोड़ टोली का पक्का बाँध सबमें
बरसों से धीरे-धीरे जम गई मिट्टी-गाद की सफाई की जाए। गाँव के लोगों ने मिल-जुल कर
काम शुरू भी किया था। लेकिन भैंसादह पोखर बहुते लम्बा चौड़ा था। केवल गाँव की मेहनत
से उतना गाद निकालना संभव नहीं था। गाँव में लोग ही कितना बचे थे और जो बचे थे
उनमें मेहनत करने लायक ही कितने थे? आखिर तय हुआ कि ब्लॉक ऑफिस में फिर एक
बार कोशिश की जाए। हो सकता है इस साल दरख्वास्त पर विचार हो। हो सकता है इस बार बी.डी.ओ.
साहब पिघल जायें और इस बार नहीं माने तो आगे डी. डी. सी-डी. एम. साहब के पास शहर
में जा कर मिला जाए। अब और बर्दाश्त नहीं हो सकता।
लेकिन इस बार और ज्यादा बेइज्जती। बी.डी.ओ.
चैम्बर में वही विकास भगवान के ध्वजाधारी भगत लोग बैठे थे। सब एके साथ मिल कर हुँआ-हुँआ
करने लगा। सबों को मेरे बाबा से ही दुश्मनी” दसो साल से यही पापी ब्लॉक का विकास
रोक कर रखा था। केतना रंगदारी-केतना दबाव। किस-किस पर हाथ नहीं उठाया होगा। आज
कैसे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ा रहा है, हुजूर। रंग बदला हुआ सियार है, झाँसे में नहीं आना है, सर। कोई योजना फोजना ढीपा कुजाम में
नहीं देना है।”
बाबा और गाँव के लड़कों ने सब बर्दाश्त
किया। केवल चैम्बर से निकलते निकलते बाबा ने बी.डी.ओ. को बताया कि गाँव के लिए
बहुत जरूरी है, इसलिए हम सब आये थे। एक बार दरख्वास्त को ठीक
से देख लीजियेगा। अगर यहाँ से काम नहीं हुआ, तो इस बार हम लोग ऊपर तक जायेंगे।
लेकिन बाबा की बात पूरा होने पहले ही सियार सब फिर से हुआँ-हुआँ करने लगे।
हो-हल्ला सुनकर सुरेश काका अपने चैम्बर
से बाहर आये। काका को सामने देख गाँव के लड़कों ने पाँव लागी की। बाबा बिना नजर
मिलाये बरामदे से उत्तर-पूरब कोना के बरगद चबूतरा पर जा कर बैठ गए। बाकी लोग काका
के चैम्बर में। सब बात सुन कर काका ने तुरन्त ही ओवरसियर-पंचायत सेवक को बुलाया।
भरपूर डाँट लगाई। डाँट प्रमुख साहब की थी सो काम कर गई। हफ्ता बीतने के पहले ही
भैंसादह पोखरा की मिट्टी कटाई की योजना पास हो कर आ गई।
लगा बहुत दिनों के बाद गाँव में ख़ुशी
आई हो। किन्तु हमारा परिवार अभी ठीक से खुश भी नहीं हो पाया था कि शनिचरा काका की
तबियत खराब होने की खबर आ गई। काकी ने मेरे ही मोबाइल पर फोन किया था। इधर आजी की
भी तबियत थोडी ज्यादा ही खराब रहने लगी थी। ब्लॉक के सरकारी डॉक्टर ने हाथ उठा
दिया था। शहर जा कर पचहत्तर तरह का टेस्ट करवाने को लिख दिया। उसके बाद ही आजी की
दवा-सूई सब तय होनी थी। मेरी बारहँवी की परीक्षा का फॉर्म भरने की तारीख भी नजदीक
आ रही थी। उधर गोन्दली बाजार में भी अयो के रानु-सब्जी की बिक्री बन्द हो गई थी।
डाईन-बिसाही की कहानी वहाँ भी फैला दी गई थी। अब इकलौता आसरा बाबा की मजदूरी का
था। जैसे ही मजूरी का पैसा खाता में आयेगा पहले नवादा ईंटा भट्टा जा कर शनिचरा भाई
को ले आना है, बाबा बुदबुदाते रहते। मुझे आजी को शहर ले जा कर
सब टेस्ट करवाने की जिम्मेवारी सौंपी गई थी। बस खाता में पैसा आ जाये। काम खूब
अच्छा ढंग से ओर खूब तेजी से चल रहा था। पन्द्रह-बीस दिन हो गये थे। ओवरसियर कई
बार चौका की नापी कर ले गया था। सुना कि बिल भी बना। धीरे-धीरे और लोगों के खातों
में मजूरी आने भी लगी। लेकिन बाबा का खाता खाली ही रहा। बाबा अब हर दूसरे-तीसरे
दिन बैंक जा कर खाता जँचवाते। लेकिन कोई फायदा नहीं। ऐसे ही परेशानी में महीना-डेढ़
महीना बीत गये। उधर काकी ने खबर की, कि ‘‘इनको खून की उल्टी होनी शुरु हो गई है
लेकिन भट्टा मालिक हिसाबे नहीं कर रहा है। लोकल झोला डॉक्टर से लाल रंग का पीने
वाला दवा दिला दिया है। जिससे कोनो फायदा नहीं हो रहा।” इधर आजी की भी तबियत ज्यादा बिगड़ती जा
रही थी। अब बाबा के धीरज ने जबाब दे दिया। अब बी.डी.ओ. से मिलना जरुरी था।
अब बाबा को छोड़ मजूरी का हिसाब सबके
खाते में आ ही गया था सो साथ में जाने वाला कोई था नहीं। बाबा को ठीक ही लगा कि
उन्हें जान बूझ कर अकेला कर दिया गया। रास्ते में नशेड़ी पंचायत सेवक भेंटा गया।
सबेरे-सबेरे ही पी-खा कर मूड बनाये हुए। उसी ने राज खोला कि ‘‘तुमरे गाँव के सब छौड़न बहुते समझदार
हैं दादा। सबने कमीशन कटवा लिया। आराम से सबका हिसाब खाता में पहुँच गया। आप भी कमीशन
पर तैयार हो जाइये दादा। का कीजियेगा ऊपर तक पहुँचाना पड़ता है। लेन-देन नयँ
कीजियेगा तो सालो-साल दौड़ा कर मोरा देगा, ई ऑफिस। लेइये-देकर काम निकालने में
होषियारी है दादा। छोट भाई का बात मान लीजिए। हमरा नयँ तो आजी की तबियत का तो
ख्याल कीजिए। थोड़ा झुकने में हरजा नयँ है दादा।"
उस नशेड़ी की बुद्धिमानी भरी बातों ने
बाबा का मूड और ज्यादा खराब कर दिया। धड़धड़ा कर बिना पूछे-पाछे बी.डी.ओ. के चैम्बर
में घुस गये। उनका तेवर देख बी.डी.ओ. ने भी पूरी तरजीह दी। उसे भी आश्चर्य हुआ कि
योजना फाइनल हो गयी। सब की मजूरी खातों में चली गई तो उनका ही पैसा कैसे रुक गया? कमीशन और ऊपर तक पहुँचाने वाली बातों
को एक नशेड़ी की बकवास कह कर, पूरी तरह खारिज कर दिया गया। बेबस बाबा
ने रुआँसा हो कर शनिचरा काका की हालत, आजी की बीमारी, मेरी फीस-परीक्षा सबके बारे में बी.डी.ओ.
को विस्तार से बताया। लगे हाथ यह चेतावनी भी दे दी, कि “समय खराब चल रहा है, क्या बोलूँ? लेकिन मेरे भाई या अयो को कुछ हुआ तो
आप ही के दरवाजे पर सर पटक-पटक कर या आग लगा कर मर जाऊँगा। फिर समझते-समझाते
रहियेगा।” बाबा की पूरी बात सुन बी.डी.ओ. साहब थोड़ा घबड़ा सा गये। तुरन्त किरानी
बाबू, ओवरसियर
बाबू और न जाने कौन-कौन बाबू लोग तलब किए गए। कहीं कोई दिक्कत नहीं थी। बाबा की
मजूरी का भी हिसाब समय से ही दिया जा रहा था। तभी मालूम हुआ कम्प्यूटर बाबू ने ऑन
लाइन चढ़ाया ही नहीं, तो बैंक खाता में डालेगा कैसे? कम्प्यूटर बाबू कुछ-कुछ सर्वर डाउन, नेट फेल जैसा भुनभुनाने लगा। बी.डी.ओ.
साहब को मर्ज पकड़ में आ गई, उनका पारा सातवें आसमान पर, ‘‘जो लोग पैसा खिलाया उन लोगों का हिसाब
ऑन लाइन करते वक्त सर्वर डाउन नहीं था, केवल इनके ही टाइम में सर्वर डाउन हो
जाता है।" साहब को गुस्से में देख सबकी थरथरी छूट गई।
सबको काम में जोत कर बी.डी.ओ. साहब ने विश्वास दिलाया कि जाइये! हद से हद दो दिनों
में आपके खाते में पैसा चला जायेगा। ठीक ही शुक्रवार की शाम तक खबर मिल गई कि खाते
में पैसा आ गया है। घर में यही तय हुआ कि कल पैसा निकाल कर उधर से उधर ही बस पकड़
कर नवादा निकल जाना है। अब भाई को ले आने के बाद ही और किसी काम का निपटाव होगा।
रात में बाबा खाने अभी बैठे ही थे कि
मोबाइल घनघनाया। उधर बिना कुछ बोले काकी रोये जा रही थी। तुरन्त ही समझ में आ गया
कि शनिचरा काका नहीं रहे। खून की उल्टी करते, ऐड़ी रगड़ते परदेश में अनाथ-टुअर जैसे मर
गये। ठीक से इलाज तक नहीं हो सका। बाबा डबडबाई आँखों से बिना खाये हाथ धो कर उठ
गये। हमलोगों की भी रुलाई रुक नहीं रही थी। आजी सुन न ले, इसी लिए मुँह दबा कर रो रहे थे। लेकिन
सबेरा होते-होते आजी भी सब समझ गई। उसने काका को अपना दूध पिला कर पाला था। उसके
लिए तो भारी सदमा था। साफ दिखने लगा कि उसकी तबियत ज्यादा बिगड़ने लगी थी।
शनिवार को बाबा गेट खुलने के पहले बैंक
पहुँच गये थे। ग्यारह बजे तक कम्प्यूटर सब ऑन हुआ तब तक लाइन लम्बी हो गई। बाबा के
खाता देखने में बाबू को ज्यादा ही देर लग रही थी। पैसे की इन्ट्री खाता में कल की
तारीख में दिख रही थी फिर कल ही आन लाइन ही पैसा दूसरे खाते में ट्रान्सफर दिख रहा
था। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। घंटे-दो घंटे के बाद बाबा को बताया गया कि
उनके खाते में मास्टर बिफैया उराँव के वेतन का पैसा गलती से चढ़ गया था। उसे वापस
निकाल लिया गया है। उनका पैसा भी दो-एक रोज में आ ही जायेगा।
दरअसल में मुझे ब्लॉक कॉलोनी की सहेली
से बाद में पता चला कि विकास भगवान के ध्वजाधारी भगत लोगों ने ब्लॉक के बड़ा बाबू
को खिला-पिला कर इस बात के लिए मना लिया था कि बैंक मैनेजर साहब से कह कर एक-दो
दिन के लिए बिफैया का पैसा रुकवा दीजिए। देखिए! क्या-क्या तमाशा होता है? क्या तो अपना ही माथा फोड़ लेगा, आत्मदाह करेगा, यही तो धमकी दे कर गया है। देखते है
क्या करता है? अगर इस प्लानिंग की खबर बाबा को होती तो हम
अनाथ-टूअर नहीं होते। हमारी जिन्दगी तबाह होने से बच जाती। लेकिन पैसा खाता में आ कर
निकल जाने की अनहोनी खबर ने ही उनका दिमाग हिला दिया था। ऊपर से काका की सौ मील की
दूरी पर रात से पड़ी हुई लाश, आजी की बिगड़ती तबियत सबने मिल कर उनकी
हालत सामान्य नहीं रहने दी। उधर बी.डी.ओ. साहब निश्चिन्त थे कि पैसा तो खाता में
ट्रान्सफर हो ही गया है। लेकिन प्लानिंग के अनुसार नयका भगत लोग सार लफुआ सब उनके
चैम्बर में पहले से सब तैयारी कर के बैठे थे। सबको मालूम था कि बिफैया उराँव आने
ही वाला है, उसके बाद भारी तमाशा होगा।
बाबा ने जब खाता में पैसा आ कर निकलने
की बात कही तो बी.डी.ओ. भी गड़बड़ा गये। ऐसा कैसे हो सकता है? तभी बिना बुलाये बड़ा बाबू ने जा कर
बखान किया कि कैसे गलती से मास्टर बिफैया उराँव के वेतन का पैसा चढ़ गया था। इनका
पैसा भी सोमवार तक खाता में चढ़ जायेगा। लेकिन सोमवार तक सौ मील दूर पड़ी छोटे भाई
की लाश कैसे इन्तजार कर सकती थी? सोमवार तक आजी की साँसे भी इन्तजार
करने की हालत में नहीं थी। लेकिन आज शनिवार था हाँलाकि अभी दो नहीं बजा था। कुछ
किया तो जा सकता था। जब तक बी.डी.ओ. बैंक के स्टॉफ को बुलवाते, चैम्बर में बैठे लफुआ लोगों ने सियार
की तरह हुआँ-हुआँ करना शुरु कर दिया। लाट साहब है का। आज बोला तो आज और अभिए काम
होइये जायेगा। पहिले वाली रंगदारी नहीं चलेगी। जब कहा जा रहा है कि सोमवार को खाता
में पैसा चढ़ जायेगा, तो जिद्द काहे कर रहा है। तभी दो-चार लोग तैश
में उठ कर बाबा को धकिया कर चैम्बर से बाहर करने लगे। लगता है बाबा की सोचने-समझने
की ताकत एकदम खत्म हो गई। धक्का से दरवाजे के बाहर जा कर गिरे तो उठ कर सामने के
खम्भे में सर पटकने लगे। तभी किसी ने पेट्रौल से भरा जर्किंग उनके हाथों में थमा
दिया। बाबा भी बिना सोचे-समझे पूरा जर्किंग सर पर उड़ेल लिए। पेट्रौल में पूरी तरह
भींग गए तो उनकी हाथों में किसी ने दिया सलाई जला कर दे दी। फिर क्या था? जो सोचा भी नहीं जा सकता, वह अघट घट गया। आग इतनी तेजी से लगी कि
बालू-कम्बल कुछ भी काम नहीं आया। सुरेश काका तो बाबा को जलते देख कर ही चक्कर खा
कर गिर पड़े। बाबा को बचाने के बदले उनके लगुए-भगुए उन्हें ही गाड़ी में लाद तेजी से
निकल गए। बी.डी.ओ.-सी.ओ. और सारे स्टॉफ पिछले दरवाजे से गायब। पूरे ब्लॉक परिसर
में सन्नाटा। केवल दो चार ग्रामीण और बाबा के साथी कौए ही थे जो उनको बचाने की कोशिश
कर रहे थे। जो संभव नहीं हो सका। देखते-देखते आकाश काले धुँए और बाबा के साथी कौओं
से भर गया। लगा दोपहर में ही रात हो गई हो। चिरायंध गंध भरी काली घनी रात।
(साभार - पल-प्रतिपल)
सम्पर्क-
रणेन्द्र
नारायण इन्क्लेव, ब्लॉक -ए 2 सी, घरौंदा,
हरिहर सिंह रोड, मोराबादी,
राँची (झारखण्ड)
834008
मोबाईल –
09431114935
ई-मेल : kumarranendra2009@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
आभार सन्तोष भाई
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