अच्युतानंद मिश्र का आलेख 'शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है'



मुक्तिबोध
आजाद भारत, जिसके सपने बुनते हमारे तमाम सेनानी अपनी आहुति दे बैठे, उनके लिए एक यूटोपिया ही साबित हुआ जिन्होंने उससे तमाम उम्मीदें पाल रखीं थीं.  शासकों के रंग-रूप तो जरुर बदल गए, लेकिन उनका चरित्र नहीं बदला. कुल मिला कर वह लोकतंत्र ही लहुलुहान होता रहा जिसे आजाद भारत का आधार बनाया गया था. मुक्तिबोध ने इस विरोधाभास को महसूस करते हुए इसे अपनी काव्यात्मक संवेदना में ढालने की एक ईमानदार कोशिश की थी. उनके यहां लम्बी कविताओं का एक लंबा सिलसिला यूं ही नहीं मिलता. चुकि दुःख और पीड़ा का सिलसिला इतना लम्बा, कह लें अंतहीन है इसलिए उनके यहाँ काव्यात्मक वितान भी अक्सर लम्बा दीखता है. युवा कवि अच्युता नन्द मिश्र ने मुक्तिबोध की लम्बी कविता  'अँधेरे में' को  समझने के क्रम में   यह आलेख लिखा है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.
 
शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है 
अच्युतानंद मिश्र 

मुक्तिबोध की कविता की मूल संवेदना स्वातंत्र्योत्तर भारत की चेतना से निर्मित है, यानि उसके भूगोल को हम पचास के दशक के भारत में इंगित कर सकते हैं। पचास के पूर्व राष्ट्रीय संघर्ष न सिर्फ हमारे राजनीतिक जीवन, अपितु सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के केंद्र में भी मौजूद था। वहाँ व्यक्ति से राष्ट्र की ओर, एक दृष्टिकोण, सतत प्रेरणा की तरह मौजूद था। इसे हम तमाम जटिलताओं के साथ निराला की कविता में देखते हैं, जहाँ वे अपने निजी संघर्षों को राष्ट्रीय संघर्ष की चेतना से जोड़ते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात हमारे जीवन में एक विराट शून्य प्रवेश करता है। राष्ट्रीय संघर्ष की परिणति और निजी जीवन के संकट दोनों में एक बड़ा फांक संभवतः पहली बार मुक्तिबोध देखते हैं। इसलिए मुक्तिबोध की कविता में भयवाह दृश्य हैं, आशंकाएं हैं, चेतावनी है लेकिन निराला की तरह उनके पास राष्ट्रीय मुक्ति का विकल्प मौजूद नहीं था। मुक्तिबोध की कविताओं को हम निराला की कविताओं की क्रमिकता में नहीं पढ़ सकते। वहाँ एक क्रम भंग है। निराला की कविताओं से जैसा रिश्ता त्रिलोचन या नागार्जुन या केदारनाथ अगरवाल का बनता है, वैसा मुक्तिबोध का नहीं। मुक्तिबोध राष्ट्र से व्यक्ति की तरफ आते हैं और पाते हैं कि 

शून्यों से घिरी हुयी पीड़ा ही सत्य है

शेष सब अवास्तव यथार्थ मिथ्या है भ्रम है

सत्य केवल एक जो कि

दुखों का क्रम है 

मुक्तिबोध का यह दुःख निराला के दुःख से एकदम भिन्न हैवहाँ निजता का सार्वजनीकरण है। यहाँ निज और सार्वजनिक के बीच कोई सरलीकृत सम्बन्ध नहीं 

लोगों एक ज़माने में

तुम मेरे ही थे

बहुत स्वप्नद्रष्टा चिन्तक थे कवि थे

क्रन्तिकारी रवि थे!!

अब कहाँ गये वे स्वप्न

उन्हें किसी कचरे के ढूह में

यत्नपूर्वक जला दिया

उदरम्भरी बुद्धि के मलिन तेल में

स्वयं को गला दिया धातु-सा 

मुक्तिबोध निज की तलाश में भटकते हैंमुक्तिबोध की कविता यह प्रश्न पूछती है कि देश का मतलब क्या? व्यक्ति और देश के बीच कौन सा सम्बन्ध है?

कामायनी में वे व्यक्ति, राष्ट्र और समाज के बीच त्रिकोणात्मक सम्बन्ध की बात करते हुए प्रसाद की विश्व-दृष्टि की और इशारा करते हैं। उन्हें लगता है कि यह त्रिकोणात्मक सम्बन्ध संकटग्रस्त हो गया है।  लेकिन इसे किसी एक की तरफ से नहीं कहा जा सकता। मुक्तिबोध न तो व्यक्ति की उपेक्षा करते हैं न समाज की और न ही राष्ट्र की। फिर अभिव्यक्ति का तरीका क्या होगा? अचानक उनके मन में एक फैंटसी जगती है, वे कहते हैं –

अरे! जन-संग-ऊष्मा के

बिना व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते

प्रयासी प्रेरणा के श्रोत

सक्रिय वेदना की ज्योति

सब साहाय्य उनसे लो।  

तुम्हारी मुक्ति उनसे प्रेम में होगी

कि तद्गत लक्ष्य में से ही

ह्रदय के नेत्र जागेंगे,

व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त

करने की क्रिया में से

उभर-उभर

विकसते जायेंगे निज के

तुम्हारे गुण

कि अपनी मुक्ति के रास्ते

अकेले में नहीं मिलते 

लेकिन यह मुक्तिबोध द्वारा उठाये गए प्रश्नों का उत्तर नहीं है। यह तो उस क्रम में समाज और राष्ट्र की और से उनके मन में आई एक बात है, मुक्तिबोध का मन कई तरह के विरोधाभासों और द्वंद्वों से भरा है। उनके पास कोई सीधा सादा समाधान नहीं है - कि अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।  

प्रसाद अपने मन की बात को ऐतिहासिक पात्रों चरित्रों द्वारा कहलवाते हैं। कामायनी में इड़ा, मनु और श्रद्धा को प्रसाद के मानसिक के विभाजन के रूप में देखा जा सकता है। मुक्तिबोध इसके लिए फंतासी को रचते हैं। मुक्तिबोध का मूल संकट है व्यक्ति -राष्ट्र और समाज के परस्पर सम्बन्धों का आज़ादी के बाद अर्थ। मुक्तिबोध की समूची कविता इसी प्रश्न का जवाब तलाशती है। मुक्तिबोध वस्तुतः प्रक्रियाओं के कवि हैं। आज़ादी के उपरांत हमारे सामाजिक जीवन में घट रहे बड़े परिवर्तनों को मुक्तिबोध उसकी संपूर्ण जटिलता के साथ देखने का प्रयत्न करते हैं

मुक्तिबोध हिंदी कविता में क्रमभंग को रचते हैं। इसके सामानांतर आज़ादी के बाद हमारे सामाजिक जीवन में भी एक क्रमभंग आता है। ऐसा नहीं है कि उसकी शुरुआत आजादी के बाद ही होती है। यह टूटन समाज में पहले से ही मौजूद था लेकिन राष्ट्रीय संघर्ष के विराट लक्ष्य में वह ओझल हो गया था।  आज़ादी के बाद यह संकट गहरा हो गया। व्यक्ति और समाज के बीच मौजूद सेतु टूट गया। ‘अँधेरे में’ कविता व्यक्ति और समाज की इस टूटन को बेहद जटिलता एवं संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है।  आज जिस तरह की स्थितियां हैं, जो कुछ घट रहा है, उसकी आशंका मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ कविता में पहले ही व्यक्त किया था। अक्सर मुक्तिबोध पर बात करते हुए कुछ सूत्र गढ़ लिए जाते हैं जैसे मध्य वर्ग की आलोचना का प्रश्न, दरअसल मुक्तिबोध एक खास तरह के वर्ग द्वंद्ध को रचते हैं। मुक्तिबोध न तो किसी के पक्ष में खड़े हैं और न ही विरोध में। मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में में जो अपराध-बोध है, आत्मग्लानि है वह दरअसल मुक्तिबोध के भीतर का अंतर्द्वंध ही है जिसके आलोक में वे बाहर की दुनिया को देखते हैं, इसीलिए मुक्तिबोध को दीवारों पर झड़े हुए पलस्तरों में मानवीय आकृतियाँ नज़र आती हैं। वे उनसे संवाद करते हैं। वे एक तार्किक विपर्यय को रचते हैं। मुक्तिबोध स्वप्न के भीतर स्वप्न को इसलिए लाते हैं ताकि उसमे समय की एकरैखिकीय अनुशासनात्मकता को भंग किया जा सके। एक व्यक्ति के भीतर एक समाज एक राष्ट्र की खोज और उस सबमे मौजूद वर्तमान की तलाश। मुझे लगता है मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में इसे खोजने की कोशिश करती है। वहाँ व्यक्तित्व की खोज का अर्थ पर्सनल की तलाश नहीं है, बल्कि मुक्तिबोध के लिए व्यक्तित्व का संदर्भ बहुत व्यापक है। वे उसे समाज और राष्ट्र का प्रतीक बना देना चाहते हैं। लेकिन ऐसा न कर सकने की जटिलता उन्हें एक अबूझ रहस्यमयता की और ले जाती है, जिसके अलोक में यानि अँधेरे में के विराट प्रकाश में वे उसे व्याख्यायित करते हैं। 

वह रहस्यमय व्यक्ति

अब तक न पाई गयी मेरी अभिव्यक्ति है,

पूर्ण अवस्था वह निज–संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की

मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,

ह्रदय रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,

आत्मा की प्रतिमा। 

यह है मुक्तिबोध के उस व्यक्तित्व की पहचान, लेकिन ज्ञान का तनाव इंगित करता है कि ज्ञान और संवेदना के संतुलन का निर्वाह कर पाना उसके लिए कठिन होता जा रहा है। मुक्तिबोध के लिए मूल संकट है ज्ञान और संवेदना का की युगीन द्वंद्वात्मकता। वे युग को इस द्वंद्व के आलोक में चिन्हित करते हैं। 

इसी ज्ञान के दवाब में एक दिशा निकलती है, आत्मविकास एक मार्ग खुलता है और उस ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति-

चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,

उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे,

उनके लेख देखे थे, यहाँ तक कि कवितायेँ भी पढ़ी थी

भाई वह !

उनमे कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण

मंत्री भी उद्योगपति और विद्वान

यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात

डोमाजी उस्ताद

बनता है बलबन  

यह सब कुछ मुक्तिबोध के उस रहस्यमय व्यक्ति की परिणति है। इसलिए उसमे एक आत्मग्लानि है। अपनी आत्मा के आईने में आत्मविकास को देख कर मुक्तिबोध का मन डर जाता है। वे भागते हैं। और फिर अचानक कुछ और घटने लगता है। 

मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' एक विशाल अनिश्चयात्मकता को रचती है, यह अनिश्चयात्मकता ही हमारा वर्तमान है। 

अच्युतानंद मिश्र

सम्पर्क - 



G-12/1

FIRST FLOOR

MALVIYA NAGAR

NEW DELHI- 110017
MOBILE 9213166256  


टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (26-12-2016) को "निराशा को हावी न होने दें" (चर्चा अंक-2568) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं