अनिल कुमार सिंह का आलेख 'जीवन-संघर्ष का यथार्थ: मुक्तिबोध की कविता'
मुक्तिबोध |
मध्यवर्गीय विडम्बनाओं को देखने-पहचानने के लिए आपको जरुरी तौर पर मुक्तिबोध के पास जाना पड़ेगा। उनके लेखन के गहन आशय हैं। जीवन की तल्ख़ अनुभूतियाँ हैं। यह वर्ष मुक्तिबोध का जन्म-शताब्दी वर्ष है। हमारी कोशिश है कि इस महाकवि को याद करते हुए हर माह कम से कम एक आलेख 'पहली बार' पर प्रस्तुत किया जाए। कवि अनिल कुमार सिंह ने मुक्तिबोध की कविता के बहाने से एक आलेख लिखा है। आज इसी क्रम में पहली बार पर पढ़िए अनिल कुमार सिंह का यह आलेख - 'जीवन-संघर्ष का यथार्थ : मुक्तिबोध की कविता'।
जीवन-संघर्ष का यथार्थ: मुक्तिबोध की कविता
जीवन-संघर्ष का यथार्थ: मुक्तिबोध की कविता
अनिल कुमार सिंह
मुक्तिबोध की अपेक्षाकृत कम चर्चित कविता है ‘मैं तुम लोगों से दूर हूँ’। यह डायरी शैली में लिखी कविता है, जिसे पढ़ते हुए ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के आत्मपरक, सुचिन्तित निबन्धों की याद सहज ही आ जाती है। फिर भी यह गद्य नहीं है। गहन आशयों से लैस यह कविता मुक्तिबोध की एक नागरिक और कवि के रूप में बेचैनियों का सख्त दस्तावेज़ है। निम्न मध्य वर्गीय जीवन की विसंगतियाँ जहाँ व्यक्ति को तोड़ देती हैं, वहीं इसी उर्वर जमीन से नए आदर्श एवं बदलाव की आकांक्षाओं के अंकुर भी फूट निकलते हैं। यह काँपता हुआ आत्मविश्वास अपनी अकिंचनता और पार्थिवता में भी मुक्ति के सपने दिखा जाता है। आकस्मिक नहीं कि मुक्तिबोध की अधिकांश कविताएँ उनकी स्वप्न-कथाओं का ही विस्तार लगती हैं। निम्नवर्गीय मानवीय जीवन के ‘रक्ताल’, भयावह यथार्थ को उसके नंगे रूप में प्रस्तुत करने को मुक्तिबोध कला नहीं मानते, ‘‘अपने को पीसने वाली परिस्थितियों और प्रवृत्तियों को उनके नंगे पाशविक रंग में पेश मत करो। यह कला नहीं है।’’1 इसीलिए उनकी काव्य अभिव्यक्ति में जीवन संघर्ष का यथार्थ उनकी कलात्मक अभिरुचि से रगड़ खाता ही रहता है। इस प्रक्रिया में ‘विचार स्फुलिंग’ ‘चकमक की चिंगारियों’ की तरह हवा में उड़ते रहते हैं। मुक्तिबोध अपनी शब्दावली में इसे ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ कहते हैं। यहाँ संवेदना और ज्ञान का संतुलन है। यह ज्ञान सहज हासिल नहीं है, बल्कि शमशेर के शब्दों में ‘‘भावना के कुदाल से अनुभव की कड़ी धरती को अनथक गहरे’’2 खोदते हुए मिला है।
विचार स्फुलिंगो से मुक्तिबोध की कविता
बनती है। उसका अपना अँगूठा स्थापत्य है जो किसी भी दूसरे की तरह नहीं है। उसमें
व्यक्त यथार्थ सबका है किन्तु उसकी सबसे प्रामाणिक और सशक्त अभिव्यक्ति मुक्तिबोध
ही संभव कर पाये हैं; वह
जमीनी है, ठोस है, पथरीली घाटी में बहती नदी का शोर तथा
व्याप्ति है उसमें। पहाड़ के अनगढ़, भारी भरकम पत्थरों की तरह बिम्ब और
प्रतीकों का मूल सन्दर्भ उनका अपना ही जीवन और परिवेश है। इसीलिए वह अर्थ से इतना
प्रदीप्त है कि पाठक को सहज ही अपनी रौ में बहा लिए जाता है। शमशेर के शब्दों में ‘‘वे बहुत जागे हुए होश के चित्र हैं।’’3 शब्द उसके बहाव में घिस कर एकदम सही
जगह पर जम जाते हैं। इस कविता की जमीन मुक्तिबोध की जीवन स्थितियों की तरह ही
उबड़खाबड़पन लिए हुए हैं। चूंकि यह भारतीय जीवन का यथार्थ है। इसलिए उस में हम अपनी
शक्लें फौरन पहचान लेते हैं। मुक्तिबोध जैसे कवि की जटिल संवेदनाओं के साधारणीकरण
का यही रहस्य है। वे हमारी अपनी बातें ही हमारे कान में फुसफुसाती हैं। हम उन्हें
अनसुना करते हुए भी उनके बेचैन दंश को झेलते रहते हैं। कविता की मुक्ति व्यक्ति की
मुक्ति से एकमेक हो जाती है। ये उड़ते हुए विचार स्फुलिंग जीवन की गहरी घाटियों में
उतर कर हासिल किए गए अनुभव के प्रत्यक्षीकरण हैं।
मुक्तिबोध आजाद भारत के सबसे
महत्वपूर्ण कवि एवं विचारक हैं। यद्यपि ‘तारसप्तक’ का प्रकाशन 1943 में हुआ था और उसमें
संकलित कविताएं उसी दौर की हैं; फिर भी मुक्तिबोध जैसे विचारक और कवि
पर राजनैतिक, गुलामी का कोई दबाव नजर नहीं आता। इसमें साबित
होता है कि जनचेतना राजनैतिक-आर्थिक दमन व गुलामी के दौर में भी अपनी कूबत और
आजादख़्याली से लोगों का नेतृत्व कर सकती है। औपनिवेशिक या आज के दौर में पूंजीवादी
और पुनरुत्थानवादियों के गठजोड़ द्वारा प्रायोजित फासिस्ट राजनैतिक दमन जनता को
पस्तहिम्मत नहीं करते बल्कि वह ‘‘हठ इनकार का सिर तान...खुद मुख्तार’’ परिवर्तन और आजादी के संघर्ष की इक नई
मुहिम में शामिल हो जाती है। 1942 के आंदोलन ने भारतीय अवाम की इस स्वातंत्र्य
चेतना को एक नया तात्कालिक आत्मविश्वास दिया था। वह मानसिक रूप से स्वंतत्र हो
चुकी थी; भले ही आजादी 1947 में मिली हो। यही दौर है जब
मुक्तिबोध मार्क्सवाद की ओर आकृष्ट होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध पर इसका असर अलग
तरीके से दिखाई पड़ता है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर से ही वे देख रहे थे कि अंग्रेजी
शासन के कमजोर पड़ते जाने के साथ ही देश में प्रतिगामी ताकतों का एक नया समूह उभर
कर सामने आ रहा है। इस देशी बुर्जुवाजी का पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक तरफ
तो कांग्रेस के नेताओं से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और दूसरी तरफ पुनरुत्थानवादियों
से। एक तरह से कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं को इस बुर्जुवा वर्ग का संरक्षण
प्राप्त है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर में इस वर्ग को जो संरक्षण विदेशी शासन से था
वह आजाद भारत में कांग्रेस शासन से मिलने लगा। आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री
जवाहर लाल नेहरू का रूमानी समाजवाद अपनी अनथक कोशिशों के बावजूद इस प्रतिगामी बाढ़
को रोकने में उत्तरोत्तर निष्प्रभावी होता गया। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान बना
उनका विराट नैतिक और सामाजिक व्यक्तित्व प्रतिरोध की एक क्षीण आवाज बन कर रह गया
था। इसकी बड़ी वजह खुद कांग्रेस के भीतर मौजूद प्रतिगामी सोच की ताकतें ही थी।
नेहरू की 1964 में हुई मृत्यु के बाद पार्टी के भीतर मौजूद इन प्रतिगामी ताकतों ने
मुनाफाखोर पूँजीपतियों से समझौता करने में जरा सी देर न की। देश को आजाद कराने के
संघर्ष के दौरान अर्जित उच्च नैतिक आदर्शों का स्थान ‘कोटा परमिट’ राज ने ले लिया। यही मुक्तिबोध की रचनाशीलता का
दौर भी है। आदर्शों के पतन तथा लूटखसोट के अंधेरे समय में मुक्तिबोध को
मार्क्सवादी दर्शन में मुक्ति का रास्ता दिखाई पड़ा। लेकिन यह उनके लिए केवल फैशन
के रूप में नहीं था, जैसा कि प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है ‘‘मुक्तिबोध ने एक व्यवस्थित विश्व-दृष्टि
अर्जित करने के लिए गहन आंतरिक संघर्ष के फलस्वरूप मार्क्सवादी दर्शन को अपनाया
था।’’4 कोई भी रचनाकार ‘गहन आंतरिक संघर्ष’ के बिना नये जीवनानुभवों से लैस नहीं
हो सकता। इस आंतरिक संघर्ष के ताप पर तपे हुए निजी अनुभव अभिव्यक्ति के नए रास्ते
तलाशते हैं। निजी अनुभवों की आत्मपरकता भी सार्वजनीन हो सकती है, व्यक्तिगत नहीं। इसीलिए वह पूरे समाज
पर लागू होती है। क्यों कि ‘‘मुक्तिबोध अनुभूति की ईमानदारी को सुव्यवस्थित और अनुशासित करने वाली
अनुभूति की सच्चाई को महत्वपूर्ण मानते हैं; इसलिए वे आत्मपरक ईमानदारी और ‘वस्तुपरक सत्यपरायणता’ की बात करते हैं।’’5 मुक्तिबोध के लिए व्यक्ति और समाज का विरोध ‘बौद्धिक विक्षेप’ है। उनका मत है कि ‘‘हमारा सामाजिक व्यक्तित्व ही हमारी
आत्मा है। आत्मा का सारा सार-तत्व प्राकृत रूप से सामाजिक है।’’6
आत्मा या आत्मपरकता वाली शैली की आड़
लेकर कुछ आलोचक मुक्तिबोध को अस्तित्ववादी सिद्ध करने की कोशिश करते रहे हैं।
लेकिन मुक्तिबोध को सावधानी से पढ़ने वाला पाठक जानता है कि यह आलोचकों का ‘बौद्धिक विक्षेप’ मात्र है। मुक्तिबोध का जीवनानुभव उनके
सौन्दर्य अनुभव से अभिन्न है। जीवनानुभवों से अर्जित दृष्टि कभी ‘थोपी हुई’ नहीं रहती बल्कि ‘अंतर का निजतेजस्व आलोक’ बन कर अभिव्यक्त होती है।
‘मैं तुम लोगों से दूर हूँ’, मुक्तिबोध की अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है। इस कविता में मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया तथा काव्य व्यक्तित्व की बनावट को समझने के भी महत्वपूर्ण सुराग मिलते हैं। 1943 में अज्ञेय के संपादन में ‘तारसप्तक’ का प्रकाशन हुआ था। सप्तक के कवि प्रयोगशील होते हुए भी विचारों में गहरी मतभिन्नता लिए हुए थे। अज्ञेय स्वयं आधुनिकतावादी होने के साथ अंग्रेजी के कवि टी.एस. इलिएट के विचारों से प्रभावित थे। वे इलियट के प्रसिद्ध निबंध ^Tradition and Individiual Talent* से खास तौर पर प्रेरित थे। टी. एस. इलियट का मानना था कि भावनाओं की अभिव्यक्ति सीधे न होकर वस्तुनिष्ठ सम्बद्धताओं के जरिए होनी चाहिए। इसे वे कलाकार का व्यक्तित्व से पलायन ¼Escape From Personality½ कहते थे। अज्ञेय उनके कविता सम्बन्धी विचारों को हिन्दी में ला रहे थे। अज्ञेय की वैयक्तिक स्वतंत्रता और व्यक्तिवाद एवं मुक्तिबोध के निज ¼Self½ में भारी अंतर है। आधुनिकतावाद से मुक्तिबोध भी प्रभाविात थे, किन्तु उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा का संबल मिल गया था। इसलिए मुक्तिबोध ने व्यक्तिवादी अनुभूति की ईमानदारी के भावगत तथा आत्मगत पक्ष का विरोध करते हुए कहा कि ‘‘अनुभूति की ईमानदारी का नारा देने वाले लोग, असल में, भाव या विचार के सिर्फ सब्जेक्टिव पहलू, केवल आत्मगत पक्ष के चित्रण को ही महत्व दे कर उसे भाव-सत्य या आत्मसत्य की उपाधि देते हैं। किन्तु भाव या विचार का एक ऑब्जेक्टिव पहलू अर्थात् वस्तुपरक पक्ष भी होता है।’’7 मार्क्सवाद और आधुनिकतावाद का सबसे ज्यादा सधा हुआ संतुलन पूरे आधुनिक हिंदी साहित्य में हमें सिर्फ मुक्तिबोध में ही प्राप्त होता है। मार्क्सवादी विचारधारा को आलोक ने ही मुक्तिबोध को आधुनिकतावाद की आड़ में चल रहे शीतयुद्ध के प्रभावों को लक्षित कर लेने की दृष्टि प्रदान की। उन्होंने समझ लिया कि नयी कविता का व्यक्तिवाद, प्रगतिवाद तथा समाज-विरोधी है। नयी कविता के व्यक्तिवादी आभिजात्य में हाशिये पर पड़े लोग सिर्फ ‘अन्य’ है। इस ‘अन्य’ के अपने निजी कष्टों, जीवन संघर्ष का व्यक्तिवादियों के लिए कोई मूल्य नहीं है। इसी लिए मुक्तिबोध इन लोगों से खुद को अलगाते हुए लिखते हैं-
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा
इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।8
तुम्हारे और मेरे के बीच की यह खाई
बढ़ती ही गई है। मुक्तिबोध के समय में इसके आशय कहीं ज्यादा स्पष्ट थे। आज न्यस्त
स्वार्थों के बैंड दल अपनी ही धुन पर थिरक रहे हैं। उन्हें किसी की परवाह नहीं; इसीलिए मुक्तिबोध की यह घृणा हमें बिलकुल असली
और अपनी लगती है। पूंजीवादी व्यवस्था ने नई कविता के व्यक्तिवाद को आज के सामाजिक
विलगाव में बदल दिया है। हर कोई सिर्फ और सिर्फ अपना है। सबका अपना व्यक्तिगत
संघर्ष है, एक तरफ पद और प्रतिष्ठा के लिए तो दूसरी तरफ
रोटी के टुकड़े के लिए। अस्मिता की राजनीति ने कोढ़ में खाज का काम किया है। न्याय
और अधिकार के सामूहिक संघर्षों की जगह जातियों और धर्म संप्रदायों के संघर्ष में
ले ली है। लेकिन मुक्ति तो पीड़ितों के साहचर्य और सामूहिक संघर्ष में ही मिलने
वाली है। इसलिए मुक्तिबोध का मैं अकेला नहीं महसूस करता। वह जानता है कि अपने
लोगों के बीच ‘चलते-फिरते साथ’ के साथ-साथ ‘साहचर्य का बढ़ा हुआ हाथ’ हमेशा उपस्थित रहता है। यह साहचर्य मध्यवर्गीय
सुख-सुविधाओं और झूठ में डूबे लोगों के लिए गर्हित है; क्यों कि उनके लिए यह असुविधा उत्पन्न करता है।
ईमानदारी और नैतिकता, सामान्य
जन का साहचर्य किसी को भी दुनियावी अर्थ में अकेला और अभिशप्त बना सकती है।
मुक्तिबोध को अनुभव है कि मध्यवर्गीय समझौतों की दुनिया से दूरी बना कर तथा पीड़ित
और दुखियारे लोगों को अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर उनका ‘मैं’ दूसरों के सतत आघात के लिए निरापद हो
गया है। यह आघात सार्वजनिक ही नहीं अकेले में भी हैं। क्योंकि हमलावर सिर्फ सत्ता प्रतिष्ठान
से ही परिचालित नहीं है बल्कि वे हमारे अपने बीच के समझौतावादी लोग हैं।
जनपक्षधरता और साहचर्य का जो अन्न-जल हमारे लिए जीवनदायिनी है वह उनके लिए किसी
विष से कम नहीं। यह द्वन्द्व सिर्फ समाज में नहीं व्यक्ति के भीतर भी है; जहाँ अपने मध्यवर्गीय संस्कारों से लड़
कर मुक्ति पाने के संघर्ष में व्यक्ति लहूलुहान हो रहा है। दुश्मन भीतर भी हैं। इस
संघर्ष में महाकाव्यात्मकता का औदात्य नहीं बल्कि गहरा टुच्चापन संगुम्फित है। इस
झमेले से बाहर आने की व्याकुलता कवि को छलनी किए डाल रही है। मुक्तिबोध के लिए ‘‘सच्चा व्यक्ति-स्वातंत्र्य अगर किसी को
है तो धनिक वर्ग को है, क्योंकि
वह दूसरों की स्वतंत्रता खरीद कर अपनी स्वतंत्रता बढ़ाता है, और अर्थव्यवस्था, राजनैतिक व्यवस्था-सम्पूर्ण समाज
व्यवस्था का पदाधीश बन कर, प्रत्यक्षतः और अप्रत्यक्षतः स्वयं या
विक्रीता आत्माओं द्वारा अपने प्रभाव और जीवन को स्थायी बनाता है।9
मुक्तिबोध विक्रीता आत्माओं में बदल
जाने से बेहतर असफल हो जाने को मानते हैं। ‘छल-छद्म धन’ के ‘चक्करदार जीनों’ पर मिलने वाली सफलता के शीर्ष पर चढ़ने
की बजाय वे ‘जीवन’ की ‘सीधी-सादी पटरी’ पर दौड़ने में विश्वास रखते हैं लेकिन
उन्हें हमेशा लगता है कि उनके प्रयास अपर्याप्त हैं। वे खिन्न होते हैं अपने
कर्मों की सार्थकता पर भी-
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर
चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर, रोज कोई भीतर, चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता
10
जाहिर है कि ऐसे में जनसमाज की
कर्मनिष्ठा भी ‘अन्य’ हो जाती है। इससे बच निकलने की छटपटाहट या आत्म-संघर्ष
ही हमें आगे ले जा सकती है, नए रास्ते दिखा सकती है। हम जैसे भी
हैं उससे बेहतर होने की आकांक्षा ही हमें भविष्योन्मुख बना सकती है।
कवि को लगता है कि रेफ्रिजरेटरों, विटैमिनों तथा रेडियोग्रैमों की सुविधा के बाहर भी एक अलग
दुनिया गतिशील है;
जहाँ
भूखी बच्ची मुनिया को माँ की छाती से भी खुराक नहीं मिलती। जहाँ चारों तरफ दिमाग को
सुन्न कर देने वाली भयानक गरीबी तथा भूख है। इस नंगे यथार्थ में कवि महसूस करता है
कि-
शून्यों
से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
शेष
सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम हैं
सत्य
केवल एक है जो कि
दुःखों
का क्रम है। 11
यह दुख सत्य है क्यों कि यह सबका है।
उन सब का जिसे यह व्यवस्था ‘अन्य’
समझती
आयी है। चूंकि यह दुख सबका और सत्य है इस लिए इससे बाहर ले जाने वाला रास्ता भी
सबका होगा। इस रास्ते की तलाश कवि को खुद करनी
होगी। अपने मध्यवर्गीय सुरक्षित खोल से बाहर आ कर जन सामान्य में घुल मिल
जाना होगा; वर्ना तो स्थितियाँ जस की तस ही रहेंगी-
मैं
कनफटा हूँ हेठा हूँ
शेव्रलेट-डॉज
के नीचे मैं लेटा हूँ
तेलिया
लिबास में, पुर्जे सुधारता हूँ
तुम्हारी
आज्ञाएँ ढोता हूँ।12
सन्दर्भ:
1. सड़क
को लेकर एक बातचीत, एक साहित्यिक की डायरी, अप्रैल 1957
2. भूमिका, शमशेर, ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है।‘
3. वही।
4. अनभै
साँचा, प्रो. मैनेजर पाण्डेय
5. अनभै
साँचा, प्रो. मैनेजेर पाण्डेय. पृ. 228
6. नयी
कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध, पृ. 28
7. एक
साहित्यिक की डायरी, मुक्तिबोध, पृ. 133
8. चाँद
का मुंह टेढ़ा है, मुक्तिबोध, पृ. 133
9. नयी
कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध, पृष्ठ 179
10. चांद
का मुंह टेढ़ा है, मुक्तिबोध, पृष्ठ 121
11. वही, पृ. 122
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.12.16 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2557 में दिया जाएगा
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