मुक्तिबोध के संबंध में विनोद कुमार शुक्ल से घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार की बातचीत
मुक्तिबोध |
मुक्तिबोध जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं द्वारा मुक्तिबोध विशेषांक निकाले जा रहे हैं। यह स्वाभाविक होने के साथ-साथ हम सब का दायित्व भी है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'समकालीन जनमत' का अभी-अभी मुक्तिबोध अंक आया है। इस अंक में मुक्तिबोध के नजदीक रहे कवि विनोद कुमार शुक्ल से साक्षात्कार लिया है घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार ने। तो आइए आज पहली बार पर रु-ब-रु होते हैं इस महत्वपूर्ण बातचीत से।
मुक्तिबोध के संबंध में विनोद कुमार शुक्ल से घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार की बातचीत
प्रश्न: मुक्तिबोध से आपकी मुलाकात कब
और किस तरह हुई?
विनोद कुमार शुक्ल : सन् 1958 में
मुक्तिबोध जी से मेरी मुलाकात राजनांदगांव में हुई। मेरे परिवार से उनके संबंध
पहले से थे, चचेरे बड़े भाई बैकुण्ठ नाथ शुक्ल उनके
पिता याने मेरे चाचा शिवबिहारी जी बैकुण्ठपुर में जंगल के ठेकेदार थे। उन्हीं
दिनों मुक्तिबोध जी ‘हंस’ में बनारस में थे। हंस के ग्राहकों की सूची में बैकुण्ठ नाथ
का नाम भी था। मुक्तिबोध जी हंस के ग्राहकों की सूची देखते थे तो उनको ये बड़ा अजीब
लगता था कि एक ग्राहक बैकुण्ठ नाथ शुक्ल जिसका शहर बैकुण्ठपुर है यह उन्हें याद
रहा।
जब
वे सन् 1958 में नांदगांव (राजनांदगांव) आये और मेरी उनसे कई बार मुलाकात हो चुकी
थी कुछ समय बीत गया था तब उन्होंने ही मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई से मेरा
परिचय था। बैकुण्ठ नाथ जिनको हम रज्जन दादा कहते थे, नागपुर वकालत पढ़ने चले गए उन्हीं दिनों
मुक्तिबोध जी भी नागपुर आ गए। बैकुण्ठ नाथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय
कार्यकर्ता थे। उन दिनों अंडरग्राउंड भी रहे। इस कारण भी उनका परिचय मुक्तिबोध जी
से हो गया। कम्युनिस्ट पार्टी में एक पारसी लड़की ‘कैटी’, बैकुण्ठ नाथ से विवाह करना चाहती थी। मैंने
सुना था मुक्तिबोध जी ने मध्यस्थता भी की पर विवाह नहीं हो सका। बैकुण्ठ नाथ के
साथ मुक्तिबोध जी के पत्र व्यवहार सहित मिलने-जुलने की लम्बी घनिष्टता थी। इन को
32-33 की उम्र में ब्लड कैंसर हो गया। शादी हुए कुछ महीने ही हुए थे भाभी के पेट
में छः महीने का बच्चा था कि उनकी मृत्यु हो गई। तब तक मैं मुक्तिबोध जी को नहीं
जानता था और तब तक जब तक यानि वे नांदगांव नहीं आये। एक कवि के रूप में मैंने उनका
नाम भी नहीं सुना था लेकिन बाबू जी से यानि बैकुण्ठनाथ के पिता से मैंने कई बार
सुना। एक टिन की पेटी ले कर वे बैठे थे और मुक्तिबोध जी की चिट्ठियाँ जो उन्होंने बैकुण्ठ
नाथ को लिखी थी, फाड़ते जाते थे और मुक्तिबोध जी को
कोसते कि मेरे बेटे को कम्युनिस्ट बना कर बिगाड़ दिया, लेकिन वे पहले से ही कम्युनिस्ट थे।
अगर मेरा मुक्तिबोध जी से पहले परिचय हो जाता तो उनकी चिट्ठियों को बचाने की जतन
करता।
सन् 1958 में मुक्तिबोध जी नांदगांव
आये। उनके चाहने वालो ने उन्हें दिग्विजय महाविद्यालय लाने की कोशिश की। मेरे सबसे
छोटे चाचा किशोरी लाल शुक्ल दिग्विजय महाविद्यालय की स्थापना में जिनका योगदान था
अवैतनिक प्राचार्य थे। मुक्तिबोध जी ने आवेदन किया था और बैकुण्ठ की पत्नी जो उनकी
मृत्यु के बाद मायके लखनऊ लौट कर चली गई थी हिन्दी में एम. ए. पहले से थी वहीं
रहते हुए बाद में पी-एच. डी. भी कर ली थी। मुक्तिबोध केवल एम.ए. थे। भाभी ने भी
उसी पद के लिए आवेदन किया था। जब यह बात मुक्तिबोध जी को मालूम हुई वे चाचा जी से
आकर मिले, उन्होंने कहा कि मैं अपना आवेदन पत्र
वापस लेना चाहता हूँ, बैकुण्ठ की पत्नी ने भी आवेदन किया है
ऐसा मैंने सुना है, उन्हें अधिक आवश्यकता है नौकरी की। पर चाचा जी
ने उनका आवेदन नहीं लौटाया और उन्होंने कहा मैं जानता हूँ कि कौन योग्य है, और मुक्तिबोध जी नियुक्त हुए।
मेरे बड़े भाई संतोष उनके विद्यार्थी
थे। बड़े भाई के कारण उन्हें मेरे परिवार की जानकारी हो गई थी कि मेरे पिता नहीं
हैं। मैं कविताएं मुक्तिबोध जी के मिलने से पहले भी लिखता था क्योंकि एक चचेरे बड़े
भाई भगवती प्रसाद भी कविता लिखते थे, सभी बड़े भाई कविता लिखते थे। भगवती
प्रसाद ने भाभी के गहने बेचकर अपने दो खण्ड काव्य इलाहाबाद से छपवाये थे। उनकी
कविताएं मुझे अच्छी लगती थी। जब मेरे बड़े भाई संतोष ने मुक्तिबोध जी से कहा कि
मेरा भाई भी कविताएं लिखता है तब उन्होंने कहा कि वह मुझ से आकर मिल ले। मुक्तिबोध
जी को मैं जानता नहीं था इक्के-दुक्के हिन्दी के कवियों को जिनके नाम नांदगांव तक पहुँच
गए थे, जैसे भवानी प्रसाद मिश्र को जानता था। बड़े भाई
के दो-तीन बार कहने के बाद मैं मुक्तिबोध जी से मिलने गया। मैं जबलपुर के कृषि
महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष में था। छुट्टियों में घर आया था जब मुक्तिबोध जी से
मिला जैसा कि उन्होंने बड़े भाई से कहा था कि कविताएं ले कर मिलूँ। कविताएं देखने
के पहले मुक्तिबोध जी ने कहा कविता लिखते जाना सबसे कठिन काम होता है तुम बाद में
सोचना पहले अच्छी तरह से अपनी पढ़ाई करो नौकरी करो, घर की सहायता करो बस इतना ही मिलना था, उनसे यह पहला मिलना। जब नांदगांव में शुरू-शुरू
में आये थे तो बसंतपुर में रहते थे, जो नांदगांव से लगा हुआ था अब नांदगांव का हिस्सा है। धुँधलके शाम का
समय था अंधेरा अधिक था जब मैं उनसे मिला। जहां वे रहते थे सामने के बरामदे में
जाफरी लगी थी मुक्तिबोध आये तो उनके हाथ में जलती हुई कंदील थी वहां तब या तो
बिजली नहीं थी या बिजली चली गई थी। मुक्तिबोध जी के आने के पहले कंदील का
हिलता-ढुलता उजाला पहले आया फिर उनके साथ-साथ आया। एक बारगी उस दृश्य को जब मैं
सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि कंदील का उजाला उनके साथ था जैसे कोई पालतू उनके साथ
होता है। मुक्तिबोध से मिलने पर हर मुलाकात के बाद मैं अपने आपको बदला हुआ महसूस
करता था। मुझे लगता कि मुक्तिबोध के पास होने से सोच को संजीवनी मिलती हो, मेरी दृष्टि में कुछ दूरबीन के तत्त्व आ जाते।
जब मैं बाहर की ओर देखता, मैं
दूर-दूर तक देख सकता था। कभी मन में झांकता तो माइक्रोस्कोपिक दृष्टि आ जाती। मैं
बहुत सूक्ष्मता से मन के खरोंच के कई स्लाइड देख पाता था। मनुष्य को पहचानने की
समझ अपने पहचानने से शुरू होती है। मुक्तिबोध जी बड़े भाई से पूछते थे कि मैं छुट्टियों
में कब नांदगांव आ रहा हूँ और उनसे कहते जब आये नई कविताएं साथ ले कर आये। सब
कविताएं लेकर आये। मुक्तिबोध से जब मिलता तो अपनी कविताओं के साथ मिलता जब तक
कविताएं नहीं होती मैं मुक्तिबोध जी से मिलने में संकोच करता था। मुझे लगता था कुछ
अधिक कविताओं के साथ उनसे मिलूँ और जा नहीं पाता था। जबलपुर में रहते हुए तथा
छुट्टियों में घर आने पर कविताएं लिखता था। लिखी कविताएं दिखाने योग्य हैं, यह मुझे कभी नहीं लगा। कई बार कविताएं दिखाने
के बाद एक बार कविताओं में से उन्होंने आठ कविताएं ‘कृति’ के संपादक श्रीकांत वर्मा को भेजी और पत्र लिखा
कि मैं युवा कवि विनोद कुमार शुक्ल की ‘कृति’
के
लिए कुछ कविताएं भेज रहा हूँ उन्हें स्क्रीनिंग करके देख लेना आज कल लिखी जा रही
कविताओं से मैं दूर हूँ छापने योग्य लगें तो छापना। फिर ये आठ कविताएं ‘कृति’ में प्रकाशित हुई। मेरे पास अंक नहीं
आया था। एक दिन जैसे ही मैं उनके घर गया उन्होंने शांता जी को पुकार कर कहा ’’विनोद आया है इसका संग्रह छपा है कुछ
मीठा बना दो’’ मुझे समझ में नहीं आया। शांता जी ने
रवे का हलवा बनाया,
उन्हों
ने बताया ‘कृति’ में मेरी आठों कविताएं प्रकाशित हुई है
उन आठ कविताओं को उन्होंने संग्रह कहा था। आज जब इस बात का स्मरण करता हूँ कि
संग्रह उनकी आंतरिक इच्छा थी जो वे अपनी कविताओं के देख नहीं सके थे। मैं उनकी लम्बी
कविताओं को सोचता हूँ, उन की एक-एक लम्बी कविता, कविता संग्रह की तरह होती थी। एक लम्बी
कविता, कविता से ही लम्बी होती है, मैंने अपनी लम्बी कविताओं के संग्रह को
भी कविता से लम्बी कविता कहा। वैसे मैं यह मानता हूँ कि एक जिन्दगी मिलती है और एक
जिन्दगी की कविता कविताएं नहीं होती केवल एक कविता होती है। कविता या रचना कभी भी
रचनाकार के घर में सुरक्षित नहीं होती। हमेशा पाठकों के बीच ही सुरक्षित होती है।
लिखी जाने के बाद कविता रचनाकार के घर की नहीं होती वह पाठकों के घर की होती है।
अपनी लिखी कविताओं के साथ रचनाकार बार-बार लिखने को तत्पर रहता है। वह जब भी अपनी
रचना को देखता है उसे फिर सुधार लेना चाहता है। मुझे लगता है रचनाकार को आलोचक की
बात का बुरा नहीं मानना चाहिए, मेरी रचना को कोई अगर खराब कहता है तो
मैं उस स्वीकार कर लेता हूँ। इसका कारण है कि मैं हमेशा एक अच्छी कविता लिखने की
कोशिश करता हूँ जो लिखी नहीं गई है, और अच्छी कविता हमेशा लिखे जाने को बची रहती है यही कारण है हमारा
छोड़ा हुआ रास्ता आने वाली पीढ़ी का रास्ता नहीं होता। जीवन का पठार बहुत ऊबड़-खाबड़
है आने वाले रचनाकार अपना रास्ता खुद बनाते हैं लेकिन उन्हें ताकत हमेशा लिखी जा
चुकी रचनाओं से मिलती है क्योंकि लिखी जा चुकी रचना आगे आने वाली रचना को रास्ता
दिखाती है और रास्ता दिखाना ही कविता की परंपरा बनाती है। दूसरे की रचना का प्रभाव
जरूर पड़ता है, मुक्तिबोध जी से जब भी मैं मिलता, वे यह जरूर पूछते थे कि मैंने क्या पढ़ा।
रचनाकार को दूसरे की रचना का ईमानदार पाठक होना चाहिए। बिना ईमानदार पाठक हुए
आलोचक की आलोचना भी गलत होती है। रचना तो संसार के अनुभवों का अपना संसार होता है
और किताब पढ़ना दूसरों के अनुभवों को अपना अनुभव बना लेना है।
प्रश्न: मुक्तिबोध भी अपनी कविता आपको
सुनाते थे?
विनोद कुमार शुक्ल : बाद-बाद में
मुक्तिबोध जो को शायद ऐसा लगने लगा कि मुझे वे अपनी कविताएं सुना सकते हैं, मुक्तिबोध जी कविता लिखने की जहां
टेबिल थी ऊपर की मंजिल में वहां खिड़की थी जिसमें मुर्गी जाली (बड़ी लोहे की जाली)
लगी थी। उससे रानी तालाब दिखाई देता था। मुक्तिबोध जी के टेबिल के चारों तरफ उनके
कविता लिखे कागज बिखरे रहते थे बड़े अक्षरों में लिखे, लम्बी-लम्बी कविताएं लिखते थे। आस पास
ढेर सारे बिखरे कागज कविताओं से भरे हुए। जब भी मैं मुक्तिबोध जी के घर जाता तो इस
तरह का दृश्य बार-बार का दृश्य होता था। नांदगांव में रहते हुए मुक्तिबोध जी ने
बहुत कविताएं लिखी एक-दो बार उनसे मैंने सुना भी कि ऐसी स्थितियाँ बनी कि लम्बी
होने के कारण एक-दो पत्रिकाओं ने उन्हें लौटा दिया। मुक्तिबोध कहते, विनोद सुनो! मैं तुम्हें कविता सुनाता
हूँ, वे कहते सुनाने में छंद की लय बनती है
कि नहीं? मैंने देखा है शास्त्रीय गायक जब गाते हैं तो
जांघ पर ताल देते हैं। मुक्तिबोध जी भी सुनाते हुए एक जांघ में हाथ धीरे-धीरे
ठोकते हुए ताल में लयबद्ध होते थे। मुक्तिबोध के कविताओं के शब्द मुक्तिबोध जी के
उच्चारण में धातु की झनझनाहट की तरह होते थे और मैं जब उनके चेहरे की तरफ देखता था
तो उनके सांवले चेहरे में इस्पाती चमक होती। मैंने मुक्तिबोध जी को तीखे नाक-नक्श
का कहा है। उनके चेहरे की चमक में इस्पात का मेकअप या यह कह ले कि लोहे के चेहरे
में एक अच्छे मनुष्य का प्राण रहता है। मुक्तिबोध जी एक बहुत अच्छे मनुष्य थे, उनको देखकर अच्छी कविता लिखने के
मापदंड में मैं यह शामिल करना चाहता हूँ कि अच्छा कवि होने के लिए अच्छा मनुष्य भी
होना चाहिए, अच्छा कवि, अच्छा पिता, अच्छा पति, अच्छा पड़ोसी, अच्छा भाई। ऐसा भी हुआ कि मुक्तिबोध जी
के माता-पिता भी आये थे और मैं उनसे मिलने गया। और उन्होंने कहा मुझे अपने पिता को
समय देना है आज तुम जाओ।
प्रश्न: वर्तमान समय में आप हिन्दी
कविता के महत्वपूर्ण एवं बड़े कवि के रूप में
स्थापित हैं, यहां से आप हिन्दी कविता में मुक्तिबोध जी का
क्या स्थान देखते है?
विनोद कुमार शुक्ल : कविता में कोई स्थायी और महत्वपूर्ण स्थान कम से कम मेरा नहीं है। मैं एक घर-घुसवा आदमी कविता में खानाबदोश हूँ लोगों से बात करने का मेरे पास यही तरीका है कि कविता लिखूँ। यह जरूर है जैसा मैंने पहले भी कहा है कि मैं मिट्टी का लोंदा था और मुक्तिबोध सबसे बड़े कुम्हार थे और उनके हाथों छुआ गया, अपने बड़े भाई संतोष का केवल एक ही सबसे बड़ा बड़प्पन जानता हूँ कि उन्होंने मुझे मुक्तिबोध जी से मिलवाया। यह संयोग था कि कविता के संसार में डरते-डरते संभवतः भटकते हुए मैं सबसे पहले जिन से मिला वे मुक्तिबोध थे उन्होंने मुझे अंदर बुलाया उन्हीं के कारण मेरा परसाई जी से जबलपुर में मिलना-जुलना हुआ। मैंने श्रीकांत वर्मा के बारे में उन्हीं से सुना। शमशेर जी का उनसे मिलने नांदगांव आते सुना। मैंने यह कहा भी है कि बीते हुए साल की तरफ 50 वर्षों तक मैं अपना दाहिना हाथ फैलाता हूँ और आने वाले पचास वर्षों तक मैं अपना बांयाँ हाथ फैलाता हूँ मैंने मुक्तिबोध को समीप से देखा और इस बीते पचास वर्ष और आने वाले पचास वर्ष में मैं मुक्तिबोध जी को अकेला पाता हूँ कि वे ही हैं और मुझे कोई दूसरा नहीं दिख रहा। मैं दूसरा नहीं देख पाया।
प्रश्न: मुक्तिबोध जी की बीमारी के
विषय में बताइए?
विनोद कुमार शुक्ल : मुक्तिबोध जी के साथ मैं किले के आसपास घूमता भी था। उन्हें टिपरिया होटल में चाय पीना बहुत अच्छा लगता था वे सिंगल चाय बुलवाते थे और कहते थे चाय बिलकुल गर्म देना और साथ में पानी भी। चाय पीने के पहले वे पानी जरूर पीते थे फिर गर्म-गर्म चाय एक दो लोगों ने कहा भी इतना गर्म चाय मत पिया करो दांत खराब हो जायेगें। वे चाय पीते मुझे भी पिलाते थे। एक-दो बार घूमने वे केवल नीम की पत्ती तोड़ने गए। रानी सागर की तरफ नीम के पेड़ थे नीचे के नीम की पत्तियों को मैं तोड़ लेता था ऊपर तोड़ नहीं पाता था तो मुक्तिबोध तोड़ते थे, वे मुझसे लंबे थे। उनके पैरों में एग्जिमा था। नीम की पत्तियों को पीस कर उसका लेप लगाते थे कोमल पत्तियों को पीस कर उसकी गोलियाँ भी खाते थे। वे एग्जिमा से बहुत परेशान थे।
जबलपुर
में रहते हुए उनके गिर पड़ने की बात भी मैंने सुनी थी फिर यह भी सुना था जबलपुर में
ही रहते हुए कि उन्हें मेनोन्जाइटिस हो गया है। तब शायद मैं नौकरी करने लगा था। वे
भोपाल फिर दिल्ली गये मैं शायद ग्वालियर में था। नांदगांव से सोचो तब ग्वालियर
भोपाल इंदौर पास लगते थे लेकिन ग्वालियर से भोपाल दूर था। मैं जिन परिस्थितियों
में नौकरी कर रहा था उसमें छुट्टिया ले कर जाना भी कठिन था उनकी बीमारी के समय
उनसे मैं नहीं मिल सका लेकिन उनका बीमारी के समाचार रेडियों में आया करते थे तथा
समाचार पत्रों में। सुनता था किस तरह श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी और परसाई जी उनकी चिन्ता
कर रहे हैं। मुझे लगने लगा था जिस तरह उनकी फिक्र हो रही है और जैसी चिन्ता है और
अच्छे से अच्छा उनका इलाज हो रहा है वे अच्छे हो जायेगें।
सम्पर्क-
घनश्याम त्रिपाठी
मोबाईल - 07587159660
अंजन कुमार
मोबाईल - 09179356307
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
अंजन कुमार
मोबाईल - 09179356307
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
'एक जिन्दगी की कविता, कविताएं नहीं होती, केवल एक कविता होती है।' मुक्तिबोध की कविताओं पर यह बात कितनी सटीक बैठती है, वे वास्तव में जीवन भर एक ही कविता रचते रहे, और वह भी जैसे अधूरी छूट गई हो, इस संजीदा बात को विनोदकुमार शुक्ल जैसा बड़ा कवि ही समझ सकता है। बहुत महत्वपूर्ण बातचीत। बधाई।
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